ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 11 से 13 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge



श्री हरि


"बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 11 से 13 


"(श्लोक-११)


अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥


= च = दुर्योधन बाह्यदृष्टिसे अपनी सेनाके महारथियोंसे बोला, भवन्तः = आप, सर्वे, एव सब-के-सब लोग, सर्वेषु = सभी, अयनेषु = मोर्चोंपर, यथाभागम् अपनी-अपनी जगह, अवस्थिताः = दृढ़तासे स्थित रहते हुए, हि निश्चितरूपसे, भीष्मम् = पितामह भीष्मकी, एव ही, अभिरक्षन्तु = चारों ओरसे रक्षा करें।


व्याख्या-'अयनेषु च सर्वेषु..... भवन्तः सर्व एव हि' - जिन- जिन मोर्चोंपर आपकी नियुक्ति कर दी गयी है, आप सभी योद्धालोग उन्हीं मोर्चोंपर दृढ़तासे स्थित रहते हुए सब तरफसे, सब प्रकारसे भीष्मजीकी रक्षा करें।


भीष्मजीकी सब ओरसे रक्षा करें- यह कहकर दुर्योधन भीष्मजीको भीतरसे अपने पक्षमें लाना चाहता है। ऐसा कहनेका दूसरा भाव यह है कि जब भीष्मजी युद्ध करें, तब किसी भी व्यूहद्वारसे शिखण्डी उनके सामने न आ जाय-इसका आपलोग खयाल रखें। अगर शिखण्डी उनके सामने आ जायगा, तो भीष्मजी उसपर शस्त्रास्त्र नहीं चलायेंगे। कारण कि शिखण्डी पहले जन्ममें भी स्त्री था और इस जन्ममें भी पहले स्त्री था, पीछे पुरुष बना है। इसलिये भीष्मजी इसको स्त्री ही समझते हैं और उन्होंने शिखण्डीसे युद्ध न करनेकी प्रतिज्ञा कर रखी है। यह शिखण्डी शंकरके वरदानसे भीष्मजीको मारनेके लिये ही पैदा हुआ है। अतः जब शिखण्डीसे भीष्मजीकी रक्षा हो जायगी, तो फिर वे सबको मार देंगे, जिससे निश्चित ही हमारी विजय होगी। इस बातको लेकर दुर्योधन सभी महारथियोंसे भीष्मजीकी रक्षा करनेके लिये कह रहा है।


सम्बन्ध-द्रोणाचार्यके द्वारा कुछ भी न बोलनेके कारण दुर्योधनका मानसिक उत्साह भंग हुआ देखकर उसके प्रति भीष्मजीके किये हुए स्नेह- सौहार्दकी बात संजय आगेके श्लोकमें प्रकट करते हैं।


१२-१९ दोनों पक्षोंकी सेनाओंके शंखवादनका वर्णन


(श्लोक-१२)


तस्य सञ्जनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥


= सञ्जनयन् = तस्य = उस (दुर्योधन) के, हर्षम् (हृदयमें) हर्ष, उत्पन्न करते हुए, कुरुवृद्धः कौरवोंमें वृद्ध, प्रतापवान् = प्रभावशाली, पितामहः = पितामह भीष्मने, सिंहनादम् = सिंहके समान, विनद्य = गरजकर, उच्चैः जोरसे, शङ्खम् = शंख, दध्मौ = बजाया ।


व्याख्या'तस्य सञ्जनयन् हर्षम्'- यद्यपि दुर्योधनके हृदयमें हर्ष होना शंखध्वनिका कार्य है और शंखध्वनि कारण है, इसलिये यहाँ शंखध्वनिका वर्णन पहले और हर्ष होनेका वर्णन पीछे होना चाहिये अर्थात् यहाँ 'शंख बजाते हुए दुर्योधनको हर्षित किया'- ऐसा कहा जाना चाहिये। परन्तु यहाँ ऐसा न कहकर यही कहा है कि 'दुर्योधनको हर्षित करते हुए भीष्मजीने शंख बजाया'। कारण कि ऐसा कहकर संजय यह भाव प्रकट कर रहे हैं कि पितामह भीष्मकी शंखवादन क्रियामात्रसे दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न हो ही जायगा। भीष्मजीके इस प्रभावको द्योतन करनेके लिये ही संजय आगे 'प्रतापवान्' विशेषण देते हैं।


'कुरुवृद्धः' - यद्यपि कुरुवंशियोंमें आयुकी दृष्टिसे भीष्मजीसे भी अधिक वृद्ध बालीक थे (जो कि भीष्मजीके पिता शान्तनुके छोटे भाई थे), तथापि कुरुवंशियोंमें जितने बड़े-बूढ़े थे, उन सबमें भीष्मजी धर्म और ईश्वरको विशेषतासे जाननेवाले थे। अतः ज्ञानवृद्ध होनेके कारण संजय भीष्मजीके लिये 'कुरुवृद्धः' विशेषण देते हैं।


'प्रतापवान्'- भीष्मजीके त्यागका बड़ा प्रभाव था। वे कनक- कामिनीके त्यागी थे अर्थात् उन्होंने राज्य भी स्वीकार नहीं किया और विवाह भी नहीं किया। भीष्मजी अस्त्र-शस्त्रको चलानेमें बड़े निपुण थे और शास्त्रके भी बड़े जानकार थे। उनके इन दोनों गुणोंका भी लोगोंपर बड़ा प्रभाव था।


जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्यके लिये काशिराजकी कन्याओंको स्वयंवरसे हरकर ला रहे थे, तब वहाँ स्वयंवरके लिये इकट्ठे हुए सब क्षत्रिय उनपर टूट पड़े। परन्तु अकेले भीष्मजीने उन सबको हरा दिया। जिनसे भीष्म अस्त्र-शस्त्रकी विद्या पढ़े थे, उन गुरु परशुरामजीके सामने भी उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं की। इस प्रकार शस्त्रके विषयमें उनका क्षत्रियोंपर बड़ा प्रभाव था।


जब भीष्म शर-शय्यापर सोये थे, तब भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराजसे कहा कि 'आपको धर्मके विषयमें कोई शंका हो तो भीष्मजीसे पूछ लें; क्योंकि शास्त्रज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है अर्थात् भीष्मजी इस लोकसे जा रहे हैं।*'


* तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुरंधरे । ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात् त्वां चोदयाम्यहम् ।।


(महाभारत, शान्ति० ४६।२३)


इस प्रकार शास्त्रके विषयमें उनका दूसरोंपर बड़ा प्रभाव था।


'पितामहः' - इस पदका आशय यह मालूम देता है कि दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे कही गयी बातोंका द्रोणाचार्यने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने यही समझा कि दुर्योधन चालाकीसे मेरेको ठगना चाहता है, इसलिये वे चुप ही रहे। परन्तु पितामह (दादा) होनेके नाते भीष्मजीको दुर्योधनकी चालाकीमें उसका बचपना दीखता है। अतः पितामह भीष्म द्रोणाचार्यके समान चुप न रहकर वात्सल्यभावके कारण दुर्योधनको हर्षित करते हुए शंख बजाते हैं।


'सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ' जैसे सिंहके गर्जना करनेपर हाथी आदि बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं, ऐसे ही गर्जना करनेमात्रसे सभी भयभीत हो जायँ और दुर्योधन प्रसन्न हो जाय-इसी भावसे भीष्मजीने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।


परिशिष्ट भाव-दुर्योधनके साथ द्रोणाचार्यका विद्याका सम्बन्ध था और भीष्मजीका जन्मका अर्थात् कौटुम्बिक सम्बन्ध था। जहाँ विद्याका सम्बन्ध होता है, वहाँ पक्षपात नहीं होता, पर जहाँ कौटुम्बिक सम्बन्ध होता है, वहाँ स्नेहवश पक्षपात हो जाता है। अतः दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे कहे गये वचन सुनकर द्रोणाचार्य चुप रहे, जिससे दुर्योधनका मानसिक उत्साह भंग हो गया। परन्तु दुर्योधनको उदास देखकर कौटुम्बिक स्नेहके कारण भीष्मजी शंख बजाते हैं।


सम्बन्ध-पितामह भीष्मके द्वारा शंख बजानेका परिणाम क्या हुआ, इसको संजय आगेके श्लोकमें कहते हैं।


(श्लोक-१३)

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः । सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥


ततः = उसके बाद, शङ्खाः शंख, च और, भेर्यः = भेरी (नगाड़े), च = तथा, पणवानकगोमुखाः = ढोल मृदंग और नरसिंघे बाजे, सहसा एक साथ, एव ही, अभ्यहन्यन्त = बज उठे (उनका), सः = वह, शब्दः शब्द, तुमुलः = बड़ा भयंकर, अभवत् = हुआ ।


व्याख्या-'ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ' - यद्यपि भीष्मजीने युद्धारम्भकी घोषणा करनेके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था, तथापि कौरव-सेनाने भीष्मजीके शंखवादनको युद्धकी घोषणा ही समझा। अतः भीष्मजीके शंख बजानेपर कौरव-सेनाके शंख आदि सब बाजे एक साथ बज उठे।


'शंख' समुद्रसे उत्पन्न होते हैं। ये ठाकुरजीकी सेवा-पूजामें रखे जाते हैं और आरती उतारने आदिके काममें आते हैं। मांगलिक कार्योंमें तथा युद्धके आरम्भमें ये मुखसे फूँक देकर बजाये जाते हैं। 'भेरी' नाम नगाड़ोंका है (जो बड़े नगाड़े होते हैं, उनको नौबत कहते हैं)। ये नगाड़े लोहेके बने हुए और भैंसेके चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं, तथा लकड़ीके डंडेसे बजाये जाते हैं। ये मन्दिरोंमें एवं राजाओंके किलोंमें रखे जाते हैं। उत्सव और मांगलिक कार्योंमें ये विशेषतासे बजाये जाते हैं। राजाओंके यहाँ ये रोज बजाये जाते हैं। 


'पणव' नाम ढोलका है। ये लोहेके अथवा लकड़ीके बने हुए और  बकरेके चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं तथा हाथसे या लकड़ीके डंडेसे बजाये जाते हैं। ये आकारमें ढोलकीकी तरह होनेपर भी ढोलकीसे बड़े होते हैं। कार्यके आरम्भमें पणवोंको बजाना गणेशजीके पूजनके समान मांगलिक माना जाता है। 'आनक' नाम मृदंगका है। इनको पखावज भी कहते हैं। आकारमें ये लकड़ीकी बनायी हुई ढोलकीके समान होते हैं। ये मिट्टीके बने हुए और चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं तथा हाथसे बजाये जाते हैं। 'गोमुख' नाम नरसिंघेका है। ये आकारमें साँपकी तरह टेढ़े होते हैं और इनका मुख गायकी तरह होता है। ये मुखकी फूँकसे बजाये जाते हैं।


'सहसैवाभ्यहन्यन्त ' * - कौरव सेनामें उत्साह बहुत था।


* कर्मको अत्यन्त सुगमतापूर्वक द्योतन करनेके लिये जहाँ कर्म आदिको ही कर्ता बना दिया जाता है, उसको 'कर्मकर्तृ' प्रयोग कहते हैं। जैसे कोई लकड़ीको चीर रहा है, तो इस कर्मको सुगम बतानेके लिये 'लकड़ी चीरी जा रही है' ऐसा प्रयोग किया जाता है। ऐसे ही यहाँ 'बाजे बजाये गये' ऐसा प्रयोग होना चाहिये; परन्तु बाजे बजानेमें सुगमता बतानेके लिये, सेनाका उत्साह दिखानेके लिये 'बाजे बज उठे' ऐसा प्रयोग किया गया है।


इसलिये पितामह भीष्मका शंख बजते ही कौरव सेनाके सब बाजे अनायास ही एक साथ बज उठे। उनके बजनेमें देरी नहीं हुई तथा उनको बजानेमें परिश्रम भी नहीं हुआ।


'स शब्दस्तुमुलोऽभवत् '- अलग-अलग विभागों में,


टुकड़ियोंमें खड़ी हुई कौरव-सेनाके शंख आदि बाजोंका शब्द बड़ा भयंकर हुआ अर्थात् उनकी आवाज बड़ी जोरसे गूँजती रही। सम्बन्ध-इस अध्यायके आरम्भमें ही धृतराष्ट्रने संजयसे पूछा था कि


युद्धक्षेत्रमें मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? अतः संजयने दूसरे श्लोकसे


तेरहवें श्लोकतक 'धृतराष्ट्रके पुत्रोंने क्या किया'- इसका उत्तर दिया। अब आगेके श्लोकसे संजय 'पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया' - इसका उत्तर देते हैं।"


ऐसी ही और वीडियो के लिए हमसे जुड़े रहिए, और आपका आशीर्वाद और सहयोग बनाए रखे। अगर हमारा प्रयास आपको पसंद आया तो चैनल को सब्सक्राइब करें और अपने स्नेहीजनों को भी शेयर करें।


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण || 

Comments

Popular posts from this blog

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 34 - 🧠 मन, बुद्धि और भक्ति से पाओ भगवान को!