ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 9 से 10 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 9 से 10
"(श्लोक-९)
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥
अन्ये = इनके अतिरिक्त, बहवः बहुत-से, शूराः = शूरवीर हैं (जिन्होंने), मदर्थे = मेरे लिये, त्यक्तजीविताः = अपने जीनेकी इच्छाका भी त्याग कर दिया है, च और, नानाशस्त्रप्रहरणाः = जो अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको चलाने वाले हैं (तथा जो), सर्वे = सब-के-सब, युद्धविशारदाः = युद्धकलामें अत्यन्त चतुर हैं।
व्याख्या-'अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ' - मैंने अभीतक अपनी सेनाके जितने शूरवीरोंके नाम लिये हैं, उनके अतिरिक्त भी हमारी सेनामें बालीक, शल्य, भगदत्त, जयद्रथ आदि बहुत-से शूरवीर महारथी हैं, जो मेरी भलाईके लिये, मेरी ओरसे लड़नेके लिये अपने जीनेकी इच्छाका त्याग करके यहाँ आये हैं। वे मेरी विजयके लिये मर भले ही जायँ, पर युद्धसे हटेंगे नहीं। उनकी मैं आपके सामने क्या कृतज्ञता प्रकट करूँ ?
'नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः' - ये सभी लोग हाथमें रखकर प्रहार करनेवाले तलवार, गदा, त्रिशूल आदि नाना प्रकारके शस्त्रोंकी कलामें निपुण हैं; और हाथसे फेंककर प्रहार करनेवाले बाण, तोमर, शक्ति आदि अस्त्रोंकी कलामें भी निपुण हैं। युद्ध कैसे करना चाहिये; किस तरहसे, किस पैंतरेसे और किस युक्तिसे युद्ध करना चाहिये; सेनाको किस तरह खड़ी करनी चाहिये आदि युद्धकी कलाओंमें भी ये बड़े निपुण हैं, कुशल हैं।
सम्बन्ध-दुर्योधनकी बातें सुनकर जब द्रोणाचार्य कुछ भी नहीं बोले, तब अपनी चालाकी न चल सकनेसे दुर्योधनके मनमें क्या विचार आता है- इसको संजय आगेके श्लोकमें कहते हैं *।
* संजय व्यासप्रदत्त दिव्य दृष्टिसे सैनिकोंके मनमें आयी बातको भी जान लेनेमें समर्थ थे-
प्रकाशं वाप्रकाशं वा दिवा वा यदि वा निशि । मनसा चिन्तितमपि सर्वं वेत्स्यति सञ्जयः ।।
(श्लोक-१०)
(महाभारत, भीष्म० २।११)
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् । पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
अस्माकम् = हमारी, तत् = वह, बलम् = सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें), अपर्याप्तम् = अपर्याप्त है असमर्थ है (क्योंकि), भीष्माभिरक्षितम् = उसके संरक्षक (उभयपक्षपाती) भीष्म हैं, तु = परन्तु, एतेषाम् = इन पाण्डवोंकी, इदम् = यह, बलम् = सेना (हमपर विजय करनेमें), पर्याप्तम् = पर्याप्त है, समर्थ है; (क्योंकि ), भीमाभिरक्षितम् = इसके संरक्षक (निजसेनापक्षपाती) भीमसेन हैं।
द्रोणाचार्यको चुप देखकर दुर्योधनके मनमें विचार हुआ कि वास्तवमें-
व्याख्या अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ' - अधर्म-अन्यायके कारण दुर्योधनके मनमें भय होनेसे वह अपनी सेनाके विषयमें सोचता है कि हमारी सेना बड़ी होनेपर भी अर्थात् पाण्डवोंकी अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक होनेपर भी पाण्डवोंपर विजय प्राप्त करनेमें है तो असमर्थ ही! कारण कि हमारी सेनामें मतभेद है। उसमें इतनी एकता (संगठन), निर्भयता, निःसंकोचता नहीं है, जितनी कि पाण्डवोंकी सेनामें है। हमारी सेनाके मुख्य संरक्षक पितामह भीष्म उभयपक्षपाती हैं अर्थात् उनके भीतर कौरव और पाण्डव-दोनों सेनाओंका पक्ष है। वे कृष्णके बड़े भक्त हैं। उनके हृदयमें युधिष्ठिरका बड़ा आदर है। अर्जुनपर भी उनका बड़ा स्नेह है। इसलिये वे हमारे पक्षमें रहते हुए भी भीतरसे पाण्डवोंका भला चाहते हैं। वे ही भीष्म हमारी सेनाके मुख्य सेनापति हैं। ऐसी दशामें हमारी सेना पाण्डवोंके मुकाबलेमें कैसे समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती।
'पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्'- परन्तु यह जो पाण्डवोंकी सेना है, यह हमारेपर विजय करनेमें समर्थ है। कारण कि इनकी सेनामें मतभेद नहीं है, प्रत्युत सभी एकमत होकर संगठित हैं। इनकी सेनाका संरक्षक बलवान् भीमसेन है, जो कि बचपनसे ही मेरेको हराता आया है। यह अकेला ही मेरे सहित सौ भाईयो को मारनेकी प्रतिज्ञा कर चुका है अर्थात् यह हमारा नाश करनेपर तुला हुआ है! इसका शरीर वज्रके समान मजबूत है। इसको मैंने जहर पिलाया था, तो भी यह मरा नहीं। ऐसा यह भीमसेन पाण्डवोंकी सेनाका संरक्षक है, इसलिये यह सेना वास्तवमें समर्थ है, पूर्ण है।
यहाँ एक शंका हो सकती है कि दुर्योधनने अपनी सेनाके संरक्षकके लिये भीष्मजीका नाम लिया, जो कि सेनापतिके पदपर नियुक्त हैं। परन्तु पाण्डव-सेनाके संरक्षकके लिये भीमसेनका नाम लिया, जो कि सेनापति नहीं हैं। इसका समाधान यह है कि दुर्योधन इस समय सेनापतियोंकी बात नहीं सोच रहा है; किन्तु दोनों सेनाओंकी शक्तिके विषयमें सोच रहा है कि किस सेनाकी शक्ति अधिक है? दुर्योधनपर आरम्भसे ही भीमसेनकी शक्तिका, बलवत्ताका अधिक प्रभाव पड़ा हुआ है। अतः वह पाण्डव-सेनाके संरक्षकके लिये भीमसेनका ही नाम लेता है।
विशेष बात
अर्जुन कौरव-सेनाको देखकर किसीके पास न जाकर हाथमें धनुष उठाते हैं (गीता - पहले अध्यायका बीसवाँ श्लोक), पर दुर्योधन पाण्डवसेनाको देखकर द्रोणाचार्यके पास जाता है और उनसे पाण्डवोंकी व्यूहरचनायुक्त सेनाको देखनेके लिये कहता है। इससे सिद्ध होता है कि दुर्योधनके हृदयमें भय बैठा हुआ है *।
* कौरवोंकी सेनाके शंख आदि बाजे बजे, तब उनके शब्दका पाण्डव-सेनापर कुछ भी असर नहीं पड़ा। परन्तु जब पाण्डवोंकी सेनाके शंख बजे, तब उनके शब्दसे दुर्योधन आदिके हृदय विदीर्ण हो गये (१। १३,१९)। इससे सिद्ध होता है कि अधर्म-अन्यायका पक्ष लेनेके कारण दुर्योधन आदिके हृदय कमजोर हो गये थे और उनमें भय बैठा हुआ था।
भीतरमें भय होनेपर भी वह चालाकीसे द्रोणाचार्यको प्रसन्न करना चाहता है, उनको पाण्डवोंके विरुद्ध उकसाना चाहता है। कारण कि दुर्योधनके हृदयमें अधर्म है, अन्याय है, पाप है। अन्यायी, पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख-शान्तिसे नहीं रह सकता - यह नियम है। परन्तु अर्जुनके भीतर धर्म है, न्याय है। इसलिये अर्जुनके भीतर अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये चालाकी नहीं है, भय नहीं है; किन्तु उत्साह है, वीरता है। तभी तो वे वीरतामें आकर सेना- निरीक्षण करनेके लिये भगवान् को आज्ञा देते हैं कि 'हे अच्युत ! दोनों सेनाओंके मध्यमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये' (पहले अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। इसका तात्पर्य है कि जिसके भीतर नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है, अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतरसे खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता। परन्तु जिसके भीतर अपने धर्मका पालन है और भगवान् का आश्रय है, वह कभी भयभीत नहीं होता। उसका बल सच्चा होता है। वह सदा निश्चिन्त और निर्भय रहता है। अतः अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंको अधर्म, अन्याय आदिका सर्वथा त्याग करके और एकमात्र भगवान् का आश्रय लेकर भगवत्प्रीत्यर्थ अपने धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। भौतिक सम्पत्तिको महत्त्व देकर और संयोगजन्य सुखके प्रलोभनमें फँसकर कभी अधर्मका आश्रय नहीं लेना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंसे मनुष्यका कभी हित नहीं होता, प्रत्युत अहित ही होता है।
परिशिष्ट भाव-अर्जुनने अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित नारायणी सेनाको छोड़कर निःशस्त्र भगवान् श्रीकृष्णको स्वीकार किया था * और दुर्योधनने भगवान् को छोड़कर उनकी नारायणी सेनाको स्वीकार किया था।
* एवमुक्तस्तु कृष्णेन कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः । अयुध्यमानं संग्रामे वरयामास केशवम् ॥
(महा, उद्योग० ७। २१)
'श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर कुन्तीपुत्र धनंजयने संग्रामभूमिमें (अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित एक अक्षौहिणी नारायणी सेनाको छोड़कर) युद्ध न करनेवाले निःशस्त्र उन भगवान् श्रीकृष्णको ही (अपना सहायक) चुना।'
तात्पर्य है कि अर्जुनकी दृष्टि भगवान् पर थी और दुर्योधनकी दृष्टि वैभवपर थी। जिसकी दृष्टि भगवान् पर होती है, उसका हृदय बलवान् होता है; क्योंकि भगवान् का बल सच्चा है। परन्तु जिसकी दृष्टि सांसारिक वैभवपर होती है, उसका हृदय कमजोर होता है; क्योंकि संसारका बल कच्चा है।
सम्बन्ध-अब दुर्योधन पितामह भीष्मको प्रसन्न करनेके लिये अपनी सेनाके सभी महारथियोंसे कहता है-"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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