ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 11 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge




श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 11


"श्रीभगवानुवाच


(श्लोक-११)


अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।


गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।


श्रीभगवान् बोले -


त्वम् = तुमने, अशोच्यान् = शोक न करनेयोग्यका, अन्वशोचः = शोक किया है, च = और, प्रज्ञावादान् = विद्वत्ता (पण्डिताई) की बातें, भाषसे = कह रहे हो (परन्तु), गतासून् = जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये, च और, अगतासून् जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये, पण्डिताः = पण्डितलोग, न, अनुशोचन्ति = शोक नहीं करते। 


व्याख्या [मनुष्यको शोक तब होता है, जब वह संसारके प्राणी-पदार्थोंमें दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्णके हैं और ये हमारे वर्णके नहीं हैं; ये हमारे आश्रमके हैं और ये हमारे आश्रमके नहीं हैं; ये हमारे पक्षके हैं और ये हमारे पक्षके नहीं हैं। जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है। इन ममता, कामना आदिसे ही शोक, चिन्ता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदिसे पैदा न होता हो- यह सिद्धान्त है।


गीतामें सबसे पहले धृतराष्ट्रने कहा कि मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने युद्धभूमिमें क्या किया ? यद्यपि पाण्डव धृतराष्ट्रको अपने पितासे भी अधिक आदर-दृष्टिसे देखते थे, तथापि धृतराष्ट्रके मनमें अपने पुत्रोंके प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रोंमें और पाण्डवोंमें भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं।


जो ममता धृतराष्ट्रमें थी, वही ममता अर्जुनमें भी पैदा हुई। परन्तु अर्जुनकी वह ममता धृतराष्ट्रकी ममताके समान नहीं थी। अर्जुनमें धृतराष्ट्रकी तरह पक्षपात नहीं था; अतः वे सभीको स्वजन कहते हैं - 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (१। २८), और दुर्योधन आदिको भी स्वजन कहते हैं- 'स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव' (१। ३७)। तात्पर्य है कि अर्जुनकी सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें ममता थी और उस ममताके कारण ही उनके मरनेकी आशंकासे अर्जुनको शोक हो रहा था। इस शोकको मिटानेके लिये भगवान् ने अर्जुनको गीताका उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्लोकसे आरम्भ होता है। इसके अन्तमे भगवान् इसी शोकको अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू


केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर- 'मा शुचः' (१८। ६६)। कारण कि संसारका आश्रय लेनेसे ही शोक होता है और अनन्यभावसे मेरा आश्रय लेनेसे तेरे शोक, चिन्ता आदि सब मिट जायँगे।॥


'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्' - संसारमात्रमें दो चीजें हैं- सत् और असत्, शरीरी और शरीर । इन दोनोंमें शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशीका कभी विनाश नहीं होता, इसलिये उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशीका विनाश होता ही है, वह एक क्षण भी स्थायीरूपसे नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरीको लेकर बन सकता है और न शरीरोंको लेकर ही बन सकता है। शोकके होनेमें तो केवल अविवेक (मूर्खता) ही कारण है। 


मनुष्यके सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदिके रूपमें जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्धका अर्थात् अपने किये हुए कर्मोंका ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरम्भ और अन्त होता है अर्थात् वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अन्तमें भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदिमें और अन्तमें नहीं होती, वह बीचमें एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे ? और मिटती है तो स्थायी कैसे ? ऐसी प्रतिक्षण मिटनेवाली अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है।


'प्रज्ञावादांश्च भाषसे'- एक तरफ तो तू पण्डिताईकी बातें बघार रहा है और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तवमें तू पण्डित नहीं है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं, वे किसीके लिये भी कभी शोक नहीं करते।


कुलका नाश होनेसे कुल-धर्म नष्ट हो जायगा। धर्मके नष्ट होनेसे स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी, जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियोंको और उनके कुलको नरकोंमें ले जानेवाला होगा। पिण्ड और पानी न मिलनेसे उनके पितरोंका भी पतन हो जायगा- ऐसी तेरी पण्डिताईकी बातोंसे भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीरी स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघाती और कुलके नरकोंमें जानेका भय नहीं होता, पितरोंका पतन होनेकी चिन्ता नहीं होती। अगर तुझे कुलकी और पितरोंकी चिन्ता होती है, उनका पतन होनेका भय होता है, तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और उसमें रहनेवाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरोंके नाशको लेकर तेरा शोक करना अनुचित है।


वियोग 'गतासूनगतासुंश्च'- सबके पिण्ड-प्राणका अवश्यम्भावी है। उनमेंसे किसीके पिण्ड-प्राणका वियोग हो गया है और किसीका होनेवाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। तुमने जो शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है।


जो मर गये हैं, उनके लिये शोक करना तो महान् गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियोंके लिये शोक करनेसे उन प्राणियोंको दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्माके लिये जो पिण्ड और जल दिया जाता है, वह उसको परलोकमें मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्माके लिये जो कफ और आँसू बहाते हैं, वे मृतात्माको परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं*।


* (१) श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः । तस्मान्न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याश्च शक्तितः ॥


(पंचतन्त्र, मित्रभेद ३६५)


'मृतात्माको अपने बन्धु-बान्धवोंके द्वारा त्यक्त कफयुक्त आँसुओंको विवश होकर खाना-पीना पड़ता है। इसलिये रोना नहीं चाहिये, प्रत्युत अपनी शक्तिके अनुसार मृतात्माकी और्ध्वदैहिक क्रिया करनी चाहिये।'


(२) मृतानां बान्धवा ये तु मुञ्चन्त्यश्रूणि भूतले। पिबन्त्यश्रूणि तान्यद्धा मृताः प्रेताः परत्र वै ॥


(स्कन्दपुराण, ब्राह्म० सेतु० ४८।४२)


'मृतात्माके बन्धु-बान्धव भूतलपर जिन आँसुओंका त्याग करते हैं, उन आँसुओंको मृतात्मा परलोकमें पीते हैं।'


जो अभी जी रहे हैं, उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये, प्रबन्ध करना चाहिये। उनकी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा ! उनकी सहायता कौन करेगा ! आदि चिन्ता-शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिन्ता-शोक करनेसे कोई लाभ नहीं है।


मेरे शरीरके अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है आदि विकारोंके पैदा होनेमें मूल कारण है- शरीरके साथ एकता मानना। कारण कि शरीरके साथ एकता माननेसे ही शरीरका पालन-पोषण करनेवालोंके साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपनके कारण ही कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे अर्जुनके मनमें चिन्ता- शोक हो रहे हैं, तथा चिन्ता-शोकसे ही अर्जुनके शरीरमें उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं। इसमें भगवान् ने 'गतासून्' और 'अगतासून्' के शोकको ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं, वे 'गतासून्' हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे 'अगतासून्' हैं। 'पिण्ड और जल न मिलनेसे पितरोंका पतन हो जाता है' (पहले अध्यायका बयालीसवाँ श्लोक) - यह अर्जुनकी 'गतासून्' की चिन्ता है और 'जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं' (पहले अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक) - यह अर्जुनकी 'अगतासून्' की चिन्ता है। ये दोनों चिन्ताएँ शरीरको लेकर ही हो रही हैं; अतः ये दोनों चिन्ताएँ धातुरूपसे एक ही हैं। कारण कि 'गतासून्' और 'अगतासून्' दोनों ही नाशवान् हैं।


'गतासून्' और 'अगतासून्' - इन दोनोंके लिये कर्तव्य-कर्म करना चिन्ताकी बात नहीं है। 'गतासून्' के लिये पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना-यह कर्तव्य है और 'अगतासून्' के लिये व्यवस्था कर देना, निर्वाहका प्रबन्ध कर देना - यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिन्ताका विषय नहीं होता, प्रत्युत विचारका विषय होता है। विचारसे कर्तव्यका बोध होता है और चिन्तासे विचार नष्ट होता है।


'नानुशोचन्ति पण्डिताः' - सत्-असत्-विवेकवती बुद्धिका नाम 'पण्डा' है। वह 'पण्डा' जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात् जिनको सत्-असत् का स्पष्टतया विवेक हो गया है, वे पण्डित हैं। ऐसे पण्डितोंमें सत्-असत् को लेकर शोक नहीं होता; क्योंकि सत् को सत् माननेसे भी शोक नहीं होता और असत् को असत् माननेसे भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्-स्वरूप है और बदलनेवाला शरीर असत्-स्वरूप है। असत् को सत् मान लेनेसे ही शोक होता है अर्थात् ये शरीर आदि ऐसे ही बने रहें, मरें नहीं- इस बातको लेकर ही शोक होता है। सत् को लेकर कभी चिन्ता-शोक होते ही नहीं।


परिशिष्ट भाव-एक विभाग शरीरका है और एक विभाग शरीरी (शरीरवाले) का है। दोनों एक-दूसरेसे सर्वथा सम्बन्धरहित हैं। दोनोंका स्वभाव ही अलग-अलग है। एक जड़ है, एक चेतन। एक नाशवान् है, एक अविनाशी, एक विकारी है, एक निर्विकार। एकमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता है और एक अनन्तकालतक ज्यों-का-त्यों ही रहता है- 'भूतग्रामः स एवायम्' (गीता ८। १९), 'सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलिये न व्यथन्ति च' (गीता १४। २)।


शरीर और शरीरी- दोनों ही अशोच्य हैं। शरीरका निरन्तर विनाश होता है; अतः उसके लिये शोक करना नहीं बनता और शरीरीका विनाश कभी होता ही नहीं; अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। शोक केवल मूर्खतासे होता है। शरीरकी निरन्तर सहजनिवृत्ति है और शरीरी निरन्तर सबको प्राप्त है। शरीर और शरीरीके इस विभागको जाननेवाले विवेकी मनुष्य मृत अथवा जीवित, किसी भी प्राणीके लिये कभी शोक नहीं करते। उनकी दृष्टिमें बदलनेवाले शरीरका विभाग ही अलग है और न बदलनेवाले शरीरी अर्थात् स्वरूपकी सत्ताका विभाग ही अलग है।


गीताका उपदेश शरीर और शरीरीके भेदसे आरम्भ होता है। दूसरे दार्शनिक ग्रन्थ तो आत्मा और अनात्माका इदंतासे वर्णन करते हैं, पर गीता इदंतासे आत्मा-अनात्माका वर्णन न करके सबके अनुभवके अनुसार देह-देही, शरीर-शरीरीका वर्णन करती है। यह गीताकी विलक्षणता है! साधक अपना कल्याण चाहता है तो उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि 'मैं कौन हूँ'। अर्जुनने भी अपने कल्याणका उपाय पूछा है- 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (२।७)। देह और देहीका भेद स्वीकार करनेसे ही कल्याण हो सकता है। जबतक 'मैं देह हूँ'- यह भाव रहेगा, तबतक कितना ही उपदेश सुनते रहें, सुनाते रहें और साधन भी करते रहें, कल्याण नहीं होगा।


जो वस्तु अपनी न हो, उसको अपना मान लेना और जो वस्तु वास्तवमें अपनी हो, उसको अपना न मानना बहुत बड़ी भूल है। अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें। शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा निरन्तर हमारे साथ रहते हैं। कारण कि शरीरकी सजातीयता संसारके साथ है और हमारी अर्थात् शरीरीकी सजातीयता परमात्माके साथ है। इसलिये शरीरको अपना मानना और परमात्माको अपना न मानना सबसे बड़ी भूल है। इस भूलको मिटानेके लिये भगवान् गीतामें सबसे पहले शरीर-शरीरीके भेदका वर्णन करते हैं और साधकको उद्बोधन करते हैं कि जिसकी मृत्यु होती है, वह तुम नहीं हो अर्थात् तुम शरीर नहीं हो। तुम ज्ञाता (जाननेवाले) हो, शरीर ज्ञेय (जाननेमें आनेवाला) है। (गीता- तेरहवें अध्यायका पहला श्लोक) तुम सर्वदेशीय हो- 'नित्यः सर्वगतः' (गीता २। २४), 'येन सर्वमिदं ततम्' (गीता २। १७), शरीर एकदेशीय है। तुम चिन्मय लोकके निवासी हो, शरीर जड़ संसारका निवासी है। तुम मुझ परमात्माके अंश हो- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५। ७), शरीर प्रकृतिका अंश है - 'मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि' (गीता १५। ७)। तुम निरन्तर अमरतामें रहते हो, शरीर निरन्तर मृत्युमें रहता है। शरीरकी क्षतिसे तुम्हारी किंचिन्मात्र भी क्षति नहीं होती। अतः शरीरको लेकर तुम्हें शोक, चिन्ता, भय आदि नहीं होने चाहिये।


शरीरी किसी शरीरसे लिप्त नहीं है, इसलिये उसको सर्वव्यापी कहा गया है- 'सर्वगतः' (गीता २। २४), 'येन सर्वमिदं ततम्' (२। १७)। तात्पर्य हुआ कि साधकका स्वरूप सत्तामात्र है; अतः वास्तवमें वह शरीरी (शरीरवाला) नहीं है, प्रत्युत अशरीरी है। इसलिये भगवान् ने उसको अव्यक्त भी कहा है- 'अव्यक्तः' (२। २५), 'अव्यक्तादीनि भूतानि' (२। २८)। शरीर प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला और असत् है। असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है - 'नासतो विद्यते भावः' (२। १६)। जिसकी सत्ता विद्यमान नहीं है, ऐसे असत् शरीरको लेकर साधक शरीरी (शरीरवाला) कैसे हो सकता है ? इसलिये साधक शरीर भी नहीं है और शरीरी भी नहीं है। परन्तु इस प्रकरणमें भगवान् ने साधकोंको समझानेकी दृष्टिसे उस सत्तामात्र स्वरूपको 'शरीरी' (देही) नामसे कहा है। 'शरीरी' कहनेका तात्पर्य यही बताना है कि तुम शरीर नहीं हो।


जिस समय हम शरीर और शरीरीका विचार करते हैं, उस समय भी शरीर और शरीरी वैसे ही हैं और जिस समय विचार नहीं करते, उस समय भी वे वैसे ही हैं। विचार करनेसे वस्तुस्थितिमें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर साधकका मोह मिट जाता है, उसका मनुष्यजन्म सफल हो जाता है।


मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है। अतः 'मैं शरीर नहीं हूँ'- यह विवेक मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है। शरीरको मैं-मेरा मानना मनुष्यबुद्धि नहीं है, प्रत्युत पशुबुद्धि है। इसलिये श्रीशुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित् से कहते हैं-


त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि । न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नक्ष्यसि ॥


(श्रीमद्भा० १२।५।२)


'हे राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा। जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जायगा, ऐसे तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगे- यह बात नहीं है।'


सम्बन्ध-सत्-तत्त्वको लेकर शोक करना अनुचित क्यों है- इस शंकाके समाधानके लिये आगेके दो श्लोक कहते हैं।"


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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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