ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 13 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 13
"(श्लोक-१३)
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥देहिनः = देहधारीके, अस्मिन् इस, देहे मनुष्यशरीरमें, यथा = जैसे, कौमारम् = बालकपन, यौवनम् = जवानी (और), जरा = वृद्धावस्था (होती है), तथा ऐसे ही, देहान्तरप्राप्तिः = दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है, तत्र उस विषयमें, धीरः = धीर मनुष्य, न, मुह्यति = मोहित नहीं होता।
व्याख्या- 'देहिनोऽस्मिन्यथा देहे * कौमारं यौवनं जरा'- शरीरधारीके शरीरमें पहले बाल्यावस्था आती है, फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीरमें कभी एक अवस्था नहीं रहती, उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
* कुमार, युवा और वृद्धावस्था तो मात्र शरीरधारियोंके शरीरोंकी होती है; परन्तु यहाँ 'अस्मिन् देहे' पदोंमें 'देह' शब्द मनुष्य-शरीरका वाचक मानना चाहिये।
यहाँ 'शरीरधारीके इस शरीरमें'- ऐसा कहनेसे सिद्ध होता है कि शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीरमें बालकपन आदि अवस्थाओंका जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरीमें नहीं है।
'तथा देहान्तरप्राप्तिः' - जैसे शरीरकी कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही देहान्तरकी अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है। जैसे स्थूलशरीर बालकसे जवान एवं जवानसे बूढ़ा हो जाता है, तो इन अवस्थाओंके परिवर्तनको लेकर कोई शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरी एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है, तो इस विषयमें भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण- शरीरके रहते-रहते देहान्तरकी प्राप्ति होती है अर्थात् जैसे बालकपन, जवानी आदि स्थूल-शरीरकी अवस्थाएँ हैं, ऐसे देहान्तरकी प्राप्ति (मृत्युके बाद दूसरा शरीर धारण करना) सूक्ष्म और कारण-शरीरकी अवस्था है।स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओंका परिवर्तन होता है- यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो अवस्थाओंकी तरह स्थूलशरीरमें भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्थामें जो शरीर था, वह युवावस्थामें नहीं है। वास्तवमें ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिस क्षणमें स्थूलशरीरका परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरमें भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, जो देहान्तररूपसे स्पष्ट देखनेमें आता है।
१-देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर स्थूलशरीर तो छूट जाता है, पर मुक्तिसे पहले सूक्ष्म और कारणशरीर नहीं छूटते। जबतक मुक्ति न हो तबतक सूक्ष्म और कारणशरीरके साथ सम्बन्ध बना रहता है।
अब विचार यह करना है कि स्थूलशरीरका तो हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म और कारण-शरीरका हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी नहीं होता, तो उनके परिवर्तनका ज्ञान हमें कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूलशरीरका ज्ञान उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण- शरीरका ज्ञान भी उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है। स्थूलशरीरकी 'जाग्रत्', सूक्ष्म शरीरकी 'स्वप्न' और कारण-शरीरकी 'सुषुप्ति' अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्थामें अपनेको स्वप्नमें बालक देखता है, युवावस्थामें स्वप्नमें युवा देखता है और वृद्धावस्थामें स्वप्नमें वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूलशरीरके साथ-साथ सूक्ष्मशरीरका भी परिवर्तन होता है। ऐसे ही सुषुप्ति-अवस्था बाल्यावस्थामें ज्यादा होती है, युवावस्थामें कम होती है और वृद्धावस्थामें वह बहुत कम हो जाती है; अतः इससे कारणशरीरका परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात, बाल्यावस्था और युवावस्थामें नींद लेनेपर शरीर और इन्द्रियोंमें जैसी ताजगी आती है, वैसी ताजगी वृद्धावस्थामें नींद लेनेपर नहीं आती अर्थात् वृद्धावस्थामें बाल्य और युवा अवस्था-जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीतिसे भी कारणशरीरका परिवर्तन सिद्ध होता है।
जिसको दूसरा-देवता, पशु, पक्षी आदिका शरीर मिलता है, उसको उस शरीरमें (देहाध्यासके कारण) 'मैं यही हूँ'- ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्मशरीरका परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारणशरीरमें स्वभाव (प्रकृति) रहता है, जिसको स्थूल दृष्टिसे आदत कहते हैं। वह आदत देवताकी और होती है तथा पशु-पक्षी आदिकी और होती है, तो यह कारणशरीरका परिवर्तन हो गया।
अगर शरीरी (देही) का परिवर्तन होता, तो अवस्थाओंके बदलनेपर भी 'मैं वही हूँ""- ऐसा ज्ञान नहीं होता। २-शास्त्रमें इस ज्ञानको 'प्रत्यभिज्ञा' कहा गया है- 'तत्तेदन्तावगाहि ज्ञानं प्रत्यभिज्ञा'।
परन्तु अवस्थाओंके बदलनेपर भी 'जो पहले बालक था, जवान था, वही मैं अब हूँ'- ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीरीमें अर्थात् स्वयंमें परिवर्तन नहीं हुआ है।
यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूलशरीरकी अवस्थाओंके बदलनेपर तो उनका ज्ञान होता है, पर शरीरान्तरकी प्राप्ति होनेपर पहलेके शरीरका ज्ञान क्यों नहीं होता ? पूर्वशरीरका ज्ञान न होनेमें कारण यह है कि मृत्यु और जन्मके समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्टके कारण बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जानेपर, अधिक वृद्धावस्था होनेपर बुद्धिमें पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही मृत्युकालमें तथा जन्मकालमें बहुत बड़ा धक्का लगनेपर पूर्वजन्मका ज्ञान नहीं रहता।
३-म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधीः ।
(श्रीमद्भा० ३। ३०। १८)
''मनुष्य रोते हुए स्वजनोंके बीच अत्यन्त वेदनासे अचेत होकर मृत्युको प्राप्त होता है।'
है।' (श्रीमद्भा० ३। ३१। २३) 'जन्मके समय उसके श्वासकी गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती
विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ॥
परन्तु जिसकी मृत्युमें ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात् शरीरकी अवस्थान्तरकी प्राप्तिकी तरह अनायास ही देहान्तरकी प्राप्ति हो जाती है, उसकी बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति रह सकती है।
४-ये मृताः सहसा मर्त्या जायन्ते सहसा पुनः । तेषां पौराणिकोऽभ्यासः कञ्चित् कालं हि तिष्ठति ।।
तस्माज्जातिस्मरा लोके जायन्ते बोधसंयुताः । तेषां विवर्धतां संज्ञा स्वप्नवत् सा प्रणश्यति ।।
(महाभारत, अनुशासन० १४५) अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तरकी प्राप्तिमें होता है, वैसा ज्ञान देहान्तरकी प्राप्तिमें नहीं होता; परन्तु 'मैं हूँ' इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे, सुषुप्ति (गाढ़-निद्रा) में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगनेपर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरेको कुछ पता नहीं रहा, तो 'कुछ पता नहीं रहा'- इसका ज्ञान तो है ही। सोनेसे पहले मैं जो था, वही मैं जगनेके बाद हूँ, तो सुषुप्तिके समय भी मैं वही था- इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान अखण्डरूपसे निरन्तर रहता है। अपनी सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता। शरीरधारीकी सत्ताका सद्भाव अखण्डरूपसे रहता है, तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त- अवस्थामें वह रहता है। हाँ, जीवन्मुक्त अवस्थामें उसको शरीरान्तरोंका ज्ञान भले ही न हो, पर मैं तीनों शरीरोंसे अलग हूँ- ऐसा अनुभव तो होता ही है।
'धीरस्तत्र न मुह्यति' - धीर वही है, जिसको सत्-असत् का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषयमें कभी मोहित नहीं होता, उसको कभी सन्देह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका संग है और गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती।
यहाँ 'तत्र' पदका अर्थ 'देहान्तर-प्राप्तिके विषयमें' नहीं है, प्रत्युत 'देह-देहीके विषयमें' है। तात्पर्य है कि देह क्या है? देही क्या है ? परिवर्तनशील क्या है? अपरिवर्तनशील क्या है? अनित्य क्या है ? नित्य क्या है? असत् क्या है? सत् क्या है? विकारी क्या है? अविकारी क्या है ? - इस विषयमें वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं- इस विषयमें उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असंगताका अखण्ड ज्ञान रहता है।
परिशिष्ट भाव - शरीर कभी एकरूप रहता ही नहीं और सत्ता कभी अनेकरूप होती ही नहीं। शरीर जन्मसे पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा तथा वर्तमानमें भी वह प्रतिक्षण मर रहा है। वास्तवमें गर्भमें आते ही शरीरके मरनेका क्रम (परिवर्तन) शुरू हो जाता है। बाल्यावस्था मर जाय तो युवावस्था आ जाती है, युवावस्था मर जाय तो वृद्धावस्था आ जाती है और वृद्धावस्था मर जाय तो देहान्तर-अवस्था अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति हो जाती है। ये सब अवस्थाएँ शरीरकी हैं। बाल, युवा और वृद्ध-ये तीन अवस्थाएँ स्थूलशरीरकी हैं और देहान्तरकी प्राप्ति सूक्ष्मशरीर तथा कारणशरीरकी है। परन्तु स्वरूपकी चिन्मय सत्ता इन सभी अवस्थाओंसे अतीत है। अवस्थाएँ बदलती हैं, स्वरूप वही रहता है। इस प्रकार शरीर-विभाग और सत्ता-विभागको अलग-अलग जाननेवाला तत्त्वज्ञ पुरुष कभी किसी अवस्थामें भी मोहित नहीं होता।
जीव अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये अनेक योनियोंमें जाता है, नरक और स्वर्गमें जाता है-ऐसा कहनेमात्रसे सिद्ध होता है कि चौरासी लाख योनियाँ छूट जाती हैं, स्वर्ग और नरक छूट जाते हैं, पर स्वयं (शरीरी) वही रहता है। योनियाँ (शरीर) बदलती हैं, जीव (शरीरी) नहीं बदलता। जीव एक रहता है, तभी तो वह अनेक योनियोंमें, अनेक लोकोंमें जाता है। जो अनेक योनियोंमें जाता है, वह स्वयं किसीके साथ लिप्त नहीं होता, कहीं नहीं फँसता। अगर वह लिप्त हो जाय, फँस जाय तो फिर चौरासी लाख योनियोंको कौन भोगेगा ? स्वर्ग और नरकमें कौन जायगा ? मुक्त कौन होगा ?
जन्मना और मरना हमारा धर्म नहीं है, प्रत्युत शरीरका धर्म है। हमारी आयु अनादि और अनन्त है, जिसके अन्तर्गत अनेक शरीर उत्पन्न होते और मरते रहते हैं। जैसे हम अनेक वस्त्र बदलते रहते हैं, पर वस्त्र बदलनेपर हम नहीं बदलते, प्रत्युत वे-के-वे ही रहते हैं (गीता-दूसरे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। ऐसे ही अनेक योनियोंमें जानेपर भी हमारी सत्ता नित्य-निरन्तर ज्यों-की-त्यों रहती है। तात्पर्य है कि हमारी स्वतन्त्रता और असंगता स्वतः सिद्ध है। हमारा जीवन किसी एक शरीरके अधीन नहीं है। असंग होनेके कारण ही हम अनेक शरीरोंमें जानेपर भी वही रहते हैं, पर शरीरके साथ संग मान लेनेके कारण हम अनेक शरीरोंको धारण करते रहते हैं। माना हुआ संग तो टिकता नहीं, पर हम नया-नया संग पकड़ते रहते हैं। अगर नया संग न पकड़ें तो मुक्ति (असंगता), स्वाधीनता स्वतः सिद्ध है।
सम्बन्ध-अनित्य वस्तु-शरीर आदिको लेकर जो शोक होता है, उसकी निवृत्तिके लिये कहते हैं-"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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