ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 19 से 20 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 19 से 20
"(श्लोक-१९) य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।
यः = जो मनुष्य, एनम् = इस (अविनाशी शरीरी) को, हन्तारम् = मारनेवाला, वेत्ति = मानता है, च और, यः = जो मनुष्य, एनम् = इसको, हतम् = मरा, मन्यते मानता है, तौ = वे, उभौ = दोनों ही (इसको), न = नहीं, विजानीतः जानते (क्योंकि), अयम् = यह, न = न, हन्ति मारता है (और), न न, हन्यते मारा जाता है।
व्याख्याय एनं * वेत्ति हन्तारम्' - जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता।
* यहाँ 'एनम्' पद अन्वादेशमें आया है। जिसका पहले वर्णन हो चुका है, उसको दुबारा कहना 'अन्वादेश' कहलाता है। पहले सत्रहवें श्लोकमें एक विषयको लेकर जिसका 'अस्य' पदसे वर्णन हुआ है, अब यहाँ दूसरे विषयको लेकर उसी तत्त्वको दुबारा कह रहे हैं। इसलिये यहाँ 'एनम्' पदका प्रयोग किया गया है।
कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्यायमें भगवान् ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं- ऐसा जो अनुभव
करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक)। तात्पर्य यह हुआ कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है, पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाली क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी
क्रियाका कर्ता नहीं है।
'यश्चैनं मन्यते हतम्' - जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है, ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति- विनाशशील होता है, वही मर सकता है।
'उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते'- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता।
यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है ? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्ट होनेवाला भी नहीं है। यह निर्विकाररूपसे नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये।
अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने- मारनेकी क्रियासे रहित बताया गया है। वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे रहित है।
परिशिष्ट भाव - यह शरीरी न तो किसीको मारता है और न किसीसे मारा ही जाता है- इसका तात्पर्य है कि शरीरी किसी क्रियाका कर्ता भी नहीं है तथा कर्म भी नहीं है और इसमें कोई विकार भी नहीं आता। जो मनुष्य शरीरकी तरह शरीरीको भी मारनेवाला तथा मरनेवाला मानते हैं, वे वास्तवमें शरीर और शरीरीके विवेकको महत्त्व नहीं देते, इसमें स्थित नहीं होते, प्रत्युत अविवेकको महत्त्व देते हैं।
सम्बन्ध - यह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है? इसके उत्तरमें कहते हैं-"
"(श्लोक-२०) न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
अयम् = यह शरीरी, न न, कदाचित् कभी, जायते = जन्मता है, वा = और, न न, म्रियते मरता है, वा तथा (यह), भूत्वा = उत्पन्न होकर, भूयः = फिर, भविता = होनेवाला, न = नहीं है, अयम् = यह, अजः जन्मरहित, नित्यः = नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वतः = शाश्वत (और), पुराणः = अनादि है, शरीरे = शरीरके, हन्यमाने मारे जानेपर भी (यह), न नहीं, हन्यते = मारा जाता ।
व्याख्या - [ शरीरमें छः विकार होते हैं- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना। १-जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।
(निरुक्त १।१।२)
यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है- यही बात भगवान् इस श्लोकमें बता रहे हैं।]
२-यह शरीरी उत्पन्न नहीं होता- 'न जायते', 'अजः'; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता-'अयं भूत्वा भविता वा न भूयः'; यह बदलता नहीं -'शाश्वतः', यह बढ़ता नहीं- 'पुराणः', यह क्षीण नहीं होता- 'नित्यः', और यह मरता नहीं- 'न प्रियते' 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे'।
'न जायते म्रियते वा कदाचित् ' जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदासे ही है। भगवान् ने इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको 'सनातन' कहा है- 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' (१५।७)।
यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है, जो पैदा होता है; और 'म्रियते' का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिण्ड-प्राणका वियोग होता है। पिण्ड-प्राणका वियोग शरीरमें होता है। परन्तु शरीरीमें संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं।
सभी विकारोंमें जन्मना और मरना - ये दो विकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान् ने इनका दो बार निषेध किया है- जिसको पहले 'न जायते' कहा, उसीको दुबारा 'अजः' कहा है; और जिसको पहले 'न म्रियते' कहा, उसीको दुबारा 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे' कहा है।
'अयं भूत्वा भविता वा न भूयः' - यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होनेवाला नहीं है अर्थात् यह स्वतःसिद्ध निर्विकार है। जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होनेके बाद उसकी सत्ता होती है। जबतक वह गर्भमें नहीं आता, तबतक 'बच्चा है' ऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चेकी सत्ता पैदा होनेके बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ताका आदि और अन्त होता है। परन्तु इस नित्य-तत्त्वकी सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ताका आरम्भ और अन्त नहीं होता।
'अजः'- इस शरीरीका कभी जन्म नहीं होता। इसलिये यह 'अजः' अर्थात् जन्मरहित कहा गया है।
'नित्यः'- यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है; अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें होता है, जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है, पर शरीरीका अपक्षय नहीं होता। इस नित्य-तत्त्वमें कभी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं आती।
'शाश्वतः '- यह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है। इसमें अवस्थाका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलनेकी योग्यता है ही नहीं।
'पुराणः'- यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें ही होता है, इस नित्य-तत्त्वमें नहीं।
'न हन्यते हन्यमाने शरीरे'- शरीरका नाश होनेपर भी इस अविनाशी शरीरीका नाश नहीं होता। यहाँ 'शरीरे' पद देनेका तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होनेवाला है। इस नष्ट होनेवाले शरीरमें ही छः विकार होते हैं, शरीरीमें नहीं।
इन पदोंमें भगवान् ने शरीर और शरीरीका जैसा स्पष्ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्ट वर्णन गीतामें दूसरी जगह नहीं आया है।
अर्जुन युद्धमें कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे विशेष शोक कर रहे थे। उस शोकको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि शरीरके मरनेपर भी इस शरीरीका मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता। इसलिये शोक करना अनुचित है।
परिशिष्ट भाव - हमारा (स्वयंका) और शरीरका स्वभाव बिलकुल अलग-अलग है। हम शरीरके साथ चिपके हुए नहीं हैं, शरीरसे मिले हुए नहीं हैं। शरीर हमारे साथ चिपका हुआ नहीं है, हमारेसे मिला हुआ नहीं है। इसलिये शरीरके न रहनेपर हमारा कुछ भी बिगड़ता नहीं। अबतक हम असंख्य शरीर धारण करके छोड़ चुके हैं, पर उससे हमारी सत्तामें क्या फर्क पड़ा ? हमारा क्या नुकसान हुआ ? हम तो ज्यों-के-त्यों ही रहे- 'भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते' (गीता ८। १९)। ऐसे ही यह शरीर छूटनेपर भी हम स्वयं ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे।
जैसे हाथ, पैर, नासिका आदि शरीरके अंग हैं, ऐसे शरीर शरीरी (स्वयं) का अंग भी नहीं है। जो बहनेवाला और विकारी होता है, वह 'अंग' नहीं होता; जैसे- कफ, मूत्र आदि बहनेवाले और फोड़ा आदि विकारी होनेसे शरीरके अंग नहीं हैं, ऐसे ही शरीर बहनेवाला (परिवर्तनशील) और विकारी होनेसे शरीरीका अंग नहीं है।
* अद्रवं मूर्त्तिमत् स्वाङ्गं प्राणिस्थमविकारजम् । अतत्स्थं तत्र दृष्टं च तेन चेत्तत्तथायुतम् ॥
सम्बन्ध-उन्नीसवें श्लोकमें भगवान् ने बताया कि यह शरीरी न तो मारता है और न मरता ही है। इसमें मरनेका निषेध तो बीसवें श्लोकमें कर दिया, अब मारनेका निषेध करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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