ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 21 से 22 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


 


श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 21 से 22


"श्लोक 21


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥


पार्थ = हे पृथानन्दन!, यः जो, पुरुषः मनुष्य, एनम् = इस शरीरीको, अविनाशिनम् अविनाशी, नित्यम् = नित्य, अजम् = जन्मरहित (और), अव्ययम् अव्यय, वेद = जानता है, सः = वह, कथम् = कैसे, कम् = किसको, हन्ति मारे (और), कम् = (कैसे) किसको, घातयति = मरवाये।


व्याख्या'वेदाविनाशिनम् .......घातयति हन्ति कम्' - इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता, इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आती-ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ? अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है।


यहाँ भगवान् ने शरीरीको अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है; जैसे- 'अविनाशी' कहकर मृत्युरूप विकारका, 'नित्य' कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका, 'अज' कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका, तथा 'अव्यय' कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है। शरीरीमें किसी भी क्रियासे किंचिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता।


अगर भगवान् को 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे' और 'कं घातयति हन्ति कम्' इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था, तो फिर यहाँ करने-न-करनेकी बात न कहकर मरने-मारनेकी बात क्यों कही? इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसंग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता; क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मरनेवाला अर्थात् क्रियाका विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है ? तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने-मारनेमें शोक नहीं करना चाहिये, प्रत्युत शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार प्राप्त कर्तव्य- कर्मका पालन करना चाहिये।


परिशिष्ट भाव-उत्पन्न होनेवाली वस्तु तो स्वतः मिटती है, उसको मिटाना नहीं पड़ता। पर जो वस्तु उत्पन्न नहीं होती, वह कभी मिटती ही नहीं। हमने चौरासी लाख शरीर धारण किये, पर कोई भी शरीर हमारे साथ नहीं रहा और हम किसी भी शरीरके साथ नहीं रहे; किन्तु हम ज्यों-के-त्यों अलग रहे। यह जाननेकी विवेकशक्ति उन शरीरोंमें नहीं थी, प्रत्युत इस मनुष्य-शरीरमें ही है। अगर हम इसको नहीं जानते तो भगवान् के दिये विवेकका निरादर करते हैं। 


सम्बन्ध - पूर्वश्लोकोंमें देहीकी निर्विकारताका जो वर्णन हुआ है, आगेके श्लोकमें उसीका दृष्टान्तरूपसे वर्णन करते हैं।"

"(श्लोक-२२)


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।


नरः = मनुष्य, यथा जैसे, जीर्णानि = पुराने, वासांसि = कपड़ोंको, विहाय = छोड़कर, अपराणि दूसरे, नवानि = नये (कपड़े), गृह्णाति = धारण कर लेता है, तथा = ऐसे ही, देही = देही, जीर्णानि = पुराने, शरीराणि = शरीरोंको, विहाय = छोड़कर, अन्यानि = दूसरे, नवानि नये (शरीरोंमें), संयाति = चला जाता है।


व्याख्या'वासांसि जीर्णानि..... संयाति नवानि देही'- इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सूत्ररूपसे कहा गया था कि देहान्तरकी प्राप्तिके विषयमें धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बातको उदाहरण देकर स्पष्टरूपसे कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ोंके परिवर्तनपर मनुष्यको शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरोंके परिवर्तनपर भी शोक नहीं होना चाहिये।


कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलनेके उदाहरणमें 'नरः' पद दिया है। यह 'नरः' पद मनुष्ययोनिका वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी आ जाते हैं।


जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़ोंको धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंको धारण करता है। पुराना शरीर छोड़नेको 'मरना' कह देते हैं, और नया शरीर धारण करनेको 'जन्मना' कह देते हैं। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर कर्मोंके अनुसार या अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार नये- नये शरीरोंको प्राप्त होता रहता है।


यहाँ 'शरीराणि' पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जबतक शरीरीको अपने वास्तविक स्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता, तबतक यह शरीरी अनन्तकालतक शरीर धारण करता ही रहता है। आजतक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर 'शरीराणि' पदमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवोंका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ 'देही' पद आया है।


यहाँ श्लोकके पूर्वार्धमें तो जीर्ण कपड़ोंकी बात कही है और उत्तरार्धमें जीर्ण शरीरोंकी। जीर्ण कपड़ोंका दृष्टान्त शरीरोंमें कैसे लागू होगा ? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानोंके भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ोंके जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होनेपर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीरका जीर्ण होना है*।


* विवेक-विचारपूर्वक देखा जाय तो आयु प्रतिक्षण समाप्त हो रही है अर्थात् शरीर प्रतिक्षण जीर्ण हो रहा है, प्रतिक्षण मर रहा है। यह एक क्षण भी स्थिर नहीं है। जैसे, जवान होनेसे बालकपन मर जाता है, तो वास्तवमें वह बालकपन निरन्तर मरता ही रहा है। परन्तु उधर दृष्टि न होनेसे प्रतिक्षण होनेवाली मौतकी तरफ खयाल नहीं जाता। यही वास्तवमें बेहोशी है।


शरीर चाहे बच्चोंका हो, चाहे जवानोंका हो, चाहे वृद्धोंका हो, आयु समाप्त होनेपर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे।


इस श्लोकमें भगवान् ने 'यथा' और 'तथा' पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तरकी प्राप्ति अपने-आप होती है (दूसरे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)- यहाँ तो 'यथा' (जैसे) और 'तथा' (वैसे) घट जाते हैं। परन्तु (इस श्लोकमें) पुराने कपड़ोंको छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो मनुष्यकी स्वतन्त्रता है, पर पुराने शरीरोंको छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें देहीकी स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ 'यथा' और 'तथा' कैसे घटेंगे ? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान् का तात्पर्य स्वतन्त्रता-परतन्त्रताकी बात कहनेमें नहीं है, प्रत्युत शरीरके वियोगसे होनेवाले शोकको मिटानेमें है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण करनेपर भी धारण करनेवाला (मनुष्य) वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चले जानेपर भी देही ज्यों-का-त्यों निर्लिप्तरूपसे रहता है; अतः शोक करनेकी कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टिसे यह दृष्टान्त ठीक ही है।


दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो सुख होता है, पर पुराने शरीर छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें दुःख होता है। अतः यहाँ 'यथा' और 'तथा' कैसे घटेंगे ? इसका समाधान यह है कि शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है, वह मरनेसे नहीं होता, प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। 'मैं जीता रहूँ'- ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है, तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीरके साथ एकात्मता कर लेता है, तब वह शरीरके मरनेसे अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परन्तु जो शरीरके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, उसको मरनेमें दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनन्द होता है! जैसे, मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ोंको बदलनेमें उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग हैं और मैं अलग हूँ। परन्तु वही कपड़ोंका बदलना अगर छोटे बच्चेका किया जाय, तो वह पुराने कपड़े उतारनेमें और नये कपड़े धारण करनेमें भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खतासे, नासमझीसे होता है। इस मूर्खताको मिटानेके लिये ही भगवान् ने यहाँ 'यथा' और 'तथा' पद देकर कपड़ोंका दृष्टान्त दिया है।


यहाँ भगवान् ने कपड़ोंके धारण करनेमें तो 'गृह्णाति' (धारण करता है) क्रिया दी, पर शरीरोंके धारण करनेमें 'संयाति' (जाता है) क्रिया दी, ऐसा क्रियाभेद भगवान् ने क्यों किया ? लौकिक दृष्टिसे बेसमझीके कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ोंको धारण करता है और देहान्तरकी प्राप्तिमें देहीको उन-उन देहोंमें जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टिको लेकर ही भगवान् ने क्रियाभेद किया है।


विशेष बात


गीतामें 'येन सर्वमिदं ततम्' (२। १७), 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुः' (२। २४) आदि पदोंसे देहीको सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाववाला बताया तथा 'संयाति नवानि देही' (२। २२), 'शरीरं यदवाप्नोति' (१५। ८) आदि पदोंसे देहीको दूसरे शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देशमें न हो, उस देशमें चला जाय, तो इसको 'जाना' कहते हैं और जो दूसरे देशमें है, वह इस देशमें आ जाय, तो इसको 'आना' कहते हैं। परन्तु देहीके विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं ! इसका समाधान यह है कि जैसे किसीकी बाल्यावस्थासे युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि 'मैं जवान हो गया हूँ'। परन्तु वास्तवमें वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था, युवावस्थामें भी वह वही है। परन्तु शरीरसे तादात्म्य माननेके कारण वह शरीरके परिवर्तनको अपनेमें आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तवमें शरीरका धर्म है, पर शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे वह अपनेमें आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तवमें देहीका कहीं भी आना-जाना नहीं होता, केवल शरीरोंके तादात्म्यके कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है।


अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकालसे जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मोंकी दृष्टिसे तो शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये जन्म-मरण होता है, ज्ञानकी दृष्टिसे अज्ञानके कारण जन्म-मरण होता है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान् की विमुखताके कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनोंमें भी मुख्य कारण है कि भगवान् ने जीवको जो स्वतन्त्रता दी है, उसका दुरुपयोग करनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे ? मिली हुई स्वतन्त्रताका सदुपयोग करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। अपनी जानकारीका अनादर करनेसे * जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारीका आदर करनेसे जन्म- मरण मिट जायगा। भगवान् से विमुख होनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः भगवान् के सम्मुख होनेसे जन्म-मरण मिट जायगा।


* अपनी जानकारीका अनादर करनेका तात्पर्य है कि हम जितना जानते हैं, उसके अनुसार कार्य न करना। जैसे, सत्य बोलना ठीक है, झूठ बोलना ठीक नहीं - ऐसा जानते हुए भी स्वार्थके लिये झूठ बोल देते हैं। कोई हमें सुख देता है तो अच्छा लगता है और दुःख देता है तो बुरा लगता है-ऐसा जानते हुए भी अपने सुखके लिये दूसरोंको दुःख देते हैं। ऐसे ही हम जानते हैं कि शरीर आदि सब जानेवाले हैं, रहनेवाले नहीं हैं, फिर भी इनमें मोह-ममता करते हैं। यही अपनी जानकारीका अनादर है।


परिशिष्ट भाव - मनुष्य नयी-नयी वस्तु चाहता है तो भगवान् भी उसको नयी-नयी वस्तु (शरीरादि सामग्री) देते रहते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है तो भगवान् उसको नया शरीर दे देते हैं। अतः नयी-नयी इच्छा करना ही जन्म-मरणका हेतु है। नयी-नयी इच्छा करनेवालेको अनन्तकालतक नयी-नयी वस्तु मिलती ही रहेगी। मनुष्यमें एक इच्छाशक्ति है, एक प्राणशक्ति है। इच्छाशक्तिके रहते हुए प्राणशक्ति नष्ट हो जाती है, तब नया जन्म होता है। अगर इच्छाशक्ति न रहे तो प्राणशक्ति नष्ट होनेपर भी पुनः जन्म नहीं होता।


कोई भी दृष्टान्त केवल एक अंशमें घटता है, सर्वथा नहीं घटता। यहाँ पुराने कपड़े छोड़कर नये कपड़े बदलनेका दृष्टान्त केवल इस अंशमें है कि जैसे आदमी अनेक कपड़े बदलनेपर भी एक ही रहता है, ऐसे ही स्वयं अनेक योनियोंमें अनेक शरीर धारण करनेपर भी एक (वही-का-वही) रहता है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नये कपड़े धारण करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते, ऐसे ही पुराने शरीरको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते। तात्पर्य है कि शरीर मरता है, हम नहीं मरते। अगर हम मर जायँ तो फिर पुण्य-पापका फल कौन भोगेगा ? अन्य योनियोंमें कौन जायगा ? बन्धन किसका होगा ? मुक्त कौन होगा ?


सम्बन्ध-पहले दृष्टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं।"


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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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