ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 8 से 10 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


 

श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 8 से 10 

(श्लोक-८) न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्। अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥


हि = कारण कि, भूमौ पृथ्वीपर, ऋद्धम् = धन-धान्य-समृद्ध (और), असपत्नम् = शत्रुरहित, राज्यम् = राज्य, च = तथा, सुराणाम् = (स्वर्गमें) देवताओंका, आधिपत्यम् = आधिपत्य, अवाप्य = मिल जाय, अपि तो भी, इन्द्रियाणाम् = इन्द्रियोंको, उच्छोषणम् = सुखानेवाला, मम = मेरा, यत् = जो, शोकम् = शोक है (वह), अपनुद्यात् = दूर हो जाय (ऐसा मैं), न = नहीं, प्रपश्यामि = देखता हूँ।


व्याख्या- [अर्जुन सोचते हैं कि भगवान् ऐसा समझते होंगे कि अर्जुन युद्ध करेगा तो उसकी विजय होगी और विजय होनेपर उसको राज्य मिल जायगा, जिससे उसके चिन्ता-शोक मिट जायँगे और संतोष हो जायगा। परन्तु शोकके कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि विजय होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय -ऐसी बात मैं नहीं देखता ।]


'अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यम्' - अगर मेरेको धन-धान्यसे सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अर्थात् जिस राज्यमें प्रजा खूब सुखी हो, प्रजाके पास खूब धन-धान्य हो, किसी चीजकी कमी न हो और राज्यमें कोई वैरी भी न हो-ऐसा राज्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।


'सुराणामपि चाधिपत्यम्' - इस पृथ्वीके तुच्छ भोगोंवाले राज्यकी तो बात ही क्या, इन्द्रका दिव्य भोगोंवाला राज्य भी मिल जाय, तो भी मेरा शोक, जलन, चिन्ता दूर नहीं हो सकती।


अर्जुनने पहले अध्यायमें यह बात कही थी कि मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ; क्योंकि उस राज्यसे क्या होगा ? उन भोगोंसे क्या होगा ? और उस जीनेसे क्या होगा ? जिनके लिये हम राज्य, भोग एवं सुख चाहते हैं, वे ही मरनेके लिये सामने खड़े हैं (पहले अध्यायका बत्तीसवाँ-तैंतीसवाँ श्लोक)। यहाँ अर्जुन कहते हैं कि पृथ्वीका धन-धान्य-सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय तथा देवताओंका आधिपत्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता, मैं उनसे सुखी नहीं हो सकता। वहाँ (पहले अध्यायके बत्तीसवें-तैंतीसवें श्लोकमें) तो कौटुम्बिक ममताकी वृत्ति ज्यादा होनेसे अर्जुनकी युद्धसे उपरति हुई है, पर यहाँ उनकी जो उपरति हो रही है, वह अपने कल्याणकी वृत्ति पैदा होनेसे हो रही है। अतः वहाँकी उपरति और यहाँकी उपरतिमें बहुत अन्तर है।


'न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्' - जब कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही मेरेको इतना शोक हो रहा है, तब उनके मरनेपर मेरेको कितना शोक होगा! अगर मेरेको राज्यके लिये ही शोक होता तो वह राज्यके मिलनेसे मिट जाता; परन्तु कुटुम्बके नाशकी आशंकासे होनेवाला शोक राज्यके मिलनेसे कैसे मिटेगा ? शोकका मिटना तो दूर रहा, प्रत्युत शोक और बढ़ेगा; क्योंकि युद्धमें सब मारे जायँगे तो मिले हुए राज्यको कौन भोगेगा ? वह किसके काम आयेगा ? अतः पृथ्वीका राज्य और स्वर्गका आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। सम्बन्ध-प्राकृत पदार्थोंके प्राप्त होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय, यह मैं


नहीं देखता हूँ-ऐसा कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया ? इसका वर्णन संजय आगेके श्लोकमें करते हैं।"

"(श्लोक-९)


सञ्जय उवाच


एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।


संजय बोले-


परन्तप = हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र!, एवम् = ऐसा, उक्त्वा = कहकर, गुडाकेशः = निद्राको जीतनेवाले अर्जुन, हृषीकेशम् = अन्तर्यामी, गोविन्दम् = भगवान् गोविन्दसे, न, योत्स्ये = 'मैं युद्ध नहीं करूँगा', इति = ऐसा, ह = साफ-साफ, उक्त्वा = कहकर, तूष्णीम् = चुप, बभूव = हो गये।


व्याख्या 'एवमुक्त्वा हृषीकेशम्बभूव ह'- अर्जुनने अपना और भगवान् का- दोनोंका पक्ष सामने रखकर उनपर विचार किया, तो अन्तमें वे इसी निर्णयपर पहुँचे कि युद्ध करनेसे तो अधिक-से-अधिक राज्य प्राप्त हो जायगा, मान हो जायगा, संसारमें यश हो जायगा, परन्तु मेरे हृदयमें जो शोक है, चिन्ता है, दुःख है, वे दूर नहीं होंगे। अतः अर्जुनको युद्ध न करना ही ठीक मालूम दिया।


यद्यपि अर्जुन भगवान् की बातका आदर करते हैं और उसको मानना भी चाहते हैं; परंतु उनके भीतर युद्ध करनेकी बात ठीक-ठीक जँच नहीं रही है। इसलिये अर्जुन अपने भीतर जँची हुई बातको ही यहाँ स्पष्टरूपसे, साफ-साफ कह देते हैं कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'। इस प्रकार जब अपनी बात, अपना निर्णय भगवान् से साफ-साफ कह दिया, तब भगवान् से कहनेके लिये और कोई बात बाकी नहीं रही; अतः वे चुप हो जाते हैं।


सम्बन्ध-जब अर्जुनने युद्ध करनेके लिये साफ मना कर दिया, तब उसके बाद क्या हुआ- इसको संजय आगेके श्लोकमें बताते हैं।"

"(श्लोक-१०)


तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥


भारत = हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र !, उभयोः = दोनों, सेनयोः = सेनाओंके, मध्ये = मध्यभागमें, विषीदन्तम् = विषाद करते हुए, तम् = उस अर्जुनके प्रति, प्रहसन्, इव हँसते हुए-से, हृषीकेशः = भगवान् हृषीकेश, इदम् = यह (आगे कहे जानेवाले), वचः = वचन, उवाच = बोले ।


व्याख्या 'तमुवाच हृषीकेशः........विषीदन्तमिदं वचः' - अर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान् से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था। अब वहींपर अर्थात् दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्न हो गये ! वास्तवमें होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्यसे आये थे, उस उद्देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते। परन्तु उस उद्देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ता शोकमें फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही भगवान् शोकमग्न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं।


'प्रहसन्निव'- (विशेषतासे हँसते हुएकी तरह) का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो युद्ध करनेका भाव था, वह अब विषादमें बदल गया- इसको देखकर भगवान् को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुनने पहले (दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें) कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरेको क्या करना चाहिये - इसकी शिक्षा दीजिये; परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्चय कर लिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'- यह देखकर भगवान् को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होनेपर 'मै क्या करूँ और क्या नहीं करूँ' आदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान् के शरण होनेके बाद 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये। इस बातको लेकर भगवान् को हँसी आ गयी। 'इव' का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुसकराते हुए ही बोले।


जब अर्जुनने यह कह दिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तब भगवान् को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर- 'यथेच्छसि तथा कुरु' (१८। ६३)। परन्तु भगवान् ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ता-शोकसे विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुनकी हो रही है। अतः भगवान् के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं। इसलिये भगवान् अर्जुनके 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' इस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्लोकसे) उपदेश आरम्भ कर देते हैं।


जो वचनमात्रसे भी भगवान् के शरण हो जाता है, भगवान् उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान् के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है !


'हृषीकेश' कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं। भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'; परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा, तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा।


'इदं वचः उवाच' पदोंमें केवल 'उवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था; क्योंकि 'उवाच' के अन्तर्गत ही 'वचः' पदका अर्थ आ जाता है। अतः 'वचः' पद देना पुनरुक्तिदोष दीखता है। परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगेके श्लोकसे भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे, सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ 'वचः' पद दिया गया है।


परिशिष्ट भाव - धर्मभूमि कुरुक्षेत्रके एक भागमें कौरव-सेना खड़ी है और दूसरे भागमें पाण्डव-सेना। दोनों सेनाओंके मध्यभागमें श्वेत घोड़ोंसे युक्त एक महान् रथ खड़ा है। उस रथके एक भागमें भगवान् श्रीकृष्ण बैठे हैं और एक भागमें अर्जुन ! अर्जुनके निमित्त मनुष्यमात्रका कल्याण करनेके लिये भगवान् अपना अलौकिक उपदेश आरम्भ करते हैं और सर्वप्रथम शरीर तथा शरीरीके विभागका वर्णन करते हैं।


सम्बन्ध-शोकाविष्ट अर्जुनको शोक-निवृत्तिका उपदेश देनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।"


ऐसी ही और वीडियो के लिए हमसे जुड़े रहिए, और आपका आशीर्वाद और सहयोग बनाए रखे। अगर हमारा प्रयास आपको पसंद आया तो चैनल को सब्सक्राइब करें और अपने स्नेहीजनों को भी शेयर करें।

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

Comments

Popular posts from this blog

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 34 - 🧠 मन, बुद्धि और भक्ति से पाओ भगवान को!

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 22 "परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग"