ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 22 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की हमारी चर्चा में। आज हम श्लोक 22 पर बात करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने कर्मों के बारे में बताते हैं और हमें एक गहरा संदेश देते हैं।
कल हमने श्लोक 21 पर चर्चा की थी, जहाँ श्रीकृष्ण ने समझाया कि श्रेष्ठ व्यक्ति का आचरण समाज के लिए एक मार्गदर्शक होता है। जैसे वो कर्म करते हैं, वैसे ही लोग उनका अनुसरण करते हैं।
"आज का श्लोक है:
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ""हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ।"" इसका गहरा अर्थ यह है कि भगवान होने के बावजूद, वे कर्म करते हैं ताकि दूसरों को सही मार्ग दिखा सकें और समाज में कर्म का महत्व बनाए रख सकें।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 22"
"स्वयं अपना दृष्टान्त देते हुए कर्म करनेसे लाभ और कर्म न करनेसे हानिका कथन।
(श्लोक-२२)
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
उच्चारण की विधि
न, मे, पार्थ, अस्ति, कर्तव्यम्, त्रिषु, लोकेषु, किंचन, न, अनवाप्तम्, अवाप्तव्यम्, वर्ते, एव, च, कर्मणि ॥ २२ ॥
पार्थ अर्थात् हे अर्जुन !, मे अर्थात् मुझे (इन), त्रिषु अर्थात् तीनों, लोकेषु अर्थात् लोकोंमें, न अर्थात् न तो, किंचन अर्थात् कुछ, कर्तव्यम् अर्थात् कर्तव्य, अस्ति अर्थात् है, च अर्थात् और, न अर्थात् न (कोई भी), अवाप्तव्यम् अर्थात् प्राप्त करनेयोग्य, (वस्तु), अनवाप्तम् अर्थात् अप्राप्त है, (तो भी मैं), कर्मणि अर्थात् कर्ममें, एव अर्थात् ही, वर्ते अर्थात् बरतता हूँ।
अर्थ -
हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ ॥ २२ ॥"
"व्याख्या'न मे पार्थास्ति नानवाप्तमवाप्तव्यम्' - भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं हैं। इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं।
भगवान् के लिये त्रिलोकीमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है; क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है। कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) कर्म करते हैं। भगवान् उपर्युक्त पदोंमें बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ!
अपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिए अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार, पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये कर्म करते हैं (गीता ४। ८)। अवतारके सिवाय भगवान् की सृष्टि-रचना भी जीवमात्रके उद्धारके लिये ही होती है। स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पाप- कर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं। मनुष्य-योनि पुण्य और पाप- दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके लिये है। ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे। वह सम्पूर्ण कर्म- स्थूल शरीरसे होनेवाली 'क्रिया', सूक्ष्म शरीरसे होनेवाला 'चिन्तन' और कारण शरीरसे होनेवाली 'स्थिरता' केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे, अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं, वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों ही शरीर संसारके हैं, अपने नहीं। इसलिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है। अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुख-भोगमें लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है। संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी इच्छा होती है और फलप्राप्तिके लिये कर्म होता है। इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् 'करना' शेष रहता है।"
"गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं। कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म फल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य (कर्म और फल) का सम्बन्ध नित्य (स्वयं) के साथ हो ही कैसे सकता है! कर्मका सम्बन्ध 'पर' (शरीर और संसार) से है 'स्व' से नहीं। कर्म सदैव 'पर' के द्वारा और 'पर' के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। जब मनुष्यमात्रके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तब भगवान् के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है!
कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये भगवान् ने इसी अध्यायके सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य नहीं है; क्योंकि उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही होती है। इसलिये उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है। इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान् के साथ एकता होती है- 'मम साधर्म्यमागताः' (गीता १४। २)। जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं (गीता-तीसरे अध्यायका तेईसवाँ और चौथे अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक), ऐसे ही संसारमें तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं
(गीता-तीसरे अध्यायका पचीसवाँ श्लोक)।"
"वर्त एव च कर्मणि' - यहाँ 'एव' पदसे भगवान् का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्यरहित होकर, सावधानीपूर्वक, सांगोपांग कर्तव्यकर्मोंको करता हूँ। कर्मोंका न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा।
जैसे इंजनके पहियोंके चलनेसे इंजनसे जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं, ऐसे ही भगवान् और सन्त-महापुरुष (जिनमें करने और पानेकी इच्छा नहीं है) इंजनके समान कर्तव्य कर्म करते हैं, जिससे अन्य मनुष्य भी उन्हींका अनुसरण करते हैं। अन्य मनुष्योंमें करने और पानेकी इच्छा रहती है। ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य- कर्म करनेसे ही दूर होती हैं। यदि भगवान् और सन्त-महापुरुष कर्तव्य-कर्म न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्य-कर्म नहीं करेंगे, जिससे उनमें प्रमाद-आलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने लग जायेंगे ! फिर उन मनुष्योंकी इच्छाएँ कैसे मिटेंगी ! इसलिये सम्पूर्ण मनुष्योंके हितके लिये भगवान् और सन्त-महापुरुषोंके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्य-कर्म होते हैं।
भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं, कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते। अतः भगवत्परायण साधकको भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये। कर्तव्यच्युत होनेसे ही वह भगवत्तत्त्वके अनुभवसे वंचित रहता है। नित्य कर्तव्यपरायण रहनेसे साधकको भगवत्तत्त्वका अनुभव सुगमतापूर्वक हो सकता है।
परिशिष्ट भाव - महाभारतमें भगवान् ने उत्तंक ऋषिको भी तीनों
लोकोंमें अपना कर्तव्य बताया है-
धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च । तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव ॥
(महा० आश्व०५४।१३-१४)
'मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ।'"
कल हम श्लोक 23 और 24 पर चर्चा करेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि अगर वे कर्म न करें, तो इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा और क्यों कर्म करना आवश्यक है।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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