ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 23 से 24 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue




 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

आज का श्लोक है 23 और 24, जिसमें हम गीता के महत्वपूर्ण संदेशों पर चर्चा करेंगे। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई गहन सीखें हमारे जीवन को कैसे प्रभावित कर सकती हैं, इस पर ध्यान देंगे।

पिछले श्लोकों में हमने देखा कि किस प्रकार श्रीकृष्ण ने कर्म, ज्ञान और भक्ति के महत्व को उजागर किया था। अब, आगे बढ़ते हुए हम और भी गहराई से इन सिद्धांतों को समझेंगे।

आज के श्लोक 23 और 24 में श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि कैसे व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी मोह के करना चाहिए। कर्मों का परिणाम सोचे बिना किया गया कार्य सच्चा कर्म है, और यह हमें मोक्ष की ओर ले जाता है।

"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 23 से 24"

"(श्लोक-२३)


यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥


उच्चारण की विधि


यदि, हि, अहम्, न, वर्तेयम्, जातु, कर्मणि, अतन्द्रितः, मम, वर्म, अनुवर्तन्ते, मनुष्याः, पार्थ, सर्वशः ॥ २३ ॥


हि अर्थात् क्योंकि, पार्थ अर्थात् हे पार्थ!, यदि अर्थात् यदि, जातु अर्थात् कदाचित्, अहम् अर्थात् मैं, अतन्द्रितः अर्थात् सावधान होकर, कर्मणि अर्थात् कर्मोंमें, न अर्थात् न, वर्तेयम् अर्थात् बरतूं (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि), मनुष्याः अर्थात् मनुष्य, सर्वशः अर्थात् सब प्रकारसे, मम अर्थात् मेरे (ही), वर्म अर्थात् मार्गका, अनुवर्तन्ते अर्थात् अनुसरण करते हैं।


अर्थ - क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतूं तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। २३॥"

"व्याख्या [बाईसवें श्लोकमें भगवान् ने अन्वय-रीतिसे कर्तव्य- पालनकी आवश्यकताका प्रतिपादन किया और इन श्लोकोंमें


भगवान् व्यतिरेक-रीतिसे कर्तव्य पालन न करनेसे होनेवाली हानिका प्रतिपादन करते हैं।। 'यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः'- पूर्वश्लोकमें आये 'वर्त एव च कर्मणि' पदोंकी पुष्टिके लिये यहाँ 'हि' पद आया है। भगवान् कहते हैं कि मैं सावधानीपूर्वक कर्म न करूँ- ऐसा हो ही नहीं सकता; परन्तु 'यदि ऐसा मान लें' कि मैं कर्म न करूँ- इस अर्थमें भगवान् ने यहाँ 'यदि जातु' पदोंका प्रयोग किया है। 'अतन्द्रितः' पदका तात्पर्य यह है कि कर्तव्य-कर्म करनेमें आलस्य और प्रमाद नहीं करना चाहिये, अपितु उन्हें बहुत सावधानी और तत्परतासे करना चाहिये। सावधानीपूर्वक कर्तव्य-कर्म न करनेसे मनुष्य आलस्य और प्रमादके वशमें होकर अपना अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है।


कर्मोंमें शिथिलता (आलस्य-प्रमाद) न लाकर उन्हें सावधानी एवं तत्परतापूर्वक करनेसे ही कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद होता है। जैसे वृक्षकी कड़ी टहनी जल्दी टूट जाती है, पर जो अधूरी टूटनेके कारण लटक रही है, ऐसी शिथिल (ढीली) टहनी जल्दी नहीं टूटती, ऐसे ही सावधानी एवं तत्परतापूर्वक कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, पर आलस्य-प्रमादपूर्वक (शिथिलतापूर्वक) कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। इसीलिये भगवान् ने उन्नीसवें श्लोकमें 'समाचर' पदका तथा इस श्लोकमें 'अतन्द्रितः' पदका प्रयोग किया है।


अगर किसी कर्मकी बार-बार याद आती है, तो यही समझना चाहिये कि कर्म करनेमें कोई त्रुटि (कामना, आसक्ति, अपूर्णता, आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा आदि) हुई है, जिसके कारण उस कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हुआ है। कर्मसे सम्बन्ध विच्छेद न होनेके कारण ही किये गये कर्मकी याद आती है।"

मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः' इन पदोंसे भगवान् मानो यह कहते हैं कि मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाले ही वास्तवमें मनुष्य कहलानेयोग्य हैं। जो मुझे आदर्श न मानकर आलस्य- प्रमादवश कर्तव्य-कर्म नहीं करते और अधिकार चाहते हैं, वे आकृतिसे मनुष्य होनेपर भी वास्तवमें मनुष्य कहलानेयोग्य नहीं हैं। इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें भगवान् ने कहा था कि श्रेष्ठ पुरुषके आचरण और प्रमाणके अनुसार सब मनुष्य उनका अनुसरण करते हैं और इस श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ पुरुष तो एक ही लोक (मनुष्यलोक) में आदर्श पुरुष हैं, पर मैं तीनों ही लोकोंमें आदर्श पुरुष हूँ।

मनुष्यको संसारमें कैसे रहना चाहिये - यह बतानेके लिये भगवान् मनुष्यलोकमें अवतरित होते हैं। संसारमें अपने लिये रहना ही नहीं है - यही संसारमें रहनेकी विद्या है। संसार वस्तुतः एक विद्यालय है, जहाँ हमें कामना, ममता, स्वार्थ आदिके त्यागपूर्वक दूसरोंके हितके लिये कर्म करना सीखना है और उसके अनुसार कर्म करके अपना उद्धार करना है। संसारके सभी सम्बन्धी एक-दूसरेकी सेवा (हित) करनेके लिये ही हैं। इसीलिये पिता, पुत्र, पति, पत्नी, भाई, बहन आदि सबको चाहिये कि वे एक-दूसरेके अधिकारकी रक्षा करते हुए अपने-अपने कर्तव्यका पालन करें और एक-दूसरेके कल्याणकी चेष्टा करें।

"(श्लोक-२४)


उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥


उच्चारण की विधि


उत्सीदेयुः, इमे, लोकाः, न, कुर्याम्, कर्म, चेत्, अहम्, संकरस्य, च, कर्ता, स्याम्, उपहन्याम्, इमाः, प्रजाः ॥ २४ ॥


चेत् अर्थात् यदि, अहम् अर्थात् मैं, कर्म अर्थात् कर्म, न अर्थात् न, कुर्याम् अर्थात् करूँ (तो), इमे अर्थात् ये, लोकाः अर्थात् सब मनुष्य, उत्सीदेयुः अर्थात् नष्ट-भ्रष्ट हो  जायँ, च अर्थात् और (मैं), संकरस्य अर्थात् संकरताका, कर्ता अर्थात् करनेवाला, स्याम् अर्थात् होऊँ (तथा), इमाः अर्थात् इस, प्रजाः अर्थात् समस्त प्रजाको, उपहन्याम् अर्थात् नष्ट करनेवाला बनूँ।


अर्थ - इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ ॥ २४॥"

"उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्'- भगवान् ने तेईसवें श्लोकमें 'यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः' पदोंसे कर्मोंमें सावधानी न रखनेसे होनेवाली हानिकी बात कही और अब इस (चौबीसवें) श्लोकमें उपर्युक्त पदोंसे कर्म न करनेसे होनेवाली हानिकी बात कहते हैं।


यद्यपि ऐसा हो ही नहीं सकता कि मैं कर्तव्य-कर्म न करूँ, तथापि यदि ऐसा मान लिया जाय- इस अर्थमें भगवान् ने यहाँ 'चेत्' पदका प्रयोग किया है।


इन पदोंका तात्पर्य है कि मनुष्यकी कर्म न करनेमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये-'मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि' (गीता २। ४७)। इसीलिये भगवान् अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी प्राप्तव्य न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ। यदि मैं (जिस वर्ण, आश्रम, आदिमें मैंने अवतार लिया है, उसके अनुसार) अपने कर्तव्यका पालन न करूँ तो सम्पूर्ण मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ अर्थात् उनका पतन हो जाय। कारण कि अपने कर्तव्यका त्याग करनेसे मनुष्योंमें तामसभाव आ जाता है, जिससे उनकी अधोगति होती है - ' अधो गच्छन्ति तामसाः' (गीता १४।१८)।


भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं और सम्पूर्ण प्राणी उन्हींके मार्गका अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि भगवान् कर्तव्यका पालन नहीं करेंगे तो त्रिलोकीमें भी कोई अपने कर्तव्यका पालन नहीं करेगा। अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे उनका अपने-आप पतन हो जायगा।"

"सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः'- यदि मैं कर्तव्य-कर्म न करूँ तो सब लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जायँगे और उनके नष्ट होनेका कारण मैं ही बनूँगा, जबकि ऐसा सम्भव नहीं है।


परस्परविरुद्ध दो धर्म (भाव) एकमें मिल जायँ तो वह 'संकर' कहलाता है।


पहले अध्यायके चालीसवें और इकतालीसवें श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि 'यदि मैं युद्ध करूँगा तो कुलका नाश हो जायगा। कुलके नाशसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाता है; धर्मके नष्ट होनेपर सम्पूर्ण कुलमें पाप फैल जाता है; पापके अधिक बढ़नेपर कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; और स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार अर्जुनका भाव यह था कि युद्ध करनेसे वर्णसंकरता उत्पन्न होगी * ।


* अर्जुनकी दलीलके अनुसार भी यदि विचार किया जाय तो वास्तवमें कर्तव्यका पालन न करना ही वर्णसंकरताका कारण है। युद्धमें कुलका नाश होनेपर स्त्रियोंका दूषित होना उनका कर्तव्यच्युत होना ही है और कर्तव्यच्युत होनेसे ही वर्णसंकरता आती है। यदि स्त्रियोंमें यह भाव रहे कि हमारे पतियोंने युद्धरूप कर्तव्यका पालन करते हुए अपने प्राणोंका त्याग कर दिया, पर अपने कर्तव्यका त्याग नहीं किया, फिर हम अपने कर्तव्यका त्याग क्यों करें? तो वे कर्तव्यच्युत नहीं होंगी। कर्तव्यच्युत न होनेसे उनका सतीत्व सुरक्षित रहेगा, जिससे वर्णसंकरता आयेगी ही नहीं।"

"परन्तु यहाँ भगवान् उससे विपरीत बात कहते हैं कि युद्धरूप कर्तव्य-कर्म न करनेसे वर्णसंकरता उत्पन्न होगी। इस विषयमें भगवान् अपना उदाहरण देते हैं कि यदि मैं कर्तव्य-कर्म न करूँ तो कर्म, धर्म, उपासना, वर्ण आश्रम, जाति आदि सबमें स्वतः संकरता आ जायगी। तात्पर्य यह है कि कर्तव्य-कर्म न करनेसे ही संकरता उत्पन्न होती है। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि तू युद्धरूप कर्तव्य-कर्म न करनेसे ही वर्णसंकर उत्पन्न करनेवाला बनेगा, न कि युद्ध करनेसे (जैसा कि तू मानता है)।


अर्जुनके मूल प्रश्न (मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं) का उत्तर भगवान् बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें-तीन श्लोकोंमें अपने उदाहरणसे देते हैं कि मैं तुम्हें ही कर्ममें लगाता हूँ, ऐसी बात नहीं है प्रत्युत मैं स्वयं भी कर्ममें लगा रहता हूँ, जबकि वास्तवमें मेरे लिये त्रिलोकीमें कुछ भी कर्तव्य एवं प्राप्तव्य नहीं है। भगवान् अर्जुनको इस बातका संकेत करते हैं कि अभी इस अवतारमें तुमने भी स्वीकार किया और मैंने भी स्वीकार किया कि तू रथी बने और मैं सारथि बनूँ; तो देख, क्षत्रिय होते हुए भी आज मैं तेरा सारथि बना हुआ हूँ और इस प्रकार स्वीकार किये हुए अपने कर्तव्यका सावधानी और तत्परतापूर्वक पालन कर रहा हूँ। मेरे इस कर्तव्य-पालनका भी त्रिलोकीपर प्रभाव पड़ेगा; क्योंकि मैं त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हूँ। समस्त प्राणी मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। इस प्रकार तुम्हें भी अपने कर्तव्य-कर्मकी उपेक्षा न करके मेरी तरह उसका सावधानी एवं तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये।


सम्बन्ध-पीछेके तीन श्लोकोंमें भगवान् ने जैसे अपने लिये कर्म करनेमें सावधानी रखनेका वर्णन किया, ऐसे ही आगेके दो श्लोकोंमें ज्ञानी महापुरुषके लिये कर्म करनेमें सावधानी रखनेकी प्रेरणा करते हैं।"

कल हम चर्चा करेंगे श्लोक 25 और 26 की, जिसमें श्रीकृष्ण कर्मयोग के और भी महत्वपूर्ण पहलुओं को उजागर करेंगे। यह जानना न भूलें कि जीवन में कर्म का क्या स्थान है और कैसे यह हमारे जीवन को सफल बनाता है।


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कल मिलते हैं नये श्लोक की व्याख्या के साथ। तब तक ""Keep Learning, Keep Growing!"


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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