ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 28 | कर्म में कर्तापन का भ्रम कैसे मिटाएं?"



 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आप जानते हैं कि कर्म करते हुए भी कैसे स्वयं को उससे अलग रखा जा सकता है? आज हम भगवद गीता के श्लोक 28 के माध्यम से जानेंगे कि ज्ञानी व्यक्ति कैसे कर्म करता है और फिर भी उससे बंधा नहीं रहता।

कल के वीडियो में हमने श्लोक 27 पर चर्चा की थी, जहां श्रीकृष्ण ने बताया था कि कैसे सभी कर्म प्रकृति के तीन गुणों (सत, रज, तम) से होते हैं, और अहंकार में भ्रमित व्यक्ति खुद को कर्ता मानता है। अब श्लोक 28 में हम जानेंगे कि ज्ञानी व्यक्ति कर्म और इन गुणों को कैसे समझता है।

"श्लोक 28 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

तत्त्ववित् तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥

इसका अर्थ है कि जो तत्वज्ञानी होता है, वह समझता है कि गुण ही गुणों में प्रवृत्त होते हैं और इसलिए वह कर्मों में नहीं उलझता।

श्रीकृष्ण यहां बताते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति समझता है कि कर्म करने वाले असल में प्रकृति के गुण होते हैं। वह जानता है कि यह शरीर और इंद्रियाँ इन गुणों के अनुसार काम करती हैं, लेकिन आत्मा कर्ता नहीं है। इसी कारण वह कर्म करते हुए भी उनसे जुड़ा नहीं होता।"


"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 28"

"कर्मास्त्वत जनसमुदायकी अपेक्षा सांख्ययोगीकी विलक्षणताका प्रतिपादन ।


(श्लोक-२८)


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥


उच्चारण की विधि


तत्त्ववित्, तु, महाबाहो, गुणकर्मविभागयोः, गुणाः, गुणेषु, वर्तन्ते, इति, मत्वा, न, सज्जते ॥ २८ ॥


तु अर्थात् परंतु, महाबाहो अर्थात् हे महाबाहो !, गुणकर्मविभागयोः अर्थात् गुणविभाग और कर्मविभागके, तत्त्ववित् अर्थात् तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानयोगी, गुणाः अर्थात् सम्पूर्ण गुण (ही), गुणेषु अर्थात् गुणोंमें, वर्तन्ते अर्थात् बरत रहे हैं, इति अर्थात् ऐसा, मत्वा अर्थात् समझकर (उनमें), न सज्जते अर्थात् आसक्त नहीं होता। 


अर्थ - परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ॥ २८ ॥"

"व्याख्या'तत्त्ववित्तु महाबाहो पूर्वश्लोकमें वर्णित 'अहङ्कारविमूढात्मा' (अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाले पुरुष) से तत्त्वज्ञ महापुरुषको सर्वथा भिन्न और विलक्षण बतानेके लिये यहाँ 'तु' पदका प्रयोग हुआ है।


सत्त्व, रज और तम - ये तीनों गुण प्रकृतिजन्य हैं। इन तीनों गुणोंका कार्य होनेसे सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मिका है। अतः शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ आदि सब गुणमय ही हैं। यही 'गुण-विभाग' कहलाता है। इन (शरीरादि) से होनेवाली क्रिया 'कर्म-विभाग' कहलाती है।


गुण और कर्म अर्थात् पदार्थ और क्रियाएँ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा क्रियाएँ आरम्भ और समाप्त होनेवाली हैं। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही गुण और कर्म-विभागको तत्त्वसे जानना है। चेतन (स्वरूप) में कभी कोई क्रिया नहीं होती। वह सदा निर्लिप्त, निर्विकार रहता है अर्थात् उसका किसी भी प्राकृत पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध नहीं होता। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही चेतनको तत्त्वसे जानना है।


अज्ञानी पुरुष जब इन गुण-विभाग और कर्म-विभागसे अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह बंध जाता है। शास्त्रीय दृष्टिसे तो इस बन्धनका मुख्य कारण 'अज्ञान' है, पर साधककी दृष्टिसे 'राग' ही मुख्य कारण है। राग 'अविवेक' से होता है। विवेक जाग्रत् होनेपर राग नष्ट हो जाता है। यह विवेक मनुष्यमें विशेषरूपसे है। आवश्यकता केवल इस विवेकको महत्त्व देकर जाग्रत् करनेकी है। अतः साधकको (विवेक जाग्रत् करके) विशेषरूपसे रागको ही मिटाना चाहिये।"

"तत्त्वको जाननेकी इच्छा रखनेवाला साधक भी अगर गुण (पदार्थ) और कर्म (क्रिया) से अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता, तो वह भी गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जान लेता है। चाहे गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाने, चाहे 'स्वयं' (चेतन स्वरूप) को तत्त्वसे जाने, दोनोंका परिणाम एक ही होगा।


गुण-कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेका उपाय


१- शरीरमें रहते हुए भी चेतन-तत्त्व (स्वरूप) सर्वथा अक्रिय और निर्लिप्त रहता है (गीता- तेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक)। प्रकृतिका कार्य (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) 'इदम्' (यह) कहा जाता है। 'इदम्' (यह) कभी 'अहम्' (मैं) नहीं होता। जब 'यह' (शरीरादि) 'मैं' नहीं है, तब 'यह' में होनेवाली क्रिया 'मेरी' कैसे हुई? तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सब प्रकृतिके कार्य हैं और 'स्वयं' इनसे सर्वथा असम्बद्ध, निर्लिप्त है। अतः इनमें होनेवाली क्रियाओंका कर्ता 'स्वयं' कैसे हो सकता है? इस प्रकार अपनेको पदार्थ एवं क्रियाओंसे अलग अनुभव करनेवाला बन्धनमें नहीं पड़ता। सब अवस्थाओंमें 'नैव किञ्चित्करोमीति' (गीता ५।८) 'मैं' कुछ भी नहीं करता हूँ'- ऐसा अनुभव करना ही अपनेको क्रियाओंसे अलग जानना अर्थात् अनुभव करना है।


२-देखना-सुनना, खाना-पीना आदि सब 'क्रियाएँ' हैं और देखने-सुनने आदिके विषय, खाने-पीनेकी सामग्री आदि सब 'पदार्थ' हैं। इन क्रियाओं और पदार्थोंको हम इन्द्रियों (आँख, कान, मुँह आदिसे) जानते हैं। इन्द्रियोंको 'मन' से, मनको 'बुद्धि' से और बुद्धिको माने हुए 'अहम्' (मैं-पन) से जानते हैं। यह 'अहम्' भी एक सामान्य प्रकाश (चेतन) से प्रकाशित होता है। वह सामान्य प्रकाश ही सबका ज्ञाता, सबका प्रकाशक और सबका आधार है।"

"अहम्' से परे अपने स्वरूप (चेतन) को कैसे जानें ? गाढ़ निद्रामें यद्यपि बुद्धि अविद्यामें लीन हो जाती है, फिर भी मनुष्य जागनेपर कहता है कि 'मैं बहुत सुखसे सोया।' इस प्रकार जागनेके बाद 'मैं हूँ' का अनुभव सबको होता है। इससे सिद्ध होता है कि सुषुप्तिकालमें भी अपनी सत्ता थी। यदि ऐसा न होता तो 'मैं बहुत सुखसे सोया; मुझे कुछ भी पता नहीं था' - ऐसी स्मृति या ज्ञान नहीं होता। स्मृति अनुभवजन्य होती है'।


१-अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ।


(योगदर्शन १।११) अतएव सबको प्रत्येक अवस्थामें अपनी सत्ताका अखण्ड अनुभव होता है। किसी भी अवस्थामें अपने अभावका ('मैं' नहीं हूँ - इसका) अनुभव नहीं होता। जिन्होंने माने हुए 'अहम्' (मैं-पन) से भी सम्बन्ध विच्छेद करके अपने स्वरूप ( 'है') का बोध कर लिया है, वे 'तत्त्ववित्' कहलाते हैं।


अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्वके साथ हमारा स्वतःसिद्ध नित्य सम्बन्ध है। परिवर्तनशील प्रकृतिके साथ हमारा सम्बन्ध वस्तुतः है नहीं, केवल माना हुआ है। प्रकृतिसे माने हुए सम्बन्धको यदि विचारके द्वारा मिटाते हैं तो उसे 'ज्ञानयोग' कहते हैं; और यदि वही सम्बन्ध परहितार्थ कर्म करते हुए मिटाते हैं तो उसे 'कर्मयोग' कहते हैं। प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर ही 'योग' (परमात्मासे नित्य सम्बन्धका अनुभव) होता है, अन्यथा केवल 'ज्ञान' और 'कर्म' ही होता है। अतः प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेदपूर्वक परमात्मासे अपने नित्य-सम्बन्धको पहचाननेवाला ही 'तत्त्ववित् ' है। 


'गुणा गुणेषु वर्तन्ते'- प्रकृतिजन्य गुणोंसे उत्पन्न होनेके कारण शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी 'गुण' ही कहलाते हैं और इन्हींसे सम्पूर्ण कर्म होते हैं। अविवेकके कारण अज्ञानी पुरुष इन गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर इनसे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है।"

"२-उदाहरणार्थ-वाणी 'पदार्थ' है, बोलनेकी प्रवृत्ति 'क्रिया' है और बोलना समष्टि शक्तिसे हो रहा है अर्थात् गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं; परन्तु मनुष्य अज्ञानवश पदार्थ और क्रियाको अपना मानकर स्वयं 'कर्ता' बन जाता है।


परन्तु 'स्वयं' (सामान्य प्रकाश- चेतन) में अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव होनेपर 'मैं कर्ता हूँ' - ऐसा भाव आ ही नहीं सकता।


रेलगाड़ीका इंजन चलता है अर्थात् उसमें क्रिया होती है; परन्तु खींचनेकी शक्ति इंजन और चालकके मिलनेसे आती है। वास्तवमें खींचनेकी शक्ति तो इंजनकी ही है, पर चालकके द्वारा संचालन करनेपर ही वह गन्तव्य स्थानपर पहुँच पाता है। कारण कि इंजनमें इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि नहीं हैं, इसलिये उसे इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिवाले चालक (मनुष्य) की जरूरत पड़ती है। परन्तु मनुष्यके पास शरीररूप इंजन भी है और संचालनके लिये इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भी। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि-ये चारों एक सामान्य प्रकाश (चेतन) से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही कार्य करनेमें समर्थ होते हैं। सामान्य प्रकाश (ज्ञान) का प्रतिबिम्ब बुद्धिमें आता है, बुद्धिके ज्ञानको मन ग्रहण करता है, मनके ज्ञानको इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं, और फिर शरीररूप इंजनका संचालन होता है। बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, शरीर-ये सब-के-सब गुण हैं और इन्हें प्रकाशित करनेवाला अर्थात् इन्हें सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला 'स्वयं' इन गुणोंसे असम्बद्ध, निर्लिप्त रहता है। अतः वास्तवमें सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं।"

"श्रेष्ठ पुरुषके आचरणोंका सब लोग अनुसरण करते हैं। इसीलिये भगवान् ज्ञानी महापुरुषके द्वारा लोकसंग्रह कैसे होता है-इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वह महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'- ऐसा अनुभव करके उनमें आसक्त नहीं होता, उसी प्रकार साधकको भी वैसा ही मानकर उनमें आसक्त नहीं होना चाहिये।


प्रकृति-पुरुष-सम्बन्धी मार्मिक बात


आकर्षण सदा सजातीयतामें ही होता है; जैसे- कानोंका शब्दमें, त्वचाका स्पर्शमें, नेत्रोंका रूपमें, जिह्वाका रसमें और नासिकाका गन्धमें आकर्षण होता है। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंमें ही आकर्षण होता है। एक इन्द्रियका दूसरी इन्द्रियके विषयमें कभी आकर्षण नहीं होता। तात्पर्य यह है कि एक वस्तुका दूसरी वस्तुके प्रति आकर्षण होनेमें मूल कारण उन दोनोंकी सजातीयता ही है।


आकर्षण, प्रवृत्ति एवं प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयतामें ही होती है। विजातीय वस्तुओंमें न तो आकर्षण होता है, न प्रवृत्ति होती है और न प्रवृत्तिकी सिद्धि ही होती है, इसलिये आकर्षण, प्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयताके कारण 'प्रकृति' में ही होती है; परन्तु पुरुष (चेतन) में विजातीय प्रकृति (जड) का जो आकर्षण प्रतीत होता है, उसमें भी वास्तवमें प्रकृतिका अंश ही प्रकृतिकी ओर आकर्षित होता है। करने और भोगनेकी क्रिया प्रकृतिमें ही है, पुरुषमें नहीं। पुरुष तो सदा निर्विकार, नित्य, अचल तथा एकरस रहता है।"

"तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान् ने बताया है कि शरीरमें स्थित होनेपर भी पुरुष वस्तुतः न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है- 'शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।' पुरुष तो केवल 'प्रकृतिस्थ' होने अर्थात् प्रकृतिसे तादात्म्य माननेके कारण सुख-दुःखोंके भोक्तृत्वमें हेतु कहा जाता है- 'पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते' (गीता १३। २०) और 'पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्' (गीता १३। २१)। तात्पर्य यह है कि यद्यपि सम्पूर्ण क्रियाएँ, क्रियाओंकी सिद्धि और आकर्षण प्रकृतिमें ही होता है, तथापि प्रकृतिसे तादात्म्यके कारण पुरुष 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ'- ऐसा मानकर भोक्तृत्वमें हेतु बन जाता है। कारण कि सुखी-दुःखी होनेका अनुभव प्रकृति (जड) में हो ही नहीं सकता, प्रकृति (जड) के बिना केवल पुरुष (चेतन) सुख-दुःखका भोक्ता बन ही नहीं सकता।


पुरुषमें प्रकृतिकी परिवर्तनरूप क्रिया या विकार नहीं है; परन्तु उसमें सम्बन्ध मानने अथवा न माननेकी योग्यता तो है ही। वह पत्थरकी तरह जड नहीं, प्रत्युत ज्ञानस्वरूप है। यदि पुरुषमें सम्बन्ध मानने अथवा न माननेकी योग्यता नहीं होती, तो वह प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध कैसे मानता ? प्रकृतिसे सम्बन्ध मानकर उसकी क्रियाको अपनेमें कैसे मानता ? और अपनेमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व कैसे स्वीकार करता ? सम्बन्धको मानना अथवा न मानना 'भाव' है, 'क्रिया' नहीं।"

"पुरुषमें सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़नेकी योग्यता तो है, पर क्रिया करनेकी योग्यता उसमें नहीं है। क्रिया करनेकी योग्यता उसीमें होती है, जिसमें परिवर्तन (विकार) होता है। पुरुषमें परिवर्तनका स्वभाव नहीं है, जबकि प्रकृतिमें परिवर्तनका स्वभाव है अर्थात् प्रकृतिमें क्रियाशीलता स्वाभाविक है। इसलिये प्रकृतिसे सम्बन्ध जोड़नेपर ही पुरुष अपनेमें क्रिया मान लेता है - 'कर्ताहमिति मन्यते' (गीता ३। २७)।


पुरुषमें कोई परिवर्तन नहीं होता, यह (परिवर्तनका न होना) उसकी कोई अशक्तता या कमी नहीं है, प्रत्युत उसकी महत्ता है। वह निरन्तर एकरस, एकरूप रहनेवाला है। परिवर्तन होना उसका स्वभाव ही नहीं है; जैसे- बर्फमें गरम होनेका स्वभाव या योग्यता नहीं है। परिवर्तनरूप क्रिया होना प्रकृतिका स्वभाव है, पुरुषका नहीं। परन्तु प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध न माननेकी इसमें पूरी योग्यता, सामर्थ्य, स्वतन्त्रता है; क्योंकि वास्तवमें प्रकृतिसे सम्बन्ध मूलमें नहीं है।


प्रकृतिके अंश शरीरको पुरुष जब अपना स्वरूप मान लेता है, तब प्रकृतिके उस अंशमें (सजातीय प्रकृतिका) आकर्षण, क्रियाएँ और उनके फलकी प्राप्ति होती रहती है। इसीका संकेत यहाँ 'गुणाः गुणेषु वर्तन्ते' पदोंसे किया गया है। गुणोंमें अपनी स्थिति मानकर पुरुष (चेतन) सुखी-दुःखी होता रहता है। वास्तवमें सुख- दुःखकी पृथक् सत्ता नहीं है। इसलिये भगवान् गुणोंसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये विशेष जोर देते हैं।


तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो सम्बन्ध विच्छेद पहलेसे (सदासे) ही है। केवल भूलसे सम्बन्ध माना हुआ है। अतः माने हुए सम्बन्धको अस्वीकार करके केवल 'गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं' इस वास्तव वास्तविकताको पहचानना है।"

"इति मत्वा न सज्जते'- यहाँ 'मत्वा' पद 'जानने' के अर्थमें आया है। तत्त्वज्ञ महापुरुष प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन) को स्वाभाविक ही अलग-अलग जानता है। इसलिये वह प्रकृतिजन्य गुणोंमें आसक्त नहीं होता।


भगवान् 'मत्वा' पदका प्रयोग करके मानो साधकोंको यह आज्ञा देते हैं कि वे भी प्रकृतिजन्य गुणोंको अलग मानकर उनमें आसक्त न हों।


विशेष बात


कर्मयोगी और सांख्ययोगी- दोनोंकी साधना-प्रणालीमें एकता नहीं होती। कर्मयोगी गुणों (शरीरादि) से मानी हुई एकताको मिटानेकी चेष्टा करता है, इसलिये श्रीमद्भागवतमें 'कर्मयोगस्तु कामिनाम्' (११। २०।७) कहा गया है। भगवान् ने भी इसीलिये कर्मयोगीके लिये कर्म करनेकी आवश्यकतापर विशेष जोर दिया है; जैसे - 'कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं होता' (गीता-तीसरे अध्यायका चौथा श्लोक) 'योगमें आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील पुरुषके लिये कर्म करना ही हेतु कहा जाता है' (गीता- छठे अध्यायका तीसरा श्लोक)। कर्मयोगी कर्मोंको तो करता है, पर उनको अपने लिये नहीं, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये ही करता है; इसलिये वह उन कर्मोंका भोक्ता नहीं बनता। भोक्ता न बननेसे अर्थात् भोक्तृत्वका नाश होनेसे कर्तृत्वका नाश स्वतः हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्तृत्वमें जो कर्तापन है, वह फलके लिये ही है। फलका उद्देश्य न रहनेपर कर्तृत्व नहीं रहता। इसलिये वास्तवमें कर्मयोगी भी कर्ता नहीं बनता।


सांख्ययोगीमें विवेक-विचारकी प्रधानता रहती है। वह 'प्रकृतिजन्य गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं' ऐसा जानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता। इसी बातको भगवान् आगे तेरहवें अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें कहेंगे कि जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और 'स्वयं' (आत्मा) को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्वका नाश करता है। कर्तृत्वका नाश होनेपर भोक्तृत्वका नाश स्वतः हो जाता है।"

"तीसरे अध्यायके आरम्भसे ही भगवान् ने कई उदाहरणों एवं दृष्टिकोणोंसे कर्म करनेपर ही जोर दिया है; जैसे- जनकादि महापुरुष भी निष्कामभावसे कर्म करके परम-सिद्धिको प्राप्त हुए हैं (तीसरे अध्यायका बीसवाँ श्लोक); 'मैं भी कर्म करता हूँ' (तीसरे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक); 'ज्ञानी महापुरुष भी अज्ञानी पुरुषोंके समान लोक-संग्रहार्थ कर्म करता है' (तीसरे अध्यायका पचीसवाँ- छब्बीसवाँ श्लोक)। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक दृष्टिसे कर्म करना ही श्रेयस्कर है।


परिशिष्ट भाव - जो अहंकारसे मोहित नहीं होता, वह 'तत्त्ववित् ' होता है। इस तत्त्ववित् को ही दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें 'तत्त्वदर्शी' कहा है। तत्त्ववित् गुण-विभाग और कर्म-विभागसे अर्थात् पदार्थ और क्रियासे सर्वथा अतीत हो जाता है।


जबतक साधकका संसारके साथ सम्बन्ध रहेगा, तबतक वह 'तत्त्ववित्' नहीं हो सकता। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई संसारको जान ही नहीं सकता। संसारसे सर्वथा अलग होनेपर ही संसारको जान सकते हैं- यह नियम है। इसी तरह परमात्मासे अलग होकर कोई परमात्माको जान ही नहीं सकता। परमात्मासे एक होकर ही परमात्माको जान सकते हैं- यह नियम है। कारण यह है कि वास्तवमें हम संसारसे अलग हैं और परमात्मासे एक हैं। शरीरकी संसारके साथ एकता है, हमारी (स्वयंकी) परमात्माके साथ एकता है।"

कल के श्लोक 29 में हम चर्चा करेंगे कि आम व्यक्ति और ज्ञानी व्यक्ति में अंतर कैसे समझा जा सकता है। हम जानेंगे कि किस तरह अहंकार का भ्रम इंसान को कर्मों में बांधता है और इससे कैसे बचा जा सकता है।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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