ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 29 | कर्म और अहंकार का बंधन | जानें कैसे बचें कर्म के जाल से


 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आप जानते हैं कि इंसान किस प्रकार से कर्म में बंधता है और इससे कैसे मुक्त हो सकता है? आज के वीडियो में हम गीता के श्लोक 29 पर चर्चा करेंगे, जहां श्रीकृष्ण ने बताया है कि कर्म करने वाले और ज्ञानवान व्यक्ति में क्या अंतर होता है और अहंकार कैसे हमें बंधन में डालता है।

पिछले वीडियो में हमने श्लोक 28 पर चर्चा की थी, जहां श्रीकृष्ण ने समझाया था कि तत्वज्ञानी व्यक्ति प्रकृति के गुणों को समझता है और कर्म में खुद को कर्ता नहीं मानता। अब आज हम श्लोक 29 पर चर्चा करेंगे, जिसमें यह बताया गया है कि आम व्यक्ति क्यों और कैसे कर्म में बंध जाता है।

"श्लोक 29 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

प्रकृते: गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।

तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥

इसका अर्थ है कि जो लोग प्रकृति के गुणों से भ्रमित होते हैं, वे गुणों के अनुसार किए गए कर्मों में लिप्त हो जाते हैं। ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि ऐसे अज्ञानी लोगों को उनके कर्मों में भ्रमित न करे।

इस श्लोक में भगवान समझाते हैं कि साधारण व्यक्ति, जो प्रकृति के गुणों को नहीं समझता, वह अपने कर्मों से बंधा रहता है। उसकी यह सोच होती है कि वह स्वयं कर्ता है, जो उसे मोह और बंधन में डालती है। ज्ञानी व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह उन लोगों को न भ्रमित करे जो इस सत्य से अनजान हैं।"


"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 29"

"ज्ञानीके लिये साधारण मनुष्योंको कर्मोंसे विचलित करनेका निषेध ।


(श्लोक-२९)


प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।


उच्चारण की विधि


प्रकृतेः, गुणसम्मूढाः, सज्जन्ते, गुणकर्मसु, तान्, अकृत्स्नविदः, मन्दान्, कृत्स्नवित्, न, विचालयेत् ॥ २९ ॥


प्रकृतेः अर्थात् प्रकृतिके, गुणसम्मूढाः अर्थात् गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य, गुणकर्मसु अर्थात् गुणोंमें और


कर्मोंमें, सज्जन्ते अर्थात् आसक्त रहते हैं, तान् अर्थात् उन, अकृत्स्नविदः अर्थात् पूर्णतया न समझनेवाले, मन्दान् अर्थात् 

मन्दबुद्धि अज्ञानियोंको, कृत्स्नवित् अर्थात् पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी, न विचालयेत् अर्थात् विचलित न करे।


अर्थ - प्रकृतिके गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणोंमें और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि अज्ञानियोंको पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे ॥ २९ ॥"

"व्याख्या 'प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु' - सत्त्व, रज और तम ये तीनों प्रकृतिजन्य गुण मनुष्यको बाँधनेवाले हैं। सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे, रजोगुण कर्मकी आसक्तिसे और तमोगुण प्रमाद, आलस्य तथा निद्रासे मनुष्यको बाँधता है (गीता-चौदहवें अध्यायके छठेसे आठवें श्लोकतक)। उपर्युक्त पदोंमें उन अज्ञानियोंका वर्णन है, जो प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित अर्थात् बँधे हुए हैं; परन्तु जिनका शास्त्रोंमें, शास्त्रविहित शुभकर्मोंमें तथा उन कर्मोंके फलोंमें श्रद्धा-विश्वास है। इसी अध्यायके पचीसवें-छब्बीसवें श्लोकोंमें ऐसे अज्ञानी पुरुषोंका 'सक्ताः, अविद्वांसः' और 'कर्मसंगिनाम्, अज्ञानाम्' नामसे वर्णन हुआ है। लौकिक और पारलौकिक भोगोंकी कामनाके कारण ये पुरुष पदार्थों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं। इस कारण इनसे ऊँचे उठनेकी बात समझ नहीं सकते। इसीलिये भगवान् ने इन्हें अज्ञानी कहा है।


'तानकृत्स्नविदो मन्दान्'- अज्ञानी मनुष्य शुभकर्म तो करते हैं, पर करते हैं नित्य-निरन्तर न रहनेवाले नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्तिके लिये। धनादि प्राप्त पदार्थोंमें वे ममता रखते हैं और अप्राप्त पदार्थोंकी कामना करते हैं। इस प्रकार ममता और कामनासे बँधे रहनेके कारण वे गुणों (पदार्थों) और कर्मोंके तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जान सकते।


अज्ञानी मनुष्य शास्त्रविहित कर्म और उनकी विधिको तो ठीक तरहसे जानते हैं, पर गुणों और कर्मोंके तत्त्वको ठीक तरहसे न जाननेके कारण उन्हें 'अकृत्स्नविदः' (पूर्णतया न जाननेवाले) कहा गया है और सांसारिक भोग तथा संग्रहमें रुचि होनेके कारण उन्हें 'मन्दान्' (मन्दबुद्धि) कहा गया है।"

"कृत्स्नविन्न विचालयेत्'- गुण और कर्म-विभागको पूर्णतया जाननेवाले तथा कामना-ममतासे रहित ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह पूर्ववर्णित (सकाम भावपूर्वक शुभ कर्मोंमें लगे हुए) अज्ञानी पुरुषोंको शुभ-कर्मोंसे विचलित न करें, जिससे वे मन्दबुद्धि पुरुष अपनी वर्तमान स्थितिसे नीचे न गिर जायँ। इसी अध्यायके पचीसवें- छब्बीसवें श्लोकोंमें ऐसे ज्ञानी पुरुषोंका 'असक्तः, विद्वान्' और 'युक्तः, विद्वान्' नामसे वर्णन हुआ है।


भगवान् ने तत्त्वज्ञ महापुरुषको पचीसवें श्लोकमें 'कुर्यात्' पदसे स्वयं कर्म करनेकी तथा छब्बीसवें श्लोकमें 'जोषयेत्' पदसे अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवानेकी आज्ञा दी थी। परन्तु यहाँ भगवान् ने 'न विचालयेत्' पदोंसे वैसी आज्ञा न देकर मानो उसमें कुछ ढील दी है कि ज्ञानी पुरुष अधिक नहीं तो कम-से-कम अपने संकेत, वचन और क्रियासे अज्ञानी पुरुषोंको विचलित न करे। कारण कि जीवन्मुक्त महापुरुषपर भगवान् और शास्त्र अपना शासन नहीं रखते। उनके कहलानेवाले शरीरसे स्वतः स्वाभाविक लोकसंग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं।


* क्रिया और कर्म-इन दोनोंमें भी भेद है। क्रियाके साथ जब 'मैं कर्ता हूँ ऐसा अहंभाव रहता है, तब वह क्रिया 'कर्म' हो जाती है और उसका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित-तीन प्रकारका फल मिलता है (गीता १८। १२)। परन्तु जहाँ 'मैं कर्ता नहीं हूँ' ऐसा भाव रहता है, वहाँ वह क्रिया 'कर्म' नहीं बनती अर्थात् फलदायक नहीं होती। तत्त्वज्ञ महापुरुषके द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते, प्रत्युत केवल क्रियाएँ (चेष्टामात्र) होती हैं (गीता ३। ३३)।"

"तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मयोगी हो अथवा ज्ञानयोगी- सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी उसका कर्मों और पदार्थोंके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध स्वतः नहीं रहता, जो वस्तुतः था नहीं।


अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग-प्राप्तिके लिये शुभ-कर्म किया करते हैं। इसलिये भगवान् ने ऐसे मनुष्योंको विचलित न करनेकी आज्ञा दी है अर्थात् वे महापुरुष अपने संकेत, वचन और क्रियासे ऐसी कोई बात प्रकट न करें, जिससे उन सकाम पुरुषोंकी शास्त्रविहित शुभ- कर्मोंमें अश्रद्धा, अविश्वास या अरुचि पैदा हो जाय और वे उन कर्मोंका त्याग कर दें; क्योंकि ऐसा करनेसे उनका पतन हो सकता है। इसलिये ऐसे पुरुषोंको सकामभावसे विचलित करना है, शास्त्रीय कर्मोंसे नहीं। जन्म-मरणरूप बन्धनसे छुटकारा दिलानेके लिये उन्हें सकामभावसे विचलित करना उचित भी है और आवश्यक भी।


परिशिष्ट भाव - अर्जुनका प्रश्न था कि मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हो ? उस प्रश्नका उत्तर भगवान् कई तरहसे देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि मेरा उद्देश्य घोर कर्ममें लगाना नहीं है, प्रत्युत कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है। कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद करनेके लिये ही कर्मयोग है।


सम्बन्ध-जिससे मनुष्य कर्मोंमें फँस जाता है, उस कर्म और कर्मफलकी आसक्तिसे छूटनेके लिये क्या करना चाहिये- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।"

कल के श्लोक 30 में हम जानेंगे कि कैसे भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म योग का रहस्य उजागर किया है। इसमें वे बताते हैं कि सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करके कैसे हम कर्म के बंधन से मुक्त हो सकते हैं।

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कल मिलते हैं नये श्लोक की व्याख्या के साथ। तब तक ""Keep Learning, Keep Growing!"


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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