ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 30 | कर्मफल का त्याग | जानें कैसे कर्म करते हुए भी मुक्त रहें
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानते हैं कि कर्म करते हुए भी आप बंधन से मुक्त हो सकते हैं? आज हम गीता के श्लोक 30 में जानेंगे कि कर्म को भगवान को अर्पित कर कैसे हर बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि कैसे निष्काम कर्म किया जाए।
कल हमने श्लोक 29 पर चर्चा की थी, जिसमें श्रीकृष्ण ने बताया था कि कैसे अज्ञानी लोग कर्मों में बंध जाते हैं और ज्ञानी व्यक्ति उन्हें भ्रमित किए बिना मार्गदर्शन करता है। आज हम आगे बढ़ते हुए देखेंगे कि भगवान के प्रति समर्पण से कर्म के बंधन से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है।
"श्लोक 30 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:॥
इसका अर्थ है कि 'अपने सभी कर्मों को मुझमें समर्पित करके, आत्मचेतना से युक्त होकर, बिना किसी इच्छा और ममता के कर्म कर, और मानसिक तनाव से मुक्त होकर युद्ध कर।'
इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि सभी कर्मों को भगवान को समर्पित करके हमें निष्काम भाव से कार्य करना चाहिए। इसमें न तो किसी फल की इच्छा होनी चाहिए और न ही ममता। जब हम यह भाव अपनाते हैं, तब हम हर प्रकार के मानसिक तनाव और बंधन से मुक्त हो जाते हैं।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 30"
"अर्जुनको आशा, ममतादिका सर्वथा त्यागकर भगवदर्पण बुद्धिसे युद्ध करनेकी आज्ञा ।
(श्लोक-३०)
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
उच्चारण की विधि
मयि, सर्वाणि, कर्माणि, सन्न्यस्य, अध्यात्मचेतसा, निराशीः, निर्ममः, भूत्वा, युध्यस्व, विगतज्वरः ॥ ३० ॥
अध्यात्मचेतसा अर्थात् मुझ अन्तर्यामी परमात्मामें लगे हुए चित्तद्वारा, सर्वाणि अर्थात् सम्पूर्ण, कर्माणि अर्थात् कर्मोंको, मयि अर्थात् मुझमें, सन्न्यस्य अर्थात् अर्पण करके, निराशीः अर्थात् आशारहित, निर्ममः अर्थात् ममतारहित
(और), विगतज्वरः अर्थात् संतापरहित, भूत्वा अर्थात् होकर, युध्यस्व अर्थात् युद्ध कर।
अर्थ - मुझ अन्तर्यामी परमात्मामें लगे हुए चित्तद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर ॥"
"व्याख्या'मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा' -
प्रायः साधकका यह विचार रहता है कि कर्मोंसे बन्धन होता है और कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं; इसलिये कर्म करनेसे तो मैं बँध जाऊँगा ! अतः कर्म किस प्रकार करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धनकारक न हों, प्रत्युत मुक्तिदायक हो जायँ इसके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू अध्यात्मचित्त (विवेक-विचारयुक्त अन्तःकरण) से सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मोंको मेरे अर्पण कर दे अर्थात् इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान। कारण कि वास्तवमें संसारमात्रकी सम्पूर्ण क्रियाओंमें केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है। शरीर, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है। इसलिये 'सब कुछ भगवान् का है और भगवान् अपने हैं'- गम्भीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्तव्य-कर्म करेगा, तब वे कर्म तेरेको बाँधनेवाले नहीं होंगे, प्रत्युत उद्धार करनेवाले हो जायँगे।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिपर अपना कोई अधिकार नहीं चलता-यह मनुष्यमात्रका अनुभव है। ये सब प्रकृतिके हैं - 'प्रकृतिस्थानि' और 'स्वयं' परमात्माका है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५। ७) । अतः शरीरादि पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनको हटाकर इनको भगवान् का ही मानना (जो कि वास्तवमें है) 'अर्पण' कहलाता है। अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मोंसे मूर्खतावश माने हुए सम्बन्धका त्याग करना ही अर्पण करनेका तात्पर्य है।"
"अध्यात्मचेतसा' पदसे भगवान् का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्गका साधक हो, उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये, लौकिक नहीं। वास्तवमें उद्देश्य या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्वकी (आध्यात्मिक) होती है और कामना सदैव अनित्यतत्त्व (उत्पत्ति विनाशशील वस्तु) की होती है। साधकमें उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं। उद्देश्यवाला अन्तःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है।
दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक, किसी भी दृष्टिसे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ अपने हैं। वास्तवमें ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत केवल सदुपयोग करनेके लिये मिले हुए हैं। अपने न होनेके कारण ही इनपर किसीका आधिपत्य नहीं चलता।
संसारमात्र परमात्माका है; परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धनमें पड़ जाता है। अतः विवेक-विचारके द्वारा इस भूलको मिटाकर सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंको अध्यात्मतत्त्व (परमात्मा) का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्तके द्वारा उनका अर्पण करना है।
इस श्लोकमें 'अध्यात्मचेतसा' पद मुख्यरूपसे आया है। तात्पर्य यह है कि अविवेकसे ही उत्पत्ति-विनाशशील शरीर (संसार) अपना दीखता है। यदि विवेक-विचार-पूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दीखेगा। संसारको अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान है- द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् । ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥
"
"(महा०, शान्ति० १३।४; आश्वमेधिक० ५१।२९)
'दो अक्षरोंका 'मम' (यह मेरा है - ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरोंका 'न मम' (यह मेरा नहीं है-ऐसा भाव) अमृत - सनातन ब्रह्म है।'
अर्पण-सम्बन्धी विशेष बात
भगवान् ने 'मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्त्यस्य' पदोंसे सम्पूर्ण कर्मोंको अर्पण करनेकी बात इसलिये कही है कि मनुष्यने करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण), उपकरण (कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री) तथा क्रियाओंको भूलसे अपनी और अपने लिये मान लिया, जो कभी इसके थे नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं और हो सकते भी नहीं। उत्पत्ति-विनाशवाली वस्तुओंसे अविनाशीका क्या सम्बन्ध ? अतः कर्मोंको चाहे संसारके अर्पण कर दे, चाहे प्रकृतिके अर्पण कर दे और चाहे भगवान् के अर्पण कर दे-तीनोंका एक ही नतीजा होगा; क्योंकि संसार प्रकृतिका कार्य है और भगवान् प्रकृतिके स्वामी हैं। इस दृष्टिसे संसार और प्रकृति दोनों भगवान् के हैं। अतः 'मैं भगवान् का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवान् की हैं', इस प्रकार सब कुछ भगवान् के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये। ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान् से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान् स्वतः करते हैं। अर्पण करनेके बाद फिर शरीरादि पदार्थ अपने प्रतीत नहीं होने चाहिये। यदि अपने प्रतीत होते हैं तो वास्तवमें अर्पण हुआ ही नहीं।
इसीलिये भगवान् ने विवेक-विचारयुक्त चित्तसे अर्पण करनेके लिये कहा है, जिससे यह वास्तविकता ठीक तरहसे समझमें आ जाय कि ये पदार्थ भगवान् के ही हैं, अपने हैं ही नहीं।"
"भगवान् के अर्पणकी बात ऐसी विलक्षण है कि किसी तरहसे (उकताकर भी) अर्पण किया जाय तो भी लाभ-ही-लाभ है। कारण कि कर्म और वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं। कर्मोंको करनेके बाद भी उनका अर्पण किया जा सकता है, पर वास्तविक अर्पण पदार्थों और कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर ही होता है। पदार्थों और कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होता है, जब यह बात ठीक-ठीक अनुभवमें आ जाय कि करण (शरीरादि), उपकरण (सांसारिक पदार्थ), कर्म और 'स्वयं'- ये सब भगवान् के ही हैं। साधकसे प्रायः यह भूल होती है कि वह उपकरणोंको तो भगवान् का माननेकी चेष्टा करता है, पर 'करण तथा स्वयं भी भगवान् के हैं'- इसपर ध्यान नहीं देता। इसीलिये उसका अर्पण अधूरा रह जाता है। अतः साधकको करण, उपकरण, क्रिया और 'स्वयं'- सभीको एकमात्र भगवान् का ही मान लेना चाहिये, जो वास्तवमें उन्हींके हैं।
कर्मों और पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना अर्पण नहीं है। भगवान् की वस्तुको भगवान् की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए भगवान् के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान् बहुत वस्तुएँ देते हैं; जैसे- पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है। परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवान् की ही मानते हुए) भगवान् के अर्पण करता है, भगवान् उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं। तात्पर्य है कि वस्तुको अपनी मानकर देनेसे (अन्तःकरणमें वस्तुका महत्त्व होनेसे) उस वस्तुका मूल्य वस्तुमें ही मिलता है और अपनी न मानकर देनेसे स्वयं भगवान् मिलते हैं।"
"वास्तविक अर्पणसे भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्पण करनेसे भगवान् को कोई सहायता मिलती है; परन्तु अर्पण करनेवाला कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है और इसीमें भगवान् की प्रसन्नता है। जैसे छोटा बालक आँगनमें पड़ी हुई चाबी पिताजीको सौंप देता है तो पिताजी प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि छोटा बालक भी पिताजीका है, आँगन भी पिताजीका है और चाबी भी पिताजीकी है, पर वास्तवमें पिताजी चाबीके मिलनेसे नहीं, प्रत्युत बालकका (देनेका) भाव देखकर प्रसन्न होते हैं और हाथ ऊँचा करके बालकसे कहते हैं कि तू इतना बड़ा हो जा! अर्थात् उसे अपनेसे भी ऊँचा (बड़ा) बना लेते हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ, शरीर तथा शरीरी (स्वयं) भगवान् के ही हैं; अतः उनपरसे अपनापन हटाने और उन्हें भगवान् के अर्पण करनेका भाव देखकर
ही वे (भगवान्) प्रसन्न हो जाते हैं और उसके ऋणी हो जाते हैं। कामना-सम्बन्धी विशेष बात
परमात्माने मनुष्य-शरीरकी रचना बड़े विचित्र ढंगसे की है। मनुष्यके जीवन-निर्वाह और साधनके लिये जो-जो आवश्यक सामग्री है, वह उसे प्रचुर मात्रामें प्राप्त है। उसमें भगवत्प्रदत्त विवेक भी विद्यमान है। उस विवेकको महत्त्व न देकर जब मनुष्य प्राप्त वस्तुओंका ठीक-ठीक सदुपयोग नहीं करता, प्रत्युत उन्हें अपना मानकर अपने लिये उनका उपयोग करता है एवं प्राप्त वस्तुओंमें ममता तथा अप्राप्त वस्तुओंकी कामना करने लगता है, तब वह जन्म-मरणके बन्धनमें बँध जाता है।"
"वर्तमानमें जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, योग्यता, शक्ति, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि आदि मिले हुए दीखते हैं, वे पहले भी हमारे पास नहीं थे और बादमें भी सदा हमारे पास नहीं रहेंगे; क्योंकि वे कभी एकरूप नहीं रहते, प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इस वास्तविकताको मनुष्य जानता है। यदि मनुष्य जैसा जानता है, वैसा ही मान ले और वैसा ही आचरणमें ले आये तो उसका उद्धार होनेमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है। जैसा जानता है, वैसा मान लेनेका तात्पर्य यह है कि शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने, उनके आश्रित न रहे और उन्हें महत्त्व देकर उनकी पराधीनता स्वीकार न करे।
पदार्थोंको महत्त्व देना महान् भूल है। उनकी प्राप्तिसे अपनेको कृतार्थ मानना महान् बन्धन है। नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही उनकी नयी-नयी कामनाएँ उत्पन्न होती हैं। कामना सम्पूर्ण पापों, तापों, दुःखों, अनर्थों, नरकों आदिकी जड़ है। कामनासे पदार्थ मिलते नहीं और प्रारब्धवशात् मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। कारण कि पदार्थ आने-जानेवाले हैं और 'स्वयं' सदा रहनेवाला है। अतः कामनाका त्याग करके मनुष्यको कर्तव्य कर्मका पालन करना चाहिये।
यहाँ शंका हो सकती है कि कामनाके बिना कर्मोंमें प्रवृत्ति कैसे होगी ? इसका समाधान यह है कि कामनाकी पूर्ति और निवृत्ति- दोनोंके लिये कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है। साधारण मनुष्य कामनाकी पूर्तिके लिये कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं और साधक आत्मशुद्धिहेतु कामनाकी निवृत्तिके लिये (गीता- पाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)। वास्तवमें कर्मोंमें प्रवृत्ति कामनाकी निवृत्तिके लिये ही है, कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं।"
"मनुष्य-शरीर उद्देश्यकी पूर्तिके लिये ही मिला है। उद्देश्यकी पूर्ति होनेपर कुछ भी करना शेष नहीं रहता। कामना पूर्तिके लिये कर्मोंमें प्रवृत्ति उन्हीं मनुष्योंकी होती है, जो अपने वास्तविक उद्देश्य (नित्यतत्त्व परमात्माकी प्राप्ति) को भूले हुए हैं। ऐसे मनुष्योंको भगवान् ने 'कृपण' (दीन या दयाका पात्र) कहा है- 'कृपणाः फलहेतवः' (गीता २। ४९)। इसके विपरीत जो मनुष्य उद्देश्यको सामने रखकर (कामनाकी निवृत्तिके लिये) कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं, उन्हें भगवान् ने 'मनीषी' (बुद्धिमान् या ज्ञानी) कहा है- 'फलं त्यक्त्वा मनीषिणः' (गीता २। ५१)। सेवा, स्वरूप-बोध और भगवत्प्राप्तिका भाव उद्देश्य है, कामना नहीं। नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्तिका भाव ही कामना है। अतः कामनाके बिना कर्मोंमें प्रवृत्ति नहीं होती-ऐसा मानना भूल है। उद्देश्यकी पूर्तिके लिये भी कर्म सुचारुरूपसे होते हैं।
अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर संसार (जडता) से अपना सम्बन्ध मान लेनेसे ही आवश्यकता और कामना- दोनोंकी उत्पत्ति होती है। संसारसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग होनेपर आवश्यकताकी पूर्ति और कामनाकी निवृत्ति हो जाती है।
'निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः' - सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थों (कर्मसामग्री) को भगवदर्पण करनेके बाद भी कामना, ममता और सन्तापका कुछ अंश शेष रह सकता है। उदाहरणार्थ- हमने किसीको पुस्तक दी। उसे वह पुस्तक पढ़ते हुए देखकर हमारे मनमें ऐसा भाव आ जाता है कि वह मेरी पुस्तक पढ़ रहा है। यही आंशिक ममता है, जो पुस्तक अर्पण करनेके बाद भी शेष है। इस अंशका त्याग करनेके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू नयी वस्तुकी 'कामना' मत कर, प्राप्त वस्तुमें 'ममता' मत कर और नष्ट वस्तुका 'संताप' मत कर। सब कुछ मेरे अर्पण करनेकी कसौटी यह है कि कामना, ममता और संतापका अंश भी न रहे।"
"जिन साधकोंको सब कुछ भगवदर्पण करनेके बाद भी पूर्वसंस्कारवश शरीरादि पदार्थोंकी कामना, ममता तथा संताप दीखते हैं, उन्हें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि जिसमें कामना दीखती है, वही कामनारहित होता है; जिसमें ममता दीखती है, वही ममतारहित होता है और जिसमें संताप दीखता है, वही संतापरहित होता है। इसी प्रकार जो देहको 'अहम्' (मैं) मानता है, वही विदेह (अहंतारहित) होता है। अतः मनुष्यमात्र कामना, ममता और संतापरहित होनेका पूरा अधिकारी है।
गीतामें 'ज्वर' शब्द केवल यहीं आया है। युद्धमें कौटुम्बिक स्नेह आदिसे संताप होनेकी सम्भावना रहती है। अतः युद्धरूप कर्तव्य- कर्म करते समय विशेष सावधान रहनेके लिये भगवान् 'विगतज्वरः' पद देकर अर्जुनसे कहते हैं कि तू सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर।
अर्जुनके सामने युद्धके रूपमें कर्तव्य-कर्म था, इसलिये भगवान् 'युध्यस्व' पदसे उन्हें युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं। इसमें भगवान् का तात्पर्य युद्ध करनेसे नहीं, प्रत्युत कर्तव्य-कर्म करनेसे है। इसलिये समय-समयपर जो कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसे साधकको निष्काम, निर्मम तथा निःसंताप होकर भगवदर्पण-बुद्धिसे करना चाहिये। उसके परिणाम (सिद्धि या असिद्धि) की तरफ नहीं देखना चाहिये। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना 'विगतज्वर' होना है; क्योंकि अनुकूलतासे होनेवाली प्रसन्नता और प्रतिकूलतासे होनेवाली उद्विग्नता- दोनों ही ज्वर (संताप) हैं। राग- द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि विकार भी ज्वर हैं। संक्षेपमें राग- द्वेष, चिन्ता, उद्वेग, हलचल आदि जितनी भी मानसिक विकृतियाँ (विकार) हैं, वे सब ज्वर हैं और उनसे रहित होना ही 'विगतज्वरः' पदका तात्पर्य है।"
"विशेष बात
जब साधकका एकमात्र उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जाता है, तब उसके पास जो भी सामग्री (वस्तु, परिस्थिति आदि) होती है, वह सब साधनरूप (साधन सामग्री) हो जाती है। फिर उस सामग्रीमें बढ़िया और घटिया-ये दो विभाग नहीं होते। इसीलिये सामग्री जो है और जैसी है, वही और वैसी ही भगवान् के अर्पण करनी है। भगवान् ने जैसा दिया है, वैसा ही उन्हें वापस करना है।
सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् के अर्पण करनेके बाद भी अपनेमें जो कामना, ममता और संताप प्रतीत होते हैं, उन्हें भी भगवान् के अर्पण कर देना है। भगवान् के अर्पण करनेसे वह भगवन्निष्ठ हो जाता है।
योगारूढ़ होनेमें कर्म करना ही हेतु कहा जाता है- 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' (गीता ६ । ३)। कारण कि कर्तव्य-कर्म करनेसे ही साधकको पता लगता है कि मुझमें क्या और कहाँ कमी (कामना, ममता आदि) है?* इसीलिये बारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें ध्यानकी अपेक्षा कर्मफल-त्याग (कर्मयोग) को श्रेष्ठ कहा गया है; क्योंकि ध्यानमें साधककी दृष्टि विशेषरूपसे मनकी चंचलतापर ही रहती है और वह ध्येयमें मन लगनेमात्रसे ध्यानकी सफलता मान लेता है।
* उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति किसी सेवा समितिमें मन लगाकर सेवाकार्य करता है, पर जब कोई उसका आदर करता है या उसे पुरस्कार देता है तो उसे उसमें रस आ सकता है- यह उसमें कमी हुई। ऐसी कमियोंका पता कर्म करनेपर ही लगता है।
परन्तु मनकी चंचलताके अतिरिक्त दूसरी कमियों (कामना, ममता आदि) की ओर उसकी दृष्टि तभी जाती है, जब वह कर्म करता है। इसलिये भगवान् प्रस्तुत श्लोकमें 'युध्यस्व' पदसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।"
"जैसे दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान् ने सिद्धि- असिद्धिमें सम होकर कर्तव्य कर्म करनेकी आज्ञा दी थी, ऐसे ही यहाँ (तीसवें श्लोकमें) निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। जब युद्ध-जैसा घोर (क्रूर) कर्म भी समभावसे किया जा सकता है, तब ऐसा कौन-सा दूसरा कर्म है, जो समभावसे न किया जा सकता हो ? समभाव तभी होता है, जब 'शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं'- ऐसा भाव हो जाय, जो कि वास्तवमें है।
कर्तव्य-कर्मका पालन तभी सम्भव है, जब साधकका उद्देश्य संसारका न होकर एकमात्र परमात्माका हो जाय। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधक ज्यों-ज्यों कर्तव्य-परायण होता है, त्यों-ही-त्यों कामना, ममता, आसक्ति आदि दोष स्वतः मिटते चले जाते हैं और समतामें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता जाता है। समतामें अपनी स्थितिका पूर्ण अनुभव होते ही कर्तापन सर्वथा मिट जाता है और उद्देश्यके साथ एकता हो जाती है। यह नियम है कि अपने लिये कुछ भी पाने या करनेकी इच्छा न रहनेपर 'अहम्' (व्यक्तित्व) स्वतः नष्ट हो जाता है।
अर्जुन श्रेय (कल्याण) तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मसे हटकर। इसलिये अर्जुनके द्वारा अपना श्रेय पूछनेपर भगवान् उन्हें युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि भगवान् के मतानुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे अर्थात् कर्मयोगसे भी श्रेयकी प्राप्ति होती है और ज्ञानयोग एवं भक्तियोगसे भी होती है।"
"परिशिष्ट भाव - अबतक तो भगवान् ने अर्जुनके प्रश्न (मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हो ?) का ही कई तरहसे उत्तर दिया। अब इस श्लोकमें भगवन्निष्ठाके अनुसार कर्म करनेकी विधि बताते हैं।
सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण कर-ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि क्रिया और पदार्थको अपने और अपने लिये न मानकर मेरे और मेरे लिये ही मान। कारण कि भगवान् समग्र हैं और सम्पूर्ण कर्म तथा पदार्थ (अधिभूत) समग्र भगवान् के ही अन्तर्गत हैं (गीता - सातवें अध्यायका उनतीसवाँ-तीसवाँ श्लोक)। उस समग्र भगवान् के लिये ही यहाँ 'मयि' पद आया है।
इस श्लोकमें 'मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य' पदोंमें भक्तियोगकी, 'अध्यात्मचेतसा' पदमें ज्ञानयोगकी और 'निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्य विगतज्वरः' पदोंमें कर्मयोगकी बात आयी है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें अपना मत (सिद्धान्त) बताकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें अपने मतकी पुष्टि करते हैं।"
कल के श्लोक 31 में हम चर्चा करेंगे कि जो लोग इस ज्ञान को अपनाते हैं, वे कैसे हर प्रकार से शांति और सफलता प्राप्त करते हैं। यह श्लोक हमें कर्मयोग की महिमा और इसके महत्व को समझाएगा।
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