ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 34 - राग-द्वेष से कैसे पाएं मुक्ति


 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आप जानते हैं कि जीवन में आसक्ति और घृणा (राग-द्वेष) हमें कैसे प्रभावित करती है? आज हम गीता के श्लोक 34 में जानेंगे कि श्रीकृष्ण हमें किस तरह इन भावनाओं से ऊपर उठकर आंतरिक शांति और संतुलन बनाए रखने की प्रेरणा देते हैं।

कल हमने श्लोक 33 पर चर्चा की थी, जिसमें श्रीकृष्ण ने बताया कि हर व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म करता है। यह समझना जरूरी है कि किसी को उसकी प्रकृति के विपरीत चलाना संभव नहीं है। आज के श्लोक में हम जानेंगे कि राग-द्वेष कैसे हमारे मन को भटकाते हैं और हमें इनसे मुक्त कैसे होना चाहिए।

"श्रीकृष्ण श्लोक 34 में कहते हैं:

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥


इसका अर्थ है कि 'प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) स्थित होते हैं। लेकिन मनुष्य को इन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये ही उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं।'

इस श्लोक में श्रीकृष्ण समझाते हैं कि आसक्ति और घृणा हमारी इंद्रियों के साथ जुड़े रहते हैं, और अगर हम इनके वश में आ गए तो सही मार्ग पर चलना मुश्किल हो जाता है। आत्म-संयम और जागरूकता से ही हम इन भावनाओं से मुक्त होकर जीवन में संतुलन बना सकते हैं।"


"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 34"

"राग-द्वेषके वशमें न होनेकी प्रेरणा ।


(श्लोक-३४)


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।


उच्चारण की विधि


इन्द्रियस्य, इन्द्रियस्य, अर्थे, रागद्वेषौ, व्यवस्थितौ, तयोः, न, वशम्, आगच्छेत्, तौ, हि, अस्य, परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥


इन्द्रियस्य - इन्द्रियस्य अर्थात् इन्द्रिय-इन्द्रियके, अर्थ अर्थात् अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें, रागद्वेषौ अर्थात् राग और द्वेष, व्यवस्थितौ अर्थात् छिपे हुए स्थित हैं। (मनुष्यको), तयोः अर्थात् उन दोनोंके, वशम् अर्थात् वशमें, न अर्थात् नहीं, आगच्छेत् अर्थात् होना चाहिये, हि अर्थात् क्योंकि, तौ वे दोनों (ही), अस्य अर्थात् इसके (कल्याणमार्गमें), परिपन्थिनौ अर्थात् विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं।


अर्थ - इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्गमें विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं ॥ ३४ ॥"

"व्याख्या 'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे


व्यवस्थितौ ' - प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग- द्वेषको अलग-अलग स्थित बतानेके लिये यहाँ 'इन्द्रियस्य' पद दो बार प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण) के प्रत्येक विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) में अनुकूलता-प्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके राग-द्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रियके विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें 'राग' हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमें 'द्वेष' हो जाता है।


वास्तवमें देखा जाय तो राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रहते। यदि विषयोंमें राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय अथवा अप्रिय लगता। परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे- वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है, पर कुम्हारको अप्रिय। एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता; जैसे-ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है, पर सरदीमें बुरी। इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है। इसलिये भगवान् ने राग-द्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है।


वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए 'अहम्' (मैं-पन) में रहते हैं। *


* भगवान् ने 'रसवर्जं रसोऽप्यस्य' (गीता २। ५९) पदोंमें 'अस्य' पदसे यह लक्ष्य कराया है कि राग-द्वेष माने हुए 'अहम्' में (साधकमें) रहते हैं।"

"शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध ही 'अहम्' कहलाता है। अतः जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें राग-द्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष बुद्धि, मन, इन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं। इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक भगवान् ने इन्हीं राग-द्वेषको 'काम' और 'क्रोध' के नामसे कहा है। राग और द्वेषके ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं। चालीसवें श्लोकमें बताया है कि यह 'काम' इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें रहता है। विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें) 'काम' की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान् ने इनको 'काम' का निवास-स्थान बताया है। जैसे विषयोंमें राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है, ऐसे ही इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें भी राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है। ये इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं। इनमें काम-क्रोध अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ ? इसके सिवाय दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता। यह राग परमात्माका साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है।


'तयोर्न वशमागच्छेत्' - इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्वासन देते हैं कि राग-द्वेषकी वृत्ति उत्पन्न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये, अपितु राग-द्वेषकी वृत्तिके वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये। कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता - सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)। "

"यदि राग-द्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेषके वशमें हो गया है।


रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'राग' पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'द्वेष' पुष्ट होता है। इस प्रकार राग-द्वेष पुष्ट होनेके फलस्वरूप पतन ही होता है।


जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है, तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे वह घबरा जाता है। यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्वासन देते हैं कि उसे इन स्फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये। इन स्फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता ही नहीं है; क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं; और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट 

होनेवाली होती है। अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं रही हैं, प्रत्युत जा रही हैं। कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय अवकाश न मिलनेसे स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे पुराने संस्कार स्फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं। अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओंसे भी राग- द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये। इसी प्रकार उसे पदार्थ, व्यक्ति, विषय आदिमें भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये।


राग-द्वेषपर विजय पानेके उपाय


राग-द्वेषके वशीभूत होकर कर्म करनेसे राग-द्वेष पुष्ट (प्रबल) होते हैं और अशुद्ध प्रकृति (स्वभाव) का रूप धारण कर लेते हैं। प्रकृतिके अशुद्ध होनेपर प्रकृतिकी अधीनता रहती है। ऐसी अशुद्ध प्रकृतिकी अधीनतासे होनेवाले कर्म मनुष्यको बाँधते हैं। "

"अतः राग-द्वेषके वशमें होकर कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति नहीं होनी चाहिये-यह उपाय यहाँ बताया गया। इससे पहले भगवान् कह चुके हैं कि जो मेरे मतका अनुसरण करता है, वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है (गीता-तीसरे अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक)। इसलिये राग-द्वेषकी वृत्तिके वशमें न होकर भगवान् के मतके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। तात्पर्य यह कि साधक सम्पूर्ण कर्मोंको और अपनेको भी भलीभाँति भगवदर्पण कर दे और ऐसा मान ले कि कर्म मेरे लिये नहीं हैं, प्रत्युत भगवान् के लिये ही हैं; जिनसे कर्म होते हैं, वे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी भगवान् के ही हैं और मैं भी भगवान् का ही हूँ। फिर निष्काम, निर्मम और निःसन्ताप होकर कर्तव्य-कर्म करनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं। इस प्रकार भगवान् के मत अर्थात् सिद्धान्तको सामने रखकर ही किसी कार्यमें प्रवृत्त या निवृत्त होना चाहिये।


सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृतिका कार्य है और शरीर सृष्टिका एक अंश है। जबतक शरीरके प्रति ममता रहती है, तभीतक राग-द्वेष होते हैं अर्थात् मनुष्य रुचि या अरुचिपूर्वक वस्तुओंका ग्रहण और त्याग करता है। यह रुचि-अरुचि ही राग-द्वेषका सूक्ष्म रूप है। राग- द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे राग-द्वेष पुष्ट होते हैं; परन्तु शास्त्रको सामने रखकर किसी कर्ममें प्रवृत्त या निवृत्त होनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं। कारण कि शास्त्रके अनुसार चलनेसे अपनी रुचि और अरुचिकी मुख्यता नहीं रहती। यदि कोई मनुष्य शास्त्रको नहीं जानता, तो उसके लिये महर्षि वेदव्यासजीके वचन हैं"

"श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥


(पद्मपुराण, सृष्टि० १९ । ३५५-५६) 'हे मनुष्यो ! तुमलोग धर्मका सार सुनो और सुनकर धारण करो कि जो हम अपने लिये नहीं चाहते, उसको दूसरोंके प्रति न करें।'


जीवन्मुक्त महापुरुष भी शास्त्र-मर्यादाको ही आदर देते हैं। इसीलिये श्राद्धमें पिण्डदान करते समय पिताजीका हाथ प्रत्यक्ष दिखायी देनेपर भी भीष्मपितामहने शास्त्रके आज्ञानुसार कुशोंपर ही पिण्डदान किया (महाभारत, अनुशासन० चौरासीवाँ अध्याय, पन्द्रहवेंसे बीसवें श्लोकतक)। अतः साधकको सम्पूर्ण कर्म शास्त्रके आज्ञानुसार ही करने चाहिये।


राग-द्वेष मिटानेके इच्छुक साधकोंके लिये तो कर्म करनेमें शास्त्रप्रमाणकी आवश्यकता रहती है, पर राग- द्वेषसे सर्वथा रहित महापुरुषका अन्तःकरण इतना शुद्ध, निर्मल होता है कि उसमें स्वतः वेदोंका तात्पर्य प्रकट हो जाता है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या न हो। उसके अन्तःकरणमें जो बात आती है, वह शास्त्रानुकूल ही होती है। *


* जो पुरुष धर्मका कभी परित्याग नहीं करता, उसका अन्तःकरण भी शुद्ध हो जाता है। राजा दुष्यन्तका वर्णन करते समय महाकवि कालिदासने लिखा है-


सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ॥


(अभिज्ञानशाकुन्तलम् १। २१)


'जहाँ संदेह हो, वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है। राग-द्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उस महापुरुषके द्वारा शास्त्र-निषिद्ध क्रियाएँ कभी होती ही नहीं। उसका स्वभाव स्वतः शास्त्रके अनुसार बन जाता है। "

"यही कारण है कि ऐसे महापुरुषके आचरण और वचन दूसरे मनुष्योंके लिये आदर्श होते हैं (गीता - तीसरे अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक) । अतः उस महापुरुषके आचरणों और वचनोंका अनुसरण करनेसे साधकके राग-द्वेष भी मिट जाते हैं।


कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म हैं; अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता। पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती। वास्तवमें राग-द्वेष अन्तःकरणके आगन्तुक विकार हैं, धर्म नहीं। यदि ये अन्तःकरणके धर्म होते तो जिस समय अन्तःकरण जाग्रत् रहता है, उस समय राग-द्वेष भी रहते अर्थात् इनकी सदा ही प्रतीति होती। परन्तु इनकी प्रतीति सदा न होकर कभी-कभी ही होती है। साधन करनेपर राग- द्वेष उत्तरोत्तर कम होते हैं- यह साधकोंका अनुभव है। कम होनेवाली वस्तु मिटनेवाली होती है। इससे भी सिद्ध होता है कि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं।


भगवान् ने राग-द्वेषको 'मनोगत' कहा है- 'कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्' (गीता २। ५५) अर्थात् ये मनमें आनेवाले हैं, सदा रहनेवाले नहीं। इसके अतिरिक्त भगवान् ने राग-द्वेषको विकार कहा है (गीता - तेरहवें अध्यायका छठा श्लोक) और प्रिय- अप्रियकी प्राप्तिमें चित्तके सदा सम रहनेको साधन कहा है (गीता-तेरहवें अध्यायका नवाँ श्लोक)। यदि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म होते, तो यह समचित्ततारूप साधन बन ही नहीं सकता। धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आने-जानेवाले होते हैं। राग-द्वेष अन्तःकरणमें आने-जानेवाले हैं; अतः इनको मिटाया जा सकता है। प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन) - दोनों भिन्न- भिन्न हैं। इन दोनोंका विवेक स्वतः सिद्ध है। "

"पुरुष इस विवेकको महत्त्व न देकर प्रकृतिजन्य शरीरसे एकता कर लेता है और अपनेको एकदेशीय मान लेता है। यह जड-चेतनका तादात्म्य ही 'अहम्' (मैं) कहलाता है और इसीमें राग-द्वेष रहते हैं। तात्पर्य यह है कि अहंता (मैं-पन) में राग-द्वेष रहते हैं और राग-द्वेषसे अहंता पुष्ट होती है। यही राग-द्वेष बुद्धिमें प्रतीत होते हैं, जिससे बुद्धिमें सिद्धान्त आदिको लेकर अपनी मान्यता प्रिय और दूसरोंकी मान्यता अप्रिय लगती है। फिर ये राग-द्वेष मनमें प्रतीत होते हैं, जिससे मनके अनुकूल बातें प्रिय और प्रतिकूल बातें अप्रिय लगती हैं। फिर यही राग-द्वेष इन्द्रियोंमें प्रतीत होते हैं, जिससे इन्द्रियोंके अनुकूल विषय प्रिय और प्रतिकूल विषय अप्रिय लगते हैं। यही राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) में अपनी अनुकूल और प्रतिकूल भावनाको लेकर प्रतीत होते हैं।


अतः जड-चेतनकी ग्रन्थिरूप अहंता (मैं-पन) के मिटनेपर राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है; क्योंकि अहंतापर ही राग-द्वेष टिके हुए हैं। मैं सेवक हूँ; मैं जिज्ञासु हूँ; मैं भक्त हूँ- ये सेवक, जिज्ञासु और भक्त जिस 'मैं' में रहते हैं, उसी 'मैं' में राग-द्वेष भी रहते हैं।  राग-द्वेष न तो केवल जडमें रहते हैं और न केवल चेतनमें ही रहते हैं, प्रत्युत जड- चेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हैं। जड-चेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हुए भी ये राग-द्वेष प्रधानतः जडमें रहते हैं। जड-चेतनके तादात्म्यमें जडका आकर्षण जड-अंशमें ही होता है, पर तादात्म्यके कारण वह चेतनमें दीखता है।"

"जडका आकर्षण ही राग है। अतः जब साधक शरीर (जड) को ही अपना स्वरूप मान लेता है, तब उसे राग-द्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत होती है। परन्तु अपने चेतन-स्वरूपकी ओर दृष्टि रहनेसे उसे राग- द्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत नहीं होती। कारण कि राग-द्वेष स्वतःसिद्ध नहीं हैं, प्रत्युत जड (असत्) के सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले हैं।


यदि सत्संग, भजन, ध्यान आदिमें 'राग' होगा तो संसारसे द्वेष होगा; परन्तु 'प्रेम' होनेपर संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारकी उपेक्षा (विमुखता) होगी *।


* साधकका सत्संग आदिमें राग है या प्रेम, इसे इस उदाहरणसे जान सकते हैं- सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें कोई व्यक्ति बाधा पहुँचाये, तो उसपर क्रोध आनेसे समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें 'राग' है; और (उसपर क्रोध न आकर) रोना आ जाय तो समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें 'प्रेम' है। कारण कि अपनेमें लगन (दृढ़ता) की कमी होनेसे ही साधनमें बाधा लगती है। इसलिये बाधा लगनेपर अपनेमें लगनकी कमी देखकर साधकको


रोना आ जाता है। ऐसे ही दूसरे धर्म, सम्प्रदाय आदिके व्यक्ति हमें बुरे लगें तो समझना चाहिये कि अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिमें हमारा 'राग' है। वास्तवमें सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें राग होना भी उतना बुरा नहीं है; क्योंकि चाहे जैसे हो, भगवान् में लगना अच्छा ही है - 'तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ' (श्रीमद्भा० ७।१।३१)।


संसारके किसी एक विषयमें 'राग' होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान् में प्रेम होनेसे संसारसे वैराग्य होता है। वैराग्य होनेपर संसारसे सुख लेनेकी भावना समाप्त हो जाती है और संसारकी स्वतः सेवा होती है।"

"इससे शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिके साथ 'अहम्' भी स्वतः संसारकी सेवामें लग जाता है। परिणामस्वरूप शरीरादिके साथ-साथ 'अहम्' से भी सम्बन्ध विच्छेद होनेपर उसमें रहनेवाले राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।


मनुष्यकी क्रियाएँ स्वभाव अथवा सिद्धान्तको लेकर होती हैं। केवल आध्यात्मिक उन्नतिके लिये कर्म करना सिद्धान्तको लेकर कर्म करना है। स्वभाव दो प्रकारका होता है-राग-द्वेषरहित (शुद्ध) और राग- द्वेषयुक्त (अशुद्ध)। स्वभावको मिटा तो नहीं सकते, पर उसे शुद्ध अर्थात् राग-द्वेषरहित अवश्य बना सकते हैं। जैसे गंगा गंगोत्रीसे निकलती है; गंगोत्री जितनी ऊँचाईपर है, अगर उतना अथवा उससे अधिक ऊँचा बाँध बनाया जाय, तो गंगाके प्रवाहको रोका जा सकता है। परन्तु ऐसा करना सरल कार्य नहीं है। हाँ, गंगामेंसे नहरें निकालकर उसके प्रवाहको बदला जा सकता है। इसी प्रकार स्वाभाविक कर्मोंके प्रवाहको मिटा तो नहीं सकते, पर उसको बदल सकते हैं अर्थात् उसको राग-द्वेषरहित बना सकते हैं- यह गीताका मार्मिक सिद्धान्त है। राग-द्वेषको लेकर जो क्रियाएँ होती हैं, उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति उतनी बाधक नहीं है, जितने कि राग-द्वेष बाधक हैं। 


इसीलिये भगवान् ने राग-द्वेषका त्याग करनेवालेको ही सच्चा त्यागी कहा है (गीता - अठारहवें अध्यायका दसवाँ श्लोक)। राग-द्वेषकी ओर प्रायः साधकका ध्यान नहीं जाता, इसलिये उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक होती है। अतः राग-द्वेषसे रहित होनेके लिये साधकको सिद्धान्त सामने रखकर ही समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। फिर उसका स्वभाव स्वतः सिद्धान्तके अनुरूप और शुद्ध बन जायगा।"

"राग-द्वेषयुक्त स्फुरणाके उत्पन्न होनेपर, उसके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष पुष्ट होते हैं और उसके अनुसार कर्म न करके सिद्धान्तके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं।


मनकी शुभ और अशुभ स्फुरणाओंमें राग-द्वेष नहीं होने चाहिये। साधकको चाहिये कि वह मनमें होनेवाली स्फुरणाओंको स्वयंमें न मानकर उनसे किसी भी प्रकार सम्बन्ध न जोड़े; उनका न समर्थन करे, न विरोध करे।


यदि साधक राग-द्वेषको दूर करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है, तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहृद् प्रभुकी शरणमें चले जाना चाहिये। फिर प्रभुकी कृपासे उसके राग-द्वेष दूर हो जाते हैं (गीता - सातवें अध्यायका चौदहवाँ श्लोक) और परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है (गीता-अठारहवें अध्यायका बासठवाँ श्लोक)। माने हुए 'अहम्' सहित शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण और सांसारिक पदार्थ सब-के-सब भगवान् के ही हैं- ऐसा मानना ही भगवान् के शरण होना है। फिर भगवान् की प्रसन्नताके लिये, भगवान् की दी हुई सामग्रीसे भगवान् के ही जनोंकी केवल सेवा कर देनी है और बदलेमें अपने लिये कुछ नहीं चाहना है। बदलेमें कुछ भी चाहनेसे जडके साथ सम्बन्ध बना रहता है।


""निष्कामभावपूर्वक संसारकी सेवा करना राग-द्वेषको मिटानेका अचूक उपाय है। अपने पास स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे लेकर माने हुए 'अहम्' तक जो कुछ है, उसे संसारकी ही सेवामें लगा देना है। कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसारसे अभिन्न हैं। इनको संसारसे भिन्न (अपना) मानना ही बन्धन है। स्थूल- शरीरसे क्रियाओं और पदार्थोंका सुख, सूक्ष्मशरीरसे चिन्तनका सुख और कारणशरीरसे स्थिरताका सुख नहीं लेना है।"

"वास्तवमें मनुष्य-शरीर अपने सुखके लिये है ही नहीं- एहि तन कर फल बिषय न भाई। (मानस ७।४४।१) 


दूसरी बात, जिन शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिसे सेवा होती है, वे सब संसारके ही अंश हैं। जब संसार ही अपना नहीं, तो फिर उसका अंश अपना कैसे हो सकता है ? इन शरीरादि पदार्थोंको अपना माननेसे सच्ची सेवा हो ही नहीं सकती; क्योंकि इससे ममता और स्वार्थ-भाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिये इन पदार्थोंको उसीके मानने चाहिये, जिसकी सेवा की जाय। जैसे भक्त पदार्थोंको भगवान् का ही मानकर भगवान् के अर्पण करता है- 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये' ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थोंको संसारका ही मानकर संसारके अर्पण करता है।


सेवा-सम्बन्धी मार्मिक बात


सेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करनेके लिये धनादि पदार्थोंकी चाह तो कामना है ही, सेवा करनेकी चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवाकी चाह होनेसे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये। दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है' - ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किंचित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान- बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है।"

"अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व बुद्धि पैदा  कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।


'मैं किसीको कुछ देता हूँ' - ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलेंमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा ? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं ?


शंका-सेवा तो धनादि वस्तुओंके द्वारा ही होती है। वस्तुओंके बिना सेवा कैसे हो सकती है? अतः सेवा करनेके लिये भी वस्तुओंकी चाह न करनेसे क्या तात्पर्य है ?


समाधान स्थूल वस्तुओंसे सेवा करना तो बहुत स्थूल बात है। वास्तवमें सेवा भाव है, कर्म नहीं। कर्मसे बन्धन और सेवासे मुक्ति होती है। सेवाका भाव होनेसे अपने पास जो वस्तुएँ हैं, वे स्वतः सेवामें लगती हैं। भाव होनेसे अपने पास जितनी वस्तुएँ हैं, उन्हींसे पूर्ण सेवा हो जाती है; इसलिये और वस्तुओंको चाहनेकी आवश्यकता ही नहीं है।


वास्तविक सेवा वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि न रहनेसे ही हो सकती है। स्थूल वस्तुओंसे भी वही सेवा कर सकता है, जिसकी वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि नहीं है। वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि रखते हुए सेवा करनेसे सेवाका अभिमान आ जाता है। जबतक अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व रहता है, तबतक सेवकमें भोगबुद्धि रहती ही है, चाहे कोई जाने या न जाने।"

"वास्तवमें सेवा भावसे होती है, वस्तुओंसे नहीं। वस्तुओंसे कर्म होते हैं, सेवा नहीं। अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है। वस्तुएँ तो दूकानदार भी देता है, पर साथमें लेनेका भाव रहनेसे उससे पुण्य नहीं होता। ऐसे ही प्रजा राजाको कर-रूपसे धन देती है, पर वह दान नहीं होता। किसीको जल पिलानेपर 'मैंने उसे जल पिलाया, तभी वह सुखी हुआ' - ऐसे भावका रहना दूकानदारी ही है। हम मान-बड़ाई नहीं चाहते, पर 'जल पिलानेसे पुण्य होगा' अथवा 'दान करनेसे पुण्य होगा'- ऐसा भाव रहनेपर भी फलके साथ सम्बन्ध होनेके कारण अन्तःकरणमें जल, धन आदि उन्हींसे पूर्ण सेवा हो जाती है; इसलिये और वस्तुओंको चाहनेकी आवश्यकता ही नहीं है।


वास्तविक सेवा वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि न रहनेसे ही हो सकती है। स्थूल वस्तुओंसे भी वही सेवा कर सकता है, जिसकी वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि नहीं है। 


वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि रखते हुए सेवा करनेसे सेवाका अभिमान आ जाता है। जबतक अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व रहता है, तबतक सेवकमें भोगबुद्धि रहती ही है, चाहे कोई जाने या न जाने। वास्तवमें सेवा भावसे होती है, वस्तुओंसे नहीं। वस्तुओंसे कर्म होते हैं, सेवा नहीं। अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है। वस्तुएँ तो दूकानदार भी देता है, पर साथमें लेनेका भाव रहनेसे उससे पुण्य नहीं होता। ऐसे ही प्रजा राजाको कर-रूपसे धन देती है, पर वह दान नहीं होता। किसीको जल पिलानेपर 'मैंने उसे जल पिलाया, तभी वह सुखी हुआ' - ऐसे भावका रहना दूकानदारी ही है। "

"हम मान-बड़ाई नहीं चाहते, पर 'जल पिलानेसे पुण्य होगा' अथवा 'दान करनेसे पुण्य होगा'- ऐसा भाव रहनेपर भी फलके साथ सम्बन्ध होनेके कारण अन्तःकरणमें जल, धन आदि वस्तुओंका महत्त्व अंकित हो जाता है। वस्तुओंका महत्त्व अंकित होनेपर फिर वास्तविक सेवा नहीं होती, प्रत्युत लेनेका भाव रहनेसे असत् के साथ सम्बन्ध बना रहता है, चाहे जानें या न जानें। इसलिये वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना है।


हमारे द्वारा वस्तु उसीको मिल सकती है, जिसका उस वस्तुपर अधिकार है अर्थात् वास्तवमें जिसकी वह वस्तु है। उसे वस्तु देनेसे हमारा ऋण उतरता है। यदि दूसरेको किसी वस्तुकी हमसे अधिक आवश्यकता (भूख) है, तो उस वस्तुका वही अधिकारी है। दूसरा अपने अधिकार (हक) की ही वस्तु लेता है। हमारे अधिकारकी वस्तु दूसरा ले ही नहीं सकता।


एक बात खास ध्यान देनेकी है कि सच्चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे, जिसकी वह सेवा करता है, उस (सेव्य) के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है- यह नियम है। सच्चे हृदयसे सेवा करनेवाला पुरुष स्थूलदृष्टिसे तो पदार्थोंको सेव्यकी सेवामें लगाता है, पर सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो वह सेव्यके हृदयमें वस्तुओंका महत्त्व अंकित हो जाता है। वस्तुओंका महत्त्व अंकित होनेपर फिर वास्तविक सेवा नहीं होती, प्रत्युत लेनेका भाव रहनेसे असत् के साथ सम्बन्ध बना रहता है, चाहे जानें या न जानें। इसलिये वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना है।"

"हमारे द्वारा वस्तु उसीको मिल सकती है, जिसका उस वस्तुपर अधिकार है अर्थात् वास्तवमें जिसकी वह वस्तु है। उसे वस्तु देनेसे हमारा ऋण उतरता है। यदि दूसरेको किसी वस्तुकी हमसे अधिक आवश्यकता (भूख) है, तो उस वस्तुका वही अधिकारी है। दूसरा अपने अधिकार (हक) की ही वस्तु लेता है। हमारे  अधिकारकी वस्तु दूसरा ले ही नहीं सकता।


एक बात खास ध्यान देनेकी है कि सच्चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे, जिसकी वह सेवा करता है, उस (सेव्य) के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है- यह नियम है। सच्चे हृदयसे सेवा करनेवाला पुरुष स्थूलदृष्टिसे तो पदार्थोंको सेव्यकी सेवामें लगाता है, पर सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो वह सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् करता है। यदि सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् न हो, तो साधकको समझ लेना 

चाहिये कि सेवा करनेमें कोई त्रुटि (अपने लिये कुछ पाने या लेनेकी इच्छा) है। अतः साधकको इस विषयमें विशेष सावधानी रखते हुए ही दूसरोंकी सेवा करनी चाहिये और अपनी त्रुटियोंको खोजकर निकाल देना चाहिये। दूसरे मुझे अच्छा कहें- ऐसा भाव सेवामें बिलकुल नहीं रखना चाहिये। ऐसा भाव आते ही उसे तुरंत मिटा देना चाहिये, क्योंकि यह भाव अभिमान बढ़ानेवाला है। प्रत्येक साधकके लिये संसार केवल कर्तव्य- पालनका क्षेत्र है, सुखी-दुःखी होनेका क्षेत्र नहीं। संसार सेवाके लिये है। संसारमें साधकको सेवा-ही- सेवा करनी है। सेवा करनेमें सबसे पहले साधकका यह भाव होना चाहिये कि मेरे द्वारा किसीका किंचिन्मात्र भी अहित न हो। संसारमें कुछ प्राणी दुःखी रहते हैं और कुछ प्राणी सुखी रहते हैं। "

"दुःखी प्राणीको देखकर दुःखी हो जाना और सुखी प्राणीको देखकर सुखी हो जाना भी सेवा है; क्योंकि इससे दुःखी और सुखी-दोनों व्यक्तियोंको सुखका अनुभव होता है

और उन्हें बल मिलता है कि हमारा भी कोई साथी है ! दूसरा दुःखी है तो उसके साथ हम भी हृदयसे दुःखी हो जायँ कि उसका दुःख कैसे मिटे ? उससे प्रेमपूर्वक बात करें और सुनें। उससे कहें कि प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर घबराना नहीं चाहिये; ऐसी परिस्थिति तो भगवान् राम एवं राजा नल, हरिश्चन्द्र आदि अनेक बड़े-बड़े पुरुषोंपर भी आयी है; आजकल तो अनेक लोग तुम्हारेसे भी ज्यादा दुःखी हैं; हमारे लायक कोई काम हो तो कहना; आदि। ऐसी बातोंसे वह राजी हो जायगा। ऐसे ही सुखी व्यक्तिसे मिलकर हम भी हृदयसे सुखी हो जायँ कि बहुत अच्छा हुआ, तो वह राजी हो जायगा। इस प्रकार हम दुःखी और सुखी- दोनों व्यक्तियोंकी सेवा कर सकते हैं। दूसरेके दुःख और सुख-दोनोंमें सहमत होकर हम दूसरोंको सुख पहुँचा सकते हैं। केवल दूसरोंके हितका भाव निरन्तर रहनेकी आवश्यकता है। जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं, वे सन्त होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने संतोंके लक्षणोंमें कहा है- 'पर दुख दुख सुख सुख देखे पर' (मानस ७। ३८ । १)


यहाँ शंका होती है कि यदि हम दूसरोंके दुःखसे दुःखी होने लगें तो फिर हमारा दुःख कभी मिटेगा ही नहीं; क्योंकि संसारमें दुःखी तो मिलते ही रहेंगे इसका समाधान यह है कि जैसे हमारे ऊपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं, ऐसे ही दूसरेको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उसका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होनी चाहिये।"

"उसका दुःख दूर करनेकी सच्ची भावना होनी चाहिये। अतः दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेका तात्पर्य उसके दुःखको दूर करनेका भाव तथा चेष्टा करनेमें है, जिससे हमें प्रसन्नता ही होगी, दुःख नहीं। दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेपर हमारे पास शक्ति, योग्यता, पदार्थ आदि जो कुछ भी है, वह सब स्वतः दूसरेका दुःख दूर करनेमे लग जायगा। दुःखी व्यक्तिको सुखी बना देना तो हमारे हाथकी बात नहीं है, पर उसका दुःख दूर करनेके लिये अपनी सुख-सामग्रीको उसकी सेवामें लगा देना हमारे हाथकी बात है। सुख-सामग्रीके त्यागसे तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है।


सेवा करनेका अर्थ है- सुख पहुँचाना। साधकका भाव 'मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्' (किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो) होनेसे वह सभीको सुख पहुँचाता है अर्थात् सभीकी सेवा करता है। साधक भले ही सबको सुखी न कर सके, पर वह ऐसा भाव तो बना ही सकता है। भाव बनानेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं। इसलिये सेवा करनेमें धनादि पदार्थोकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत सेवा-भावकी ही आवश्यकता है। क्रियाएँ और पदार्थ चाहे जितने हों, सीमित ही होते हैं। सीमित क्रियाओं और पदार्थोंसे सेवा भी सीमित ही होती है; फिर सीमित सेवासे असीम तत्त्व (परमात्मा) की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?


परन्तु भाव असीम होता है। असीमभावसे सेवा भी असीम होती है और असीम सेवासे असीम तत्त्वकी प्राप्ति होती है। इसलिये सेवा-भाववाले व्यक्तिकी क्रियाएँ और पदार्थ कम होनेपर भी उसकी सेवा कम नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि उसका भाव असीम होता है। "

"यद्यपि साधकके कर्तव्य पालनका क्षेत्र सीमित ही होता है, तथापि उसमें जिन-जिनसे उसका व्यवहार होता है, उनमें वह सुखीको देखकर सुखी एवं दुःखीको देखकर दुःखी होता है। पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको जो अपना नहीं मानता, वही दूसरोंके सुखमें सुखी एवं दुःखमें दुःखी हो सकता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि अपने और अपने लिये हैं ही नहीं - यह वास्तविकता है। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, सामर्थ्य आदि कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है। इन पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनका त्याग प्रत्येक मनुष्य कर सकता है, चाहे वह दरिद्र-से-दरिद्र हो अथवा धनी-से-धनी, पढ़ा-लिखा हो अथवा अनपढ़। इस त्यागमें सब के सब स्वाधीन तथा समर्थ हैं।


सच्चे सेवककी वृत्ति नाशवान् वस्तुओंपर जाती ही नहीं; क्योंकि उसके अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व नहीं होता। अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व होनेपर ही वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) प्रतीत होती हैं। साधकको चाहिये कि वह पहलेसे ही ऐसा मान ले कि वस्तुएँ मेरी नहीं हैं और मेरे लिये भी नहीं हैं। वस्तुओंको अपनी और अपने लिये माननेसे भोग ही होता है, सेवा नहीं। इस प्रकार वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर सेव्यकी ही मानते हुए सेवामें लगा देनेसे राग- द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं।


'तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ' - पारमार्थिक मार्गमें राग- द्वेष ही साधककी साधन-सम्पत्तिको लूटनेवाले मुख्य शत्रु हैं। परन्तु इस ओर प्रायः साधक ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि साधन करनेपर भी साधककी जितनी आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिये, उतनी होती नहीं। "

"प्रायः साधकोंकी यह शिकायत रहती है कि मन नहीं लगता; पर वास्तवमें मनका न लगना उतना बाधक नहीं है, जितने बाधक राग-द्वेष हैं। इसलिये साधकको चाहिये कि वह मनकी एकाग्रताको महत्त्व न दे और जहाँ-जहाँ राग-द्वेष दिखायी दें वहाँ-वहाँसे उनको तत्काल हटा दे। राग-द्वेष हटानेपर मन लगना भी सुगम हो जायगा।


स्वाभाविक कर्मोंका त्याग करना तो हाथकी बात नहीं है, पर उन कर्मोंको राग-द्वेषपूर्वक करना या न करना बिलकुल हाथकी बात है। साधक जो कर सकता है, वही करनेके लिये भगवान् आज्ञा देते हैं कि राग-द्वेष-युक्त स्फुरणा उत्पन्न होनेपर भी उसके अनुसार कर्म मत करो; क्योंकि वे दोनों ही पारमार्थिक मार्गके लुटेरे हैं। ऐसा करनेमें साधक स्वतन्त्र है। 

वास्तवमें राग-द्वेष स्वतः नष्ट हो रहे हैं, पर साधक उन राग-द्वेषको अपनेमें मानकर उन्हें सत्ता दे देता है और उसके अनुसार कर्म करने लगता है। इसी कारण वे दूर नहीं होते। यदि साधक राग-द्वेषको अपनेमें न मानकर उसके अनुसार कर्म न करे, तो वे स्वतः नष्ट हो जायँगे।


परिशिष्ट भाव - सुख-दुःखका कारण दूसरेको माननेसे ही राग-द्वेष होते हैं अर्थात् जिसको सुख देनेवाला मानते हैं, उसमें राग हो जाता है और जिसको दुःख देनेवाला मानते हैं, उसमें द्वेष हो जाता है। 


अतः राग-द्वेष अपनी भूलसे पैदा होते हैं, इसमें दूसरा कोई कारण नहीं है। राग-द्वेष होनेके कारण ही संसार भगवत्स्वरूप नहीं दीखता, प्रत्युत जड़ और नाशवान् दीखता है। अगर राग-द्वेष न हों तो जड़ता है ही नहीं, प्रत्युत सब कुछ चिन्मय परमात्मा ही हैं- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७। १९)।"

"अगर मन-बुद्धिमें राग-द्वेषादि कोई दोष पैदा हो जाय तो उसके वशमें नहीं होना चाहिये अर्थात् उसके अनुसार कोई निषिद्ध क्रिया नहीं करनी चाहिये। उसके वशीभूत होकर क्रिया करनेसे वह दोष दृढ़ हो जायगा। परन्तु उसके वशीभूत होकर क्रिया न करनेसे एक ""उत्साह पैदा होगा। जैसे, किसीने हमारेसे कड़वी बात कह दी, पर हमें क्रोध नहीं आया तो हमारे भीतर एक उत्साह, प्रसन्नता होगी कि आज तो हम बच गये। परन्तु इसमें अपना बल न मानकर भगवान् की कृपा माननी चाहिये कि उनकी कृपासे ही हम बच गये, नहीं तो इसके वशीभूत हो जाते ! इस तरह साधकको कभी भी कोई दोष दीखे तो वह उसके वशीभूत न हो और उसको अपनेमें भी न माने। अगर राग-द्वेष अपनेमें होते तो जबतक अपनी सत्ता रहती तबतक राग-द्वेष भी रहते। परन्तु यह सबका अनुभव है कि हम तो निरन्तर रहते हैं, पर राग-द्वेष निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत आते-जाते हैं। सत्तारूप स्वयंमें राग-द्वेष आ ही नहीं सकते। कारण कि हमारा (स्वयंका) विभाग अलग है और राग-द्वेषका विभाग अलग है। जिसको राग-द्वेषके आने-जानेका ज्ञान होता है, वह राग-द्वेषसे अलग होता है। अतः राग-द्वेष हमारेसे भी अलग हैं और जिनमें ये प्रतीत होते हैं, उन मन-बुद्धि आदिसे भी अलग हैं- 'मनोगतान्' (गीता २।५५)। 


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ' पदोंका तात्पर्य है कि अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनोंमें राग न करे, प्रत्युत उनका सदुपयोग करे अर्थात् अनुकूलतामें दूसरोंकी सेवा करे और प्रतिकूलतामें अनुकूलताकी इच्छाका त्याग करे। 'तयोर्न वशमागच्छेत् ' पदोंका तात्पर्य है कि अनुकूलता- प्रतिकूलतामें सुखी-दुःखी न हो। सुखी-दुःखी होना फलासक्त होना है और फलासक्त मनुष्य बँध जाता है - 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता ५। १२) ।"

कल के श्लोक 35 में हम चर्चा करेंगे कि अपने धर्म का पालन करना क्यों दूसरों के धर्म का पालन करने से बेहतर है, भले ही वह कठिन या अधूरा क्यों न लगे। यह श्लोक हमें जीवन में स्वधर्म की महिमा को समझाएगा।

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