ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 38 - कैसे काम और क्रोध हमारे विवेक को ढक देते हैं



"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आपने कभी महसूस किया है कि क्रोध और इच्छाओं का बोझ हमारे मन को अंधकार में ढकेल देता है? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण एक अद्भुत उदाहरण के जरिए समझाते हैं कि ये भावनाएं हमारी सोच पर कैसे पर्दा डालती हैं। आइए जानते हैं इस गहन सत्य को।

कल के श्लोक 37 में हमने सीखा कि काम और क्रोध मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं, क्योंकि ये रजोगुण से उत्पन्न होते हैं और हमें गलत रास्ते पर ले जाते हैं। आज के श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि ये भावनाएं हमारे विवेक को कैसे धुंधला कर देती हैं।

"श्रीकृष्ण श्लोक 38 में कहते हैं:

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥


इसका अर्थ है: 'जैसे धुआं अग्नि को, धूल दर्पण को, और भ्रूण गर्भ को ढक लेता है, वैसे ही कामना और क्रोध ज्ञान को ढक लेते हैं।'

यह श्लोक बताता है कि हमारी इच्छाएं और गुस्सा हमारे मन की स्पष्टता को छीन लेते हैं, जिससे हम सही और गलत का भेद नहीं कर पाते। हमें इनसे बचकर आत्म-संयम की ओर बढ़ना चाहिए।"


"भगवतगीता अध्याय 3 "कामरूप वैरीसे ज्ञान ढका हुआ है, इस विषयका दृष्टान्तोंसहित वर्णन ।


(श्लोक-३८)


धूमेनाव्रियते वह्निर्-यथादर्शी मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्-तथा तेनेदमावृतम् ॥ 


उच्चारण की विधि


धूमेन, आव्रियते, वह्निः, यथा, आदर्शः, मलेन, च, यथा, उल्बेन, आवृतः, गर्भः, तथा, तेन, इदम्, आवृतम् ॥ ३८ ॥


यथा अर्थात् जिस प्रकार, धूमेन अर्थात् धुएँसे, वह्निः अर्थात् अग्नि, च अर्थात् और, मलेन अर्थात् मैलसे, आदर्शः अर्थात् दर्पण, आव्रियते अर्थात् ढका जाता है (तथा), यथा अर्थात् जिस प्रकार, उल्बेन अर्थात् जेरसे, गर्भः अर्थात् गर्भ, आवृतः अर्थात् ढका रहता है, तथा अर्थात् वैसे ही, तेन अर्थात् उस कामके द्वारा, इदम् अर्थात् यह (ज्ञान), आवृतम् अर्थात् ढका रहता है।


अर्थ  - जिस प्रकार धूएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेरसे गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस कामके द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है ॥ ३८ ॥"

"व्याख्या' धूमेनाव्रियते वह्निः' - जैसे धुएँसे अग्नि ढकी रहती है, ऐसे ही कामनासे मनुष्यका विवेक ढका रहता है अर्थात् स्पष्ट प्रतीत नहीं होता।


विवेक बुद्धिमें प्रकट होता है। बुद्धि तीन प्रकारकी होती है- सात्त्विकी, राजसी और तामसी। सात्त्विकी बुद्धिमें कर्तव्य- अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान होता है, राजसी बुद्धिमें कर्तव्य- अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता और तामसी बुद्धिमें सब वस्तुओंका विपरीत ज्ञान होता है (गीता- अठारहवें अध्यायके तीसवेंसे बत्तीसवें श्लोकतक) । कामना उत्पन्न होनेपर सात्त्विकी बुद्धि भी धुएँसे अग्निके समान ढकी जाती है, फिर राजसी और तामसी बुद्धिका तो कहना ही क्या है!


सांसारिक इच्छा उत्पन्न होते ही पारमार्थिक मार्गमें धुआँ हो जाता है। अगर इस अवस्थामें सावधानी नहीं हुई तो कामना और अधिक बढ़ जाती है। कामना बढ़नेपर तो पारमार्थिक मार्गमें अँधेरा ही हो जाता है।


उत्पत्ति विनाशशील जड वस्तुओंमें प्रियता, महत्ता, सुखरूपता, सुन्दरता, विशेषता आदि दीखनेके कारण ही उनकी कामना पैदा होती है। यह कामना ही मूलमें विवेकको ढकनेवाली है। अन्य शरीरोंकी अपेक्षा मनुष्य-शरीरमें विवेक विशेषरूपसे प्रकट है; किन्तु जड पदार्थोंकी कामनाके कारण वह विवेक काम नहीं करता। कामना उत्पन्न होते ही विवेक धुँधला हो जाता है। जैसे धुँएसे ढकी रहनेपर भी अग्नि काम कर सकती है, ऐसे ही यदि साधक कामनाके पैदा होते ही सावधान हो जाय तो उसका विवेक काम कर सकता है।


प्रथमावस्थामें ही कामनाको नष्ट करनेका सरल उपाय यह है कि कामना उत्पन्न होते ही साधक विचार करे कि हम जिस वस्तुकी कामना करते हैं, वह वस्तु हमारे साथ सदा रहनेवाली नहीं है। वह वस्तु पहले भी हमारे साथ नहीं थी और "

"बादमें भी हमारे साथ नहीं रहेगी तथा बीचमें भी उस वस्तुका हमारेसे निरन्तर वियोग हो रहा है। ऐसा विचार करनेसे कामना नहीं रहती।


'यथादर्शी मलेन च' जैसे मैलसे ढक जानेपर दर्पणमें प्रतिबिम्ब दीखना बंद हो जाता है, ऐसे ही कामनाका वेग बढ़नेपर 'मैं साधक हूँ; मेरा यह कर्तव्य और यह अकर्तव्य है'- इसका ज्ञान नहीं रहता। अन्तःकरणमें नाशवान् वस्तुओंका महत्त्व ज्यादा हो जानेसे मनुष्य उन्हीं वस्तुओंके भोग और संग्रहकी कामना करने लगता है। यह कामना ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों मनुष्यका पतन होता है।


वास्तवमें महत्त्व वस्तुका नहीं, प्रत्युत उसके उपयोगका होता है। रुपये, विद्या, बल आदि स्वयं कोई महत्त्वकी वस्तुएँ नहीं हैं, उनका सदुपयोग ही महत्त्वका है- यह बात समझमें आ जानेपर फिर उनकी कामना नहीं रहती; क्योंकि जितनी वस्तुएँ हमारे पासमें हैं, उन्हींके सदुपयोगकी हमारेपर जिम्मेवारी है। उन वस्तुओंको भी सदुपयोगमें लगाना है, फिर अधिककी कामनासे क्या होगा ? कारण कि कामना-मात्रसे वस्तुएँ प्राप्त नहीं होतीं।


सांसारिक वस्तुओंका महत्त्व ज्यों-ज्यों कम होगा, त्यों-ही-त्यों परमात्माका महत्त्व साधकके अन्तःकरणमें बढ़ेगा। सांसारिक वस्तुओंका महत्त्व सर्वथा नष्ट होनेपर परमात्माका अनुभव हो जायगा और कामना सर्वथा नष्ट हो जायगी।


'यथोल्बेनावृतो गर्भः ' - दर्पणपर मैल आनेसे उसमें अपना मुख तो नहीं दीखता, पर 'यह दर्पण है' ऐसा ज्ञान तो रहता ही है। परन्तु जैसे जेरसे ढके गर्भका यह पता नहीं लगता कि लड़का है या लड़की ऐसे ही कामनाकी तृतीयावस्थामें कर्तव्य-अकर्तव्यका पता नहीं लगता अर्थात् विवेक पूरी तरह ढक जाता है।  विवेक ढक जानेसे कामनाका वेग बढ़ जाता है। कामनामें बाधा लगनेसे क्रोध उत्पन्न होता है। "

"फिर उससे सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोहसे बुद्धि नष्ट हो जाती है। बुद्धि नष्ट हो जानेपर मनुष्य करनेयोग्य कार्य नहीं करता और झूठ, कपट, बेईमानी, अन्याय, पाप, अत्याचार आदि न करनेयोग्य कार्य करने लग जाता है। ऐसे लोगोंको भगवान् 'मनुष्य' भी नहीं कहना चाहते। इसीलिये सोलहवें अध्यायमें जहाँ ऐसे लोगोंका वर्णन हुआ है, वहाँ भगवान् ने (आठवेंसे अठारहवें श्लोकतक) मनुष्यवाचक कोई शब्द नहीं दिया। स्वर्गलोककी कामनावाले लोगोंको भी भगवान् ने 'कामात्मानः' (गीता २। ४३) कहा है; क्योंकि ऐसे लोग कामनाके ही स्वरूप होते हैं। कामनामें ही तदाकार होनेसे उनका निश्चय होता है कि सांसारिक सुखसे बढ़कर और कुछ है ही नहीं (गीता-सोलहवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) ।


[यद्यपि कामनाकी इस तृतीयावस्थामें मनुष्यकी दृष्टि अपने वास्तविक उद्देश्य (परमात्मप्राप्ति) की तरफ नहीं जाती, तथापि किन्हीं पूर्वसंस्कारोंसे, वर्तमानके किसी अच्छे संगसे अथवा अन्य किसी कारणसे उसे अपने उद्देश्यकी जागृति हो जाय तो उसका कल्याण भी हो सकता है ।।


'तथा तेनेदमावृतम्' - इस श्लोकमें भगवान् ने एक कामके द्वारा विवेकको ढकनेके विषयमें तीन दृष्टान्त दिये हैं। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य यह है कि एक कामके द्वारा विवेक ढका जानेसे ही कामकी तीनों अवस्थाएँ प्रबुद्ध होती हैं। कामना उत्पन्न होनेपर उसकी ये तीन अवस्थाएँ सबके हृदयमें आती हैं। परन्तु जो मनुष्य कामनाको ही सुखका कारण मानकर उसका आश्रय लेते हैं और कामनाको त्याज्य नहीं मानते, वे कामनाको पहचान ही नहीं पाते। परन्तु परमार्थमें रुचि रखनेवाले तथा साधन करनेवाले पुरुष इस कामनाको पहचान लेते हैं। जो कामनाको पहचान लेता है, वही कामनाको नष्ट भी कर सकता है। "

"भगवान् ने इस श्लोकमें कामनाकी तीन अवस्थाओंका वर्णन उसका नाश करनेके उद्देश्यसे ही किया है, जिसकी आज्ञा उन्होंनें आगे इकतालीसवें और तैंतालीसवें श्लोकमें दी है। वास्तवमें कामना उत्पन्न होनेके बाद उसके बढ़नेका क्रम इतनी तेजीसे होता है कि उसकी उपर्युक्त तीन अवस्थाओंको कहनेमें तो देर लगती है, पर कामनाके बढ़नेमें कोई देर नहीं लगती। कामना बढ़नेपर तो अनर्थ- परम्परा ही चल पड़ती है। सम्पूर्ण पाप, सन्ताप, दुःख आदि कामनाके कारण ही होते हैं। अतएव मनुष्यको चाहिये कि वह अपने विवेकको जाग्रत् रखकर कामनाको उत्पन्न ही न होने दे। यदि कामना उत्पन्न हो जाय, तो भी उसे प्रथम या द्वितीय-अवस्थामें ही नष्ट कर दे। उसे तृतीयावस्थामें तो कभी आने ही न दे।


विशेष बात


धुआँ दिखायी देनेसे यह सिद्ध हो जाता है कि वहाँ अग्नि है; क्योंकि अगर वहाँ अग्नि न होती तो धुआँ कहाँसे आता ? अतः जिस प्रकार धुएँसे ढकी होनेपर भी अग्निके होनेका ज्ञान, मैलसे ढका होनेपर भी दर्पणके होनेका ज्ञान और जेरसे ढका होनेपर भी गर्भके होनेका ज्ञान सभीमें रहता है, उसी प्रकार कामसे ढका होनेपर भी विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान) सभीमें रहता है, पर कामनाके कारण वह उपयोगमें नहीं आता। शास्त्रोंके अनुसार परमात्माकी प्राप्तिमें तीन दोष बाधक हैं-मल, विक्षेप और आवरण । ये दोष असत् (संसार) के सम्बन्धसे उत्पन्न होते हैं। असत् का सम्बन्ध कामनासे होता है। अतः मूल दोष कामना ही है। कामनाका सर्वथा नाश होते ही असत् से सम्बन्ध- विच्छेद हो जाता है। असत् से सम्बन्ध विच्छेद होते ही सम्पूर्ण दोष मिट जाते हैं और विवेक प्रकट हो जाता है। परमात्मप्राप्तिमें मुख्य बाधा है- सांसारिक पदार्थोंको नाशवान् मानते हुए उन्हें महत्त्व देना। "

"जबतक अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व है और वे सत्य, सुन्दर और सुखद प्रतीत होते हैं, तभीतक मल, विक्षेप और आवरण- ये तीनों दोष रहते हैं। इन तीनोंमें भी मलदोषको अधिक बाधक माना जाता है। मलदोष (पाप) का मुख्य कारण कामना ही है; क्योंकि कामनासे ही सब पाप होते हैं। जिस समय साधक यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि 'मैं अब पाप नहीं करूँगा', उसी समय सब दोषोंकी जड़ कट जाती है और मलदोष मिटने लग जाता है। सर्वथा निष्काम होनेपर मलदोष सर्वथा नष्ट हो जाता है।


श्रीमद्भागवतमें भगवान् ने कामनावाले पुरुषोंके कल्याणका उपाय कर्मयोग (निष्काम-कर्म) बताया है- 'कर्मयोगस्तु कामिनाम्' (११। २०। ७)। अतः कामनावाले पुरुषोंको अपने कल्याणके विषयमें निराश नहीं होना चाहिये; क्योंकि जिसमें कामना आयी है, वही निष्काम होगा। कर्मयोगके द्वारा कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। छोटी-से-छोटी अथवा बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक लौकिक या पारमार्थिक क्रिया करनेमें 'मैं क्यों करता हूँ और कैसे करता हूँ?'- ऐसी सावधानी हो जाय, तो उद्देश्यकी जागृति हो जाती है। निरन्तर उद्देश्यपर दृष्टि रहनेसे अशुभ-कर्म तो होते नहीं और शुभ-कर्मोंको भी आसक्ति तथा फलेच्छाका त्याग करके करनेपर निष्कामताका अनुभव हो जाता है और मनुष्यका कल्याण हो जाता है। 


परिशिष्ट भाव - परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कामना ही खास बाधक है। जैसे, पानीसे भरा हुआ घड़ा है और उसमें हमें दो काम करने हैं- उसको खाली करना है और उसमें आकाश भरना है। परन्तु वास्तवमें हमें दो काम नहीं करने हैं, प्रत्युत एक ही काम करना है-घड़ेको खाली करना। घड़ेमेंसे पानी निकाल दें तो आकाश अपने-आप भर जायगा। ऐसे ही कामनाका त्याग करना और परमात्माको प्राप्त करना- ये दो काम नहीं हैं। कामनाका त्याग कर दें तो परमात्माकी प्राप्ति अपने-आप हो जायगी। केवल कामनाके कारण ही परमात्मा अप्राप्त दीख रहे हैं।"श्लोक 38"


कल के श्लोक 39 में श्रीकृष्ण इस विषय को और विस्तार से समझाएंगे और बताएंगे कि कामना ज्ञान को किस हद तक विकृत करती है। यह जानना बहुत रोचक होगा कि मनुष्य को सही मार्ग पर कैसे लाया जा सकता है।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||" 

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