ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 40 से 41 - मन, बुद्धि और इंद्रियों में कामना का निवास
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानते हैं कि इच्छाएं और वासनाएं हमारे ज्ञान को पूरी तरह से ढक सकती हैं? श्रीकृष्ण आज के श्लोक में बताते हैं कि ये कैसे हमारे विवेक को कमजोर कर देती हैं और जीवन में प्रगति के रास्ते में बाधा बनती हैं। आइए गीता के इस श्लोक से मन के गहरे रहस्यों को समझें।
कल के श्लोक 39 में हमने चर्चा की थी कि कामना हमारे ज्ञान को ढक देती है, जिससे हम भ्रमित होकर गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। आज के श्लोक 40 और 41 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि ये भावनाएं हमारे मन, बुद्धि, और इंद्रियों में कैसे जड़ें जमाती हैं।
"श्रीकृष्ण श्लोक 40 में कहते हैं:
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥
इसका अर्थ है: 'इंद्रियां, मन और बुद्धि ही कामना के ठिकाने हैं, और इनसे यह कामना ज्ञान को ढककर व्यक्ति को भ्रमित करती है।'
इस श्लोक से हमें यह समझ में आता है कि काम और क्रोध हमारे भीतर के तंत्र को कैसे प्रभावित करते हैं, जिससे सही निर्णय लेना कठिन हो जाता है।
श्लोक 41 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥
इसका अर्थ है: 'इसलिए, हे अर्जुन, पहले इंद्रियों को वश में करो और फिर इस पापी को नष्ट कर दो, क्योंकि यह ज्ञान और विज्ञान दोनों को नष्ट कर देता है।'
श्रीकृष्ण यहां आत्म-संयम का महत्व बताते हैं और यह समझाते हैं कि इंद्रियों पर नियंत्रण ही काम और क्रोध से मुक्ति का मार्ग है।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 40 से 41"
"कामके वासस्थानोंका कथन।
(श्लोक-४०)
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ।।
उच्चारण की विधि
इन्द्रियाणि, मनः, बुद्धिः, अस्य, अधिष्ठानम्, उच्यते, एतैः, विमोहयति, एषः, ज्ञानम्, आवृत्य, देहिनम् ॥ ४० ॥
इन्द्रियाणि अर्थात् इन्द्रियाँ, मनः अर्थात् मन (और), बुद्धिः अर्थात् बुद्धि (ये सब) अस्य इसके, अधिष्ठानम् अर्थात् वासस्थान, उच्यते अर्थात् कहे जाते हैं, एषः अर्थात् यह काम, एतैः अर्थात् इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही, ज्ञानम् अर्थात् ज्ञानको, आवृत्य अर्थात् आच्छादित करके, देहिनम् अर्थात् जीवात्माको, विमोहयति अर्थात् मोहित करता है।
अर्थ - इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि-ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही ज्ञानको आच्छादित करके जीवात्माको मोहित करता है ॥ ४० ॥"
"व्याख्या'इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते'- काम पाँच स्थानोंमें दीखता है- (१) पदार्थोंमें (गीता- तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक), (२) इन्द्रियोंमें, (३) मनमें, (४) बुद्धिमें और (५) माने हुए अहम् (मैं) अर्थात् कर्तामें (गीता- दूसरे अध्यायका उनसठवाँ श्लोक)। इन पाँच स्थानोंमें दीखनेपर भी काम वास्तवमें माने हुए 'अहम्' (चिज्जडग्रन्थि) में ही रहता है। परन्तु उपर्युक्त पाँच स्थानोंमें दिखायी देनेके कारण ही वे इस कामके वास-स्थान कहे जाते हैं।
समस्त क्रियाएँ शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धिसे ही होती हैं। ये चारों कर्म करनेके साधन हैं। यदि इनमें काम रहता है तो वह पारमार्थिक कर्म नहीं होने देता। इसलिये कर्मयोगी निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करता है (गीता-पाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)।
वास्तवमें काम अहम् (जड-चेतनके तादात्म्य) में ही रहता है। अहम् अर्थात् 'मैं'-पन केवल माना हुआ है। मैं अमुक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायवाला हूँ- यह केवल मान्यता है। मान्यताके सिवाय इसका दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। इस माने हुए सम्बन्धमें ही कामना रहती है। कामनासे ही सब पाप होते हैं। पाप तो फल भुगताकर नष्ट हो जाते हैं, पर 'अहम्' से कामना दूर हुए बिना नये-नये पाप होते रहते हैं। इसलिये कामना ही जीवको बाँधनेवाली है। महाभारतमें कहा है
कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम् । कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (शान्तिपर्व २५१।७) 'जगत् में कामना ही एकमात्र बन्धन है, दूसरा कोई बन्धन नहीं है। जो कामनाके बन्धनसे छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है।'"
"एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्'- कामनाके कारण मनुष्यको जो करना चाहिये, वह नहीं करता और जो नहीं करना चाहिये, वह कर बैठता है। इस प्रकार कामना देहाभिमानी पुरुषको मोहित कर देती है।
दूसरे अध्यायमें भगवान् ने कहा है कि कामनासे क्रोध उत्पन्न होता है-'कामात् क्रोधोऽभिजायते' (२। ६२) और क्रोधसे सम्मोह (अत्यन्त मूढ़भाव) उत्पन्न होता है- 'क्रोधाद्भवति सम्मोहः' (२।६३)। इससे यह समझना चाहिये कि कामनामें बाधा पहुँचनेपर तो क्रोध उत्पन्न होता है, पर यदि कामनामें बाधा न पहुँचे, तो कामनासे लोभ और लोभसे सम्मोह उत्पन्न होता है।
१-रागात् कामः प्रभवति कामाल्लोभोऽभिजायते । लोभाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः ॥ स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।। (मार्कण्डेयपुराण ३। ७१-७२) तात्पर्य यह है कि कामनासे पदार्थ न मिले तो 'क्रोध' उत्पन्न होता है और पदार्थ मिले तो 'लोभ' उत्पन्न होता है। उनसे फिर 'मोह' उत्पन्न होता है। कामना रजोगुणका कार्य है और मोह तमोगुणका कार्य। रजोगुण और तमोगुण पास-पास रहते हैं।
२-तमोगुण, रजोगुण, और सत्त्वगुण- तीनोंमें परस्पर (क्रमशः १,१० और १०० अंकोंकी तरह) दसगुनेका अन्तर है। फिर भी तमोगुण (१) से रजोगुण (१०) नजदीक है और सत्त्वगुण (१००) इन दोनोंसे दूर पड़ता है।
अतः काम, क्रोध, लोभ और मोह पास-पास ही रहते हैं। काम इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा देहाभिमानी पुरुषको मोहित (बेहोश) कर देता है। इस प्रकार 'काम' रजोगुणका कार्य होते हुए भी तमोगुणका कार्य 'मोह' हो जाता है। कामना उत्पन्न होनेपर मनुष्य पहले इन्द्रियोंसे भोग भोगनेकी कामना करता है। पहले तो भोग-पदार्थ मिलते नहीं और मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। "
"इसलिये उन्हें किसी तरह प्राप्त करनेके लिये वह मनमें तरह-तरहकी कामनाएँ करता है। बुद्धिमें उन्हें प्राप्त करनेके लिये तरह-तरहके उपाय सोचता है। इस प्रकार कामना पहले इन्द्रियोंको संयोगजन्य सुखके प्रलोभनमें लगाती है। फिर इन्द्रियाँ मनको अपनी ओर खींचती हैं और उसके बाद इन्द्रियाँ और मन मिलकर बुद्धिको भी अपनी ओर खींच लेते हैं। इस तरह काम देहाभिमानीके ज्ञानको ढककर इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा उसे मोहित कर देता है तथा उसे पतनके गड्डेमें डाल देता है।
यह सिद्धान्त है कि नौकर अच्छा हो, पर मालिक तिरस्कारपूर्वक उसे निकाल दे तो फिर उसे अच्छा नौकर नहीं मिलेगा। ऐसे ही मालिक अच्छा हो, पर नौकर उसका तिरस्कार कर दे तो फिर उसे अच्छा मालिक नहीं मिलेगा। इसी प्रकार मनुष्य परमात्मप्राप्ति किये बिना शरीरको सांसारिक भोग और संग्रहमें ही खो देता है तो फिर उसे मनुष्यशरीर नहीं मिलेगा। अच्छी वस्तुका तिरस्कार होता है अन्तःकरण अशुद्ध होनेसे और अन्तःकरण अशुद्ध होता है कामनासे। इसलिये सबसे पहले कामनाका नाश करना चाहिये।
'देहिनम् विमोहयति' - पदोंका तात्पर्य यह है कि यह काम देहाभिमानी पुरुषको ही मोहित करता है। शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेवाला ही देहाभिमानी होता है। भगवान् ने अपने उपदेशके आरम्भमें ही देह (शरीर) और देही (शरीरी-आत्मा) का विवेचन किया है (गीता - दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक)। देह और देही दोनों अलग-अलग हैं- यह सबका अनुभव है। यह काम ज्ञानको ढककर देहाभिमानी (देहसे अपना सम्बन्ध माननेवाले) को बाँधता है, देही (शुद्ध स्वरूप) को नहीं। जो देहके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता, उसे यह बाँध नहीं सकता। देहको 'मैं' 'मेरा' और 'मेरे लिये' माननेसे ही मनुष्य उत्पत्ति-विनाशशील जड वस्तुओंको महत्त्व देता है; जिससे उसमें जडताका राग उत्पन्न हो जाता है। राग उत्पन्न होनेपर जडतासे सम्बन्ध हो जाता है। जडतासे सम्बन्ध होनेपर ही कामनाकी उत्पत्ति होती है। कामना उत्पन्न होनेपर जीव मोहित होकर संसार-बन्धनमें बंध जाता है।
सम्बन्ध-अब आगेके तीन श्लोकोंमें भगवान् कामको मारनेका प्रकार बताते हुए उसे मारनेकी आज्ञा देते हैं।"
"इन्द्रियोंको वशमें करके कामको मारनेकी आज्ञा।
(श्लोक-४१)
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि होनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।
उच्चारण की विधि
तस्मात्, त्वम्, इन्द्रियाणि, आदौ, नियम्य, भरतर्षभ, पाप्मानम्, प्रजहि, हि, एनम्, ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥
तस्मात् अर्थात् इसलिये, भरतर्षभ अर्थात् हे अर्जुन, त्वम् अर्थात् तू, आदौ अर्थात् पहले इन्द्रियाणि अर्थात् इन्द्रियोंको, नियम्य अर्थात् वशमें करके, एनम् अर्थात् इस, ज्ञानविज्ञाननाशनम् अर्थात् ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले, पाप्मानम् अर्थात् महान् पापी कामको, हि अर्थात् अवश्य ही, प्रजहि अर्थात् बलपूर्वक मार डाल।
अर्थ - इसलिये हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल ॥ ४१ ॥"
"व्याख्या 'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ' - इन्द्रियोंको विषयोंमें भोग-बुद्धिसे प्रवृत्त न होने देना, अपितु केवल निर्वाह-बुद्धिसे अथवा साधन-बुद्धिसे प्रवृत्त होने देना ही उनको वशमें करना है। तात्पर्य है कि इन्द्रियोंकी विषयोंमें रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो और द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो। (गीता- अठारहवें अध्यायका दसवाँ श्लोक) रागपूर्वक प्रवृत्ति और द्वेषपूर्वक निवृत्ति होनेसे राग- द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और न चाहते हुए भी मनुष्यको पतनकी ओर ले जाते हैं। इसलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा कर्तव्य और अकर्तव्यको जाननेके लिये शास्त्र ही प्रमाण है। (गीता- सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक) शास्त्रके अनुसार कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो जाती हैं।
'काम' को मारनेके लिये सबसे पहले इन्द्रियोंका नियमन करनेके लिये कहनेका कारण यह है कि जबतक मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें रहता है, तबतक उसकी दृष्टि तत्त्वकी ओर नहीं जाती; और तत्त्वकी ओर दृष्टि गये बिना अर्थात् तत्त्वका अनुभव हुए बिना 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता।
मनुष्यकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे ही होती है। इसलिये वह सबसे पहले इन्द्रियोंके विषयोंमें ही फँसता है, जिससे उसमें उन विषयोंकी कामना पैदा हो जाती है। कामना सहित कर्म करनेसे मनुष्य पूरी तरह इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है और इससे उसका पतन हो जाता है। परन्तु जो मनुष्य इन्द्रियोंको वशमें करके निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, उसका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है। 'एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम्' - 'ज्ञान 'पदका अर्थ शास्त्रीय ज्ञान भी लिया जाता है; जैसे- ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्मोंके अन्तर्गत 'ज्ञानम्' पद शास्त्रीय ज्ञानके लिये ही आया है। "
"(गीता-अठारहवें अध्यायका बयालीसवाँ श्लोक)। परन्तु यहाँ प्रसंगके अनुसार 'ज्ञान' का अर्थ विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्यको अलग-अलग जानना) लेना ही उचित प्रतीत होता है। 'विज्ञान' पदका अर्थ विशेष ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान (अनुभव-ज्ञान, असली ज्ञान या बोध) है।
विवेक और तत्त्वज्ञान- दोनों ही स्वतः सिद्ध हैं। तत्त्व-ज्ञानका अनुभव तो सबको नहीं है, पर विवेकका अनुभव सभीको है। मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे है। अर्जुनके प्रश्न (मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है?) में आये 'अनिच्छन्नपि' पदसे भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्यमें विवेक है और इस विवेकसे ही वह पाप और पुण्य-दोनोंको जानता है और पाप नहीं करना चाहता। पाप न करनेकी इच्छा विवेकके बिना नहीं होती। परन्तु यह 'काम' उस विवेकको ढक देता है और उसको जाग्रत् नहीं होने देता।
विवेक जाग्रत् होनेसे मनुष्य भविष्यपर अर्थात् परिणामपर दृष्टि रखकर ही सब कार्य करता है। परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण परिणामकी ओर दृष्टि ही नहीं जाती। परिणामकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही वह पाप करता है।
इस प्रकार जिसका अनुभव सबको है, उस विवेकको भी जब यह 'काम' जाग्रत् नहीं होने देता, तब जिसका अनुभव सबको नहीं है, उस तत्त्वज्ञानको तो जाग्रत् होने ही कैसे देगा? इसलिये यहाँ 'काम' को ज्ञान (विवेक) और विज्ञान (बोध) दोनोंका नाश करनेवाला बताया गया है।
वास्तवमें यह 'काम' ज्ञान और विज्ञानका नाश (अभाव) नहीं करता, प्रत्युत उन दोनोंको ढक देता है अर्थात् प्रकट नहीं होने देता। उन्हें ढक देनेको ही यहाँ उनका नाश करना कहा गया है। कारण कि ज्ञान-विज्ञानका कभी नाश होता ही नहीं। नाश तो वास्तवमें 'काम' का ही होता है। "
"जिस प्रकार नेत्रोंके सामने बादल आनेपर 'बादलोंने सूर्यको ढक दिया' ऐसा कहा जाता है, पर वास्तवमें सूर्य नहीं ढका जाता, प्रत्युत नेत्र ढके जाते हैं, उसी प्रकार 'कामनाने ज्ञान-विज्ञानको ढक दिया' ऐसा कहा तो जाता है, पर वास्तवमें ज्ञान-विज्ञान ढके नहीं जाते, प्रत्युत बुद्धि ढकी जाती है। 'पाप्मानं हि प्रजहि' कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है। इसलिये कामना उत्पन्न होनेसे पाप होनेकी सम्भावना रहती है। आगे चलकर कामना मनुष्यके विवेकको ढककर उसे अन्धा बना देती है, जिससे उसे पाप-पुण्यका ज्ञान ही नहीं रहता और वह पापोंमें ही लग जाता है। इससे उसका महान् पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् कामनाको महापापी बताकर उसे अवश्य ही मार डालनेकी आज्ञा देते हैं।
गृहस्थ-जीवन ठीक नहीं, साधु हो जायँ, एकान्तमें चले जायँ - ऐसा विचार करके मनुष्य कार्यको तो बदलना चाहता है, पर कारण 'कामना' को नहीं छोड़ता; उसे छोड़नेका विचार ही नहीं करता। यदि वह कामनाको छोड़ दे तो उसके सब काम अपने-आप ठीक हो जायँ। जब मनुष्य जीनेकी कामना तथा अन्य कामनाओंको रखते हुए मरता है, तब वे कामनाएँ उसके अगले जन्मका कारण बन जाती हैं। तात्पर्य यह है कि जबतक मनुष्यमें कामना रहती है, तबतक वह जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा रहता है। इस प्रकार बाँधनेके सिवाय कामना और कुछ काम नहीं आती।"
जब मनुष्यका जड-पदार्थोंकी तरफ आकर्षण होता है, तभी उनकी कामना उत्पन्न होती है। कामना उत्पन्न होते ही विवेक-दृष्टि दब जाती है और इन्द्रिय-दृष्टिकी प्रधानता हो जाती है। इन्द्रियाँ मनुष्यको केवल शब्दादि विषयोंके सुख भोगमें ही लगाती हैं। पशु- पक्षियोंकी भी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे मिलनेवाले सुखतक ही रहती है। परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण मनुष्य इन्द्रियजन्य सुखके लिये पदार्थोंकी कामना करने लगता है और फिर पदार्थोंके लिये रुपयोंकी कामना करने लग जाता है। इतना ही नहीं, उसकी दृष्टि रुपयोंसे भी हटकर रुपयोंकी गिनती (संग्रह) में हो जाती है। फिर वह रुपयोंकी गिनती बढ़ानेमें ही लग जाता है। निर्वाहमात्रके रुपयोंकी अपेक्षा उनका संग्रह अधिक पतन करनेवाला है और संग्रहकी अपेक्षा भी रुपयोंकी गिनती महान् पतन करनेवाली है। गिनती बढ़ानेके लिये वह झूठ, कपट, धोखा, चोरी आदि पाप- कर्मोंको भी करने लग जाता है और गिनती बढ़नेपर उसमें अभिमान भी आ जाता है, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है। इस प्रकार कामनाके कारण मनुष्य महान् पतनकी ओर चला जाता है। इसलिये भगवान् इस महान् पापी कामका अच्छी तरह नाश करनेकी आज्ञा देते हैं।
कल के श्लोक 42 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि बुद्धि, मन और इंद्रियों के बीच की शक्ति का रहस्य क्या है। यह जानना बहुत दिलचस्प होगा कि इन तंत्रों के बीच सही संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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