ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 42 - इंद्रिय, मन और बुद्धि की शक्ति का रहस्य



 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आप जानना चाहते हैं कि हमारी इंद्रियों, मन और बुद्धि के बीच कौन सबसे शक्तिशाली है? और कैसे आत्मा इन सब पर विजय पा सकती है? श्रीकृष्ण आज के श्लोक में इस गहरे सत्य का रहस्य उजागर करते हैं। आइए इसे समझें और अपने जीवन को सही दिशा में मोड़ें।

कल के श्लोक 40 और 41 में हमने जाना कि काम और क्रोध हमारे मन, इंद्रियों और बुद्धि में निवास करते हैं और हमें भ्रमित कर देते हैं। हमने यह भी सीखा कि इंद्रियों पर नियंत्रण करना जरूरी है ताकि हम इन भावनाओं से मुक्त हो सकें।

"श्रीकृष्ण श्लोक 42 में कहते हैं:

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥


इसका अर्थ है:

'इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है, परंतु मन इंद्रियों से भी श्रेष्ठ है। मन से श्रेष्ठ बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है, वह आत्मा है।'


इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें आध्यात्मिक संरचना का गहरा ज्ञान देते हैं। वे यह बताते हैं कि हालांकि हमारी इंद्रियां और मन हमें प्रभावित करते हैं, लेकिन हमारी बुद्धि इनसे ऊपर है। और सबसे ऊपर है आत्मा, जो शुद्ध और शाश्वत है। यदि हम आत्मा से जुड़े रहते हैं, तो हम मन और इंद्रियों के भटकाव से मुक्त रह सकते हैं।"


"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 42"

"इन्द्रिय, मन और बुद्धिसे भी आत्माकी अति श्रेष्ठताका कथन ।


(श्लोक-४२)


इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्-यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥


उच्चारण की विधि


इन्द्रियाणि, पराणि, आहुः, इन्द्रियेभ्यः, परम्, मनः, मनसः, तु, परा, बुद्धिः, यः, बुद्धेः, परतः, तु, सः ॥ ४२ ॥


इन्द्रियाणि अर्थात् इन्द्रियोंको (स्थूल शरीरसे), पराणि अर्थात् पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म, आहुः अर्थात् कहते हैं, इन्द्रियेभ्यः अर्थात् इन इन्द्रियोंसे, परम् अर्थात् पर, मनः अर्थात् मन है, मनसः अर्थात् मनसे, तु अर्थात् भी, परा अर्थात् पर, बुद्धिः अर्थात् बुद्धि है, तु अर्थात् और, यः अर्थात् जो, बुद्धेः अर्थात् बुद्धिसे (भी), परतः अर्थात् अत्यन्त पर है, सः अर्थात् वह (आत्मा) है।


अर्थ - इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है ॥ ४२ ॥"

"व्याख्या' इन्द्रियाणि पराण्याहुः' - शरीर अथवा विषयोंसे इन्द्रियाँ पर हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका ज्ञान होता है, पर विषयोंके द्वारा इन्द्रियोंका ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियाँ विषयोंके बिना भी रहती हैं, पर इन्द्रियोंके बिना विषयोंकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। विषयोंमें यह सामर्थ्य नहीं कि वे इन्द्रियोंको प्रकाशित करें, प्रत्युत इन्द्रियाँ विषयोंको प्रकाशित करती हैं। इन्द्रियाँ वही रहती हैं, पर विषय बदलते रहते हैं। इन्द्रियाँ व्यापक हैं और विषय व्याप्य हैं अर्थात् विषय इन्द्रियोंके अन्तर्गत आते हैं, पर इन्द्रियाँ विषयोंके अन्तर्गत नहीं आतीं। विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। इसलिये विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म हैं।


'इन्द्रियेभ्यः परं मनः' इन्द्रियाँ मनको नहीं जानतीं, पर मन सभी इन्द्रियोंको जानता है। इन्द्रियोंमें भी प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयको ही जानती है, अन्य इन्द्रियोंके विषयोंको नहीं; जैसे-कान केवल शब्दको जानते हैं, पर स्पर्श, रूप, रस और गंधको नहीं जानते; त्वचा केवल स्पर्शको जानती है, पर शब्द, रूप, रस और गन्धको नहीं जानती; नेत्र केवल रूपको जानते हैं, पर शब्द, स्पर्श, रस और गन्धको नहीं जानते; रसना केवल रसको जानती है, पर शब्द, स्पर्श, रूप और गन्धको नहीं जानती; और नासिका केवल गन्धको जानती है, पर शब्द, स्पर्श, रूप और रसको नहीं जानती; परन्तु मन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको जानता है। इसलिये मन इन्द्रियोंसे श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म है।"

"मनसस्तु परा बुद्धिः'- मन बुद्धिको नहीं जानता, पर बुद्धि मनको जानती है। मन कैसा है? शान्त है या व्याकुल ? ठीक है या बेठीक ? इत्यादि बातोंको बुद्धि जानती है। इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं या नहीं?- इसको भी बुद्धि जानती है, तात्पर्य है कि बुद्धि मनको तथा उसके संकल्पोंको भी जानती है और इन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको भी जानती है। इसलिये इन्द्रियोंसे पर जो मन है, उस  मनसे भी बुद्धि पर (श्रेष्ठ, बलवान्, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म) है।


'यः बुद्धेः परतस्तु सः'- बुद्धिका स्वामी 'अहम्' है, इसलिये कहता है- 'मेरी बुद्धि।' बुद्धि करण है और 'अहम्' कर्ता है। करण परतन्त्र होता है, पर कर्ता स्वतन्त्र होता है। उस 'अहम्' में जो जड- अंश है, उसमें 'काम' रहता है। जड अंशसे तादात्म्य होनेके कारण वह काम स्वरूप (चेतन) में रहता प्रतीत होता है।


वास्तवमें 'अहम्' में ही 'काम' रहता है; क्योंकि वही भोगोंकी इच्छा करता है और सुख-दुःखका भोक्ता बनता है। भोक्ता, भोग और भोग्य-इन तीनोंमें सजातीयता (जातीय एकता) है। इनमें सजातीयता न हो तो भोक्तामें भोग्यकी कामना या आकर्षण हो ही नहीं सकता। भोक्तापनका जो प्रकाशक है, जिसके प्रकाशमें भोक्ता, भोग और भोग्य-तीनोंकी सिद्धि होती है, उस परम प्रकाशक (शुद्ध चेतन) में 'काम' नहीं है। 'अहम्' तक सब प्रकृतिका अंश है। उस 'अहम्' से भी आगे साक्षात् परमात्माका अंश 'स्वयं' है, जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम् - इन सबका आश्रय, आधार, कारण और प्रेरक है तथा श्रेष्ठ, बलवान्, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म है।"

"जड (प्रकृति) का अंश ही सुख-दुःखरूपमें परिणत होता है अर्थात् सुख-दुःखरूप विकृति जडमें ही होती है। चेतनमें विकृति नहीं है, प्रत्युत चेतन विकृतिका ज्ञाता है; परन्तु जडसे तादात्म्य होनेसे सुख-दुःखका भोक्ता चेतन ही बनता है अर्थात् चेतन ही सुखी-दुःखी होता है। केवल


जडमें सुखी-दुःखी होना नहीं बनता। तात्पर्य यह है कि 'अहम्' में जो जड-अंश है, उसके साथ तादात्म्य कर लेनेसे चेतन भी अपनेको 'मैं भोक्ता हूँ' ऐसा मान लेता है। परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार होते ही रसबुद्धि निवृत्त हो जाती है- 'रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते' (गीता २। ५९)। इसमें 'अस्य' पद भोक्ता बने हुए 'अहम्' का वाचक है और जो भोक्तापनसे निर्लिप्त तत्त्व है, उस परमात्माका वाचक 'परम' पद है। उसके ज्ञानसे रस अर्थात् 'काम' निवृत्त हो जाता है। कारण कि सुखके लिये ही कामना होती है और स्वरूप सहजसुखराशि है। इसलिये परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार होनेसे 'काम' (संयोगजन्य सुखकी इच्छा) सर्वदा और सर्वथा मिट जाता है।


मार्मिक बात


स्थूलशरीर 'विषय' है, इन्द्रियाँ 'बहिःकरण' हैं और मन-बुद्धि 'अन्तःकरण' हैं। स्थूलशरीरसे इन्द्रियाँ पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म) हैं तथा इन्द्रियोंसे बुद्धि पर है। बुद्धिसे भी पर 'अहम्' है, जो कर्ता है। उस 'अहम्' (कर्ता) में 'काम' अर्थात् लौकिक इच्छा रहती है।


अपनी सत्ता (होनापन) अर्थात् अपना स्वरूप चेतन, निर्विकार और सत्-चित् आनन्दरूप है। जब वह जड (प्रकृतिजन्य शरीर) के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब 'अहम्' उत्पन्न होता है और स्वरूप 'कर्ता' बन जाता है।"

"इस प्रकार कर्तामें एक जड अंश होता है और एक चेतन-अंश। जड अंशकी मुख्यतासे संसारकी तरफ और चेतन-अंशकी मुख्यतासे परमात्माकी तरफ आकर्षण होता है*। 


* जड-चेतनके तादात्म्य और आकर्षणको समझनेके लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है। चार कोनोंवाले किसी लोहेका अग्निसे तादात्म्य अर्थात् सम्बन्ध होनेपर लोहेमें जलानेकी शक्ति न होनेपर भी वह जलानेवाला हो जाता है; और अग्नि चार कोनोंवाली न होनेपर भी चार कोनोंवाली हो जाती है। अग्निसे तादात्म्य होनेपर भी चुम्बककी ओर लोहा ही आकर्षित होता है, अग्नि नहीं; क्योंकि चुम्बकके साथ लोहेकी सजातीयता है। अग्नि अपने सजातीय निराकार अग्नि तत्त्वकी ओर ही आकर्षित होती है, इसलिये वह स्वतः शान्त हो जाती है। इसी प्रकार जड और चेतनके तादात्म्यमें जड अंश संसारकी ओर एवं चेतन अंश परमात्माकी ओर आकर्षित होता है। चेतन अंशके परमात्माकी ओर आकृष्ट होनेपर जड-अंश छूट जाता है; क्योंकि जड अनित्य है। परन्तु जड अंशके संसारकी ओर आकृष्ट होनेपर भी चेतन-अंश नहीं छूटता; क्योंकि चेतन नित्य है।


तात्पर्य यह है कि उसमें जड अंशकी प्रधानतासे लौकिक (संसारकी) इच्छाएँ रहती हैं और चेतन-अंशकी प्रधानतासे पारमार्थिक (परमात्माकी) इच्छा रहती है। जड अंश मिटनेवाला है, इसलिये लौकिक इच्छाएँ मिटनेवाली हैं और चेतन-अंश सदा रहनेवाला है, इसलिये पारमार्थिक इच्छा पूरी होनेवाली है। इसलिये लौकिक इच्छाओं (कामनाओं) की निवृत्ति और पारमार्थिक इच्छा (संसारसे छूटनेकी इच्छा, स्वरूपबोधकी जिज्ञासा और भगवत्प्रेमकी अभिलाषा) की पूर्ति होती है।"

" लौकिक इच्छाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, पर टिक नहीं सकतीं। परन्तु पारमार्थिक इच्छा दब सकती है, पर मिट नहीं सकती। कारण कि लौकिक इच्छाएँ अवास्तविक और पारमार्थिक इच्छा वास्तविक है। इसलिये साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये।


वस्तुतः मूलमें इच्छा एक ही है, जो अपने अंशी परमात्माकी है। परन्तु जडके सम्बन्धसे इस इच्छाके दो भेद हो जाते हैं और मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छाकी पूर्ति परिवर्तनशील जड (संसार) के द्वारा करनेके लिये जड पदार्थोंकी इच्छाएँ करने लगता है, जो उसकी भूल है। कारण कि लौकिक इच्छाएँ 'परधर्म' और पारमार्थिक इच्छा 'स्वधर्म' है। परन्तु साधकमें लौकिक और पारमार्थिक - दोनों इच्छाएँ रहनेसे द्वन्द्व पैदा हो जाता है। द्वन्द्व होनेसे साधकमें भजन, ध्यान, सत्संग आदिके समय तो पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् रहती है, पर अन्य समयमें उसकी पारमार्थिक इच्छा दब जाती है और लौकिक (भोग एवं संग्रहकी) इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। लौकिक इच्छाओंके रहते हुए साधकमें साधन करनेका एक निश्चय स्थिर नहीं रह सकता। पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् हुए बिना साधककी उन्नति नहीं होती। जब साधकका एकमात्र परमात्मप्राप्ति करनेका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है, तब यह द्वन्द्व मिट जाता है और साधकमें एक पारमार्थिक इच्छा ही प्रबल रह जाती है। एक ही पारमार्थिक इच्छा प्रबल रहनेसे साधक सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर लेता है (गीता- पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)। इसलिये लौकिक और पारमार्थिक इच्छाका द्वन्द्व मिटाना साधकके लिये बहुत आवश्यक है।"

"शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको 'प्रेम' कहते हैं। जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह 'प्रेम' दब जाता है और 'काम' उत्पन्न हो जाता है। जबतक 'काम' रहता है, तबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता। जबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता, तबतक 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता। जड-अंशकी मुख्यतासे जिसमें सांसारिक भोगोंकी इच्छा (काम) रहती है, उसीमें चेतन- अंशकी मुख्यतासे परमात्माकी इच्छा भी रहती है। अतः वास्तवमें 'काम' का निवास जड अंशमें ही है, पर वह भी चेतनके सम्बन्धसे ही है। चेतनका सम्बन्ध छूटते ही 'काम' का नाश हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि चेतनद्वारा जडसे सम्बन्ध-विच्छेद करते ही जड-चेतनके तादात्म्यरूप 'अहम्' का नाश हो जाता है और 'अहम्' का नाश होते ही 'काम' भी नष्ट हो जाता है।


'अहम्' में जो जड-अंश है, उसमें 'काम' रहता है- इसकी प्रबल युक्ति यह है कि दृश्यरूपसे दीखनेवाला संसार, उसे देखनेवाली इन्द्रियाँ तथा बुद्धि और उसे देखनेवाला स्वयं भोक्ता - इन तीनोंमें जातीय (धातुगत) एकताके बिना भोक्ताका भोग्यकी ओर आकर्षण हो ही नहीं सकता। कारण कि आकर्षण सजातीयतामें ही होता है, विजातीयतामें नहीं; जैसे- नेत्रोंका रूपके प्रति ही आकर्षण होता है, शब्दके प्रति नहीं। यही बात सब इन्द्रियोंमें लागू होती है। बुद्धिका भी समझनेके विषय (विवेक- विचार) में आकर्षण होता है, शब्दादि विषयोंमें नहीं (यदि होता है तो इन्द्रियोंको साथमें लेनेसे ही होता है)। ऐसे ही स्वयं (चेतन) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है, इसलिये 'स्वयं' का परमात्माकी ओर आकर्षण होता है। "

"यह तात्त्विक एकता जड-अंशका सर्वथा त्याग करनेसे अर्थात् जडसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद करनेसे ही अनुभवमें आती है। अनुभवमें आते ही 'प्रेम' जाग्रत् हो जाता है। प्रेममें जडता (असत्) का अंश भी शेष नहीं रहता अर्थात् जडताका अत्यन्त अभाव हो जाता है। 


प्रकृतिके कार्य महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) का अत्यन्त सूक्ष्म अंश 'कारणशरीर' ही 'अहम्' का जड अंश है। इस कारणशरीरमें ही 'काम' रहता है। कारणशरीरके तादात्म्यसे 'काम' स्वयंमें दीखता है। तादात्म्य मिटनेपर जिसमें 'काम' का लेश भी नहीं है, ऐसे अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है। स्वरूपका अनुभव हो जानेपर 'काम' सर्वथा निवृत्त हो जाता है।"

कल के श्लोक 43 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि आत्मा के बल पर कैसे इच्छाओं को नियंत्रित किया जा सकता है और अंतिम शांति प्राप्त की जा सकती है। यह चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण होगी।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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