ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 43 - इच्छाओं पर विजय का मार्ग




"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आप जानते हैं कि श्रीकृष्ण के अनुसार, इच्छाओं पर विजय पाने का सबसे प्रभावी तरीका क्या है? आज के श्लोक में वे बताते हैं कि आत्मा के बल से हम मन और इंद्रियों के नियंत्रण से मुक्त हो सकते हैं। आइए इस गहरे रहस्य को समझें।

कल हमने श्लोक 42 में जाना कि इंद्रियां, मन और बुद्धि के ऊपर आत्मा का वास है, और यह आत्मा ही हमें सही मार्ग दिखा सकती है। अब आज के श्लोक में हम सीखेंगे कि आत्मा के बल पर इच्छाओं और कामनाओं को कैसे वश में किया जा सकता है।

"आज के श्लोक 43 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥


इसका अर्थ है: 'हे महाबाहो अर्जुन, इस प्रकार आत्मा को बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर, आत्मा द्वारा अपने मन को स्थिर करो और उस कठिन शत्रु—कामना—का नाश करो।'


यह श्लोक हमें सिखाता है कि आत्म-नियंत्रण से ही हम अपनी इच्छाओं पर विजय पा सकते हैं। जब मन, बुद्धि और आत्मा में सामंजस्य स्थापित होता है, तभी हम अपने भीतर के शत्रुओं को हराकर आत्मिक शांति प्राप्त कर सकते हैं।"


"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 43"

"बुद्धिसे परे आत्माको जानकर बुद्धिद्वारा मनका संयम करके कामको मारनेकी आज्ञा देते हुए अध्यायकी समाप्ति ।


(श्लोक-४३)


एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥


उच्चारण की विधि


एवम्, बुद्धेः, परम्, बुद्ध्वा, संस्तभ्य, आत्मानम्, आत्मना, जहि, शत्रुम्, महाबाहो, कामरूपम्, दुरासदम् ॥ ४३ ॥


एवम् अर्थात् इस प्रकार, बुद्धेः अर्थात् बुद्धिसे, परम् अर्थात् पर अर्थात् सूक्ष्म बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्माको, बुद्ध्वा अर्थात् जानकर (और), आत्मना अर्थात् बुद्धिके द्वारा, आत्मानम् अर्थात् मनको, संस्तभ्य अर्थात् वशमें करके, महाबाहो अर्थात् हे महाबाहो ! (तू इस), कामरूपम् अर्थात् कामरूप, दुरासदम् अर्थात् दुर्जय, शत्रुम् अर्थात् शत्रुको, जहि अर्थात् मार डाल।


अर्थ - इस प्रकार बुद्धिसे पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्माको जानकर और बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल ॥ ४३॥"

"एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा'- पहले शरीरसे पर इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे पर मन, मनसे पर बुद्धि और बुद्धिसे पर 'काम' को बताया गया। अब उपर्युक्त पदोंमें बुद्धिसे पर 'काम' को जाननेके लिये कहनेका अभिप्राय यह है कि यह 'काम' 'अहम्' में रहता है। अपने वास्तविक स्वरूपमें 'काम' नहीं है। यदि स्वरूपमें 'काम' होता तो कभी मिटता नहीं। नाशवान् जडके साथ तादात्म्य कर लेनेसे ही 'काम' उत्पन्न होता है। तादात्म्यमें भी 'काम' रहता तो जडमें ही है, पर दीखता है स्वरूपमें। इसलिये बुद्धिसे परे रहनेवाले इस 'काम' को जानकर उसका नाश कर देना चाहिये। 'संस्तभ्यात्मानमात्मना'- बुद्धिसे परे 'अहम्' में रहनेवाले 'काम' को मारनेका उपाय है- अपने द्वारा अपने-आपको वशमें करना अर्थात् अपना सम्बन्ध केवल अपने शुद्ध स्वरूपके साथ अथवा अपने अंशी भगवान् के साथ रखना, जो वास्तवमें है। छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'उद्धरेदात्मनात्मानम्' पदसे और छठे श्लोकमें 'येनात्मैवात्मना जितः' पदोंसे भी यही बात कही गयी है।


स्वरूप (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश है और शरीर-इन्द्रियाँ- मन-बुद्धि संसारके अंश हैं। जब स्वरूप अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर प्रकृति (संसार) के सम्मुख हो जाता है, तब उसमें कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कामनाएँ अभावसे उत्पन्न होती हैं और अभाव संसारके सम्बन्धसे होता है; क्योंकि संसार अभावरूप ही है-'नासतो विद्यते भावः' (गीता २। १६) । संसारसे सम्बन्ध- विच्छेद होते ही कामनाओंका नाश हो जाता है; क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है- 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता २। १६)।


परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध माननेपर भी जीवकी वास्तविक इच्छा (आवश्यकता या भूख) अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी ही होती है। "

"मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान जाऊँ; मैं सदाके लिये सुखी हो जाऊँ'- इस रूपमें वह वास्तवमें सत्-चित् आनन्द-स्वरूप परमात्माकी ही इच्छा करता है, पर संसारसे सम्बन्ध माननेके कारण वह भूलसे इन इच्छाओंको संसारसे ही पूरी करना चाहता है- यही 'काम' है। इस 'काम' की पूर्ति तो कभी हो ही नहीं सकती। इसलिये इस 'काम' का नाश तो करना ही पड़ेगा।


जिसने संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ा है, वही उसे तोड़ भी सकता है। इसलिये भगवान् ने अपने द्वारा ही संसारसे अपना सम्बन्ध विच्छेद करके 'काम' को मारनेकी आज्ञा दी हैं। अपने द्वारा ही अपने-आपको वशमें करनेमें कोई अभ्यास नहीं है; क्योंकि अभ्यास संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) की सहायतासे ही होता है। इसलिये अभ्यासमें संसारके सम्बन्धकी सहायता लेनी पड़ती है। वास्तवमें अपने स्वरूपमें स्थिति अथवा परमात्माकी प्राप्ति संसारकी सहायतासे नहीं होती, प्रत्युत संसारके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से, अपने-आपसे होती है।


मार्मिक बात


जब चेतन अपना सम्बन्ध जडके साथ मान लेता है, तब उसमें संसार (भोग) की भी इच्छा होती है और परमात्माकी भी। जडसे सम्बन्ध माननेपर जीवसे यही भूल होती है कि वह सत्-चित् आनन्दस्वरूप परमात्माकी इच्छा- अभिलाषाको संसारसे ही पूरी करनेके लिये सांसारिक पदार्थोंकी इच्छा करने लगता है। परिणामस्वरूप उसकी ये दोनों ही इच्छाएँ (स्वरूपबोधके बिना) कभी मिटती नहीं। संसारको जाननेके लिये संसारसे अलग होना और परमात्माको जाननेके लिये परमात्मासे अभिन्न होना आवश्यक है; क्योंकि वास्तवमें 'स्वयं' की संसारसे भिन्नता और परमात्मासे अभिन्नता है। परन्तु संसारकी इच्छा करनेसे 'स्वयं' संसारसे अपनी अभिन्नता या समीपता मान लेता है, जो कभी सम्भव नहीं"

"और परमात्माकी इच्छा करनेसे 'स्वयं' परमात्मासे अपनी भिन्नता या दूरी (विमुखता) मान लेता है, पर इसकी सम्भावना ही नहीं। हाँ, सांसारिक इच्छाओंको मिटानेके लिये पारमार्थिक इच्छा करना बहुत उपयोगी है। यदि पारमार्थिक इच्छा तीव्र हो जाय तो लौकिक इच्छाएँ स्वतः मिट जाती हैं। लौकिक इच्छाएँ सर्वथा मिटनेपर पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है।


१-यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ।।


(कठ० २।३।१४; बृहदा० ४।४।७)


'साधकके हृदयमें स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भलीभाँति अनुभव कर लेता है।'


विमुञ्चति यदा कामान् मानवो मनसि स्थितान् । तह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते ।।


(श्रीमद्भा० ७।१०।९)


'कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली समस्त कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है।'


कारण कि वास्तवमें परमात्मा सदा-सर्वत्र विद्यमान है, पर लौकिक इच्छाएँ रहनेसे उनका अनुभव नहीं होता।


'जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम्' - 'महाबाहो' का अर्थ है-बड़ी और बलवान् भुजाओंवाला अर्थात् शूरवीर। अर्जुनको 'महाबाहो' अर्थात् शूरवीर कहकर भगवान् यह लक्ष्य कराते हैं कि तुम इस 'काम' रूप शत्रुका दमन करनेमें समर्थ हो। संसारसे सम्बन्ध रखते हुए 'काम' का नाश करना बहुत कठिन है। यह 'काम' बड़ों-बड़ोंके भी विवेकको ढककर उन्हें कर्तव्यसे च्युत कर देता है, जिससे उनका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् ने इसे दुर्जय शत्रु कहा है।"

"काम' को दुर्जय शत्रु कहनेका तात्पर्य इससे अधिक सावधान रहनेमें है, इसे दुर्जय समझकर निराश होनेमें नहीं।


प्रत्येक कामनाकी उत्पत्ति, पूर्ति, अपूर्ति और निवृत्ति होती है, इसलिये मात्र कामनाएँ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं। परन्तु 'स्वयं' निरन्तर रहता है और कामनाओंके उत्पन्न तथा नष्ट होनेको जानता है। अतः कामनाओंसे वह सुगमतापूर्वक सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है; क्योंकि वास्तवमें सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये साधकको कामनाओंसे कभी घबराना नहीं चाहिये। यदि साधकका अपने कल्याणका पक्का उद्देश्य है' तो वह 'काम' को सुगमतापूर्वक मार सकता है।


२-उद्देश्य या लक्ष्य सदैव अविनाशी (चेतन तत्त्व- परमात्मा) का ही होता है, नाशवान् (संसार) का नहीं। नाशवान् की कामनाएँ ही होती हैं, उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्य वह होता है, जिसे मनुष्य निरन्तर चाहता है। चाहे शरीरके टुकड़े-टुकड़े ही क्यों न कर दिये जायें, तो भी वह उद्देश्यको ही चाहता है। उद्देश्यकी सिद्धि अवश्य होती है, पर कामनाओंकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत नाश होता है। उद्देश्य सदा एक ही रहता है, पर कामनाएँ बदलती रहती हैं।


कामनाओंके त्यागमें अथवा परमात्माके प्राप्तिमें सब स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ हैं। परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं है। कारण कि कामना पूरी होनेवाली है ही नहीं। परमात्माने मानव शरीर अपनी प्राप्तिके लिये ही दिया है।


अतः कामनाका त्याग करना कठिन नहीं है। सांसारिक भोग- पदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही कामनाका त्याग कठिन मालूम देता है। सुख (अनुकूलता) की कामनाको मिटानेके लिये ही भगवान् समय-समयपर दुःख (प्रतिकूलता) भेजते हैं कि सुखकी कामना मत करो; कामना करोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा। "

"सांसारिक पदार्थोंकी कामनावाला मनुष्य दुःखसे कभी बच ही नहीं सकता- यह नियम है; क्योंकि संयोग जन्य भोग ही दुःखके हेतु हैं (गीता - पाँचवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। 'स्वयं' (स्वरूप) में अनन्त बल है। उसकी सत्ता और बलको पाकर ही बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ सत्तावान् एवं बलवान् होते हैं। परन्तु जडसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण वह अपने बलको भूल रहा है और अपनेको बुद्धि, मन और इन्द्रियोंके अधीन मान रहा है। अतएव 'काम' रूप शत्रुको मारनेके लिये अपने-आपको जानना और अपने बलको पहचानना बड़ा आवश्यक है।


'काम' जडके सम्बन्धसे और जडमें ही होता है। तादात्म्य होनेसे वह स्वयंमें प्रतीत होता है। जडका सम्बन्ध न रहे तो 'काम' है ही नहीं। इसलिये यहाँ 'काम' को मारनेका तात्पर्य वस्तुतः 'काम' का सर्वथा अभाव बतानेमें ही है। इसके विपरीत यदि 'काम' अर्थात् कामनाकी सत्ताको मानकर उसे मिटानेकी चेष्टा करें तो कामनाका मिटना कठिन है। कारण कि वास्तवमें कामनाकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। कामना उत्पन्न होती है और उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होगी ही यह नियम है। नयी कामना न करें तो पहलेकी कामनाएँ अपने-आप नष्ट हो जायँगी। इसलिये कामनाको मिटानेका तात्पर्य है - नयी कामना न करना।


शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको 'मैं', 'मेरा' और 'मेरे लिये' माननेसे ही अपने-आपमें कमीका अनुभव होता है, पर मनुष्य भूलसे उस कमीकी पूर्ति भी सांसारिक पदार्थोंसे ही करना चाहता है। इसलिये वह उन पदार्थोंकी कामना करता है। परन्तु वास्तवमें आजतक सांसारिक पदार्थोंसे किसीकी भी कमीकी पूर्ति हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। कारण कि स्वयं अविनाशी है और पदार्थ नाशवान् हैं। स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान् की कामना करनेसे लाभ तो कोई होता नहीं और हानि कोई-सी भी बाकी रहती नहीं।"

"इसलिये भगवान् कामनाको शत्रु बताते हुए उसे मार डालनेकी आज्ञा देते हैं।


कर्मयोगके द्वारा इस कामनाका नाश सुगमतासे हो जाता है। कारण कि कर्मयोगका साधक संसारकी छोटी-से-छोटी अथवा बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक क्रिया परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर दूसरोंके लिये ही करता है, कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं। वह प्रत्येक क्रिया निष्कामभावसे एवं दूसरोंके हित और सुखके लिये ही करता है, अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके पास जो समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य है, वह सब अपनी नहीं है, प्रत्युत मिली हुई है और बिछुड़ जायगी। इसलिये वह उसे अपनी कभी न मानकर निःस्वार्थभावसे (संसारकी ही मानकर) संसारकी ही सेवामें लगा देता है। उसे पूरी-की-पूरी संसारकी सेवामें लगा देता है, अपने पास बचाकर नहीं रखता। अपना न माननेसे ही वह पूरी-की-पूरी सेवामें लगती है, अन्यथा नहीं।


कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं, अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। कामनाओंका सर्वथा नाश होनेपर उसके उद्देश्यकी पूर्ति हो जाती है और वह अपने- आपमें ही अपने-आपको पाकर कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त- प्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता।


परिशिष्ट भाव - भगवान् ने इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिका नाम तो लिया है, पर 'अहम्' का नाम नहीं लिया। अहम् बुद्धिसे परे है। सातवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी भगवान् ने बुद्धिके बाद अहम् को लिया है- 'भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे....'। अतः यहाँ भी 'सः' पदसे अहम् में रहनेवाले 'काम' को लेना चाहिये। जबतक स्वरूपका साक्षात्कार नहीं होता, तबतक अहम् में काम रहता है। "

"स्वरूपका साक्षात्कार होनेपर अहम् में काम नहीं रहता - 'परं दृष्ट्वा निवर्तते' (गीता २। ५९)। सुख तो है स्वरूपमें, पर  कामके कारण मनुष्य जड़ताको सत्ता और महत्ता देकर उससे सुख चाहता है। जबतक जड़ताका सम्बन्ध है, तबतक 'काम' है, जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर 'प्रेम' होता है।


'काम' अपनेमें है- 'रसोऽप्यस्य' (गीता २। ५९)। अपनेमें होनेसे ही काम हमारे लिये बाधक होता है। अगर यह अपनेमें न हो, दूसरे (इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) में हो तो हमारेको क्या बाधा लगी ? अपनेमें काम होनेसे ही स्वयं सुखी-दुःखी होता है, कर्ता-भोक्ता होता है। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो काम अपनेमें माना हुआ है, अपनेमें है नहीं, तभी यह मिटता है। अतः काम अपनेमें नहीं है, पर माना हुआ है।


अहम् में रहनेवाली चीजको मनुष्य अपनेमें मान लेता है। अपनेमें अहम् माना हुआ है और उस अहम् में काम रहता है। अतः जबतक अहम् है, तबतक अहम् की जातिका आकर्षण अर्थात् 'काम' होता है और जब अहम् नहीं रहता, तब स्वयंकी जातिका आकर्षण अर्थात् 'प्रेम' होता है। काममें संसारकी तरफ और प्रेममें परमात्माकी तरफ आकर्षण होता है।


सम्पूर्ण त्रिलोकी, अनन्त ब्रह्माण्ड 'विषय' है। विषय इन्द्रियोंके एक देशमें हैं, इन्द्रियाँ मनके एक देशमें हैं, मन बुद्धिके एक देशमें है, बुद्धि अहम् के एक देशमें है और अहम् चेतन (स्वरूप) के एक देशमें है। अतः चेतन अत्यन्त महान् है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण त्रिलोकी, अनन्त ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। परन्तु अपरा प्रकृतिके एक अंश अहम् के साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण मनुष्य अपनेको अत्यन्त छोटा (एकदेशीय) देखता है!


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥"

"इस प्रकार ॐ, तत्, सत् - इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'कर्मयोग' नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥


इस तीसरे अध्यायका नाम 'कर्मयोग' है; क्योंकि कर्मयोगका जितना विशद वर्णन तीसरे अध्यायमें है, उतना गीताके अन्य अध्यायोंमें नहीं है।


तीसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच


(१) इस अध्यायमें 'अथ तृतीयोऽध्यायः' के तीन, 'अर्जुन उवाच' आदि पदोंके आठ श्लोकोंके पाँच सौ बयालीस और पुष्पिकाके तेरह पद हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पदोंका योग पाँच सौ छाछठ है।


(२) इस अध्यायमें 'अथ तृतीयोऽध्यायः' के सात, 'अर्जुन उवाच' आदि पदोंके छब्बीस, श्लोकोंके एक हजार तीन सौ छिहत्तर और पुष्पिकाके पैंतालीस अक्षर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग एक हजार चार सौ चौवन है। इस अध्यायके सभी श्लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं।


(३) इस अध्यायमें चार उवाच हैं- दो 'अर्जुन उवाच' और दो 'श्रीभगवानुवाच' ।


तीसरे अध्यायमें प्रयुक्त छन्द


इस अध्यायके तैंतालीस श्लोकोंमेंसे-पहले और सैंतीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा ग्यारहवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'रगण' प्रयुक्त होनेसे 'र-विपुला'; पाँचवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'न-विपुला'; उन्नीसवें, छब्बीसवें, और पैंतीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा आठवें और इक्कीसवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'भगण' प्रयुक्त होनेसे 'भ-विपुला'; और सातवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'नगण' और तृतीय चरणमें 'रगण' प्रयुक्त होनेसे 'संकीर्ण-विपुला' संज्ञावाले छन्द हैं। शेष तैंतीस श्लोक ठीक 'पथ्यावक्त्र' अनुष्टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं।"

कल से हम अध्याय 4 की शुरुआत करेंगे, जिसमें श्रीकृष्ण हमें बताएंगे कि उन्होंने यह दिव्य ज्ञान पहले किन्हें प्रदान किया था और यह ज्ञान पीढ़ियों से कैसे आगे बढ़ा। इस नई यात्रा के लिए तैयार रहें!

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||" 

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