ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 18 - सच्चे कर्मयोगी की पहचान क्या है?
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानना चाहते हैं कि एक सच्चे कर्मयोगी की पहचान क्या होती है? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण ने कर्म और अकर्म के वास्तविक अर्थ का अनावरण किया है। यह समझना आपके जीवन को एक नई दिशा दे सकता है!
कल के श्लोक 17 में हमने सीखा कि कर्म, विकर्म और अकर्म के बीच का अंतर समझना अत्यंत आवश्यक है। आज के श्लोक में, श्रीकृष्ण कर्मयोगी के असली स्वरूप को उजागर कर रहे हैं।
"आज के श्लोक 18 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
इसका अर्थ है:
'जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, और वह योगी सभी प्रकार के कर्मों को करता हुआ भी बंधन से मुक्त रहता है।'
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग की गहराई को उजागर कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि जो व्यक्ति सच्चे कर्मयोग का अनुसरण करता है, वह हर कर्म में कर्महीनता और कर्महीनता में कर्म को देखता है। इसका अर्थ है कि कर्मयोगी अपने हर कर्म को समर्पण और निष्काम भावना के साथ करता है, जिससे वह बंधन से मुक्त रहता है। यह श्लोक हमें समझाता है कि किस प्रकार हम अपने कार्यों को योग के रूप में स्वीकार कर सकते हैं।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 18"
"कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मको तत्त्वसे जाननेका फल।
(श्लोक-१८)
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
उच्चारण की विधि
कर्मणि, अकर्म, यः, पश्येत्, अकर्मणि, च, कर्म, यः, सः, बुद्धिमान्, मनुष्येषु, सः, युक्तः, कृत्स्नकर्मकृत् ॥ १८ ॥
यः अर्थात् जो मनुष्य, कर्मणि अर्थात् कर्ममें, अकर्म अर्थात् अकर्म, पश्येत् अर्थात् देखता है, च अर्थात् और, यः अर्थात् जो, अकर्मणि अर्थात् अकर्ममें, कर्म अर्थात् कर्म (देखता है), सः अर्थात् वह, मनुष्येषु अर्थात् मनुष्योंमें, बुद्धिमान् अर्थात् बुद्धिमान् है (और), सः अर्थात् वह, युक्तः अर्थात् योगी, कृत्स्नकर्मकृत् अर्थात् समस्त कर्मोंको करनेवाला है।
अर्थ - जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है और वह योगी समस्त कर्मोंको करनेवाला है॥ १८ ॥"
"व्याख्या-'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्' - कर्ममें अकर्म देखनेका तात्पर्य है-कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात् अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना। अमुक कर्म मैं करता हूँ, इस कर्मका अमुक फल मुझे मिले- ऐसा भाव रखकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है। प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये उसका फल भी आरम्भ और अन्त होनेवाला होता है। परन्तु जीव स्वयं नित्य-निरन्तर रहता है। इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फलसे सर्वथा सम्बन्धरहित है, फिर भी वह फलकी इच्छाके कारण उनसे बँध जाता है। इसीलिये चौदहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि मेरेको कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है। फलकी स्पृहा या इच्छा ही बाँधनेवाली है- 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता ५। १२)।
फलकी इच्छा न रखनेसे नया राग उत्पन्न नहीं होता और दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना राग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार रागरूप बन्धन न रहनेसे साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है। वीतराग होनेसे सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जीवका जन्म कर्मोंके अनुबन्धसे होता है। जैसे, जिस परिवारमें जन्म लिया है, उस परिवारके लोगोंसे ऋणानुबन्ध है अर्थात् किसीका ऋण चुकाना है और किसीसे ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्मोंमें अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है। यह लेन-देनका व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है।"
" इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करनेका उपाय है- आगेसे लेना बंद कर दें अर्थात् अपने अधिकारका त्याग कर दें और हमारेपर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दें। इस प्रकार नया ऋण लें नहीं और पुराना ऋण (दूसरोंके लिये कर्म करके) चुका दें, तो ऋणानुबन्ध (लेन-देनका व्यवहार) समाप्त हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण बंद हो जायगा (गीता-चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)। जैसे, कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता है, तो वह दो काम करेगा- पहला, जिसको देना है, उसको दे देगा और दूसरा, जिससे लेना है, वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा। ऐसा करनेसे उसकी दूकान उठ जायगी। अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है, वह सब-का-सब ले हूँ, तो दूकान उठेगी नहीं। कारण कि जबतक वह लेनेकी इच्छासे वस्तुएँ देता रहेगा, तबतक दूकान चलती ही रहेगी, उठेगी नहीं।
अपने लिये कुछ भी न करने और न चाहनेसे असंगता स्वतः प्राप्त हो जाती है। कारण कि करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और उपकरण (कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री) संसारके हैं और संसारकी सेवामें लगानेके लिये ही मिले हैं, अपने लिये नहीं। इसलिये सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म (सेवा, भजन, जप, ध्यान, समाधि भी) केवल संसारके हितके लिये ही करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर चला जाता है और साधक स्वयं असंग, निर्लिप्त रह जाता है। यही कर्ममें अकर्म देखना है।"
"जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक कर्म करना अथवा न करना-दोनों ही 'कर्म' हैं। इसलिये कर्म करने अथवा न करने- दोनों ही अवस्थाओंमें कर्मयोगीको निर्लिप्त रहना चाहिये। कर्म करनेमें निर्लिप्त रहनेका तात्पर्य है- कर्म करनेसे हमें अच्छा फल मिलेगा, हमें लाभ होगा, हमारी सिद्धि होगी, लोग हमें अच्छा मानेंगे, इस लोकमें और परलोकमें भोग मिलेंगे- इस प्रकारकी किसी भी इच्छाका न होना। ऐसे ही कर्म न करनेमें निर्लिप्त रहनेका तात्पर्य है - कर्मोंका त्याग करनेसे हमें मान, आदर, भोग, शरीरका आराम आदि मिलेंगे- इस प्रकारकी किंचिन्मात्र भी इच्छाका न होना।
दुःख समझकर एवं शारीरिक क्लेशके भयसे कर्म न करना राजस त्याग है और मोह, आलस्य, प्रमादके कारण कर्म न करना तामस त्याग है। ये दोनों ही त्याग सर्वथा त्याज्य हैं। इसके सिवाय कर्म न करना यदि अपनी विलक्षण स्थितिके लिये है, समाधिका सुख भोगनेके लिये है, जीवन्मुक्तिका आनन्द लेनेके लिये है तो इस त्यागसे भी प्रकृतिका सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। कारण कि जबतक कर्म न करनेसे सम्बन्ध है, तबतक प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहता है। प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर कर्मयोगी कर्म करने और न करने- इन दोनों अवस्थाओंमें ज्यों-का-त्यों निर्लिप्त रहता है।
'अकर्मणि च कर्म यः' अकर्ममें कर्म देखनेका तात्पर्य है- निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना। भाव है कि कर्म करते समय अथवा न करते समय भी नित्य-निरन्तर निर्लिप्त रहे।"
"संसारमें कोई कार्य करनेके लिये प्रवृत्त होता है तो उसके सामने प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) - दोनों आती हैं। किसी कार्यमें प्रवृत्ति होती है और किसी कार्यसे निवृत्ति होती है। परन्तु कर्मयोगीकी प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों निर्लिप्ततापूर्वक और केवल संसारके हितके लिये होती हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति - दोनोंसे ही उसका कोई प्रयोजन नहीं होता- 'नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन' (गीता ३। १८)। यदि प्रयोजन होता है तो वह कर्मयोगी नहीं है, प्रत्युत कर्मी है।
साधक जबतक प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह कर्म करनेसे अपनी सांसारिक उन्नति मानता है और कर्म न करनेसे अपनी पारमार्थिक उन्नति मानता है। परन्तु वास्तवमें प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों ही प्रवृत्ति हैं; क्योंकि दोनोंमें ही प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है। जैसे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि स्थूल- शरीरकी क्रियाएँ हैं, ऐसे ही एकान्तमें बैठे रहना, चिन्तन करना, ध्यान लगाना सूक्ष्म-शरीरकी क्रियाएँ और समाधि लगाना कारण- शरीरकी क्रियाएँ हैं। इसलिये निर्लिप्त रहते हुए ही लोकसंग्रहार्थ कर्तव्य-कर्म करना है। यही अकर्ममें कर्म है। इसीको दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें 'योगस्थः कुरु कर्माणि' (योग अर्थात् समतामें स्थित होकर कर्म कर) पदोंसे कहा गया है।
सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों 'कर्म' हैं।"
"प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए ही प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करना- इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनोंमें सर्वथा निर्लिप्त रहना 'योग' है। इसीको कर्मयोग कहते हैं।
शंका-कर्म करते हुए अथवा न करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना- इन दोनोंमें 'अकर्म' अर्थात् एक निर्लिप्तता ही मुख्य हुई; फिर भगवान् ने कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म- ये दो बातें क्यों कही हैं ?
समाधान-कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म-इन दोनोंमें एक निर्लिप्तता सार होते हुए भी पहले (कर्ममें अकर्म) में कर्म करते हुए अथवा न करते हुए-दोनों अवस्थाओंमें रहनेवाली निर्लिप्तताकी मुख्यता है और दूसरे (अकर्ममें कर्म) में निर्लिप्त रहते हुए कर्म करने अथवा न करनेकी मुख्यता है। तात्पर्य है कि निर्लिप्तता अपने लिये और कर्म संसारके लिये है; क्योंकि निर्लिप्तताका सम्बन्ध 'स्व' (स्वरूप) के साथ और कर्म करने अथवा न करनेका सम्बन्ध 'पर' (शरीर, संसार) के साथ है।
इसलिये निर्लिप्तता स्वधर्म और कर्म करना अथवा न करना परधर्म है। इन दोनोंका विभाग सर्वथा अलग-अलग बतानेके लिये ही भगवान् ने उपर्युक्त दो बातें कही हैं।
कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म- ये दोनों बातें कर्मयोगकी हैं, जिनका तात्पर्य यह है कि प्रकृतिसे तो सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय अर्थात् करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन न रहे और लोकसंग्रहके लिये कर्मोंको करना अथवा न करना हो। "
"कारण कि कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए भी दूसरोंके हितके लिये कर्म करना- ये दोनों ही गीताके सिद्धान्त हैं।
प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) - दोनों प्रकृतिके राज्यमें ही हैं। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है, इसलिये प्रवृत्तिका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा निवृत्तिका भी आरम्भ और अन्त होता है। परन्तु इनसे सर्वथा अतीत परमनिवृत्ततत्त्व-अपने स्वरूपका आदि और अन्त नहीं होता। वह प्रवृत्ति और निवृत्तिके आरम्भमें भी रहता है और उनके अन्तमें भी रहता है तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति-कालमें भी ज्यों-का-त्यों रहता है। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनोंका प्रकाशक और आधार है। इसलिये उसमें न प्रवृत्ति है और न निवृत्ति है-इस तत्त्वको समझनेके लिये और उसमें स्थित होकर लोक-संग्रहार्थ (यज्ञार्थ) कर्म करनेके लिये यहाँ कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म- ये दो बातें कही गयी हैं।
'स बुद्धिमान्मनुष्येषु'- जो पुरुष कर्ममें अकर्म देखता है और अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् नित्य-निरन्तर निर्लिप्त रहता है, वही वास्तवमें कर्म-तत्त्वको जाननेवाला है। जबतक वह निर्लिप्त नहीं हुआ है अर्थात् कर्म और पदार्थको अपना और अपने लिये मानता है, तबतक उसने कर्म-तत्त्वको समझा ही नहीं है।
परमात्माको जाननेके लिये स्वयंको परमात्मासे अभिन्नताका अनुभव करना होता है और संसारको जाननेके लिये स्वयंको संसार (क्रिया और पदार्थ) से सर्वथा भिन्नताका अनुभव करना होता है। "
"कारण कि वास्तवमें हम (स्वरूपसे) परमात्मासे अभिन्न और संसारसे भिन्न हैं। इसलिये कर्मोंसे अलग होकर अर्थात् निर्लिप्त होकर ही कर्म-तत्त्वको जान सकते हैं। कर्म आदि-अन्तवाले हैं और मैं (स्वयं जीव) नित्य रहनेवाला हूँ; अतः मैं स्वरूपसे कर्मोंसे अलग (निर्लिप्त) हूँ- इस वास्तविकताका अनुभव करना ही 'जानना' है। वास्तविकताकी तहमें बैठे बिना जानना हो ही कैसे सकता है ?
जैसे काजलकी कोठरीमें प्रवेश करके भी काजलसे सर्वथा निर्लिप्त रहना साधारण बुद्धिमान् का काम नहीं है, ऐसे ही सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको करते हुए भी कर्मोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहना साधारण बुद्धिमान् के वशका काम नहीं है। इसलिये भगवान् ऐसे कर्मयोगीको मनुष्योंमें बुद्धिमान् कहते हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी भगवान् ने उसे 'मेधावी' (बुद्धिमान्) कहा है। अभी सत्रहवें श्लोकमें भगवान् ने कर्म, अकर्म और विकर्म- तीनोंका तत्त्व समझनेके लिये कहा था। यहाँ 'मनुष्येषु बुद्धिमान्' पद देकर भगवान् मानो यह बताते हैं कि जिसने कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मके तत्त्वको जान लिया है, उसने सब कुछ जान लिया है अर्थात् वह ज्ञात-ज्ञातव्य हो गया है।
'स युक्तः' कर्मयोगी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है। कर्मका फल मिले या न मिले, उसमें कभी विषमता नहीं आती; क्योंकि उसने फलेच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है। समताका नाम योग है। वह नित्य-निरन्तर समतामें स्थित है, इसलिये वह योगी है।"
"प्राणिमात्रका परमात्मासे स्वतः सिद्ध नित्ययोग है। परन्तु मनुष्यने संसारसे अपना सम्बन्ध मान लिया, इसीसे वह उस नित्ययोगको भूल गया। तात्पर्य यह कि जडके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही परमात्माके साथ अपने नित्य सम्बन्धको भूलना है। कर्मयोगी फलेच्छा, ममता और आसक्तिका त्याग करके केवल दूसरोंके लिये ही कर्तव्य-कर्म करता है, जिससे उसका जडसे माना हुआ सम्बन्ध टूट जाता है और उसे परमात्मासे स्वतः सिद्ध नित्ययोगकी अनुभूति हो जाती है। इसलिये उसे योगी कहा गया है।
'युक्तः' पदमें यह भाव है कि उसने प्राप्त करनेयोग्य तत्त्वको प्राप्त कर लिया है अर्थात् वह प्राप्त-प्राप्तव्य हो गया है।
'कृत्स्नकर्मकृत् '- जबतक कुछ 'पाना' शेष रहता है, तबतक 'करना' शेष रहता ही है अर्थात् जबतक कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छा रहती है, तबतक करनेका राग नहीं मिटता।
नाशवान् कर्मोंसे मिलनेवाला फल भी नाशवान् ही होता है। जबतक नाशवान् फलकी इच्छा है, तबतक (कर्म) करना समाप्त नहीं होता। परन्तु जब नाशवान् से सर्वथा सम्बन्ध छूटकर परमात्मप्राप्तिरूप अविनाशी फलकी प्राप्ति करना सदाके लिये समाप्त हो जाता है और कर्मयोगीका कर्म करने तथा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता। ऐसा कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला है अर्थात् उसके लिये अब कुछ करना शेष नहीं है, वह कृतकृत्य हो गया है। करना, जानना और पाना शेष नहीं रहनेसे वह कर्मयोगी अशुभ संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (गीता - चौथे अध्यायका सोलहवाँ और बत्तीसवाँ श्लोक)।"
"परिशिष्ट भाव - एक विभाग कर्मका है और एक विभाग अकर्मका है। इन दोनोंमें अकर्म ही सार तत्त्व है। इसलिये जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् निर्लिप्त रहते हुए कर्म करता है, उसके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता। जैसे किसी कर्मके आरम्भमें तो गणेशजीका पूजन करते हैं, पर कर्म करते समय हरदम उनका पूजन नहीं करते, ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि कर्मके आरम्भमें एक बार निर्लिप्त हो गये तो अब उस निर्लिप्तताको हरदम नहीं रखना है, इसलिये भगवान् ने यहाँ उपर्युक्त दो बातें कही हैं। तात्पर्य है कि अपनेमें कभी भी लिप्तता (फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान) नहीं आनी चाहिये अर्थात् हरदम निर्लिप्त रहना चाहिये।
तीसरे अध्यायके आठवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है- 'कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः' और यहाँ बताते हैं कि कर्म करनेकी अपेक्षा भी अकर्म (अकर्तृत्व) को देखना श्रेष्ठ है और ऐसा देखनेवाले मनुष्यके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यमें फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान नहीं रहने चाहिये; क्योंकि इन दोनोंसे ही मनुष्य बँधता है।
सम्बन्ध-अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवाले अर्थात् कर्मोंका तत्त्व जाननेवाले सिद्ध कर्मयोगी महापुरुषका वर्णन करते हैं।"
कल के श्लोक 19 और 20 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि सच्चे कर्मयोगी के गुण क्या होते हैं और कैसे वह बिना फल की चिंता किए कर्म करता है। यह हमें एक गहरे स्तर पर कर्मयोग को समझने में मदद करेगा।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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