ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 21 से 22 - संतुष्टि और स्थिरता का मार्ग

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानते हैं कि बिना किसी आसक्ति के कर्म करने से कैसे सच्चा सुख प्राप्त होता है? आज के श्लोकों में, श्रीकृष्ण हमें कर्म और संतोष के बीच गहरा संबंध बताते हैं। आइए, जानते हैं कि किस प्रकार एक सच्चा कर्मयोगी जीवन में स्थिरता प्राप्त करता है!

कल के श्लोक 19 और 20 में हमने सीखा कि कैसे कर्म में निष्काम भावना अपनाने से बंधन से मुक्ति मिलती है। आज, हम जानेंगे कि कर्मयोगी के लिए संतोष और स्थिरता का क्या महत्व है।

"आज के श्लोक 21 और 22 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥


यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥


इनका अर्थ है:

'जो व्यक्ति सभी इच्छाओं को त्याग चुका है और किसी प्रकार के संग्रह से मुक्त है, जो केवल शरीर की आवश्यकता के लिए ही कर्म करता है, वह पाप को प्राप्त नहीं होता। जो संयोग से मिले हुए में संतुष्ट रहता है, जो द्वंद्व से परे और ईर्ष्या से मुक्त होता है, और सफलता और असफलता में समान भाव रखता है, वह कर्म करते हुए भी बंधन में नहीं पड़ता।'


इन श्लोकों में श्रीकृष्ण का संदेश है कि कर्मयोगी को भौतिक वस्तुओं की कोई आसक्ति नहीं होती, और वह हर परिस्थिति में संतोष और स्थिरता से रहता है। इस प्रकार का जीवन उसे सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त कर देता है।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 21 से 22"

"केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करते हुए संन्यासीको पाप न लगनेका कथन ।


(श्लोक-२१)


निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥


उच्चारण की विधि


निराशीः, यतचित्तात्मा, त्यक्तसर्वपरिग्रहः, शारीरम्, केवलम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम् ॥ २१॥


यतचित्तात्मा अर्थात् जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके सहित शरीर जीता हुआ है (और), त्यक्तसर्वपरिग्रहः अर्थात् जिसने समस्त भोगोंकी सामग्रीका परित्याग कर दिया है (ऐसा), निराशीः अर्थात् आशारहित पुरुष, केवलम् अर्थात् केवल, शारीरम् अर्थात् शरीर-सम्बन्धी, कर्म अर्थात् कर्म, कुर्वन् अर्थात् करता हुआ (भी), किल्बिषम् अर्थात् पापको, न अर्थात् नहीं, आप्नोति अर्थात् प्राप्त होता।


अर्थ - जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगोंकी सामग्रीका परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापोंको नहीं प्राप्त होता ॥ २१॥"

"व्याख्या'यतचित्तात्मा' संसारमें आशा या इच्छा रहनेके कारण ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि वशमें नहीं होते। इसी श्लोकमें 'निराशीः' पदसे बताया है कि कर्मयोगीमें आशा या इच्छा नहीं रहती। अतः उसके शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वशमें रहते हैं। इनके वशमें रहनेसे उसके द्वारा व्यर्थकी कोई क्रिया नहीं होती।


'त्यक्तसर्वपरिग्रहः ' - कर्मयोगी अगर संन्यासी है, तो वह सब प्रकारकी भोग-सामग्रीके संग्रहका स्वरूपसे त्याग कर देता है। अगर वह गृहस्थ है, तो वह भोग-बुद्धिसे (अपने सुखके लिये) किसी भी सामग्रीका संग्रह नहीं करता। उसके पास जो भी सामग्री है उसको वह अपनी और अपने लिये न मानकर संसारकी और संसारके लिये ही मानता है तथा संसारके सुखमें ही उस सामग्रीको लगाता है। भोगबुद्धिसे संग्रहका त्याग करना तो साधकमात्रके लिये आवश्यक है।


[ऐसा निवृत्तिपरक श्लोक गीतामें और कहीं नहीं आया है। छठे अध्यायके दसवें श्लोकमें ध्यानयोगीके लिये और अठारहवें अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें ज्ञानयोगीके लिये परिग्रहका त्याग करनेकी बात आयी है। परन्तु उनसे भी ऊँची श्रेणीके परिग्रह- त्यागकी बात 'त्यक्तसर्वपरिग्रहः' पदसे यहीं आयी है; क्योंकि 'परिग्रह' के साथ 'सर्व' शब्द केवल यहाँ आया है। बारहवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भक्तियोगीके लिये 'अनिकेतः' पद आया है, पर वहाँ इसका अर्थ निवास स्थानमें ममता-आसक्तिसे रहित होना है।।


'निराशीः'- कर्मयोगीमें आशा, कामना, स्पृहा, वासना आदि नहीं रहते। वह बाहरसे ही भोग-सामग्रीके संग्रहका त्याग करता हो"

"इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत वह भीतरसे भी भोग-सामग्रीकी आशा या इच्छाका त्याग कर देता है। आशा या इच्छाका सर्वथा त्याग न होनेपर भी उसका उद्देश्य इनके त्यागका ही रहता है। 'शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्' - 'शारीरम् कर्म' (शरीर-सम्बन्धी कर्म) के दो अर्थ होते हैं- एक तो शरीरसे होनेवाला कर्म और दूसरा शरीर-निर्वाहके लिये किया जानेवाला कर्म। शरीरसे होनेवाले कर्मकी बात पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी आयी है, जिसका तात्पर्य है कि सभी कर्म केवल शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिके द्वारा ही हो रहे हैं, मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा मानकर कर्मयोगी अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं। परन्तु यहाँ आया श्लोक निवृत्तिपरक है, इसलिये यहाँ उपर्युक्त पदोंका अर्थ शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये जानेवाले आवश्यक कर्म (खान-पान, शौच-स्नान आदि) मानना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। निवृत्ति- परायण कर्मयोगी केवल उतने ही कर्म करता है, जितनेसे केवल शरीर-निर्वाह हो जाय।


'नाप्नोति किल्बिषम्'- जो कर्म करने अथवा न करनेसे अपना किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध रखता है, वह पापको अर्थात् जन्म-मरणरूप बन्धनको प्राप्त होता है। परन्तु आशारहित कर्मयोगी कर्म करने अथवा न करनेसे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता, इसलिये वह पापको प्राप्त नहीं होता अर्थात् उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।


निवृत्तिपरायण होनेपर भी कर्मयोगी कभी आलस्य-प्रमाद नहीं करता। आलस्य-प्रमादका भी भोग होता है। "

एकान्तमें यों ही पड़े रहनेसे आलस्यका भोग होता है और शास्त्रविरुद्ध तथा निरर्थक कर्म करनेसे प्रमादका भोग होता है। इस प्रकार निवृत्तिमें आलस्यके सुखका और प्रवृत्तिमें प्रमादके सुखका भोग हो सकता है। अतः आलस्य-प्रमादसे मनुष्य पापको प्राप्त होता है। परन्तु बहुत कम कर्म करनेपर भी निवृत्ति-परायण कर्मयोगीमें किंचिन्मात्र भी आलस्य-प्रमाद नहीं आते। यदि उसमें किंचिन्मात्र भी आलस्य- प्रमाद आते, तो 'किल्बिषम् न आप्नोति' कहना बनता ही नहीं। वह 'यतचित्तात्मा' है अर्थात् उसके शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण संयत हैं, इसलिये उसमें आलस्य-प्रमाद आ ही नहीं सकते। शरीर, इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरणके वशमें होनेसे, भोग- सामग्रीका त्याग करनेसे तथा आशा, कामना, ममता आदिसे रहित होनेसे उसके द्वारा निषिद्ध क्रिया हो सकती ही नहीं। यहाँ शंका हो सकती है कि जब उसके द्वारा पाप-क्रिया हो सकती ही नहीं, तब यह क्यों कहा गया कि वह पापको प्राप्त नहीं होता ? इसका समाधान यह है कि क्रियामात्रके आरम्भमें अनिवार्य दोष (पाप) पाये जाते हैं- 'सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः' (गीता १८। ४८)। परन्तु मूलमें असत् के संग-कामना, ममता और आसक्तिसे ही पाप लगते हैं। कर्मयोगीमें कामना, ममता और आसक्ति होती ही नहीं अथवा उसका कामना, ममता और आसक्तिका उद्देश्य ही नहीं होता; इसलिये उसका कर्म करनेसे अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं होता। इसी कारण न तो उसे कर्मोंमें रहनेवाला आनुषंगिक पाप लगता है और न उसे शास्त्रविहित कर्मोंके त्यागका ही पाप लगता है।

"दूसरी एक शंका यह हो सकती है कि तीसरे अध्यायमें भगवान् ने सिद्ध महापुरुषको भी (अपने लिये कोई कर्तव्य शेष न रहनेपर भी) लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा की है (तीसरे अध्यायका पचीसवाँ छब्बीसवाँ श्लोक)।  अपने लिये भी भगवान् ने कहा है कि त्रिलोकीमें कुछ भी कर्तव्य और प्राप्तव्य न होनेपर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (तीसरे अध्यायके बाईसवेंसे चौबीसवें श्लोकतक)। अतः शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाले कर्मयोगीको क्या लोकसंग्रहके त्यागका दोष नहीं लगेगा? इसका समाधान यह है कि कामना, ममता आदि न रहनेके कारण उसे कोई दोष नहीं लगता। यद्यपि सिद्ध महापुरुषमें और भगवान् में कामना, ममता आदिका सर्वथा अभाव होता है, तथापि वे जो लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हैं, यह उनकी दया, कृपा ही है। वास्तवमें वे लोकसंग्रह करें अथवा न करें, इसमें वे स्वतन्त्र हैं, इसकी उनपर कोई जिम्मेवारी नहीं है (गीता- तीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक)। वास्तवमें यह भी निवृत्तिपरायण साधकोंके लिये एक लोकसंग्रह ही है। लोकसंग्रह किया नहीं जाता, प्रत्युत होता है।


तीसरी एक शंका यह भी हो सकती है कि तीसरे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान् ने केवल अपने शरीरका पोषण करनेवाले मनुष्यको पापी कहा है और यहाँ कहते हैं कि शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाला पापको नहीं प्राप्त होता। दोनोंका सामंजस्य कैसे हो ? इसका समाधान यह है कि जबतक भोगबुद्धि है और कर्मों तथा पदार्थोंमें आसक्ति बनी हुई है, तबतक कर्म करने अथवा न करनेसे पाप लगता ही है, इसीलिये वहाँ 'पचन्ति आत्मकारणात्' पद आये हैं।"

"परन्तु उस कर्मयोगीमें भोगबुद्धि नहीं है और कर्मों तथा पदार्थोंमें आसक्ति भी नहीं है; अतः सर्वथा निर्लिप्त होनेसे उसे कर्म करने अथवा न करनेसे किंचिन्मात्र भी पाप नहीं लगता। प्रश्न- इस श्लोकको अगर सांख्ययोगीका मान लें तो क्या आपत्ति है; क्योंकि इसमें आये सब लक्षण सांख्ययोगीमें घटते हैं ?


उत्तर - पहली बात तो यह है कि यहाँ कर्मयोगका प्रसंग है,


इसलिये यह श्लोक मुख्यरूपसे कर्मयोगीका ही है। दूसरी बात, सांख्ययोगी अपनेको कर्ता मानता ही नहीं। उसमें 'मैं कुछ भी नहीं करता हूँ' (गीता-पाँचवें अध्यायका आठवाँ श्लोक) - ऐसा स्पष्ट विवेक रहता है; फिर उसके लिये 'कर्म करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्त होता'- ऐसा कहना कैसे बन सकता है ?


कर्मयोगके साधकमें वैसा स्पष्ट विवेक जाग्रत् न होनेपर भी उसका यह निश्चय रहता है कि 'मेरा कुछ नहीं है; मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये और मेरे लिये कुछ नहीं करना है।'


इन तीन बातोंका दृढ़ निश्चय रहनेके कारण वह कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है।


लोगोंमें प्रायः ऐसी मान्यता है कि कर्मयोगी गृहस्थ-आश्रममें और ज्ञानयोगी (सांख्ययोगी) संन्यास आश्रममें रहता है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। जिसे शरीरसे अपनी अलग सत्ताका स्पष्ट विवेक है, वह ज्ञानयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ-आश्रममें हो अथवा संन्यास-आश्रममें। जिसमें इतना विवेक नहीं है, पर उपर्युक्त तीन बातोंका निश्चय पक्का है, वह कर्मयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ- आश्रममें हो अथवा संन्यास आश्रममें।"

"निष्काम कर्मयोगके साधकके लक्षण और कर्मोंसे न बँधनेका कथन।


(श्लोक-२२)


यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥


उच्चारण की विधि


यदृच्छालाभसन्तुष्टः, द्वन्द्वातीतः, विमत्सरः, समः, सिद्धौ, असिद्धौ, च, कृत्वा, अपि, न, निबध्यते ॥ २२ ॥


यदृच्छालाभसन्तुष्टः अर्थात् जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा संतुष्ट रहता है, विमत्सरः अर्थात् जिसमें ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो गया है, द्वन्द्वातीतः अर्थात् जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत हो गया है (ऐसा), सिद्धौ अर्थात् सिद्धि, च अर्थात् और, असिद्धौ अर्थात् असिद्धिमें, समः अर्थात् सम रहनेवाला कर्मयोगी (कर्म), कृत्वा अर्थात् करता हुआ, अपि अर्थात् भी (उनसे), न अर्थात्  नहीं, निबध्यते अर्थात् बँधता।


अर्थ - जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा सन्तुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत हो गया है-ऐसा सिद्धि और असिद्धिमें सम रहनेवाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता ॥ २२ ॥"

"व्याख्या' यदृच्छालाभसन्तुष्टः ' - कर्मयोगी निष्काम- भावपूर्वक सांगोपांग रीतिसे सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है। फल- प्राप्तिका उद्देश्य न रखकर कर्म करनेपर फलके रूपमें उसे अनुकूलता या प्रतिकूलता, लाभ या हानि, मान या अपमान, स्तुति या निन्दा आदि जो कुछ मिलता है, उससे उसके अन्तःकरणमें कोई असन्तोष पैदा नहीं होता। जैसे, वह व्यापार करता है तो उसे व्यापारमें लाभ हो अथवा हानि, उसके अन्तःकरणपर उसका कोई असर नहीं पड़ता। वह हरेक परिस्थितिमें समानरूपसे सन्तुष्ट रहता है; क्योंकि उसके मनमें फलकी इच्छा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि व्यापारमें उसे लाभ-हानिका ज्ञान तो होता है तथा वह उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी करता है, पर परिणाममें वह सुखी-दुःखी नहीं होता। यदि साधकके अन्तःकरणपर अनुकूलता-प्रतिकूलताका थोड़ा असर पड़ भी जाय, तो भी उसे घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि साधकके अन्तःकरणमें वह प्रभाव स्थायी नहीं रहता, शीघ्र मिट जाता है। 


उपर्युक्त पदोंमें आया 'लाभ' शब्द प्राप्तिके अर्थमें है, जिसके अनुसार केवल लाभ या अनुकूलताका मिलना ही 'लाभ' नहीं है, प्रत्युत लाभ-हानि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि जो कुछ प्राप्त हो जाय, वह सब 'लाभ' ही है।


'विमत्सरः' कर्मयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानता है- 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (गीता ५। ७)। इसलिये उसका किसी भी प्राणीसे किंचिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव नहीं रहता। 'विमत्सरः' पद अलगसे देनेका भाव यह है कि अपनेमें किसी प्राणीके प्रति किंचिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव न आ जाय इस विषयमें कर्मयोगी बहुत सावधान रहता है। "

"कारण कि कर्मयोगीकी सम्पूर्ण क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये ही होती हैं; अतः यदि उसमें किंचिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव होगा, तो उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ दूसरोंके हितके लिये नहीं हो सकेंगी।


ईर्ष्या-दोष बहुत सूक्ष्म है। दो दूकानदार हैं और आपसमें मित्रता रखते हैं। उनमें एककी दूकान दूसरेकी अपेक्षा ज्यादा चल जाय, तो दूसरेमें थोड़ी ईर्ष्या पैदा हो जायगी कि उसकी दूकान ज्यादा चल गयी, मेरी कम चली। इस प्रकार ईर्ष्या-दोषके कारण मित्रसे भी मित्रकी उन्नति नहीं सही जाती। जहाँ आपसमें प्रेम है, एकता है, मित्रता है, वहाँ भी ईर्ष्या-दोष आ जाता है; फिर जहाँ वैर, भिन्नता आदि हो, वहाँका तो कहना ही क्या है? इसलिये साधकको इस दोषसे बचनेके लिये विशेष सावधान रहना चाहिये।


'द्वन्द्वातीतः'- कर्मयोगी लाभ-हानि, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे अतीत होता है, इसलिये उसके अन्तःकरणमें उन द्वन्द्वोंसे होनेवाले राग-द्वेष, हर्ष- शोक आदि विकार नहीं होते। द्वन्द्व अनेक प्रकारके होते हैं; जैसे- भगवान् का सगुण- साकाररूप ठीक है या निर्गुण निराकाररूप ठीक है, अद्वैत सिद्धान्त ठीक है या द्वैत सिद्धान्त ठीक है, भगवान् में मन लगा या नहीं लगा, एकान्त मिला या नहीं मिला, शान्ति मिली या नहीं मिली, सिद्धि मिली या नहीं मिली, इत्यादि। इन सब द्वन्द्वोंके साथ सम्बन्ध न होनेसे ही साधक निर्द्वन्द्व होता है। जैसे तराजू किसी भी तरफ झुक जाय तो वह बराबर नहीं कहलाता, ऐसे ही साधकके अन्तःकरणमें किसी भी तरफ झुकाव हो जाय तो वह द्वन्द्वातीत नहीं कहलाता।"

"कर्मयोगी सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे अतीत होता है, इसलिये वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (गीता-पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)।


'समः सिद्धावसिद्धौ च' किसी भी कर्तव्य-कर्मका निर्विघ्नरूपसे पूरा हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकारके विघ्न, बाधाके कारण उसका पूरा न होना असिद्धि है। कर्मका फल मिल जाना सिद्धि है और न मिलना असिद्धि है। सिद्धि और असिद्धिमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंका न होना ही सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना है। दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें 'सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा' पदोंमें भी यही भाव आया है।


अपना कुछ भी नहीं है, अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है- ये तीनों बातें ठीक-ठीक अनुभवमें आ जायें, तभी सिद्धि और असिद्धिमें पूर्णतः समता आयेगी।


'कृत्वापि न निबध्यते'- यहाँ 'कृत्वा अपि' पदोंका तात्पर्य है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए भी नहीं बँधता, फिर कर्म न करते हुए बँधनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। वह दोनों अवस्थाओंमें निर्लिप्त रहता है।


जैसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाला कर्मयोगी कर्मोंसे नहीं बँधता, वैसे ही शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला कर्मयोगी भी कर्मोंसे नहीं बँधता। वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें कर्म करना, अधिक करना, कम करना अथवा न करना बन्धन या मुक्तिका कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है, वही बन्धनका कारण है और जो निर्लिप्तता है, वही मुक्तिका कारण है। "

"जैसे नाटकमें एक व्यक्ति लक्ष्मणका और दूसरा व्यक्ति मेघनादका स्वाँग धारण करता है और दोनों व्यक्ति अपने-अपने स्वाँगको ठीक-ठीक निभाते हुए भी उससे निर्लिप्त रहते हैं अर्थात् अपनेको वास्तवमें लक्ष्मण या मेघनाद नहीं मानते। ऐसे ही कर्मयोगी अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार कर्तव्यका पालन करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है अर्थात् उनसे अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता। उसका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर रहनेवाले स्वरूपके साथ रहता है, प्रतिक्षण परिवर्तनशील प्रकृतिके साथ नहीं। इसलिये उसकी स्थिति स्वाभाविक ही समतामें रहती है। समतामें स्थिति रहनेसे वह कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता। यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वतः-सिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि अनुकूल परिस्थितिमें हम जो रहते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी हम वही रहते हैं। यदि हम वही (एक ही) न रहते, तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल) परिस्थितियोंका ज्ञान किसे होता ? इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियोंमें होता है अपने स्वरूपमें नहीं। इसलिये परिस्थितियोंके बदलनेपर भी स्वरूपसे हम सम (ज्यों-के-त्यों) ही रहते हैं। भूल यह होती है कि हम परिस्थितियोंकी ओर तो देखते हैं, पर स्वरूपकी ओर नहीं देखते। अपने सम स्वरूपकी ओर न देखनेके कारण ही हम आने-जाने वाली परिस्थितियोंसे मिलकर सुखी-दुःखी होते हैं।


सम्बन्ध-तीसरे अध्यायके नवें श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने 'व्यतिरेक रीति' से कहा था कि यज्ञसे अतिरिक्त कर्म मनुष्यको बाँधते हैं। अब तेईसवें श्लोकके उत्तरार्धमें उसी बातको 'अन्वय रीति' से कहते हैं।"

कल के श्लोक 23 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि सच्चे कर्मयोगी के लिए कर्म का क्या अर्थ है और कैसे वह हर कर्म को त्याग की भावना के साथ करता है। जुड़े रहिए!

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