ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 24 से 25 - हर कर्म को यज्ञ मानने का महत्व | कर्मयोग की गहराई
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानना चाहते हैं कि किसी भी कर्म को यज्ञ का रूप देने से हमारे जीवन में कैसे बदलाव आ सकता है? आज के श्लोकों में श्रीकृष्ण हमें जीवन का यह अनमोल रहस्य समझा रहे हैं। आइए, इसे गहराई से जानें!
कल के श्लोक में हमने जाना कि कैसे एक सच्चा त्यागी कर्मयोगी हर कर्म को एक यज्ञ के रूप में करता है और बंधन से मुक्त रहता है। आज हम इस विचार को और विस्तार में समझेंगे।
"आज के श्लोक 24 और 25 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥
इनका अर्थ है:
श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि हर कर्म को ब्रह्म के रूप में देखने से हमारे कर्म और यज्ञ में कोई भेद नहीं रह जाता। जो लोग अपने जीवन के प्रत्येक कर्म को समर्पण के रूप में करते हैं, वे वास्तव में यज्ञ का पालन करते हैं और इस प्रकार उनके कर्म उन्हें मुक्त करते हैं।
इन श्लोकों से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब हम हर कर्म को एक पवित्र यज्ञ मानते हैं, तो जीवन में संतुलन, शांति और मुक्ति की प्राप्ति होती है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 24 से 25"
"ब्रह्म-यज्ञका कथन ।
(श्लोक-२४)
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्-ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।
उच्चारण की विधि
ब्रह्म, अर्पणम्, ब्रह्म, हविः, ब्रह्माग्नौ, ब्रह्मणा, हुतम्, ब्रह्म, एव, तेन, गन्तव्यम्, ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २४ ॥
अर्पणम् अर्थात् (जिस यज्ञमें) अर्पण अर्थात् सुवा आदि (भी), ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म है (और), हविः अर्थात् हवन किये जाने योग्य द्रव्य (भी), ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म है (तथा), ब्रह्मणा अर्थात् ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा, ब्रह्माग्नौ अर्थात् ब्रह्मरूप अग्निमें, हुतम् अर्थात् आहुति देनारूप क्रिया (भी ब्रह्म है), तेन अर्थात् उस, ब्रह्मकर्मसमाधिना अर्थात् ब्रह्मकर्ममें स्थित रहनेवाले योगीद्वारा, गन्तव्यम् अर्थात् प्राप्त किये जानेयोग्य (फल भी), ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म, एव अर्थात् ही है।
अर्थ - जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् सुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जानेयोग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है-उस ब्रह्मकर्ममें स्थित रहनेवाले योगीद्वारा प्राप्त किये जानेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है ॥ २४ ॥"
"व्याख्या- [ यज्ञमें आहुति मुख्य होती है। वह आहुति तब पूर्ण होती है, जब वह अग्निरूप ही हो जाय अर्थात् हव्य पदार्थकी अग्निसे अलग सत्ता ही न रहे। इसी प्रकार जितने भी साधन हैं, सब साध्यरूप हो जायँ, तभी वे यज्ञ होते हैं।
जितने भी यज्ञ हैं, उनमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करना भावना नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है। भावना तो पदार्थोंकी है।
इस चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक जिन यज्ञोंका वर्णन किया गया है, वे सब 'कर्मयोग' के अन्तर्गत हैं। कारण कि भगवान् ने इस प्रकरणके उपक्रममें भी 'तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्' (४। १६) - ऐसा कहा है; और उपसंहारमें भी 'कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' (४। ३२) - ऐसा कहा है तथा बीचमें भी कहा है- 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' (४। २३)। मुख्य बात यह है कि यज्ञकर्ताके सभी कर्म 'अकर्म' हो जायँ। यज्ञ केवल यज्ञ-परम्पराकी रक्षाके लिये किये जायँ तो सब-के-सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। अतः इन सब यज्ञोंमें 'कर्ममें अकर्म' का ही वर्णन है।]
'ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः'- जिस पात्रसे अग्निमें आहुति दी जाती है, उस सुक्, सुवा आदिको यहाँ 'अर्पणम्' पदसे कहा गया है - 'अर्घ्यते अनेन इति अर्पणम्।' उस अर्पणको ब्रह्म ही माने। तिल, जौ, घी आदि जिन पदार्थोंका हवन किया जाता है, उन हव्य पदार्थोंको भी ब्रह्म ही माने।
'ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्' आहुति देनेवाला भी ब्रह्म ही है (गीता १३। २), जिसमें आहुति दी जा रही है, वह अग्नि भी ब्रह्म ही है और आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म ही है-ऐसा माने।"
"ब्रह्मकर्मसमाधिना'- जैसे हवन करनेवाला पुरुष सुवा, हवि, अग्नि आदि सबको ब्रह्मका ही स्वरूप मानता है, ऐसे ही जो प्रत्येक कर्ममें कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ सबको ब्रह्मरूप ही अनुभव करता है, उस पुरुषकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होती है अर्थात् उसकी सम्पूर्ण कर्मोंमें ब्रह्मबुद्धि होती है। उसके लिये सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन जाते हैं। ब्रह्मके सिवाय कर्मोंका अपना कोई अलग स्वरूप रहता ही नहीं।
'ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम्' - ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होनेसे जिसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन गये हैं, उसे फलके रूपमें निःसन्देह ब्रह्मकी ही प्राप्ति होती है। कारण कि उसकी दृष्टिमें ब्रह्मके सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं।
इस (चौबीसवें) श्लोकको शिष्टजन भोजनके समय बोलते हैं, जिससे भोजनरूप कर्म भी यज्ञ बन जाय। भोजनरूप कर्ममें ब्रह्मबुद्धि इस प्रकार की जाती है-
(१) जिससे अर्पण किया जाता है, वह हाथ भी ब्रह्मरूप है - 'सर्वतः पाणिपादं तत्' (गीता १३। १३) ।
(२) भोजनके पदार्थ भी ब्रह्मरूप हैं- 'अहमेवाज्यम्' (गीता ९। १६)।
(३) भोजन करनेवाला भी ब्रह्मरूप है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५।७)।
(४) जठराग्नि भी ब्रह्मरूप है- 'अहं वैश्वानरः' (गीता १५। १४)।
(५) भोजन करनारूप क्रिया अर्थात् जठराग्निमें अन्नकी आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है- 'अहं हुतम्' (गीता ९। १६)।
(६) इस प्रकार भोजन करनेवाले मनुष्योंके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है- 'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्' (गीता ४। ३१)।"
"मार्मिक बात
प्रकृतिके कार्य संसारका स्वरूप है-क्रिया और पदार्थ। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो प्रकृति या संसार क्रियारूप ही है *।
* प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट् ) इति प्रकृतिः । सम्यग्रीत्या सरतीति संसारः ।। कारण कि पदार्थ एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता; उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। अतः वास्तवमें पदार्थ परिवर्तनरूप क्रियाका पुंज ही है। केवल 'राग' के कारण पदार्थकी मुख्यता दीखती है। सम्पूर्ण क्रियाएँ अभावमें जा रही हैं। अतः संसार अभावरूप ही है। भावरूपसे केवल एक अक्रिय तत्त्व ब्रह्म ही है, जिसकी सत्तासे अभावरूप संसार भी सत्तावान् प्रतीत हो रहा है। संसारकी अभावरूपताको इस प्रकारसे समझ सकते हैं-
संसारकी तीन अवस्थाएँ दीखती हैं- उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय; जैसे- वस्तु उत्पन्न होती है, फिर रहती है और अन्तमें नष्ट हो जाती है अथवा मनुष्य जन्म लेता है, फिर रहता है और अन्तमें मर जाता है। इससे आगे विचार करें तो केवल उत्पत्ति और प्रलयका ही क्रम है, स्थिति वस्तुतः है ही नहीं; जैसे- यदि मनुष्यकी पूरी आयु पचास वर्षकी है, तो बीस वर्ष बीतनेपर उसकी आयु तीस वर्ष ही रह जाती है। इससे आगे विचार करें तो केवल प्रलय-ही-प्रलय (नाश-ही- नाश) है, उत्पत्ति है ही नहीं; जैसे- आयुके जितने वर्ष बीत गये, उतने वर्ष मनुष्य मर ही गया। इस प्रकार मनुष्य प्रतिक्षण ही मर रहा है, उसका जीवन प्रतिक्षण ही मृत्युमें जा रहा है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्यमें जा रहा है। प्रलय अभावका ही नाम है, इसलिये अभाव ही शेष रहा। अभावकी सत्ता भावरूप ब्रह्मपर ही टिकी हुई है। अतः भावरूपसे एक ब्रह्म ही शेष रहा-'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (छान्दोग्य० ३।१४। १); 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७। १९)।"
"देव-यज्ञ और ज्ञान-यज्ञका कथन ।
(श्लोक-२५)
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।।
उच्चारण की विधि
दैवम्, एव, अपरे, यज्ञम्, योगिनः, पर्युपासते, ब्रह्माग्नौ, अपरे, यज्ञम्, यज्ञेन, एव, उपजुह्वति ॥ २५ ॥
अपरे अर्थात् दूसरे, योगिनः अर्थात् योगीजन, दैवम् अर्थात् देवताओंके पूजनरूप, यज्ञम् अर्थात् यज्ञका, एव अर्थात् ही, पर्युपासते अर्थात् भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और, अपरे अर्थात् अन्य (योगीजन), ब्रह्माग्नौ अर्थात् परब्रह्म परमात्मारूप अग्निमें (अभेददर्शनरूप), यज्ञेन अर्थात् यज्ञके द्वारा, एव अर्थात् ही, यज्ञम् अर्थात् आत्मरूप यज्ञका, उपजुह्वति अर्थात् हवन * किया करते हैं।
अर्थ - दूसरे योगीजन देवताओंके पूजनरूप यज्ञका ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्निमें अभेददर्शनरूप यज्ञके द्वारा ही आत्मरूप यज्ञका हवन किया करते हैं * ॥ २५ ॥
* परब्रह्म परमात्मामें ज्ञानद्वारा एकीभावसे स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्निमें यज्ञके द्वारा यज्ञको हवन करना है।"
"व्याख्या 'दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते' - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने सर्वत्र ब्रह्मदर्शनरूप यज्ञ करनेवाले साधकका वर्णन किया। यहाँ भगवान् 'अपरे' पदसे उससे भिन्न प्रकारके यज्ञ करनेवाले साधकोंका वर्णन करते हैं।
यहाँ 'योगिनः' पद यज्ञार्थ कर्म करनेवाले निष्काम साधकोंके लिये आया है।
सम्पूर्ण क्रियाओं तथा पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें केवल भगवान् का और भगवान् के लिये ही मानना 'दैवयज्ञ' अर्थात् भगवदर्पणरूप यज्ञ है। भगवान् देवोंके भी देव हैं, इसलिये सब कुछ उनके अर्पण कर देनेको ही यहाँ 'दैवयज्ञ' कहा गया है।
किसी भी क्रिया और पदार्थमें किंचिन्मात्र भी आसक्ति, ममता और कामना न रखकर उन्हें सर्वथा भगवान् का मानना ही दैवयज्ञका भलीभाँति अनुष्ठान करना है।
'ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति' - इस श्लोकके पूर्वार्धमें बताये गये दैवयज्ञसे भिन्न दूसरे यज्ञका वर्णन करनेके लिये यहाँ 'अपरे' पद आया है।
चेतनका जडसे तादात्म्य होनेके कारण ही उसे जीवात्मा कहते हैं। विवेक-विचारपूर्वक जडसे सर्वथा विमुख होकर परमात्मामें लीन हो - 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।' बन्धन मिटनेसे योग हो जाता है अर्थात् परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है।
यह तेईसवाँ श्लोक कर्मयोगका मुख्य श्लोक है। जैसे भगवान् ने 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते' (४। ३७) पदोंसे ज्ञानाग्निके द्वारा ज्ञानयोगीके सम्पूर्ण पाप भस्म होनेकी बात कही है और 'अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि' (१८। ६६) पदोंसे भक्तके सम्पूर्ण पाप नष्ट होनेकी बात कही है, ऐसे ही इस श्लोकमें 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' पदोंसे कर्मयोगीके समग्र कर्म (पाप) नष्ट होनेकी बात कही है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि यज्ञके लिये कर्म करनेसे सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। साधकोंकी रुचि, विश्वास और योग्यताकी भिन्नताके कारण साधन भी भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं। इसलिये अब आगेके सात श्लोकोंमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) भगवान् भिन्न-भिन्न प्रकारके साधनोंका 'यज्ञ' रूपसे वर्णन करते हैं।"
कल के श्लोकों 26 से 28 में श्रीकृष्ण हमें बताएंगे कि यज्ञ की विभिन्न विधाओं को जीवन में कैसे अपनाया जा सकता है और उनका महत्व क्या है। जुड़े रहिए!
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