ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 26 से 28 - यज्ञ की विविध विधाएँ | कर्मयोग के रहस्य



 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानना चाहते हैं कि जीवन में यज्ञ की कौन-कौन सी विधाएँ हो सकती हैं और वे हमें किस प्रकार मुक्ति की ओर ले जाती हैं? श्रीकृष्ण के इन श्लोकों में छिपे हैं जीवन के गहरे रहस्य। आइए, आज इसे समझें!

कल के श्लोकों में हमने जाना कि किस प्रकार हर कर्म को एक यज्ञ मानकर किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण से कर्मों में समर्पण और आस्था का भाव आ जाता है, जिससे जीवन में संतुलन और शांति की प्राप्ति होती है।

"आज के श्लोक 26 से 28 में श्रीकृष्ण बताते हैं:

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥

इसका अर्थ यह है कि कुछ लोग अपने इंद्रियों का संयम यज्ञ के रूप में करते हैं, जबकि कुछ लोग अपनी इंद्रियों के विषयों का त्याग यज्ञ के रूप में करते हैं।


इन श्लोकों से यह सीख मिलती है कि यज्ञ केवल बाहरी कर्म नहीं हैं, बल्कि अपने भीतर के विषयों और इंद्रियों पर संयम रखने का भी एक तरीका है। जब हम अपने जीवन के हर पहलू को यज्ञ के रूप में देखते हैं, तो हम सचमुच अपने कर्मों से मुक्ति की ओर बढ़ते हैं।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 26 से 28"

"इन्द्रियसंयमरूप यज्ञ और विषयहवनरूप यज्ञका कथन।


(श्लोक-२६) 


श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ 


उच्चारण की विधि


श्रोत्रादीनि, इन्द्रियाणि, अन्ये, संयमाग्निषु, जुह्वति, शब्दादीन्, विषयान्, अन्ये, इन्द्रियाग्निषु, जुह्वति ॥ २६ ॥


अन्ये अर्थात् अन्य (योगीजन), श्रोत्रादीनि अर्थात् श्रोत्र आदि, इन्द्रियाणि अर्थात् समस्त इन्द्रियोंको, संयमाग्निषु अर्थात् संयमरूप अग्नियोंमें, जुह्वति अर्थात् हवन किया करते हैं (और), अन्ये अर्थात् दूसरे (योगीलोग), शब्दादीन् अर्थात् शब्दादि, विषयान्  अर्थात् समस्त विषयोंको, इन्द्रियाग्निषु अर्थात् इन्द्रियरूप अग्नियोंमें, जुह्वति अर्थात् हवन किया करते हैं।


अर्थ - अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियोंको संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि समस्त विषयोंको इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं॥ २६ ॥"


"व्याख्या -' श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति' - यहाँ संयमरूप अग्नियोंमें इन्द्रियोंकी आहुति देनेको यज्ञ कहा गया है। तात्पर्य यह है कि एकान्तकालमें श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण-ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों (क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) की ओर बिलकुल प्रवृत्त न हों। इन्द्रियाँ संयमरूप ही बन जायें।


पूरा संयम तभी समझना चाहिये, जब इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा अहम्-इन सबमेंसे राग-आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाय (गीता - दूसरे अध्यायका अट्ठावनवाँ, उन्सठवाँ तथा अड़सठवाँ श्लोक)। 'शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति' - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध - ये पाँच विषय हैं। विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन करनेसे वह यज्ञ हो जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारकालमें विषयोंका इन्द्रियोंसे संयोग होते रहनेपर भी इन्द्रियोंमें कोई विकार उत्पन्न न हो (गीता - दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ- पैंसठवाँ श्लोक)। इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित हो जायँ। इन्द्रियोंमें राग- द्वेष उत्पन्न करनेकी शक्ति विषयोंमें रहे ही नहीं।


इस श्लोकमें कहे गये दोनों प्रकारके यज्ञोंमें राग-आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर ही सिद्धि (परमात्म-प्राप्ति) होती है। राग- आसक्तिको मिटानेके लिये ही दो प्रकारकी प्रक्रियाका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है-


पहली प्रक्रियामें साधक एकान्तकालमें इन्द्रियोंका संयम करता है। विवेक-विचार, जप-ध्यान आदिसे इन्द्रियोंका संयम होने लगता है। पूरा संयम होनेपर जब रागका अभाव हो जाता है, तब एकान्तकाल और व्यवहारकाल- दोनोंमें उसकी समान स्थिति रहती है।


दूसरी प्रक्रियामें साधक व्यवहारकालमें राग-द्वेषरहित इन्द्रियोंसे व्यवहार करते हुए मन, बुद्धि और अहम् से भी राग-द्वेषका अभाव कर देता है। रागका अभाव होनेपर व्यवहारकाल और एकान्तकाल - दोनोंमें उसकी समान स्थिति रहती है।"


"अन्तःकरण-संयमरूप यज्ञ।


(श्लोक-२७)


सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ 


उच्चारण की विधि


सर्वाणि, इन्द्रियकर्माणि, प्राणकर्माणि, च, अपरे, आत्मसंयमयोगाग्नौ, जुह्वति, ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥


अपरे अर्थात् दूसरे (योगीजन), सर्वाणि अर्थात् सम्पूर्ण, इन्द्रियकर्माणि अर्थात् इन्द्रियोंकी क्रियाओंको, च अर्थात् और, प्राणकर्माणि अर्थात् प्राणोंकी समस्त क्रियाओंको, ज्ञानदीपिते अर्थात् ज्ञानसे प्रकाशित, आत्मसंयमयोगाग्नौ अर्थात् आत्मसंयम योगरूप अग्निमें, जुह्वति अर्थात् हवन किया करते हैं।


सच्चिदानन्दघन परमात्माके सिवा अन्य किसीका भी चिन्तन न करना ही उन सबका ""हवन करना"" है। 


अर्थ - दूसरे योगीजन इन्द्रियोंकी सम्पूर्ण क्रियाओंको और प्राणोंकी समस्त क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं * ॥ २७ ॥"

"व्याख्या' सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे'- इस श्लोकमें समाधिको यज्ञका रूप दिया गया है। कुछ योगीलोग दसों इन्द्रियोंकी क्रियाओंका समाधिमें हवन किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि-अवस्थामें मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन्द्रियाँ सर्वथा निश्चल और शान्त हो जाती हैं।


समाधिरूप यज्ञमें प्राणोंकी क्रियाओंका भी हवन हो जाता है अर्थात् समाधिकालमें प्राणोंकी क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधिमें प्राणोंकी गति रोकनेके दो प्रकार हैं-


एक तो हठयोगकी समाधि होती है, जिसमें प्राणोंको रोकनेके लिये कुम्भक किया जाता है। कुम्भकका अभ्यास बढ़ते-बढ़ते प्राण रुक जाते हैं, जो घंटोंतक, दिनोंतक रुके रह सकते हैं। इस प्राणायामसे आयु बढ़ती है; जैसे- वर्षा होनेपर जल बहने लगता है तो जलके साथ-साथ बालू भी आ जाती है, उस बालूमें मेढक दब जाता है। वर्षा बीतनेपर जब बालू सूख जाती है, तब मेढक उस बालूमें ही चुपचाप सूखे हुएकी तरह पड़ा रहता है, उसके प्राण रुक जाते हैं। पुनः जब वर्षा आती है, तब वर्षाका जल ऊपर गिरनेपर मेढकमें पुनः प्राणोंका संचार होता जाता है और वह टर्राने लग जाता है।"

"दूसरे प्रकारमें मनको एकाग्र किया जाता है। मन सर्वथा एकाग्र होनेपर प्राणोंकी गति अपने-आप रुक जाती है।


'ज्ञानदीपिते'- समाधि और निद्रा- दोनोंमें कारणशरीरसे सम्बन्ध रहता है, इसलिये बाहरसे दोनोंकी समान अवस्था दिखायी देती है। यहाँ 'ज्ञानदीपिते' पदसे समाधि और निद्रामें परस्पर भिन्नता सिद्ध की गयी है। तात्पर्य यह कि बाहरसे समान दिखायी देनेपर भी समाधिकालमें 'एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है' ऐसा ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत्) रहता है और निद्राकालमें वृत्तियाँ अविद्यामें लीन हो जाती हैं। समाधिकालमें प्राणोंकी गति रुक जाती है और निद्राकालमें प्राणोंकी गति चलती रहती है। इसलिये निद्रा आनेसे समाधि नहीं लगती।


'आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति' - चित्तवृत्तिनिरोधरूप अर्थात् समाधिरूप यज्ञ करनेवाले योगीलोग इन्द्रियों तथा प्राणोंकी क्रियाओंका समाधियोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं अर्थात् मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणोंकी क्रियाओंको रोककर समाधिमें स्थित हो जाते हैं। समाधि-कालमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और प्राण अपनी चंचलता खो देते हैं। एक सच्चिदानन्दघन परमात्माका ज्ञान ही जाग्रत् रहता है।"


"द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञका कथन।


(श्लोक-२८)


द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥


उच्चारण की विधि


द्रव्ययज्ञाः, तपोयज्ञाः, योगयज्ञाः, तथा, अपरे, स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः, च, यतयः, संशितव्रताः ॥ २८ ॥


अपरे अर्थात् कई पुरुष, द्रव्ययज्ञाः अर्थात् द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं (कितने ही), तपोयज्ञाः अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ करनेवाले हैं, तथा अर्थात् तथा (दूसरे कितने ही), योगयज्ञाः अर्थात् योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं च अर्थात् और (कितने ही) संशितव्रताः अर्थात् अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतोंसे युक्त, यतयः अर्थात् यत्नशील पुरुष, स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः अर्थात् स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।


अर्थ - कई पुरुष द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करनेवाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतोंसे युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं ॥ २८ ॥"

"व्याख्या'यतयः संशितव्रताः' अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोग-बुद्धिसे संग्रहका अभाव) - ये पाँच 'यम' हैं, जिन्हें 'महाव्रत' के नामसे कहा गया है।


* अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।।


(योगदर्शन २। ३०)


शास्त्रोंमें इन महाव्रतोंकी बहुत प्रशंसा, महिमा है। इन व्रतोंका सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय। इन व्रतोंका पालन करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ 'संशितव्रताः' पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोकमें आये चारों यज्ञोंमें जो-जो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं, उनपर दृढ़ रहकर उनका पालन करनेवाले भी सब 'संशितव्रताः' हैं। अपने-अपने यज्ञके अनुष्ठानमें प्रयत्नशील होनेके कारण उन्हें 'यतयः' कहा गया है।


'संशितव्रताः' पदके साथ ('द्रव्ययज्ञाः,' 'तपोयज्ञाः,' 'योगयज्ञाः' और 'ज्ञानयज्ञाः' की तरह) 'यज्ञाः' पद नहीं दिया जानेके कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है।


'द्रव्ययज्ञाः'- मात्र संसारके हितके उद्देश्यसे कुआँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशाला आदि बनवाना, अभावग्रस्त लोगोंको अन्न, जल, वस्त्र, औषध, पुस्तक आदि देना, दान करना इत्यादि सब 'द्रव्ययज्ञ' है।"

"द्रव्य (तीनों शरीरोंसहित सम्पूर्ण पदार्थों) को अपना और अपने लिये न मानकर निःस्वार्थभावसे उन्हींका मानकर उनकी सेवामें लगानेसे द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है।


शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उन्हींसे यज्ञ हो सकता है, अधिककी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य बालकसे उतनी ही आशा रखता है, जितना वह कर सकता है, फिर सर्वज्ञ भगवान् तथा संसार हमसे हमारी क्षमतासे अधिककी आशा कैसे रखेंगे ?


'तपोयज्ञाः' अपने कर्तव्य (स्वधर्म) के पालनमें जो-जो प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ आयें, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना 'तपोयज्ञ' है। लोकहितार्थ एकादशी आदिका व्रत रखना, मौन धारण करना आदि भी 'तपोयज्ञ' अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ हैं। परन्तु प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, घटना आनेपर भी साधक प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करता रहे-अपने कर्तव्यसे थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है, जो शीघ्र सिद्धि देनेवाली होती है।


गाँवभरकी गन्दगी, कूड़ा-करकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय, तो वह बुरा लगता है; परन्तु वही कूड़ा-करकट खेतमें पड़ जाय, तो खेतीके लिये खादरूपसे बढ़िया सामग्री बन जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़े-करकटकी तरह फेंक देते हैं अर्थात् उसे महत्त्व नहीं देते; परन्तु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्य-पालन करनेके लिये बढ़िया सामग्री है।"

"इसलिये प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिको सहर्ष सहनेके समान दूसरा कोई तप नहीं है। भोगोंमें आसक्ति रहनेसे अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है। इसी कारण प्रतिकूलताका महत्त्व समझमें नहीं आता।


'योगयज्ञास्तथापरे'- यहाँ योग नाम अन्तःकरणकी समताका है। समताका अर्थ है- कार्यकी पूर्ति और अपूर्तिमें, फलकी प्राप्ति और अप्राप्तिमें, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिमें, निन्दा और स्तुतिमें, आदर और निरादरमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःखका न होना। इस तरह सम रहना ही 'योगयज्ञ' है।


'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः' केवल लोकहितके लिये गीता, रामायण, भागवत आदिका तथा वेद, उपनिषद् आदिका यथाधिकार मनन- विचारपूर्वक पठन-पाठन करना, अपनी वृत्तियोंका तथा जीवनका अध्ययन करना आदि सब स्वाध्यायरूप 'ज्ञानयज्ञ' है।


गीताके अन्तमें भगवान् ने कहा है कि जो इस गीता-शास्त्रका अध्ययन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है (अठारहवें अध्यायका सत्तरवाँ श्लोक)। तात्पर्य यह है कि गीताका स्वाध्याय 'ज्ञानयज्ञ' है। गीताके भावोंमें गहरे उतरकर विचार करना, उसके भावोंको समझनेकी चेष्टा करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है।"

कल के श्लोक 29 और 30 में श्रीकृष्ण यज्ञ के विभिन्न प्रकारों को और गहराई से समझाएंगे, जिससे हमारे जीवन में और अधिक स्पष्टता आएगी। जुड़े रहिए!

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