ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 31 से 32 - यज्ञ का महत्व और आत्म-संयम की शक्ति
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जीवन में शांति और संतोष का अनुभव करना चाहते हैं? जानें कैसे यज्ञ का सही अर्थ और आत्म-संयम का अभ्यास हमें सच्चे संतुलन और आंतरिक शांति की ओर ले जाता है। आइए आज के श्लोकों पर नजर डालते हैं!
कल के श्लोकों में, श्रीकृष्ण ने हमें यज्ञ की विभिन्न विधाओं और आत्म-संयम के महत्व के बारे में बताया। यह सीख हमें यज्ञ की महत्ता और इसके पीछे के गहरे रहस्यों की ओर इशारा करती है।
"आज के श्लोक 31 और 32 में श्रीकृष्ण यज्ञ के महत्व को विस्तार से बताते हैं:
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥
जो यज्ञ में भाग नहीं लेते, उन्हें न इस लोक में आनंद प्राप्त होता है, न ही परलोक में।
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये यज्ञ विभिन्न रूपों में हमारे जीवन में अस्तित्व रखते हैं। जो व्यक्ति समर्पण और तपस्या के साथ जीवन यापन करता है, वह आनंद और आत्म-संतोष प्राप्त करता है।
इन श्लोकों का संदेश है कि समर्पण और संतुलन के बिना आत्मिक उन्नति कठिन है। इस यज्ञ का अर्थ है कि अपने जीवन के प्रत्येक कार्य में समर्पण का भाव लाना और समाज में योगदान देना।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 31 से 32"
"यज्ञ करनेवालोंको सनातन ब्रह्मकी प्राप्तिका कथन और न करनेवालोंकी निन्दा ।
(श्लोक-३१)
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥
उच्चारण की विधि
यज्ञशिष्टामृतभुजः, यान्ति, ब्रह्म, सनातनम्, न, अयम्, लोकः, अस्ति, अयज्ञस्य, कुतः, अन्यः, कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥
कुरुसत्तम अर्थात् हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन!, यज्ञशिष्टामृतभुजः अर्थात् यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले (योगीजन), सनातनम् अर्थात् सनातन, ब्रह्म अर्थात् परब्रह्म परमात्माको, यान्ति अर्थात् प्राप्त होते हैं (और), अयज्ञस्य अर्थात् यज्ञ न करनेवाले पुरुषके लिये (तो), अयम् अर्थात् यह, लोकः अर्थात् मनुष्यलोक भी (सुखदायक), न अर्थात् नहीं, अस्ति अर्थात् है (फिर), अन्यः अर्थात् परलोक, कुतः अर्थात् कैसे (सुखदायक हो सकता है)।
अर्थ - हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करनेवाले पुरुषके लिये तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ? ॥ ३१॥"
"व्याख्या-'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्' - यज्ञ करनेसे अर्थात् निष्कामभावपूर्वक दूसरोंको सुख पहुँचानेसे समताका अनुभव हो जाना ही 'यज्ञशिष्ट अमृत' का अनुभव करना है। अमृत अर्थात् अमरताका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं (गीता - तीसरे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)।
स्वरूपसे मनुष्य अमर है। मरनेवाली वस्तुओंके संगसे ही मनुष्यको मृत्युका अनुभव होता है। इन वस्तुओंको संसारके हितमें लगानेसे जब मनुष्य असंग हो जाता है, तब उसे स्वतःसिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है।
कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है। इसलिये यज्ञमें देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता है (गीता-चौथे अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। शरीर यज्ञ करनेके लिये समर्थ रहे- इस दृष्टिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके अन्तर्गत है। मनुष्य-शरीर यज्ञके लिये ही है। उसे मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिमें लगाना बन्धनकारक है। केवल यज्ञके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।"
"नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम'- जैसे तीसरे अध्यायके आठवें श्लोकमें भगवान् ने कहा कि कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करनेसे तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा, फिर परलोकका तो कहना ही क्या है! केवल स्वार्थभावसे (अपने लिये) कर्म करनेसे इस लोकमें संघर्ष उत्पन्न हो जायगा और सुख-शान्ति भंग हो जायगी तथा परलोकमें कल्याण भी नहीं होगा।
अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे घरमें भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है, खटपट मच जाती है। घरमें कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो, तो घरवालोंको उसका रहना सुहाता नहीं। स्वार्थत्यागपूर्वक अपने कर्तव्यसे सबको सुख पहुँचाना घरमें अथवा संसारमें रहनेकी विद्या है। अपने कर्तव्यका पालन करनेसे दूसरोंको भी कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा मिलती है। इससे घरमें एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है। परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे इस लोकमें सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकोंकी तो बात ही क्या है! इसके विपरीत अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी।
सम्बन्ध-इसी अध्यायके सोलहवें श्लोकमें भगवान् ने कर्मोंका तत्त्व बतानेकी प्रतिज्ञा की थी। उसका विस्तारसे वर्णन करके अब भगवान् उसका उपसंहार करते हैं।"
"सभी यज्ञ क्रियाद्वारा सम्पादित होनेयोग्य बतलाना।
(श्लोक-३२)
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
उच्चारण की विधि
एवम्, बहुविधाः, यज्ञाः, वितताः, ब्रह्मणः, मुखे, कर्मजान्, विद्धि, तान्, सर्वान्, एवम्, ज्ञात्वा, विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥
एवम् अर्थात् इस प्रकार (और भी), बहुविधाः अर्थात् बहुत तरहके, यज्ञाः अर्थात् यज्ञ, ब्रह्मणः अर्थात् वेदकी, मुखे अर्थात् वाणीमें, वितताः अर्थात् विस्तारसे कहे गये हैं, तान् अर्थात् उन, सर्वान् अर्थात् सबको (तू), कर्मजान् अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीरकी क्रिया द्वारा सम्पन्न होनेवाले, विद्धि अर्थात् जान, एवम् अर्थात् इस प्रकार (तत्त्वसे), ज्ञात्वा अर्थात् जानकर (उनके अनुष्ठानद्वारा तू कर्मबन्धनसे सर्वथा), विमोक्ष्यसे अर्थात् मुक्त हो जायगा।
अर्थ - इसी प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीरकी क्रियाद्वारा सम्पन्न होनेवाले जान, इस प्रकार तत्त्वसे जानकर उनके अनुष्ठानद्वारा तू कर्मबन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जायगा ॥ ३२ ॥"
"व्याख्या एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे' - चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन किया गया है, उनके सिवाय और भी अनेक प्रकारके यज्ञोंका वेदकी वाणीमें विस्तारसे वर्णन किया गया है। कारण कि साधकोंकी प्रकृतिके अनुसार उनकी निष्ठाएँ भी अलग-अलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं।
वेदोंमें सकाम अनुष्ठानोंका भी विस्तारसे वर्णन किया गया है। परन्तु उन सबसे नाशवान् फलकी ही प्राप्ति होती है, अविनाशीकी नहीं। इसलिये वेदोंमें वर्णित सकाम अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकको जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मरणके बन्धनमें पड़े रहते हैं (गीता- नवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। परन्तु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानोंकी बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्कामकर्मरूप उन यज्ञोंकी बात कही गयी है, जिनके अनुष्ठानसे परमात्माकी प्राप्ति होती है- 'यान्ति ब्रह्म सनातनम्' (गीता ४। ३१) ।
वेदोंमें केवल स्वर्गप्राप्तिके साधनरूप सकाम अनुष्ठानोंका ही वर्णन हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें परमात्मप्राप्तिके साधनरूप श्रवण, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्ठानोंका भी वर्णन हुआ है। उपर्युक्त पदोंमें उन्हींका लक्ष्य है।
तीसरे अध्यायके चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंमें कहा गया है कि यज्ञ वेदसे उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञोंमें नित्य प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं। "
"यज्ञोंमें परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहनेसे उन यज्ञोंका अनुष्ठान केवल परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये ही करना चाहिये।
'कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्' - चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन हुआ है तथा उसी प्रकार वेदोंमें जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उन सब यज्ञोंके लिये यहाँ 'तान् सर्वान्' पद आये हैं।
'कर्मजान् विद्धि' पदोंका तात्पर्य है कि वे सब-के-सब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात् कर्मोंसे होनेवाले हैं। शरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं, वाणीसे जो कथन होता है और मनसे जो संकल्प होते हैं, वे सभी कर्म कहलाते हैं- 'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (गीता १८।१५)।
अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं। इसलिये 'कर्मजान् विद्धि' पदोंसे भगवान् अर्जुनके प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्मका त्याग करके अपने कल्याणके लिये तू जो साधन करेगा, वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तवमें कल्याण कर्मसे नहीं होता, प्रत्युत कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेसे होता है। इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्य कर्मको भी निर्लिप्त रहकर करेगा, तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा; क्योंकि मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत (कर्मकी और उसके फलकी) आसक्ति ही बाँधती है (गीता-छठे अध्यायका चौथा श्लोक)। युद्ध तो तेरा सहज कर्म (स्वधर्म) है, इसलिये उसे करना तेरे लिये सुगम भी है।"
"एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे'- भगवान् ने इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें बताया कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते- इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता। तात्पर्य यह है कि जिसने कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहनेकी विद्या (-कर्मफलमें स्पृहा न रखना) को सीखकर उसका अनुभव कर लिया है, वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। फिर पंद्रहवें श्लोकमें भगवान् ने इसी बातको 'एवं ज्ञात्वा' पदोंसे कहा। वहाँ भी यही भाव है कि मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं। सोलहवें श्लोकमें कर्मोंसे निर्लिप्त रहनेके इसी तत्त्वको विस्तारसे कहनेके लिये भगवान् ने प्रतिज्ञा की और 'यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्' पदोंसे उसे जाननेका फल मुक्त होना बताया। अब इस श्लोकमें 'एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' पदोंसे ही उस विषयका उपसंहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि फलकी इच्छाका त्याग करके केवल लोकहितार्थ कर्म करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
संसारमें असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं; परन्तु जिन क्रियाओंसे मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है, उन्हींसे वह बँधता है। संसारमें कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो, जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है-उसमें राजी या नाराज होता है, तब वह उस क्रियासे बंध जाता है। जब शरीर या संसारमें होनेवाली किसी भी क्रियासे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं रहता, तब वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
सम्बन्ध-यज्ञोंका वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञोंमेंसे कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ है ? इसका समाधान भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।"
कल के श्लोकों में श्रीकृष्ण ज्ञान यज्ञ के महत्व को और विस्तार से समझाएंगे। वे बताएंगे कि ज्ञान का यज्ञ भौतिक यज्ञों से क्यों श्रेष्ठ है। बने रहिए हमारे साथ!
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