ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 35 से 37 - संदेहों का अंत और ज्ञान की शक्ति का रहस्य
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपके जीवन में कोई ऐसा सवाल है जो बार-बार आपको परेशान करता है? आज के श्लोक में जानेंगे कि कैसे सच्चा ज्ञान हमारे संदेहों का अंत कर सकता है और हमें शांति की ओर ले जा सकता है।
कल के श्लोकों में हमने ज्ञान यज्ञ और गुरु की शरण का महत्व जाना था, जहाँ श्रीकृष्ण ने हमें सिखाया कि सच्चे गुरु से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। आज हम और भी गहरी बातें सीखेंगे।
"आज हम श्लोक 35, 36, और 37 का अध्ययन करेंगे, जिसमें श्रीकृष्ण ज्ञान के महत्व, संदेहों के नाश और साधना के परिणाम को विस्तार से समझाते हैं।
श्लोक 35 में श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञान प्राप्ति के बाद व्यक्ति के सभी संदेह समाप्त हो जाते हैं, और वह सत्य को स्पष्ट रूप से देख पाता है।
श्लोक 36 में वे कहते हैं कि भले ही व्यक्ति ने अत्यधिक पाप किए हों, लेकिन सच्चा ज्ञान उसे मुक्त कर सकता है।
श्लोक 37 में श्रीकृष्ण इस ज्ञान को आग की तरह बताते हैं, जो सारे पापों को भस्म कर देता है।
ये श्लोक हमें सिखाते हैं कि सच्चे ज्ञान से जीवन में हर प्रकार की नकारात्मकता और संदेह का नाश संभव है, और यह हमें सत्य के मार्ग पर दृढ़ता से चलने का संबल देता है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 35 से 37"
"तत्त्वज्ञानका फल।
(श्लोक-३५)
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
उच्चारण की विधि
यत्, ज्ञात्वा, न, पुनः, मोहम्, एवम्, यास्यसि, पाण्डव, येन, भूतानि, अशेषेण, द्रक्ष्यसि, आत्मनि, अथो, मयि ॥ ३५ ॥
यत् अर्थात् जिसको, ज्ञात्वा अर्थात् जानकर, पुनः अर्थात् फिर (तू), एवम् अर्थात् इस प्रकार, मोहम् अर्थात् मोहको, न अर्थात् नहीं, यास्यसि अर्थात् प्राप्त होगा (तथा), पाण्डव अर्थात् हे अर्जुन, येन अर्थात् जिस ज्ञानके द्वारा (तू), अपनेमें (और), अथो अर्थात् भूतानि सम्पूर्ण भूतोंको, अशेषेण अर्थात् निःशेष भावसे (पहले), आत्मनि अर्थात् पीछे, मयि अर्थात् मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें, द्रक्ष्यसि अर्थात् देखेगा।
अर्थ - जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन ! जिस ज्ञानके द्वारा तू सम्पूर्ण भूतोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा ॥ ३५ ॥"
"व्याख्या'यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव'- पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि वे महापुरुष तेरेको तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे; परन्तु उपदेश सुननेमात्रसे वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूपका यथार्थ अनुभव नहीं होता-' श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्' (गीता २। २९); और वास्तविक बोधका वर्णन भी कोई कर नहीं सकता। कारण कि वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष है अर्थात् मन, वाणी आदिसे परे है। अतः वास्तविक बोध स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है और यह तब होता है, जब मनुष्य अपने विवेक (जड-चेतनके भेदका ज्ञान) को महत्त्व देता है। विवेकको महत्त्व देनेसे जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है, तब वह विवेक ही वास्तविक बोधमें परिणत हो जाता है और जडतासे सर्वथा सम्बन्ध- विच्छेद करा देता है। वास्तविक बोध होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता।
गीताके पहले अध्यायमें अर्जुनका मोह प्रकट होता है कि युद्धमें सभी कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी लोग मर जायँगे तो उन्हें पिण्ड और जल देनेवाला कौन होगा ? पिण्ड और जल न देनेसे वे नरकोंमें गिर जायँगे। जो जीवित रह जायँगे, उन स्त्रियोंका और बच्चोंका निर्वाह और पालन कैसे होगा? आदि-आदि। तत्त्वज्ञान होनेके बाद ऐसा मोह नहीं रहता। बोध होनेपर जब संसारसे मैं-मेरेपनका सम्बन्ध नहीं रहता, तब पुनः मोह होनेका प्रश्न ही नहीं रहता।
'येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मनि'- तत्त्वज्ञान होते ही ऐसा अनुभव होता है कि मेरी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है"
"और उस सत्ताके अन्तर्गत ही अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। जैसे स्वप्नसे जगा हुआ मनुष्य स्वप्नकी सृष्टिको अपनेमें ही देखता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेपर मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों (जगत्) को अपनेमें ही देखता है। छठे अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें आये 'सर्वभूतानि चात्मनि' पदोंसे भी इसी स्थितिका वर्णन किया गया है।
'अथो मयि'- तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी जो प्रचलित प्रक्रिया है, उसीके अनुसार भगवान् कह रहे हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक (श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक) तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करनेपर साधक पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है- यह 'त्वम्' पदका अनुभव हुआ, फिर वह स्वरूपको तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको एक सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखता है- यह 'तत्' पदका अनुभव हुआ। इस तरह उसको पहले 'त्वम्' (स्वरूप) का और फिर 'तत्' (परमात्मतत्त्व) के साथ 'त्वम्' की एकताका अनुभव हो जाता है। एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म शेष रह जाता है। ऐसी अवस्थामें द्रष्टा, दृश्य और दर्शन- ये तीनों ही नहीं रहते। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें जो भाव दीखता है, उसको लेकर ही भगवान् कहते हैं कि वह सबको मेरेमें देखता है।
स्थूल दृष्टिसे समुद्र और लहरोंमें भिन्नता दीखती है। लहरें समुद्रमें ही उठती और लीन होती रहती हैं। परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे समुद्र और लहरोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल एक जल-तत्त्वकी ही है। जल-तत्त्वमें न समुद्र है, न लहरें।"
"पृथ्वीसे सम्बन्ध होनेके कारण समुद्र भी सीमित है और लहरें भी; परन्तु जल-तत्त्व सीमित नहीं है। अतः समुद्र और लहरोंको न देखकर एक जल-तत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्टि है। इसी तरह संसाररूप समुद्र और शरीररूप लहरोंमें भिन्नता दीखती है। शरीर संसारमें ही उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। परन्तु वास्तवमें संसार और शरीर समुदायकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल परमात्मतत्त्वकी ही है। परमात्मतत्त्वमें न संसार है, न शरीर। प्रकृतिसे सम्बन्ध होनेके कारण संसार भी सीमित है और शरीर भी। परन्तु परमात्मतत्त्व सीमित नहीं है। अतः संसार और शरीरोंको न देखकर एक परमात्मतत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्टि है (गीता-तेरहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक) ।
परिशिष्ट भाव - तत्त्वज्ञान अथवा अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञानकी आवृत्ति नहीं होती। वह एक बार अनुभवमें आ गया तो सदाके लिये आ ही गया ! कारण कि जब अज्ञानकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है, तो फिर पुनः अज्ञान कैसे होगा ? अतः नित्यनिवृत्त अज्ञानकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्त तत्त्वकी ही प्राप्ति होती है।
स्वयं सत्तामात्र तथा बोधस्वरूप है। बोधका अनादर करनेसे हमने असत् को स्वीकार किया और असत् को स्वीकार करनेसे अविवेक हुआ। तात्पर्य है कि बोधसे विमुख होकर हमने असत् को सत्ता दी और असत् को सत्ता देनेसे विवेकका अनादर हुआ। वास्तवमें बोधका अनादर किया नहीं है, प्रत्युत अनादिकालसे अनादर है। "
"अगर ऐसा मानें कि हमने बोधका अनादर किया तो इससे सिद्ध होगा कि पहले बोधका आदर था। अतः अब आदर करेंगे तो पुनः अनादर हो जायगा। परन्तु बोध एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है तत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं। मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है।
जगत् जीवके अन्तर्गत है और जीव परमात्माके अन्तर्गत है, इसलिये साधक पहले जगत् को अपनेमें देखता है- 'द्रक्ष्यस्यात्मनि', फिर अपनेको परमात्मामें देखता है- 'अथो मयि ।' 'द्रक्ष्यस्यात्मनि' में आत्मज्ञान (ज्ञान) है और 'अथो मयि' में परमात्मज्ञान (विज्ञान) है। आत्मज्ञानमें निजानन्द है और परमात्मज्ञानमें परमानन्द है। लौकिक निष्ठा (कर्मयोग तथा ज्ञानयोग)-से आत्मज्ञानका अनुभव होता है और अलौकिक निष्ठा (भक्तियोग) से परमात्मज्ञानका अनुभव होता है।
सब कुछ भगवान् ही हैं- इस प्रकार समग्रका ज्ञान 'परमात्मज्ञान' है। आत्मज्ञानसे मुक्ति तो हो जाती है, पर सूक्ष्म अहम् की गन्ध रह जाती है, जिससे दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है। अगर सूक्ष्म अहम् की गन्ध न हो तो फिर मतभेद कहाँसे आया ? परन्तु परमात्मज्ञानसे सूक्ष्म अहम् की गन्ध भी नहीं रहती और उससे पैदा होनेवाले सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं। तात्पर्य हुआ कि जबतक 'आत्मनि' है, तबतक दार्शनिक मतभेद हैं। जब 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव होनेपर सब मतभेद मिट जाते हैं, तब 'अथो मयि' हो जाता है।' 'अथो मयि' में एक परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं रहती।"
"ज्ञानरूप नौकाद्वारा अतिशय पापीका उद्धार।
(श्लोक-३६) अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।
उच्चारण की विधि
अपि, चेत्, असि, पापेभ्यः, सर्वेभ्यः, पापकृत्तमः, सर्वम्, ज्ञानप्लवेन, एव, वृजिनम्, सन्तरिष्यसि ॥ ३६ ॥
चेत् अर्थात् यदि (तू अन्य), सर्वेभ्यः अर्थात् सब, पापेभ्यः अर्थात् पापियोंसे, अपि अर्थात् भी, पापकृत्तमः अर्थात् अधिक पाप करनेवाला, असि अर्थात् है (तो भी तू), ज्ञानप्लवेन अर्थात् ज्ञानरूप नौकाद्वारा, एव अर्थात् निःसन्देह, सर्वम् अर्थात् सम्पूर्ण, वृजिनम् अर्थात् पाप-समुद्रसे, सन्तरिष्यसि अर्थात् भलीभाँति तर जायगा।
अर्थ - यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है; तो भी तू ज्ञानरूप नौकाद्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जायगा ॥ ३६ ॥"
"व्याख्या' अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः' - पाप करनेवालोंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं- (१) 'पापकृत्' अर्थात् पाप करनेवाला, (२) 'पापकृत्तर' अर्थात् दो पापियोंमें एकसे अधिक पाप करनेवाला और (३) 'पापकृत्तम' अर्थात् सम्पूर्ण पापियोंमें सबसे अधिक पाप करनेवाला। यहाँ 'पापकृत्तमः' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि अगर तू सम्पूर्ण पापियोंमें भी अत्यन्त पाप करनेवाला है, तो भी तत्त्वज्ञानसे तू सम्पूर्ण पापोंसे तर सकता है।
भगवान् का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापोंका त्याग करके साधनमें लगा हुआ है, उसका तो कहना ही क्या है! पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों, उसको भी जिज्ञासा जाग्रत् होनेके बाद अपने उद्धारके विषयमें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते देरी नहीं लगती।
यदि कहीं सौ वर्षोंसे घना अँधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय, तो उस अँधेरेको दूर करके प्रकाश करनेमें दीपकको सौ वर्ष नहीं लगते, प्रत्युत दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।"
"चेत्'- (यदि) पद देनेका तात्पर्य यह है कि प्रायः ऐसे पापी मनुष्य परमात्मामें नहीं लगते; परन्तु वे परमात्मामें लग नहीं सकते - ऐसी बात नहीं है। किसी महापुरुषके संगसे अथवा किसी घटना, परिस्थिति, वातावरण आदिके प्रभावसे यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि अब परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना ही है, तो वे भी सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जाते हैं। नवें अध्यायके तीसवें-इकतीसवें श्लोकोंमें भी भगवान् ने ऐसी ही बात अनन्यभावसे अपना भजन करनेवालेके लिये कही है कि महान् दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान् का भजन ही करूँगा, तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है।
'सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि '- प्रकृतिके कार्य शरीर और संसारके सम्बन्धसे ही सम्पूर्ण पाप होते हैं। तत्त्वज्ञान होनेपर जब इनसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, तब पाप कैसे रह सकते हैं- 'मूलाभावे कुतः शाखा'?
परमात्माके स्वतःसिद्ध ज्ञानके साथ एक होना ही 'ज्ञानप्लव' अर्थात् ज्ञानरूप नौकाका प्राप्त होना है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो, ज्ञानरूप नौकासे वह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जाता है। यह ज्ञानरूप नौका कभी टूटती-फूटती नहीं, इसमें कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं। यह मनुष्यको पाप- समुद्रसे पार करा देती है।"
"ज्ञानयज्ञ' (चौथे अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक) से ही यह ज्ञानरूप नौका प्राप्त होती है। यह ज्ञानयज्ञ आरम्भसे ही 'विवेक' को लेकर चलता है और 'तत्त्वज्ञान' में इसकी पूर्णता हो जाती है। पूर्णता होनेपर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता।
परिशिष्ट भाव-यहाँ भगवान् ने 'पापेभ्यः सर्वेभ्यः
पापकृत्तमः' पदोंसे पापीकी आखिरी हद बता दी है! यद्यपि 'पापेभ्यः' पद बहुवचन होनेसे सम्पूर्ण पापियोंका वाचक है, फिर भी भगवान् ने इसके साथ 'सर्वेभ्यः' पद दिया। 'सर्वेभ्यः' पद भी सम्पूर्णका वाचक है। ये दो पद देनेके बाद भी भगवान् ने 'पापकृत्तमः' पद और दिया है, जो अतिशयताका बोधक है। पहले 'पापकृत्' होता है, फिर 'पापकृत्तर' होता है और फिर 'पापकृत्तम' होता है। तात्पर्य निकला कि सम्पूर्ण संसारमें जितने भी पापी हो सकते हैं, उन सम्पूर्ण पापियोंसे भी जो अत्यधिक पापी है, उसको भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है! कारण कि पाप कितने ही क्यों न हों, हैं वे असत् ही, जबकि ज्ञान सत् है। सत् के आगे असत् कैसे टिक सकता है! पाप अपवित्र है, जबकि ज्ञान परमपवित्र है (इसी अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक)। अपवित्र वस्तु पवित्र वस्तुको कैसे अटका सकती है! अतः पापोंमें ज्ञानको अटकानेकी ताकत नहीं है। ज्ञानप्राप्तिमें खास बाधा है- नाशवान् सुखकी आसक्ति (गीता- तीसरे अध्यायके सैंतीसवेंसे इकतालीसवें श्लोकतक) । भोगासक्तिके कारण ही मनुष्यकी पारमार्थिक विषयमें रुचि नहीं होती और रुचि न होनेसे ही ज्ञानकी प्राप्ति बड़ी कठिन प्रतीत होती है।"
"ज्ञानको अग्निकी भाँति कर्मोंको भस्म करनेवाला बतलाना।
(श्लोक-३७)
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्-भस्मसात्कुरुते ऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
उच्चारण की विधि
यथा, एधांसि, समिद्धः, अग्निः, भस्मसात्, कुरुते, अर्जुन, ज्ञानाग्निः, सर्वकर्माणि, भस्मसात्, कुरुते, तथा ॥ ३७ ॥
अर्जुन अर्थात् हे अर्जुन !, यथा अर्थात् जैसे, समिद्धः अर्थात् प्रज्वलित, अग्निः अर्थात् अग्नि, एधांसि अर्थात् ईंधनोंको, भस्मसात् अर्थात् भस्ममय, कुरुते अर्थात् कर देता है, तथा अर्थात् वैसे ही, ज्ञानाग्निः अर्थात् ज्ञानरूप अग्नि, सर्वकर्माणि अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंको, भस्मसात् अर्थात् भस्ममय, कुरुते अर्थात् कर देता है।
अर्थ - क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्ममय कर देता है ॥ ३७ ॥"
"व्याख्या'यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन' -
पीछेके श्लोकमें भगवान् ने ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा सम्पूर्ण पाप- समुद्रको तरनेकी बात कही। उससे यह प्रश्न पैदा होता है कि पापसमुद्र तो शेष रहता ही है, फिर उसका क्या होगा ? अतः भगवान् पुनः दूसरा दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठादि सम्पूर्ण ईंधनोंको इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका किंचिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता, ऐसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण पापोंको इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका किंचिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता।
'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा'- जैसे अग्नि काष्ठको भस्म कर देती है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान रूपी अग्नि संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण- तीनों कर्मोंको भस्म कर देती है। जैसे अग्निमें काष्ठका अत्यन्त अभाव हो जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञानमें सम्पूर्ण कर्मोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान होनेपर कर्मोंसे अथवा संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही शेष रहता है।
वास्तवमें मात्र क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं (गीता-तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक)। उन क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेनेसे कर्म होते हैं। नाड़ियोंमें रक्त प्रवाह होना, शरीरका बालकसे जवान होना, श्वासोंका आना-जाना, भोजनका पचना आदि क्रियाएँ जिस समष्टि प्रकृतिसे होती हैं,"
"उसी प्रकृतिसे खाना-पीना, चलना, बैठना, देखना, बोलना आदि क्रियाएँ भी होती हैं। परन्तु मनुष्य अज्ञानवश उन क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है अर्थात् अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है। इससे वे क्रियाएँ 'कर्म' बनकर मनुष्यको बाँध देती हैं। इस प्रकार माने हुए सम्बन्धसे ही कर्म होते हैं, अन्यथा क्रियाएँ ही होती हैं।
तत्त्वज्ञान होनेपर अनेक जन्मोंके संचित कर्म सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। कारण कि सभी संचित कर्म अज्ञानके आश्रित रहते हैं; अतः ज्ञान होते ही (आश्रय, आधाररूप अज्ञान न रहनेसे) वे नष्ट हो जाते हैं। तत्त्वज्ञान होनेपर कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता; अतः सभी क्रियमाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फलजनक नहीं होते। प्रारब्ध कर्मका घटना-अंश (अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति) तो जबतक शरीर रहता
है, तबतक रहता है; परन्तु ज्ञानीपर उसका कोई असर नहीं पड़ता। कारण कि तत्त्वज्ञान होनेपर भोक्तृत्व नहीं रहता; अतः अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति सामने आनेपर वह सुखी-दुःखी नहीं होता। इस प्रकार तत्त्वज्ञान होनेपर संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण- तीनों कर्मोंसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। कर्मोंसे अपना सम्बन्ध न रहनेसे कर्म नहीं रहते, भस्म रह जाती है अर्थात् सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं।
सम्बन्ध-अब भगवान् आगे कहे श्लोकके पूर्वार्धमें तत्त्वज्ञानकी महिमा बताते हुए उत्तरार्धमें कर्मयोगकी विशेष महत्ता प्रकट करते हैं।"
कल के श्लोक 38 में हम जानेंगे कि कैसे यह ज्ञान संसार का सबसे शुद्ध और परम पवित्र तत्व है। जुड़े रहें हमारे साथ इस अद्भुत यात्रा पर!
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