ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 38 - परम ज्ञान की शुद्धता और शक्ति

 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानते हैं कि संसार में सबसे पवित्र और शुद्ध चीज़ क्या है? भगवद गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने इसका रहस्य उजागर किया है। आइए, इसे गहराई से समझते हैं।

पिछले श्लोकों में हमने जाना कि कैसे ज्ञान हमारे संदेहों का अंत करता है और हमारे जीवन में नई रोशनी लाता है। आज हम उस ज्ञान की शुद्धता और पवित्रता को जानेंगे।

"श्रीकृष्ण भगवद गीता के श्लोक 38 में कहते हैं:

'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।'

इसका अर्थ है, 'इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है।'

यह श्लोक हमें सिखाता है कि आत्मज्ञान ही वह शक्ति है, जो हमें हर प्रकार की अशुद्धियों से मुक्त कर सकती है। श्रीकृष्ण हमें इस ज्ञान को प्राप्त करने की प्रक्रिया के बारे में बताते हैं और यह भी कि कैसे यह हमारे जीवन को शुद्ध और सकारात्मक बना सकता है।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 38"

"ज्ञानकी अतिशय पवित्रता और शुद्धान्तःकरण कर्मयोगीको अपने-आप तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति।


(श्लोक-३८)


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ 


उच्चारण की विधि


न, हि, ज्ञानेन, सदृशम्, पवित्रम्, इह, विद्यते, तत्, स्वयम्, योगसंसिद्धः, कालेन, आत्मनि, विन्दति ॥ ३८ ॥


इह अर्थात् इस संसारमें, ज्ञानेन अर्थात् ज्ञानके, सदृशम् अर्थात् समान, पवित्रम् अर्थात् पवित्र करनेवाला, हि अर्थात् निःसन्देह (कुछ भी), न अर्थात् नहीं, विद्यते अर्थात् है, तत् अर्थात् उस ज्ञानको, कालेन अर्थात् कितने ही कालसे, योगसंसिद्धः अर्थात् कर्मयोगके द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य, स्वयम् अर्थात् अपने-आप (ही), आत्मनि अर्थात् आत्मामें, विन्दति अर्थात् पा लेता है।


अर्थ - इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष् अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है ॥ ३८ ॥"

"व्याख्या- 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते'- यहाँ


'इह' पद मनुष्यलोकका वाचक है; क्योंकि सब-की-सब पवित्रता इस मनुष्यलोकमें ही प्राप्त की जाती है। पवित्रता प्राप्त करनेका अधिकार और अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य शरीरमें नहीं है। अलग-अलग लोकोंके अधिकार भी मनुष्यलोकसे ही मिलते हैं।


संसारकी स्वतन्त्र सत्ताको माननेसे तथा उससे सुख लेनेकी इच्छासे ही सम्पूर्ण दोष, पाप उत्पन्न होते हैं (गीता- तीसरे अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक) । तत्त्वज्ञान होनेपर जब संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं रहती, तब सम्पूर्ण पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है और महान् पवित्रता आ जाती है। इसलिये संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन है ही नहीं।


संसारमें यज्ञ, दान, तप, पूजा, व्रत, उपवास, जप, ध्यान, प्राणायाम आदि जितने साधन हैं तथा गंगा, यमुना, गोदावरी आदि जितने तीर्थ हैं, वे सभी मनुष्यके पापोंका नाश करके उसे पवित्र करनेवाले हैं। परन्तु उन सबमें भी तत्त्वज्ञानके समान पवित्र करनेवाला कोई भी साधन, तीर्थ आदि नहीं है; क्योंकि वे सब तत्त्वज्ञानके साधन हैं और तत्त्वज्ञान उन सबका साध्य है।


परमात्मा पवित्रोंके भी पवित्र हैं- 'पवित्राणां पवित्रम्' (विष्णुसहस्र० १०)। उन्हीं परमपवित्र परमात्माका अनुभव करानेवाला होनेसे तत्त्वज्ञान भी अत्यन्त पवित्र है। 


'योगसंसिद्धः'- जिसका कर्मयोग सिद्ध हो गया है"

"अर्थात् कर्मयोगका अनुष्ठान सांगोपांग पूर्ण हो गया है, उस महापुरुषको यहाँ 'योगसंसिद्धः' कहा गया है, छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें उसीको 'योगारूढः' कहा गया है। योगारूढ़ होना कर्मयोगकी अन्तिम अवस्था है। योगारूढ़ होते ही तत्त्वबोध हो जाता है। तत्त्वबोध हो जानेपर संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।


कर्मयोगकी मुख्य बात है- अपना कुछ भी न मानकर सम्पूर्ण कर्म संसारके हितके लिये करना, अपने लिये कुछ भी न करना। ऐसा करनेपर सामग्री और क्रिया-शक्ति- दोनोंका प्रवाह संसारकी सेवामें हो जाता है। संसारकी सेवामें प्रवाह होनेपर 'मैं सेवक हूँ' ऐसा (अहम् का) भाव भी नहीं रहता अर्थात् सेवक नहीं रहता, केवल सेवा रह जाती है। इस प्रकार जब सेवक सेवा बनकर सेव्यमें लीन हो जाता है, तब प्रकृतिके कार्य शरीर तथा संसारसे सर्वथा वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाता है। वियोग होनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रह जाती, केवल क्रिया रह जाती है। इसीको योगकी संसिद्धि अर्थात् सम्यक् सिद्धि कहते हैं।


कर्म और फलकी आसक्तिसे ही 'योग' का अनुभव नहीं होता। वास्तवमें कर्मों और पदार्थोंसे सम्बन्ध विच्छेद स्वतः सिद्ध है। कारण कि कर्म और पदार्थ तो अनित्य (आदि-अन्तवाले) हैं, और अपना स्वरूप नित्य है। अनित्य कर्मोंसे नित्य स्वरूपको क्या मिल सकता है? इसलिये स्वरूपको कर्मोंके द्वारा कुछ नहीं पाना है- यह 'कर्मविज्ञान' है। "

"कर्मविज्ञानका अनुभव होनेपर कर्मफलसे भी सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् कर्मजन्य सुख लेनेकी आसक्ति सर्वथा मिट जाती है, जिसके मिटते ही परमात्माके साथ अपने स्वाभाविक नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है, जो 'योगविज्ञान' है। योगविज्ञानका अनुभव होना ही योगकी संसिद्धि है।


'तत्स्वयं कालेनात्मनि विन्दति'- जिस तत्त्वज्ञानसे सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं और जिसके समान पवित्र करनेवाला संसारमें दूसरा कोई साधन नहीं है, उसी तत्त्व-ज्ञानको कर्मयोगी योगसंसिद्ध होनेपर दूसरे किसी साधनके बिना स्वयं अपने-आपमें ही तत्काल प्राप्त कर लेता है।


चौंतीसवें श्लोकमें भगवान् ने बताया था कि प्रचलित प्रणालीके अनुसार कर्मोंका त्याग करके गुरुके पास जानेपर वे तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे- 'उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम्।' किंतु गुरु तो उपदेश दे देंगे, पर उससे तत्त्वज्ञान हो ही जायगा - ऐसा निश्चित नहीं है। फिर भी भगवान् यहाँ बताते हैं कि कर्मयोगकी प्रणालीसे कर्म करनेवाले मनुष्यको योगसंसिद्धि मिल जानेपर तत्त्वज्ञान हो ही जाता है।


उपर्युक्त पदोंमें आया 'कालेन' पद विशेष ध्यान देनेयोग्य है। 


भगवान् ने व्याकरणकी दृष्टिसे 'कालेन' पद तृतीयामें प्रयुक्त करके यह बताया है कि कर्मयोगसे अवश्य ही तत्त्वज्ञान अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है*। 


* 'कालेन' - इस शब्दमें 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' (पाणिनिसूत्र २। ३।"

"५) - इससे प्राप्त द्वितीया विभक्तिका निषेध करके 'अपवर्गे तृतीया' (वही २। ३। ६)- इससे तृतीया विभक्ति हुई है। तृतीया विभक्ति वहीं होती है, जहाँ अवश्य फलप्राप्तिका अर्थात् कार्य अवश्य सिद्ध होनेका द्योतन होता है। परन्तु जहाँ द्वितीया विभक्ति होती है, वहाँ अवश्य फलप्राप्तिका द्योतन नहीं होता; जैसे- 'मासम् अधीते' पद द्वितीयामें प्रयुक्त होता है, तो इसका अर्थ है कि एक मासमें भी पूरा न पढ़ सका। परन्तु यही पद यदि 'मासेन अधीते' इस प्रकार तृतीयामें प्रयुक्त होता है, तो इसका अर्थ है कि एक मासमें पूरा पढ़ लिया। इसी प्रकार भगवान् ने यहाँ द्वितीयामें 'कालम्' पद न देकर तृतीयामें 'कालेन' पद दिया है, जिससे यह अर्थ निकलता है कि कर्मयोगसे अवश्य फलप्राप्ति (सिद्धि) होती है।


'स्वयम्' पद देनेका तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये कर्मयोगीको किसी गुरुकी, ग्रन्थकी या दूसरे किसी साधनकी अपेक्षा नहीं है। कर्मयोगकी विधिसे कर्तव्य-कर्म करते हुए ही उसे अपने-आप तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जायगा।


'आत्मनि विन्दति' पदोंका तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञानको प्राप्त करनेके लिये कर्मयोगीको किसी दूसरी जगह जानेकी जरूरत नहीं है। कर्मयोग सिद्ध होनेपर उसे अपने-आपमें ही स्वतः सिद्ध तत्त्वज्ञानका अनुभव हो जाता है। परमात्मा सब जगह परिपूर्ण होनेसे अपनेमें भी हैं। जहाँ साधक 'मैं हूँ' रूपसे अपने-आपको मानता है, वहीं परमात्मा विराजमान हैं, "

"परन्तु परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण अपने-आपमें स्थित परमात्माका अनुभव नहीं होता। कर्मयोगका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेसे जब संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् संसारसे तादात्म्य, ममता और कामना मिट जाती है, तब उसे अपने-आपमें ही तत्त्वका सुखपूर्वक


अनुभव हो जाता है- 'निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' (गीता ५। ३)।


परमात्मतत्त्वका ज्ञान करण-निरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपने-आपसे ही हो सकता है, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि करणोंसे नहीं। साधक किसी भी उपायसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे, पर अन्तमें वह अपने-आपसे ही तत्त्वको जानेगा। श्रवण-मनन आदि साधन तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेमें असम्भावना, विपरीत भावना आदि ज्ञानकी बाधाओंको दूर करनेवाले परम्परागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध अपने-आपसे ही होता है; कारण कि मन, बुद्धि आदि सब जड हैं। जडके द्वारा उस चिन्मय तत्त्वको कैसे जाना जा सकता है, जो जडसे सर्वथा अतीत है? वास्तवमें तत्त्वका अनुभव जडके सम्बन्ध विच्छेदसे होता है, जडके द्वारा नहीं। जैसे, आँखोंसे संसारको तो देखा जा सकता है, पर आँखोंसे आँखोंको नहीं देखा जा सकता; परन्तु यह कहा जा सकता है कि जिससे देखते हैं, वही आँख है। इसी प्रकार जो सबको जाननेवाला है, उसे किसके द्वारा जाना जा सकता है - 'विज्ञातारमरे केन विजानीयात्' (बृहदारण्यक० २।४। १४) ?"

" परन्तु जिससे सम्पूर्ण वस्तुओंका ज्ञान होता है, वही परमात्मतत्त्व है।


विशेष बात


इस अध्यायके तैंतीसवेंसे सैंतीसवें श्लोकतक भगवान् ने ज्ञानकी जो प्रशंसा की है, उससे ज्ञानयोगकी विशेष महिमा झलकती है; परन्तु वास्तवमें उसे ज्ञानयोगकी ही महिमा मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता। गहरा विचार करें तो इसमें अर्जुनके प्रति भगवान् का एक गूढ़ अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो तत्त्वज्ञान इतना महान् और पवित्र है तथा जिस ज्ञानको प्राप्त करनेके लिये मैं तुझे तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जानेकी आज्ञा दे रहा हूँ, उस ज्ञानको तू स्वयं कर्मयोगके द्वारा अवश्यमेव प्राप्त कर सकता है- 'तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति' (गीता ४। ३८)। इस प्रकार ज्ञानयोगकी प्रशंसाके ये श्लोक वास्तवमें प्रकारान्तरसे कर्मयोगकी ही विशेषता, महिमा बतानेके लिये हैं। भगवान् का अभिप्राय यह नहीं था कि अर्जुन ज्ञानियोंके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करे। भगवान् का अभिप्राय यह था कि जो ज्ञान इतनी दुर्लभतासे, ज्ञानियोंके पास रहकर उनकी सेवा करके और विनयपूर्वक प्रश्नोत्तर करके तथा उसके अनुसार श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके प्राप्त करेगा, वही ज्ञान तुझे कर्मयोगकी विधिसे प्राप्त कर्तव्य (युद्ध) का पालन करनेसे ही प्राप्त हो जायगा। जिस तत्त्वज्ञानके लिये मैंने तत्त्वदर्शी महापुरुषोंके पास जानेकी प्रेरणा की है, वह तत्त्वज्ञान प्राप्त हो ही जायगा,"

"यह निश्चित नहीं है; क्योंकि जिस पुरुषके पास जाओगे, वह तत्त्वदर्शी ही है-इसका क्या पता ? और उस महापुरुषके प्रति श्रद्धाकी कमी भी रह सकती है।  दूसरी बात, इस प्रक्रियामें पहले सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें देखेगा और उसके बाद सम्पूर्ण प्राणियोंको एक परमात्मतत्त्वमें देखेगा (गीता-चौथे अध्यायका पैंतीसवाँ श्लोक)। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करनेकी इस प्रक्रियामें संशय तथा विलम्बकी सम्भावना है। परन्तु कर्मयोगके द्वारा अन्य पुरुषकी अपेक्षाके बिना, अवश्यमेव और तत्काल उस तत्त्वज्ञानका अनुभव हो जाता है। इसलिये मैं तेरे लिये कर्मयोगको ही ठीक समझता हूँ; अतः तुझे प्रचलित प्रणालीके ज्ञानका उपदेश मैं नहीं दूँगा।


भगवान् तो महापुरुषोंके भी महापुरुष हैं। अतः वे अर्जुनको किसी दूसरे महापुरुषके पास जाकर ज्ञान सीखनेके लिये कैसे कह सकते हैं? आगे इसी अध्यायके इकतालीसवें श्लोकमें भगवान् ने कर्मयोगकी प्रशंसा करके बयालीसवें श्लोकमें अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी स्पष्टरूपसे आज्ञा दी है।


परिशिष्ट भाव - 'पवित्रमिह' अपवित्रता संसारके सम्बन्धसे आती है। तत्त्वज्ञान होनेपर जब संसारका अत्यन्त अभाव हो जाता है, तब अपवित्रता रहनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसलिये ज्ञानमें किंचिन्मात्र भी अपवित्रता, जड़ता, विकार नहीं है।


'इह' पद 'लोक' का वाचक है। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान लौकिक है, जबकि परमात्मज्ञान अलौकिक है।  सम्बन्ध-अब भगवान् आगेके श्लोकमें ज्ञान-प्राप्तिके पात्रका निरूपण करते हैं।"

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