ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 39 - विश्वास और दृढ़ता से ज्ञान प्राप्ति का मार्ग
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपने कभी सोचा है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए सबसे जरूरी चीज़ क्या है? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण इसका उत्तर देंगे।
पिछले श्लोक में हमने जाना कि ज्ञान संसार का सबसे पवित्र तत्व है। आज हम सीखेंगे कि इसे प्राप्त करने के लिए कौन से गुण सबसे महत्वपूर्ण हैं।
"श्रीकृष्ण भगवद गीता के श्लोक 39 में कहते हैं:
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
इसका अर्थ है कि विश्वास, धैर्य और इंद्रियों का संयम रखने वाला व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि ज्ञान केवल उन्हीं को मिलता है जो इसे पाने के लिए पूरी निष्ठा और समर्पण रखते हैं। यह श्लोक जीवन में सच्चे ज्ञान की महिमा और उसे प्राप्त करने की आवश्यक शर्तों को स्पष्ट करता है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 39"
"ज्ञानके पात्रका और ज्ञानसे परम-शान्तिकी प्राप्तिका कथन।
(श्लोक-३९)
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
उच्चारण की विधि
श्रद्धावान्, लभते, ज्ञानम्, तत्परः, संयतेन्द्रियः, ज्ञानम्, लब्ध्वा, पराम्, शान्तिम्, अचिरेण, अधिगच्छति ॥ ३९ ॥
और हे अर्जुन ! -
संयतेन्द्रियः अर्थात् जितेन्द्रिय, तत्परः अर्थात् साधनपरायण (और), श्रद्धावान् अर्थात् श्रद्धावान् मनुष्य, ज्ञानम् अर्थात् ज्ञानको, लभते अर्थात् प्राप्त होता है (तथा), ज्ञानम् अर्थात् ज्ञानको, लब्ध्वा अर्थात् प्राप्त होकर (वह), अचिरेण अर्थात् बिना विलम्बके तत्काल ही (भगवत्प्राप्तिरूप), पराम् अर्थात् परम, शान्तिम् अर्थात् शान्तिको, अधिगच्छति अर्थात् प्राप्त हो जाता है।
अर्थ - जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके-तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है ॥ ३९ ॥"
"व्याख्या-'तत्परः संयतेन्द्रियः' इस श्लोकमें श्रद्धावान् पुरुषको ज्ञान प्राप्त होनेकी बात आयी है। अपनेमें श्रद्धा कम होनेपर भी मनुष्य भूलसे अपनेको अधिक श्रद्धावाला मान सकता है, इसलिये भगवान् ने श्रद्धाकी पहचानके लिये दो विशेषण दिये हैं
- 'संयतेन्द्रियः' और 'तत्परः ।'
जिसकी इन्द्रियाँ पूर्णतया वशमें हैं, वह 'संयतेन्द्रियः' है और जो अपने साधनमें तत्परतापूर्वक लगा हुआ है, वह 'तत्परः' है। साधनमें तत्परताकी कसौटी है- इन्द्रियोंका संयत होना। अगर इन्द्रियाँ संयत नहीं हैं और विषयभोगोंकी तरफ जाती हैं, तो साधन- परायणतामें कमी समझनी चाहिये।
'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्' - परमात्मामें, महापुरुषोंमें, धर्ममें और शास्त्रोंमें प्रत्यक्षकी तरह आदरपूर्वक विश्वास होना 'श्रद्धा' कहलाती है।
जबतक परमात्मतत्त्वका अनुभव न हो, तबतक परमात्मामें प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास होना चाहिये। वास्तवमें परमात्मासे देश, काल आदिकी दूरी नहीं है, केवल मानी हुई दूरी है। दूरी माननेके कारण ही परमात्मा सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी अनुभवमें नहीं आ रहे हैं। इसलिये 'परमात्मा अपनेमें हैं' ऐसा मान लेनेका नाम ही श्रद्धा है। कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो, अगर वह एकमात्र परमात्माको प्राप्त करना चाहता है और 'परमात्मा अपनेमें हैं' ऐसी श्रद्धावाला है, तो उसे अवश्य परमात्मतत्त्वका ज्ञान हो जाता है।
संसार प्रतिक्षण ही जा रहा है, एक क्षण भी टिकता नहीं। उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। केवल परमात्माकी सत्तासे ही वह सत्तावान् दीख रहा है। इस तरह संसारकी स्वतन्त्र सत्ताको न मानकर एक परमात्माकी सत्ताको ही मानना श्रद्धा है। "
"ऐसी श्रद्धा होनेपर तत्काल ज्ञान हो जाता है। जबतक इन्द्रियाँ संयत न हों और साधनमें तत्परता न हो, तबतक श्रद्धामें कमी समझनी चाहिये। यदि इन्द्रियाँ विषयोंकी तरफ जाती हैं, तो साधनमें तत्परता नहीं आती। साधनमें तत्परता न होनेसे दूसरेकी परायणता, दूसरेका आदर होता है। जबतक साधन- परायणता नहीं होती, तबतक श्रद्धा भी पूरी नहीं होती। श्रद्धा पूरी न होनेके कारण ही तत्त्वके अनुभवमें देरी लगती है, नहीं तो नित्यप्राप्त तत्त्वके अनुभवमें देरीका कारण है ही नहीं।
इसी अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान् ने गुरुके पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रणालीका वर्णन करते हुए तीन साधन बताये - प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा। यहाँ भगवान् ने ज्ञान प्राप्त करनेका एक साधन बताया है- श्रद्धा। चौंतीसवें श्लोकमें 'उपदेक्ष्यन्ति' पदसे गुरुके द्वारा केवल ज्ञानका उपदेश देनेकी बात आयी है; उपदेशसे ज्ञान प्राप्त हो जायगा, ऐसी बात वहाँ नहीं आयी। परन्तु इस श्लोकमें 'लभते' पदसे ज्ञान प्राप्त होनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि चौंतीसवें श्लोकमें कहे साधनोंसे ज्ञान प्राप्त हो जायगा-ऐसा निश्चित नहीं है; परन्तु इस श्लोकमें कहे साधनसे निश्चितरूपसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है। कारण यह है कि चौंतीसवें श्लोकमें कहे साधन बहिरंग होनेसे कपटभावसे तथा साधारणभावसे भी किये जा सकते हैं; परन्तु इस श्लोकमें कहा साधन अन्तरंग होनेसे कपटभावसे तथा साधारणभावसे नहीं किया जा सकता (गीता- सत्रहवें अध्यायका तीसरा श्लोक)। इसलिये ज्ञानकी प्राप्तिमें श्रद्धा मुख्य है।
ऐसा एक तत्त्व या बोध है, जिसका अनुभव मेरेको हो सकता है और अभी हो सकता है- यही वास्तवमें श्रद्धा है। "
"तत्त्व भी विद्यमान है, मैं भी विद्यमान हूँ और तत्त्वका अनुभव करना भी चाहता हूँ, फिर देरी किस बातकी ?
विशेष बात
बड़े आश्चर्यकी बात है कि जो नित्य-निरन्तर विद्यमान रहता है, वह तो प्रिय नहीं लगता और जो निरन्तर ही बदल रहा है, जा रहा है, वह संसार प्रिय लगता है! इसमें कारण यही है कि जिस संसारकी एक क्षण भी स्थिति नहीं है, जो निरन्तर ही अभावमें जा रहा है, उसे हम स्थायी मान लेते हैं। स्थायी माननेके कारण ही उससे स्थायी सुख लेना चाहते हैं, जो सर्वथा असम्भव है।
सुख लेनेके लिये हम संसारमें अपनापन कर लेते हैं, जो किसी भी कालमें अपना नहीं है। अपनी वस्तु वही है, जो हमसे कभी अलग नहीं होती और जिससे हम कभी अलग नहीं होते। यदि संसार अपना होता, तो प्रत्येक परिस्थिति हमारे साथ रहती। परन्तु न तो परिस्थिति हमारे साथ रहती है और न हम ही परिस्थितिके साथ रहते हैं। इसलिये वह अपनी है ही नहीं। जिन अन्तःकरण और इन्द्रियोंसे हम संसारको देखते हैं, उन्हें भी हम भूलसे अपनी मान लेते हैं। परन्तु इनपर भी हमारा कोई अधिकार नहीं चलता। अन्तःकरण और इन्द्रियोंसहित सम्पूर्ण संसार प्रलयकी ओर जा रहा है। उसकी स्थिति है ही नहीं।
संसारकी प्रतीतिमात्र होती है, इसलिये इसकी प्राप्ति कभी हो ही नहीं सकती। संसार अपने स्वरूपतक पहुँच ही नहीं सकता, पर स्वरूप सब जगह सत्तारूपसे विद्यमान रहता है। संसारका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, पर अपना अस्तित्व नित्य-निरन्तर रहता है। स्वरूपका अर्थात् अपने होनेपनका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। स्वरूप अपरिवर्तनशील है। यदि वह परिवर्तनशील होता, तो संसारके परिवर्तनको कौन देखता ? "
"हमें जैसे संसारके निरन्तर परिवर्तन और अभावका अनुभव होता है, ऐसे अपने परिवर्तन और अभावका अनुभव कभी नहीं होता। ऐसा होनेपर भी परिवर्तनशील शरीरके साथ अपनेको मिलाकर उसके परिवर्तनको भूलसे अपना परिवर्तन मान लेते हैं। शरीरके साथ सम्बन्ध मानकर शरीरकी अवस्थाको अपनी अवस्था मान लेते हैं। विचार करें कि यदि शरीरकी अवस्थाके साथ हम एक होते, तो अवस्थाके चले जानेपर हम भी चले गये होते। इससे सिद्ध होता है कि जानेवाली अवस्था दूसरी है और हम दूसरे हैं। इस प्रकारके अपने नित्यसिद्ध स्वरूपका अनुभव होना 'ज्ञान' है।
दूसरी बात, इस उनतालीसवें श्लोकमें 'लभते' पद आया है, जिसका तात्पर्य है- जिस वस्तुका निर्माण नहीं होता, ऐसी नित्यसिद्ध वस्तुकी प्राप्ति। जिस वस्तुका निर्माण होता है अर्थात् जो वस्तु पहले नहीं होती, प्रत्युत बनायी जाती है, उस वस्तुकी प्राप्तिको 'लभते' नहीं कह सकते। कारण कि जो वस्तु पहले नहीं थी तथा बादमें भी नहीं रहेगी, ऐसी वस्तुकी प्रतीति तो होती है, पर प्राप्ति नहीं होती। प्रतीत होनेवाली वस्तुको प्राप्त मान लेना अपने विवेकका सर्वथा अनादर है। जो संसारकी उत्पत्तिके पहले भी रहता है, संसारकी (उत्पन्न होकर होनेवाली) स्थितिमें भी रहता है और संसारके नष्ट होनेके बाद भी रहता है, वह तत्त्व 'है' नामसे कहा जाता है, और 'है' की प्राप्तिको ही 'लभते' कहते हैं। परन्तु जो वस्तु उत्पन्न होनेसे पहले भी नहीं थी और नष्ट होनेके बाद भी नहीं रहेगी तथा बीचमें भी निरन्तर नाशकी ओर जा रही है, वह वस्तु 'नहीं' नामसे कही जाती है। 'नहीं' की प्रतीति होती है, प्राप्ति नहीं। जो 'है', वह तो है ही और जो 'नहीं' है, वह है ही नहीं।"
"नहीं' को 'नहीं' रूपसे मानते हुए 'है' को 'है' रूपसे मान लेना श्रद्धा है, जिससे नित्यसिद्ध ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है-' श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम् ।'
'ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति'- नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान् ने निषेध-मुखसे कहा है कि श्रद्धारहित पुरुष मेरेको प्राप्त न होकर जन्म-मरणरूप संसार-चक्रमें घूमते रहते हैं। उसी बातको यहाँ विधि-मुखसे कहते हैं कि श्रद्धावान् पुरुष परमशान्तिको प्राप्त हो जाता है अर्थात् मेरेको प्राप्त होकर जन्म- मरणरूप संसार-चक्रसे छूट जाता है।
परमशान्तिका तत्काल अनुभव न होनेका कारण है-जो वस्तु अपने-आपमें है, उसको अपने-आपमें न ढूँढ़कर बाहर दूसरी जगह ढूँढ़ना। परमशान्ति प्राणिमात्रमें स्वतः सिद्ध है। परन्तु मनुष्य परमशान्ति-स्वरूप परमात्मासे तो विमुख हो जाता है और सांसारिक वस्तुओंमें शान्ति ढूँढ़ता है। इसलिये अनेक जन्मोंतक शान्तिकी खोजमें भटकते रहनेपर भी उसे शान्ति नहीं मिलती। उत्पत्ति विनाशशील वस्तुओंमें शान्ति मिल ही कैसे सकती है ? तत्त्वज्ञानका अनुभव होनेपर जब दुःखरूप संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, तब तब स्वतःसिद्ध परमशान्तिका तत्काल अनुभव हो जाता है।
परिशिष्ट भाव - ' श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम् ' - श्रद्धा-विश्वास
और विवेककी आवश्यकता सभी साधकोंके लिये हैं। हाँ, कर्मयोग तथा ज्ञानयोगमें विवेककी मुख्यता है और भक्तियोगमें श्रद्धा- विश्वासकी मुख्यता है। आरम्भमें 'तत्त्वज्ञान है'- ऐसी श्रद्धा होगी, तभी साधक उसकी प्राप्तिके लिये साधन करेगा।
सम्बन्ध-जो ज्ञानप्राप्तिका अपात्र है, ऐसे विवेकहीन संशयात्मा मनुष्यकी भगवान् आगेके श्लोकमें निन्दा करते हैं।"
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