ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 2 - कर्मयोग और संन्यास का गूढ़ सत्य
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या कर्मयोग से मोक्ष संभव है? या केवल संन्यास ही इस मार्ग का एकमात्र उपाय है? आइए आज इस गूढ़ रहस्य को समझते हैं।
पिछले श्लोक में हमने देखा कि अर्जुन ने कर्मयोग और संन्यास के बीच दुविधा को लेकर श्रीकृष्ण से सवाल पूछा। अब, आज के श्लोक में श्रीकृष्ण ने इन दोनों के महत्व को स्पष्ट किया है।
"श्रीकृष्ण कहते हैं:
'सन्न्यासः कर्मयोगश्च निष्श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥'
अर्थ: संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष का साधन हैं, लेकिन कर्मयोग संन्यास से श्रेष्ठ है।
यह श्लोक समझाता है कि कर्मयोग यानी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, भक्ति और त्याग के साथ जीवन जीना, संन्यास के मुकाबले अधिक व्यावहारिक और लाभकारी है। यह मार्ग उन लोगों के लिए है जो संसार में रहते हुए भी आध्यात्मिकता का पालन करना चाहते हैं।"
"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 2"
"कर्मसंन्यासकी अपेक्षा निष्काम कर्मयोगकी श्रेष्ठताका कथन।
(श्लोक-२)
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ॥
उच्चारण की विधि
सन्न्यासः, कर्मयोगः, च, निःश्रेयसकरौ, उभौ, तयोः, तु, कर्मसन्न्यासात्, कर्मयोगः, विशिष्यते ॥ २ ॥
सन्न्यासः अर्थात् कर्मसंन्यास, च अर्थात् और, कर्मयोगः अर्थात् कर्मयोग (ये), उभौ अर्थात् दोनों (ही), निःश्रेयसकरौ अर्थात् परम कल्याणके करनेवाले हैं, तु अर्थात् परंतु, तयोः अर्थात् उन दोनोंमें (भी), कर्मसन्न्यासात् अर्थात् कर्मसंन्याससे, कर्मयोगः अर्थात् कर्मयोग (साधनमें सुगम होनेसे), विशिष्यते अर्थात् श्रेष्ठ है।
१-अर्थात् मन, इन्द्रियों और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनका त्याग।
२-अर्थात् समत्वबुद्धिसे भगवदर्थ कर्मोंका करना।
अर्थ - श्रीभगवान् बोले-कर्मसंन्यास और कर्मयोग-ये दोनों ही परम कल्याणके करनेवाले हैं, परन्तु उन दोनोंमें भी कर्मसंन्याससे कर्मयोग साधनमें सुगम होनेसे श्रेष्ठ है ॥ २ ॥"
"व्याख्या [भगवान् के सिद्धान्तके अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोगका पालन प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके मनुष्य कर सकते हैं। कारण कि उनका सिद्धान्त किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिको लेकर नहीं है। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने कर्मोंका त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीको 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। परन्तु भगवान् के सिद्धान्तके अनुसार ज्ञान-प्राप्तिके लिये सांख्ययोगका पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रतासे कर सकता है और उसका पालन करनेमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता भी नहीं है। इसलिये भगवान् प्रचलित मतका भी आदर करते हुए अपने सिद्धान्तके अनुसार अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।]
'सन्न्यासः'- यहाँ 'सन्न्यासः' पदका अर्थ 'सांख्ययोग' है,
कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं। अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् कर्मोंके त्यागपूर्वक संन्यासका विवेचन न करके कर्म करते हुए ज्ञानको प्राप्त करनेका जो सांख्ययोगका मार्ग है, उसका विवेचन करते हैं। उस सांख्ययोगके द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिमें रहते हुए प्रत्येक परिस्थितिमें स्वतन्त्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात् अपना कल्याण कर सकता है।
सांख्ययोगकी साधनामें विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है। विवेकपूर्वक तीव्र वैराग्यके बिना यह साधना सफल नहीं होती। इस साधनामें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्वपर दृष्टि रहती है। राग मिटे बिना संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है। इसलिये भगवान् ने देहाभिमानियोंके लिये यह साधन क्लेशयुक्त बताया है (गीता- बारहवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)।"
"इसी अध्यायके छठे श्लोकमें भी भगवान् ने कहा है कि कर्मयोगका साधन किये बिना संन्यासका साधन होना कठिन है; क्योंकि संसारसे राग हटानेके लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है।
'कर्मयोगश्च'- मानवमात्रमें कर्म करनेका राग अनादिकालसे चला आ रहा है, जिसे मिटानेके लिये कर्म करना आवश्यक है (गीता-छठे अध्यायका तीसरा श्लोक)। परन्तु वे कर्म किस भाव और उद्देश्यसे कैसे किये जायँ कि करनेका राग सर्वथा मिट जाय, उस कर्तव्य-कर्मको करनेकी कलाको 'कर्मयोग' कहते हैं। कर्मयोगमें कार्य छोटा है या बड़ा, इसपर दृष्टि नहीं रहती। जो भी कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसीको निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये करना है। कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद करनेके लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये न किये जायें। अपने लिये कर्म न करनेका अर्थ है-कर्मोंके बदलेमें अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा न होना। जबतक अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा रहती है, तबतक कर्मोंके साथ सम्बन्ध बना रहता है।
'निःश्रेयसकरावुभौ' - अर्जुनका प्रश्न था कि सांख्ययोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनोंमें कौन-सा साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करनेवाला है ? उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! ये दोनों ही साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करनेवाले हैं। कारण कि दोनोंके द्वारा एक ही समताकी प्राप्ति होती है। इसी अध्यायके चौथे-पाँचवें श्लोकोंमें भी भगवान् ने इसी बातकी पुष्टि की है। तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनोंसे परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेकी बात कही है। इसलिये ये दोनों ही परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन हैं (गीता- तीसरे अध्यायका तीसरा श्लोक)।"
"तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्' - एक ही सांख्ययोगके दो भेद हैं- एक तो चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग है और दूसरा, दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं है। यहाँ 'कर्मसन्न्यासात्' पद दोनों ही प्रकारके सांख्ययोगका वाचक है।
'कर्मयोगो विशिष्यते' आगेके (तीसरे) श्लोकमें भगवान् ने इन पदोंकी व्याख्या करते हुए कहा है कि कर्मयोगी नित्यसंन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। फिर छठे श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन होना कठिन है तथा कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य है कि सांख्ययोगमें तो कर्मयोगकी आवश्यकता है, पर कर्मयोगमें सांख्ययोगकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये दोनों साधनोंके कल्याणकारक होनेपर भी भगवान् कर्मयोगको ही श्रेष्ठ बताते हैं।
कर्मयोगी लोकसंग्रहके लिये कर्म करता है - 'लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि' (गीता- तीसरे अध्यायका बीसवाँ श्लोक)। लोकसंग्रहका तात्पर्य है- निःस्वार्थभावसे लोक मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करना अर्थात् केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना। इसीको गीतामें 'यज्ञार्थ कर्म' के नामसे भी कहा गया है। जो केवल अपने लिये कर्म करता है, वह बँध जाता है (तीसरे अध्यायका नवाँ और तेरहवाँ श्लोक)। परन्तु कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है; अतः वह कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है।"
"कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो। परन्तु अर्जुन जिस कर्मसंन्यासकी बात कहते हैं, वह एक विशेष परिस्थितिमें किया जा सकता है (गीता-चौथे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक); क्योंकि तत्त्वज्ञ महापुरुषका मिलना, उनमें अपनी श्रद्धा होना और उनके पास जाकर निवास करना - ऐसी परिस्थिति हरेक मनुष्यको प्राप्त होनी सम्भव नहीं है। अतः प्रचलित प्रणालीके सांख्ययोगका साधन एक विशेष परिस्थितिमें ही साध्य है, जबकि कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके लिये साध्य है। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है।
प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्ध-जैसी घोर परिस्थितिमें भी कर्मयोगका पालन किया जा सकता है। कर्मयोगका पालन करनेमें कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें असमर्थ और पराधीन नहीं है; क्योंकि कर्मयोगमें कुछ भी पानेकी इच्छाका त्याग होता है। कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छा रहनेसे ही कर्तव्य-कर्म करनेमें असमर्थता और पराधीनताका अनुभव होता है। कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी- इन दोनोंको ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, इसलिये दोनों ही साधकोंको कर्तृत्व और भोक्तृत्व-इन दोनोंको मिटानेकी आवश्यकता है। तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होनेसे सांख्ययोगी कर्तृत्वको मिटाता है। उतना तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि न होनेसे कर्मयोगी दूसरोंके हितके लिये ही सब कर्म करके भोक्तृत्वको मिटाता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्वका त्याग करके संसारसे मुक्त होता है और कर्मयोगी भोक्तृत्वका अर्थात् कुछ पानेकी इच्छाका त्याग करके मुक्त होता है। "
"यह नियम है कि कर्तृत्वका त्याग करनेसे भोक्तृत्वका त्याग और भोक्तृत्वका त्याग करनेसे कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है। कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही कर्तृत्व होता है। जिस कर्मसे अपने लिये किसी प्रकारके भी सुखभोगकी इच्छा नहीं है, वह क्रियामात्र है, कर्म नहीं। जैसे यन्त्रमें कर्तृत्व नहीं रहता, ऐसे ही कर्मयोगीमें कर्तृत्व नहीं रहता।
साधकको संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिमें स्पष्ट ही अपना राग दीखता है। उस रागको वह अपने बन्धनका खास कारण मानता है तथा उसे मिटानेकी चेष्टा भी करता है। उस रागको मिटानेके लिये कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ आदिको अपना नहीं मानता, अपने लिये कुछ नहीं करता तथा अपने लिये कुछ नहीं चाहता।
* कर्मयोगी सेवा करनेके लिये तो सबको अपना मानता है, पर अपने लिये किसीको भी अपना नहीं मानता।
क्रियाओंसे सुख लेनेका भाव न रहनेसे कर्मयोगीकी क्रियाएँ परिणाममें सबका हित तथा वर्तमानमें सबकी प्रसन्नता और सुखके लिये ही हो जाती हैं। क्रियाओंसे सुख लेनेका भाव होनेसे क्रियाओंमें अभिमान (कर्तृत्व) और ममता हो जाती है। परन्तु उनसे सुख लेनेका भाव सर्वथा न रहनेसे कर्तृत्व समाप्त हो जाता है। कारण कि क्रियाएँ दोषी नहीं हैं, क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओंके फलको चाहना ही दोषी है। जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओंका फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है? क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्वपर। भोक्तृत्व न रहनेसे कर्तृत्व अपने उद्देश्यमें (जिसके लिये कर्म करता है, उसमें) लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है।"
"कर्मयोगीका 'अहम्' (व्यक्तित्व) शीघ्र तथा सुगमतापूर्वक नष्ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगीका 'अहम्' दूरतक साथ रहता है। कारण यह है कि 'मैं सेवक हूँ' (केवल सेव्यके लिये सेवक हूँ, अपने लिये नहीं) - ऐसा माननेसे कर्मयोगीका 'अहम्' भी सेव्यकी सेवामें लग जाता है; परन्तु 'मैं मुमुक्षु हूँ' ऐसा माननेसे ज्ञानयोगीका 'अहम्' साथ रहता है। कर्मयोगी अपने लिये कुछ न करके केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करता है, पर ज्ञानयोगी अपने हितके लिये साधन करता है। अपने हितके लिये साधन करनेसे 'अहम्' ज्यों-का-त्यों बना रहता है।
ज्ञानयोगकी मुख्य बात है- संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव
करना और कर्मयोगकी मुख्य बात है- रागका अभाव करना। ज्ञानयोगी विचारके द्वारा संसारकी सत्ताका अभाव तो करना चाहता है, पर पदार्थोंमें राग रहते हुए उसकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है। यद्यपि विचारकालमें ज्ञानयोगके साधकको पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव दीखता है, तथापि व्यवहारकालमें उन पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। परन्तु कर्मयोगके साधकका लक्ष्य दूसरोंको सुख पहुँचानेका रहनेसे उसका राग स्वतः मिट जाता है। इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्रीका त्याग करना कर्मयोगीके लिये जितना सुगम पड़ता है, उतना ज्ञानयोगीके लिये नहीं। ज्ञानयोगकी दृष्टिसे किसी वस्तुको मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है; परन्तु वही वस्तु किसीके काम आती हुई दिखायी दे तो उसका त्याग करना सुगम पड़ता है। जैसे, हमारे पास कम्बल पड़े हैं तो उन कम्बलोंको दूसरोंके काममें आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात् उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है; "
"परन्तु (यदि तीव्र वैराग्य न हो तो) उन्हीं कम्बलोंको विचारद्वारा अनित्य, क्षणभंगुर, स्वप्नके मायामय पदार्थ समझकर ऐसे ही छोड़कर चल देना कठिन है। दूसरी बात, मायामात्र समझकर त्याग करनेमें (यदि तेजीका वैराग्य न हो तो) जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि नहीं है, उन खराब वस्तुओंका त्याग तो सुगमतासे हो जाता है, पर जिनमें हमारी सुखबुद्धि है, उन अच्छी वस्तुओंका त्याग कठिनतासे होता है। परन्तु दूसरेके काम आती देखकर जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि है, उन वस्तुओंका त्याग सुगमतासे हो जाता है; जैसे- भोजनके समय थालीमेंसे रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी, बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे। परन्तु यदि वही रोटी किसी दूसरेको देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे, खराब नहीं। इसलिये कर्मयोगकी प्रणालीसे रागको मिटाये बिना सांख्ययोगका साधन होना बहुत कठिन है। विचारद्वारा पदार्थोकी सत्ता न मानते हुए भी पदार्थोंमें स्वाभाविक राग रहनेके कारण भोगोंमें फँसकर पतनतक होनेकी सम्भावना रहती है।
केवल असत् के ज्ञानसे अर्थात् असत् को असत् जान लेनेसे रागकी निवृत्ति नहीं होती * ।
* असत् को असत् जाननेसे उसकी निवृत्ति तभी होती है, जब अपने स्वरूपमें स्थित होकर असत् को असत् रूपसे जानते हैं। स्वरूपमें स्थिति करण-निरपेक्ष है। परन्तु बुद्धि आदि करणोंसे असत् को असत् जाननेसे उसकी निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि बुद्धि आदि करण भी असत् हैं। अतः असत् के ही द्वारा असत् को जाननेसे उसकी निवृत्ति कैसे हो सकती है ?
जैसे, सिनेमामें दीखनेवाले पदार्थों आदिकी सत्ता नहीं है-ऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है। सिनेमा देखनेसे चरित्र, समय, नेत्र-शक्ति और धन-इन चारोंका नाश होता है-ऐसा जानते हुए भी रागके कारण सिनेमा देखते हैं। "
"इससे सिद्ध होता है कि वस्तुकी सत्ता न होनेपर भी उसमें राग अथवा सम्बन्ध रह सकता है। यदि राग न हो तो वस्तुकी सत्ता माननेपर भी उसमें राग उत्पन्न नहीं होता। इसलिये साधकका मुख्य काम होना चाहिये - रागका अभाव करना, सत्ताका अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधनेवाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है, सत्तामात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत् से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधनेवाला हो ही जायगा। वास्तवमें हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता। बाँधता है हमारा सम्बन्ध, जो रागसे होता है। अतः हमारेपर राग मिटानेकी ही जिम्मेवारी है।
परिशिष्ट भाव - यद्यपि 'योग' के बिना कर्म और ज्ञान- दोनों ही बन्धनकारक हैं, तथापि कर्म करनेसे उतना पतन नहीं होता, जितना पतन वाचिक (सीखे हुए) ज्ञानसे होता है। वाचिक ज्ञान नरकोंमें ले जा सकता है-
अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत् । महानिरयजालेषु स तेन विनियोजितः ॥
(योगवासिष्ठ, स्थिति० ३९)
'जो बेसमझ मनुष्यको 'सब कुछ ब्रह्म है' ऐसा उपदेश देता है, वह उस मनुष्यको महान् नरकोंके जालमें डाल देता है।'
अतः वाचक ज्ञानीकी अपेक्षा कर्म करनेवाला श्रेष्ठ है। फिर जो कर्मयोगका आचरण करता है, उसकी श्रेष्ठताका तो कहना ही क्या ! ज्ञानयोगी तो केवल अपने लिये उपयोगी होता है, पर कर्मयोगी संसारमात्रके लिये उपयोगी होता है। जो संसारके लिये उपयोगी होता है, वह अपने लिये भी उपयोगी हो जाता है- यह नियम है। इसलिये कर्मयोग विशेष है। सांख्ययोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है, पर कर्मयोगके बिना सांख्ययोग होना कठिन है (गीता- पाँचवें अध्यायका छठा श्लोक)। "
"इसलिये सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोग विशेष है। सांख्ययोगसे कर्मयोग श्रेष्ठ है और कर्मयोगसे भक्तियोग श्रेष्ठ है (गीता- छठे अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक)। इसलिये गीतामें पहले सांख्ययोग, फिर कर्मयोग और फिर भक्तियोग- इस क्रमसे विवेचन किया गया है *। * भागवतमें भी यही क्रम है-
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया । ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
(श्रीमद्भा० ११।२०।६)
'अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योग-मार्ग बताये हैं- ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है।'
फलमें कर्मयोग और ज्ञानयोग एक हैं (गीता - पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक)। साधनमें कर्मयोग और भक्तियोग एक हैं - 'मैत्रः करुण एव च' (गीता १२। १३); क्योंकि कर्मयोग और भक्तियोग-दोनोंमें ही दूसरेको सुख देनेका भाव रहता है। कर्म करनेमें कर्मी और कर्मयोगी एक हैं (गीता - तीसरे अध्यायका पचीसवाँ श्लोक) तथा तत्त्वज्ञ महापुरुष और भगवान् भी कर्म करनेमें साथ हैं (गीता - तीसरे अध्यायके बाईसवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक)। इस प्रकार कर्मी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी और भगवान् - चारोंके साथ कर्मयोगी एक हो जाता है- यह कर्मयोगकी विशेषता है।
सांख्ययोगमें तो अहम् का सूक्ष्म संस्कार रह सकता है, पर कर्मयोगमें क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेसे अहम् का सूक्ष्म संस्कार भी नहीं रहता। कर्मयोगमें अकर्म (अभाव) शेष रहता है (गीता-चौथे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक) और सांख्ययोगमें आत्मा शेष रहता है (गीता - छठे अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक)।
सम्बन्ध-अब भगवान् कर्मयोगको श्रेष्ठ कहनेका कारण बताते हैं।"
कल के श्लोक में हम जानेंगे कि सच्चा त्याग क्या है और किस तरह से वह व्यक्ति सबसे अधिक शांति और संतोष प्राप्त करता है।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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