ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 3 - सच्चा त्याग और शांति का मार्ग


 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानते हैं कि सच्चा त्याग केवल कर्मों से नहीं, बल्कि मन की स्थिति से जुड़ा है? आइए, आज के श्लोक में इस गूढ़ सत्य को समझते हैं।

पिछले श्लोक में हमने कर्मयोग और संन्यास के बीच के भेद को समझा। श्रीकृष्ण ने बताया कि कर्मयोग संन्यास से श्रेष्ठ है क्योंकि यह जीवन में संतुलन लाता है।

"श्रीकृष्ण कहते हैं:

'ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥'

अर्थ: उसे सच्चा त्यागी माना जाता है जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की आकांक्षा रखता है। ऐसा व्यक्ति द्वंद्वों से परे होकर, सुखपूर्वक बंधनों से मुक्त हो जाता है।

यह श्लोक समझाता है कि सच्चा त्याग बाहरी चीजों से नहीं, बल्कि मन के भीतर के द्वंद्वों से मुक्त होने में है। ऐसा व्यक्ति ही जीवन में स्थायी शांति प्राप्त करता है।"

"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 3"

"कर्मयोगका महत्त्व ।


(श्लोक-३)


ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति । निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ 


उच्चारण की विधि


ज्ञेयः, सः, नित्यसन्न्यासी, यः, न, द्वेष्टि, न, काङ्क्षति, निर्द्वन्द्वः, हि, महाबाहो, सुखम्, बन्धात्, प्रमुच्यते ॥ ३॥


महाबाहो अर्थात् हे अर्जुन !, यः अर्थात् जो पुरुष, न अर्थात् न (किसीसे), द्वेष्टि अर्थात् द्वेष करता है (और), न अर्थात् न (किसीकी), काङ्गति अर्थात् आकांक्षा करता है, सः अर्थात् वह कर्मयोगी, नित्यसन्न्यासी अर्थात् सदा संन्यासी (ही), ज्ञेयः अर्थात् समझनेयोग्य है, हि अर्थात् क्योंकि, निर्द्धन्द्रः अर्थात् राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित (पुरुष), सुखम् अर्थात् सुखपूर्वक, बन्धात् अर्थात् संसारबन्धनसे, प्रमुच्यते अर्थात् मुक्त हो जाता है।


अर्थ - हे अर्जुन ! जो पुरुष न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ३॥"

"व्याख्या- 'महाबाहो' - 'महाबाहो' सम्बोधनके दो अर्थ होते हैं- एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुनके मित्र थे प्राणिमात्रके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोगके अनुसार सबकी सेवा करनेका बल तुम्हारेमें है। अतः तुम सुगमतासे कर्मयोगका पालन कर सकते हो।


'यो न द्वेष्टि' - कर्मयोगी वह होता है, जो किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, सिद्धान्त आदिसे द्वेष नहीं करता। कर्मयोगीका काम है सबकी सेवा करना, सबको सुख पहुँचाना। यदि उसका किसीके भी साथ किंचिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोगका आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा। अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो, उसकी सेवा कर्मयोगीको सर्वप्रथम करनी चाहिये।


सबसे पहले 'न द्वेष्टि' पद देनेका तात्पर्य यह है कि जो किसीको भी बुरा समझता है और किसीका भी बुरा चाहता है, वह कर्मयोगके तत्त्वको समझ ही नहीं सकता।


मार्मिक बात


व्याख्या- 'महाबाहो' - 'महाबाहो' सम्बोधनके दो अर्थ होते हैं-एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुनके मित्र थे प्राणिमात्रके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोगके अनुसार सबकी सेवा करनेका बल तुम्हारेमें है। अतः तुम सुगमतासे कर्मयोगका पालन कर सकते हो।"

"यो न द्वेष्टि' - कर्मयोगी वह होता है, जो किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, सिद्धान्त आदिसे द्वेष नहीं करता। कर्मयोगीका काम है सबकी सेवा करना, सबको सुख पहुँचाना। यदि उसका किसीके भी साथ किंचिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोगका आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा। अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो, उसकी सेवा कर्मयोगीको सर्वप्रथम करनी चाहिये।


सबसे पहले 'न द्वेष्टि' पद देनेका तात्पर्य यह है कि जो किसीको भी बुरा समझता है और किसीका भी बुरा चाहता है, वह कर्मयोगके तत्त्वको समझ ही नहीं सकता।


मार्मिक बात


प्राणिमात्रके हितके उद्देश्यसे कर्मयोगीके लिये बुराईका त्याग करना जितना आवश्यक है, उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है। भलाई करनेसे केवल समाजका हित होता है; परन्तु बुराईरहित होनेसे विश्वमात्रका हित होता है। कारण यह है कि भलाई करनेमें सीमित क्रियाओं और पदार्थोंकी प्रधानता रहती है; परन्तु बुराईरहित होनेमें भीतरका असीम भाव प्रधान रहता है। यदि भीतरसे बुरा भाव दूर न हुआ हो और बाहरसे भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है। भलाई करनेका अभिमान तभी पैदा होता है, जब भीतर कुछ-न-कुछ बुराई हो। जहाँ अपूर्णता (कमी) होती है, वहीं अभिमान पैदा होता है। परन्तु जहाँ पूर्णता है, वहाँ अभिमानका प्रश्न ही पैदा नहीं होता।


गहराईसे देखा जाय तो नाशवान् वस्तुओंकी सहायताके बिना भलाई नहीं की जा सकती। जिन वस्तुओंसे हम भलाई करते हैं, वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं; प्रत्युत उन्हींकी हैं, जिनकी हम भलाई करते हैं। फिर भी यदि भलाईका अभिमान होता है, तो यह नाशवान् का संग है। "

"जबतक नाशवान् का संग है, तबतक 'योग' की सिद्धि नहीं होती। मैंने भलाई की-यह अभिमान बुराईसे भी अधिक भयंकर है; क्योंकि यह भाव मैं-पनमें बैठ जाता है। कर्म और फल तो मिट जाते हैं, पर जबतक मैं-पन रहता है, तबतक मैं- पनमें बैठा हुआ भलाईका अभिमान नहीं मिटता। दूसरी बात, बुराईको तो हम बुराईरूपसे जानते ही हैं, पर भलाईको बुराईरूपसे नहीं जानते। इसलिये भलाईके अभिमानका त्याग करना बहुत कठिन है; जैसे- लोहेकी हथकड़ीका तो त्याग कर सकते हैं; पर सोनेकी हथकड़ीका त्याग नहीं कर सकते; क्योंकि वह गहनारूपसे दीखती है। इसलिये बुराईरहित होकर ही भलाई करनी चाहिये। वास्तवमें बुराईका त्याग होनेपर विश्वमात्रकी भलाई अपने-आप होती है, करनी नहीं पड़ती। इसलिये बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालयकी एकान्त गुफामें भी बैठा हो, तो भी उसके द्वारा विश्वका बहुत हित होता है।


'न काङ्क्षति' - कर्मयोगमें कामनाका त्याग मुख्य है।


कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी कामना नहीं करता। कामना-त्याग और परहितमें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। निष्काम होनेके लिये दूसरेका हित करना आवश्यक है। दूसरेका हित करनेसे कामनाके त्यागका बल आता है।


कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ताके अधीन होते हैं, इसलिये कर्मोंकी अभिव्यक्ति कर्तासे ही होती है। निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्काम-कर्म होते हैं, जिसे कर्मयोग कहते हैं। अतः चाहे 'कर्मयोग' कहें या 'निष्काम कर्म' - दोनोंका अर्थ एक ही होता है। "

"सकाम कर्मयोग होता ही नहीं। निष्काम होनेसे कर्ता कर्मफलसे असंग रहता है; परन्तु जब कर्तामें सकामभाव आ जाता है, तब वह कर्मफलसे बँध जाता है (गीता - पाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक)।  सकामभाव तभी नष्ट होता है, जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म दूसरोंके हितके लिये ही करता है। इसलिये कर्ताका भाव नित्य-निरन्तर निष्काम रहना चाहिये। कर्तामें जितना निष्कामभाव होगा, उतना ही कर्मयोगका सही आचरण होगा। कर्ताके सर्वथा निष्काम होनेपर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है।


'ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी' - अर्जुनने युद्ध न करके भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करनेकी इच्छा प्रकट की थी - 'गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके' (गीता २।५) अर्थात् गुरुजनोंको न मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्ठ है। भगवान् उसी बातका उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! वह संन्यास तो गुरुजनोंके मर जानेके भयसे किया जानेवाला बाहरी संन्यास है, पर कर्मयोगीका संन्यास राग-द्वेषके त्यागसे होनेवाला नित्य संन्यास अर्थात् भीतरी एवं सच्चा संन्यास है।


आगे छठे अध्यायके पहले श्लोकमें भी भगवान् ने केवल अग्निका त्याग करनेवाले अर्थात् संन्यास आश्रममात्र ग्रहण करनेवाले पुरुषको संन्यासी न कहकर भीतरसे संसारके आश्रयका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको ही संन्यासी कहा है।


इस प्रकार भगवान् के मतमें कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है।


कर्म करते हुए भी कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध न रखना ही संन्यास है। कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध न रखनेवालेको कर्मोंका फल कभी किसी अवस्थामें किंचिन्मात्र भी नहीं मिलता-"

" 'न तु सन्न्यासिनां क्वचित्' (गीता १८। १२)। 


इसलिये शास्त्र-विहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है।


कर्मयोगका अनुष्ठान किये बिना सांख्ययोगका पालन करना कठिन है। इसलिये सांख्ययोगका साधक पहले कर्मयोगी होता है, फिर संन्यासी (सांख्ययोगी) होता है। परन्तु कर्मयोगके साधकके लिये सांख्ययोगका अनुष्ठान करना आवश्यक नहीं है। इसलिये कर्मयोगी आरम्भसे ही संन्यासी है।


जिसके राग-द्वेषका अभाव हो गया है, उसे संन्यास- आश्रममें जानेकी आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं है-ऐसा निश्चय होनेके बाद राग-द्वेष मिटकर ऐसा ही यथार्थ अनुभव हो जाता है, फिर व्यवहारमें संसारसे सम्बन्ध दीखनेपर भी भीतरसे (राग-द्वेष न रहनेसे) सम्बन्ध होता ही नहीं। यही 'नित्यसंन्यास' है। लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगीका संसारसे सर्वथा संन्यास रहता है, इसलिये वह नित्यसंन्यासी ही समझनेयोग्य है।


संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात् लिप्तताका अभाव ही संन्यास है और कर्मयोगीमें राग-द्वेष न रहनेसे संसारसे लिप्तता रहती ही नहीं। अतः कर्मयोगी नित्यसंन्यासी है। 


'निर्द्धन्द्रो हि...........सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' * - साधनाके आरम्भमें साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व रहता है।


* गीतामें आये 'कर्मबन्धं प्रहास्यसि' (२। ३९); 'त्रायते महतो भयात्' (२। ४०); 'जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते' (२। ५०); 'मोक्ष्यसेऽशुभात्' (४। १६, ९।१); 'वृजिनं संतरिष्यसि' (४। ३६); नाप्नुवन्ति दुःखालयमशाश्वतम्' (८। १५);"

"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः' (९। २८); 'मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता भवामि' (१२। ७) आदि पद यहाँ आये 'बन्धात् प्रमुच्यते' पदोंके ही पर्यायवाची हैं।


सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करनेसे वह परमात्मप्राप्तिको अपना ध्येय तो मान लेता है, पर उसके अपने कहलाने वाले मन, इन्द्रियों आदिकी रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करनेमें रहती है। इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रहको। उसे जैसा संग मिलता है, उसीके अनुसार उसके भावोंमें परिवर्तन होता रहता है। ऐसा होनेपर भी वह भोगोंको शान्तिसे नहीं भोग सकता; क्योंकि सत्संग आदिके संस्कार उसके अन्तःकरणमें वैराग्य (भोगोंसे अरुचि) पैदा करते रहते हैं। इस प्रकार साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व (भोग भोगूँ या साधन करूँ) चलता रहता है। इस द्वन्द्वपर ही अहंभाव टिका हुआ है। हमें सांसारिक भोग और संग्रहमें लगना ही नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है-ऐसा दृढ़ निश्चय होनेपर द्वन्द्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्वमें लीन हो जाता है। वास्तवमें संसारका महत्त्व अन्तःकरणमें अंकित हो जानेसे ही द्वन्द्व रहता है। भोग भोगते रहनेसे, दूसरोंसे सुख चाहते रहनेसे संसारके प्राणी-पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है। उनसे सुख लेनेसे वह महत्त्व बढ़ता जाता है, जिससे उनको प्राप्त करनेकी रुचि प्रबल हो जाती है। वह रुचि एक परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती। इससे साधकमें द्वन्द्व बना रहता है। उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये साधकको यह पक्का विचार करना चाहिये कि  "

"कितना ही सुख, आराम, भोग क्यों न मिल जाय, मुझे उसे लेना ही नहीं है, प्रत्युत परहितके लिये उसका त्याग करना है। यह विचार जितना दृढ़ होगा, उतना ही साधक निर्द्वन्द्व होगा।


निर्द्वन्द्व होनेकी मुख्य बात इसी श्लोकमें 'न द्वेष्टि न काङ्गति' पदोंसे कही गयी है; जिसका तात्पर्य है- राग- द्वेषसे रहित होना। राग-द्वेषको मिटानेके लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहनेपर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात् अपने चाहनेपर अनुकूलता आती हो-ऐसी बात नहीं है और न चाहनेपर प्रतिकूलता न आती हो-ऐसी बात भी नहीं है। अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्धके फलस्वरूप आती-जाती रहती है, फिर इसके आने अथवा जानेकी चाहना क्यों करें? अनुकूलताके प्रति राग और प्रतिकूलताके प्रति द्वेष अपनी भूलसे होता है। इस प्रकार विचार करनेसे भूल मिटकर राग-द्वेष सर्वथा समाप्त हो जाते हैं।


दूसरी बात यह है कि अपनी (स्वयंकी) सत्ता स्वतन्त्र है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, क्रियाके अधीन नहीं है; क्योंकि सुषुप्ति-अवस्थामें जब हम संसारको भूल जाते हैं, तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है; जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थामें भी हम प्राणी, पदार्थके बिना रह सकते हैं। फिर (अपनी स्वतन्त्र सत्ता होते हुए भी) उनमें राग-द्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें ? इस प्रकार विचार करनेसे भी राग-द्वेष मिट जाते हैं। संसारका राग उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है। यह राग कभी स्थायी नहीं रहता; किन्तु हम नये-नये प्राणी, पदार्थोंमें राग करके इसे बनाये रखनेकी चेष्टा करते हैं। परन्तु परमात्माकी अभिलाषा उत्पन्न और नष्ट होनेवाली नहीं है; क्योंकि "

"परमात्माका ही अंश होनेके नाते जीवका परमात्मासे अखण्ड सम्बन्ध है। परमात्माकी अभिलाषा कभी घटती बढ़ती भी नहीं। केवल संसारमें राग अधिक होनेपर वह घटती हुई और राग कम होनेपर वह बढ़ती हुई दीखती है। इसलिये 'मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान लूँ; मैं सदा सुखी रहूँ' - इस रूपमें सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्माकी अभिलाषा जीवमात्रमें निरन्तर रहती है। जब संसारका राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्माकी अभिलाषा रह जाती है, तब द्वन्द्व नहीं रहता। 


कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनों ही योग-मार्गोंमें निर्द्वन्द्व होना बहुत आवश्यक है। जबतक द्वन्द्व है, तबतक मुक्ति नहीं होती (गीता - सातवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें राग और द्वेष- ये दो शत्रु हैं (गीता-तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटनेसे सुखपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।


संसारमें उलझनेके दो ही कारण हैं- राग और द्वेष। जितने भी साधन हैं, सब राग-द्वेषको मिटानेके लिये ही हैं।


* एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः । युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थी यदसंगस्तु कृत्स्नशः ॥


(श्रीमद्भा० ३। ३२ । २७)


'योगियोंके समस्त योग-साधनोंका एकमात्र अभीष्ट फल है- सम्पूर्ण संसारमें आसक्तिका अभाव हो जाना।'


राग-द्वेषके मिटनेपर नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति स्वतः सिद्ध है। इसमें परिश्रम है ही नहीं। कारण कि परमात्म-तत्त्वकी अनुभूति असत् के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत असत् के त्यागसे होती है। "

"असत् की सत्ता राग-द्वेषपर ही टिकी हुई है। असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है, पर अपनेमें राग-द्वेषको पकड़नेसे संसार स्थिर दीखता है। अतः जो संसार निरन्तर मिट रहा है, उसमें राग-द्वेष न रहनेसे मुक्ति नहीं होगी तो क्या होगा ? इसलिये निर्द्वन्द्व अर्थात् राग- द्वेषसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।


परिशिष्ट भाव-बाहरके सुख-दुःख (सुखदायी- दुःखदायी परिस्थिति) में सम और भीतरके सुख-दुःखसे रहित होना 'निर्द्वन्द्व' अर्थात् द्वन्द्वरहित होना है।


तादात्म्यमें चेतन-अंशकी मुख्यतासे 'जिज्ञासा' रहती है और जड़-अंशकी मुख्यतासे 'कामना' रहती है। मनुष्यमें भूख तो अविनाशी-तत्त्वकी रहती है, पर रुचि नाशवान् की रहती है; क्योंकि अविनाशीकी भूखको वह नाशवान् के द्वारा मिटाना चाहता है। भूख और रुचिका यह द्वन्द्व मनुष्यके संसार-बन्धनको दृढ़ करता है। जब मनुष्यका संसारमें राग- द्वेष नहीं रहता, तब उसकी जिज्ञासा पूर्ण हो जाती है और कामना मिट जाती है अर्थात् वह निर्द्वन्द्व हो जाता है।


सम्बन्ध-इस अध्यायके दूसरे श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनोंको परम कल्याण करनेवाले बताया। उसकी व्याख्या अब आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।"

कल के श्लोकों में हम जानेंगे कि कर्मयोग और संन्यास के मार्ग अलग दिखने पर भी कैसे समान उद्देश्य की ओर ले जाते हैं।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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