ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 4 से 5 - कर्मयोग और संन्यास का अद्वितीय सामंजस्य
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या कर्मयोग और संन्यास केवल अलग-अलग मार्ग हैं, या फिर वे एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं? आइए, आज के श्लोकों में श्रीकृष्ण के इस रहस्य को समझते हैं।
पिछले श्लोक में हमने सीखा कि सच्चा त्याग द्वेष और आकांक्षाओं से मुक्त होने में है। श्रीकृष्ण ने बताया कि सच्चा त्यागी वही है, जो मन की स्थिरता प्राप्त करता है।
"श्लोक 4:
'सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकं अप्यास्थित: सम्यग् उभयो: विन्दते फलम्॥'
अर्थ:
मूर्ख लोग कहते हैं कि सांख्य (ज्ञानमार्ग) और योग (कर्ममार्ग) अलग हैं, लेकिन ज्ञानी इसे एक ही समझते हैं। जो इनमें से किसी एक को सही ढंग से अपनाता है, वह दोनों के लाभ प्राप्त करता है।
श्लोक 5:
'यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तत्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥'
अर्थ:
जो स्थान ज्ञान से प्राप्त होता है, वही स्थान कर्म से भी प्राप्त किया जा सकता है। जो इन दोनों को समान दृष्टि से देखता है, वही सच्चा देखता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि चाहे व्यक्ति ज्ञान के मार्ग पर चले या कर्म के, अंतिम लक्ष्य आत्मा की शुद्धि और परमात्मा का साक्षात्कार ही है।"
"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 4 से 5"
"फलमें सांख्ययोग और निष्काम कर्मयोगकी एकता ।
(श्लोक-४)
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
उच्चारण की विधि
साङ्ख्ययोगौ, पृथक्, बालाः, प्रवदन्ति, न, पण्डिताः, एकम्, अपि, आस्थितः, सम्यक्, उभयोः, विन्दते, फलम् ॥ ४॥
साङ्ख्ययोगौ अर्थात् संन्यास और कर्मयोगको, बालाः अर्थात् मूर्खलोग, पृथक् अर्थात् पृथक्- पृथक् (फल देनेवाले), प्रवदन्ति अर्थात् कहते हैं, न अर्थात् न (कि), पण्डिताः अर्थात् पण्डितजन, हि अर्थात् क्योंकि (दोनोंमेंसे), एकम् अर्थात् एकमें, अपि अर्थात् भी, सम्यक् आस्थितः अर्थात् सम्यक् प्रकारसे स्थित (पुरुष), उभयोः अर्थात् दोनोंके, फलम् अर्थात् फलरूप (परमात्माको), विन्दते अर्थात् प्राप्त होता है।
अर्थ - उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोगको मूर्खलोग पृथक् पृथक् फल देनेवाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनोंमेंसे एकमें भी सम्यक् प्रकारसे स्थित पुरुष दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त होता है ॥ ४ ॥"
"व्याख्या-'साङ्ख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति पण्डिताः' - इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करनेके साधनको 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। भगवान् ने भी दूसरे श्लोकमें अपने सिद्धान्तकी मुख्यता रखते हुए उसे 'संन्यास' और 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। अब उस साधनको भगवान् यहाँ 'सांख्य' नामसे कहते हैं। भगवान् शरीर-शरीरीके भेदका विचार करके स्वरूपमें स्थित होनेको 'सांख्य' कहते हैं। भगवान् के मतमें 'संन्यास' और 'सांख्य' पर्यायवाची हैं, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता नहीं है।
अर्जुन जिसे 'कर्मसंन्यास' नामसे कह रहे हैं, वह भी निःसन्देह भगवान् के द्वारा कहे 'सांख्य' का ही एक अवान्तर भेद है। कारण कि गुरुसे सुनकर भी साधक शरीर-शरीरीके भेदका ही विचार करता है।
'बालाः' पदसे भगवान् यह कहते हैं कि आयु और बुद्धिमें बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले मानते हैं, वे बालक अर्थात् बेसमझ ही हैं।
जिन महापुरुषोंने सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको ठीक-ठीक समझा है, वे ही पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् हैं। वे लोग दोनोंको अलग-अलग फलवाले नहीं कहते; क्योंकि वे दोनों साधनोंकी प्रणालियोंको न देखकर उन दोनोंके वास्तविक परिणामको देखते हैं।
साधन-प्रणालीको देखते हुए स्वयं भगवान् ने तीसरे अध्यायके तीसरे श्लोकमें सांख्ययोग और कर्मयोगको दो प्रकारका साधन स्वीकार किया है। दोनोंकी साधन-प्रणाली तो अलग-अलग है, पर साध्य अलग-अलग नहीं है।"
"एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्'- गीतामें जगह- जगह सांख्ययोग और कर्मयोगका परमात्मप्राप्तिरूप फल एक ही बताया गया है। तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें दोनों साधनोंसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव होना बताया गया है। तीसरे अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें कर्मयोगीके लिये परमात्माकी प्राप्ति बतायी गयी है और बारहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें ज्ञानयोगीके लिये परमात्माकी प्राप्ति बतायी गयी है। इस प्रकार भगवान् के मतमें दोनों साधन एक ही फलवाले हैं।
परिशिष्ट भाव-जो अन्य शास्त्रीय बातोंको तो जानता है, पर सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको गहराईसे नहीं जानता, वह वास्तवमें बालक अर्थात् बेसमझ है।
गीताभरमें अविनाशी तत्त्वके लिये 'फल' शब्द इसी श्लोक में आया है। 'फल' शब्दका अर्थ है- परिणाम। कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों साधनोंसे प्राप्त होनेवाले तत्त्वको 'फल' कहनेका तात्पर्य है कि इन दोनों साधनोंमें मनुष्यका अपना उद्योग मुख्य है। ज्ञानयोगमें विवेकरूप उद्योग मुख्य है और कर्मयोगमें परहितकी क्रियारूप उद्योग मुख्य है। साधकका अपना उद्योग, परिश्रम सफल हो गया, इसलिये इसको 'फल' कहा गया है। यह फल नष्ट होनेवाला नहीं है। कर्मयोग तथा ज्ञानयोग- दोनोंका फल आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान है।
कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है और कुछ न करना ज्ञानयोग है। कुछ न करनेसे जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्ति कर्तव्य-कर्म करनेसे हो जाती है। 'करना' और 'न करना' तो साधन हैं और इनसे जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती है, वह साध्य है।"
"(श्लोक-५)
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
उच्चारण की विधि
यत्, साङ्ख्यैः, प्राप्यते, स्थानम्, तत्, योगैः, अपि, गम्यते, एकम्, साङ्ख्यम्, च, योगम्, च, यः, पश्यति, सः, पश्यति ॥ ५ ॥
साङ्ख्यैः अर्थात् ज्ञानयोगियोंद्वारा, यत् अर्थात् जो, स्थानम् अर्थात् परमधाम, प्राप्यते अर्थात् प्राप्त किया जाता है, योगैः अर्थात् कर्मयोगियोंद्वारा, अपि अर्थात् भी, तत् अर्थात् वही, गम्यते अर्थात् प्राप्त किया जाता है (इसलिये), यः अर्थात् जो पुरुष, साङ्ख्यम् अर्थात् ज्ञानयोग, च अर्थात् और, योगम् अर्थात् कर्मयोगको (फलरूपमें), एकम् अर्थात् एक, पश्यति अर्थात् देखता है, सः अर्थात् च वही (यथार्थ), पश्यति अर्थात् देखता है।
अर्थ - ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही यथार्थ देखता है ॥ ५ ॥"
"व्याख्या 'यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते'- पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें भगवान् ने कहा था कि एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनोंके फलरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। उसी बातकी पुष्टि भगवान् उपर्युक्त पदोंमें दूसरे ढंगसे कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं।
संसारमें जो यह मान्यता है कि कर्मयोगसे कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोगसे ही होता है- इस मान्यताको दूर करनेके लिये यहाँ 'अपि' अव्ययका प्रयोग किया गया है।
सांख्ययोगी और कर्मयोगी- दोनोंका ही अन्तमें कर्मोंसे अर्थात् क्रियाशील प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेद होता है। प्रकृतिसे सम्बन्ध- विच्छेद होनेपर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधनकालमें भी सांख्ययोगका विवेक (जड़-चेतनका सम्बन्ध-विच्छेद) कर्मयोगीको अपनाना पड़ता है और कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कर्म न करनेकी पद्धति) सांख्ययोगीको अपनानी पड़ती है। सांख्ययोगका विवेक प्रकृति-पुरुषका सम्बन्ध विच्छेद करनेके लिये होता है और कर्मयोगका कर्म संसारकी सेवाके लिये होता है। सिद्ध होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी- दोनोंकी एक स्थिति होती है; क्योंकि दोनों ही साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं (गीता-तीसरे अध्यायका तीसरा श्लोक)।
संसार विषम है। घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सांसारिक सम्बन्धमें भी विषमता रहती है। परन्तु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्माकी प्राप्ति संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर ही होती है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये दो योगमार्ग हैं- ज्ञानयोग और कर्मयोग। "
"मेरे सत्-स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना-आसक्ति अभावमें ही पैदा होती है-ऐसा समझकर असंग हो जाय-यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओंमें साधकका राग है, उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें खर्च कर दे और जिन व्यक्तियोंमें राग है, उनकी निःस्वार्थभावसे सेवा कर दे - यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा और कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
'एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति' - पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने व्यतिरेक रीतिसे कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोगको बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देनेवाले कहते हैं। उसी बातको अब अन्वय रीतिसे कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनोंको फलदृष्टिसे एक देखता है, वही यथार्थरूपमें देखता है।
इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोकका सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनोंको स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनोंका फल एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकताको न जाननेवाले मनुष्यको भगवान् बेसमझ कहते हैं और इसे जाननेवालेको भगवान् यथार्थ जाननेवाला (बुद्धिमान्) कहते हैं।
विशेष बात
किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग- ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।
जो निरन्तर मर रहा है अर्थात् जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है; उस शरीरमें मरनेका भय नहीं हो सकता; और जो नित्य-निरन्तर रहता है, उस स्वरूपमें जीनेकी इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीनेकी इच्छा और मरनेका भय किसे होता है? जब स्वरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसमें जीनेकी इच्छा और मरनेका भय उत्पन्न हो जाता है। "
"जीनेकी इच्छा और मरनेका भय- ये दोनों 'ज्ञानयोग' से (विवेकद्वारा) मिट जाते हैं। पानेकी इच्छा उसमें होती है, जिसमें कोई अभाव होता है। अपना स्वरूप भावरूप है, उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता, इसलिये स्वरूपमें कभी पानेकी इच्छा नहीं होती। पानेकी इच्छा न होनेसे उसमें कभी करनेका राग उत्पन्न नहीं होता। स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है, जिससे उसमें पानेकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है और पानेकी इच्छासे करनेका राग उत्पन्न हो जाता है। पानेकी इच्छा और करनेका राग ये दोनों 'कर्मयोग' से मिट जाते हैं।
ज्ञानयोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनोंमेंसे किसी एक साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग- ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।
परिशिष्ट भाव - सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनों साधन लौकिक होनेसे एक ही हैं। सांख्ययोगमें साधक चिन्मयतामें स्थित होता है और चिन्मयतामें स्थित होनेपर जड़ताका त्याग हो जाता है। कर्मयोगमें साधक जड़ताका त्याग करता है और जड़ताका त्याग होनेपर चिन्मयतामें स्थिति हो जाती है। इस प्रकार सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनों ही साधनोंके परिणाममें चिन्मयताकी प्राप्ति अर्थात् चिन्मय स्वरूपमें स्थितिका अनुभव हो जाता है।
शरीरको संसारकी सेवामें लगा देना कर्मयोग है और शरीरसे स्वयं अलग हो जाना ज्ञानयोग है। चाहे शरीरको संसारकी सेवामें लगा दें, चाहे शरीरसे स्वयं अलग हो जायँ- दोनोंका परिणाम एक ही होगा अर्थात् दोनों ही साधनोंसे संसारसे सम्बन्ध विच्छेद होकर स्वरूपमें स्थिति हो जायगी।"
"यहाँ चौथे-पाँचवें श्लोकोंमें चौथे श्लोकके पूर्वार्धका सम्बन्ध पाँचवें श्लोकके उत्तरार्धके साथ है और पाँचवें श्लोकके पूर्वार्धका सम्बन्ध चौथे श्लोकके उत्तरार्धके साथ है।
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- इन तीन साधनोंमें ज्ञानयोग और भक्तियोगका प्रचार तो अधिक है, पर कर्मयोगका प्रचार बहुत कम है। भगवान् ने भी गीतामें कहा है कि 'बहुत समय बीत जानेके कारण यह कर्मयोग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया है (चौथे अध्यायका दूसरा श्लोक)। इसलिये कर्मयोगके सम्बन्धमें यह धारणा बनी हुई है कि यह परमात्मप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन नहीं है। अतः कर्मयोगका साधक या तो ज्ञानयोगमें चला जाता है अथवा भक्तियोगमें चला जाता है; जैसे-
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता। मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ।।
(श्रीमद्भा० ११।२०।९)
'तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक भोगोंसे वैराग्य न हो जाय, (ज्ञानयोगका अधिकारी न बन जाय) अथवा मेरी लीला-कथाके श्रवणादिमें श्रद्धा न हो जाय (भक्तियोगका अधिकारी न बन जाय)।'
परन्तु यहाँ भगवान् ज्ञानयोगकी तरह कर्मयोगको भी परमात्मप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बता रहे हैं। उपर्युक्त चौथे-पाँचवें श्लोकोंके सिवाय गीतामें अनेक जगह कर्मयोगके द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक तत्त्वज्ञान, परमशान्ति, मुक्ति अथवा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेकी बात आयी है; जैसे- 'तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति' (४। ३८), 'योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति' (५। ६), 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' (४। २३),"
" 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः' (४। १९), 'युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्' (५।१२) ।
श्रीमद्भागवतमें भी कर्मयोगको परमात्मप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताया गया है-
स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैरनाशीः काम उद्धव । न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत् ॥
(११।२०।१०)
'जो स्वधर्ममें स्थित रहकर तथा भोगोंकी कामनाका त्याग करके अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा भगवान् का पूजन करता है तथा सकामभावपूर्वक कोई कर्म नहीं करता, उसको स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता अर्थात् वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।'
अस्मिँल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः । ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्भक्तिं वा यदृच्छया ।॥
(११।२०।११)
'स्वधर्ममें स्थित वह कर्मयोगी इस लोकमें सब कर्तव्य कर्मोंका आचरण करते हुए भी पाप-पुण्यसे मुक्त होकर बिना परिश्रमके तत्त्वज्ञानको अथवा परमप्रेम (पराभक्ति) को प्राप्त कर लेता है।'
तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोग साधकको ज्ञानयोग अथवा भक्तियोगका अधिकारी भी बना देता है और स्वतन्त्रतासे कल्याण भी कर देता है। दूसरे शब्दोंमें, कर्मयोगसे साधन-ज्ञान अथवा साधन-भक्तिकी प्राप्ति भी हो सकती है और साध्य ज्ञान (तत्त्वज्ञान) अथवा साध्य-भक्ति (परमप्रेम या पराभक्ति) की प्राप्ति भी हो सकती है।
सम्बन्ध-इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान् ने संन्यास- (सांख्ययोग) की अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया। अब उसी बातको दूसरे प्रकारसे कहते हैं।"
कल हम जानेंगे कि त्याग और कर्मयोग के बीच का संतुलन कैसे व्यक्ति को शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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