ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 19 समानता की शिक्षा
"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे विशेष शो में, जहाँ हम भगवद् गीता के श्लोकों को सरल भाषा में समझते हैं और जीवन में उन्हें लागू करना सीखते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 5, श्लोक 19 की, जहाँ समानता और ज्ञान की महिमा का वर्णन किया गया है।
पिछले वीडियो में हमने श्लोक 18 की व्याख्या की थी, जिसमें आत्मा की समानता और विभिन्न दृष्टिकोणों को समझने की बात की गई थी।
श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को सिखा रहे हैं कि ज्ञान के माध्यम से हर प्राणी को समान दृष्टि से देखने की शक्ति प्राप्त होती है। चाहे वह विद्वान हो, ब्राह्मण हो, गज हो, या फिर कुत्ता—आत्मा सभी में एक समान है।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 19"
"(श्लोक-१९)
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
उच्चारण की विधि - इह, एव, तैः, जितः, सर्गः, येषाम्, साम्ये, स्थितम्, मनः, निर्दोषम्, हि, समम्, ब्रह्म, तस्मात्, ब्रह्मणि, ते, स्थिताः ॥ १९ ॥
येषाम् अर्थात् जिनका, मनः अर्थात् मन, साम्ये अर्थात् समभावमें, स्थितम् अर्थात् स्थित है, तैः अर्थात् उनके द्वारा, इह अर्थात् इस जीवित अवस्थामें, एव अर्थात् ही, सर्गः अर्थात् सम्पूर्ण संसार, जितः अर्थात् जीत लिया गया है, हि अर्थात् क्योंकि, ब्रह्म अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा, निर्दोषम् अर्थात् निर्दोष (और), समम् अर्थात् सम है, तस्मात् अर्थात् इससे, ते अर्थात् वे, ब्रह्मणि अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मामें (ही), स्थिताः अर्थात् स्थित हैं।
अर्थ - जिनका मन समभावमें स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं ॥ १९ ॥"
"व्याख्या 'येषां साम्ये स्थितं मनः'- परमात्मतत्त्व अथवा स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होनेपर जब मन-बुद्धिमें राग-द्वेष, कामना, विषमता आदिका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब मन-बुद्धिमें स्वतः स्वाभाविक समता आ जाती है, लानी नहीं पड़ती। बाहरसे देखनेपर महापुरुष और साधारण पुरुषमें खाना-पीना, चलना-फिरना आदि व्यवहार एक-सा ही दीखता है, पर महापुरुषोंके अन्तःकरणमें निरन्तर समता, निर्दोषता, शान्ति आदि रहती है और साधारण पुरुषोंके अन्तःकरणमें विषमता, दोष, अशान्ति आदि रहती है।
जैसे, पूर्वमें और पश्चिममें - दोनों ओर पर्वत हों, तो पूर्वमें सूर्यका उदय होना नहीं दीखता; परन्तु पश्चिममें स्थित पर्वतकी चोटीपर प्रकाश दीखनेसे सूर्यके उदय होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता। कारण कि सूर्यका उदय हुए बिना पश्चिमके पर्वतपर प्रकाश दीखना सम्भव ही नहीं। ऐसे ही जिनके मन-बुद्धिपर मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख आदिका कोई असर नहीं पड़ता तथा जिनके मन-बुद्धि राग- द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित हैं, उनकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति अवश्य होती है। कारण कि स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिके बिना मन-बुद्धिमें अटल और एकरस समताका रहना सम्भव ही नहीं है।
'इहैव तैर्जितः सर्गः'- यहाँ 'तैः' पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर सकते हैं और सम्पूर्ण संसारपर विजय प्राप्त कर सकते हैं।"
"इह एव' पदोंका तात्पर्य है कि मनुष्य जीते-जी वर्तमानमें ही, यहीं संसारको जीत सकता है अर्थात् संसारसे मुक्त हो सकता है।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि सब 'पर' हैं और जो इनके अधीन रहता है, उसे 'पराधीन' कहते हैं। इन शरीरादि वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि होना तथा इनकी आवश्यकताका अनुभव करना अर्थात् इनकी कामना करना ही इनके अधीन होना है। पराधीन पुरुष ही वास्तवमें पराजित (हारा हुआ) है। जबतक पराधीनता नहीं छूटती, तबतक वह पराजित ही रहता है।
जिसके मनमें सांसारिक वस्तुओंकी कामना है, वह मनुष्य अगर दूसरे प्राणी, राज्य आदिपर विजय प्राप्त कर ले तो भी वह वास्तवमें पराजित ही है। कारण कि वह उन पदार्थोंमें महत्त्वबुद्धि रखता है और अपने जीवनको उनके अधीन मानता है। शरीरसे विजय तो पशु भी प्राप्त कर लेता है, पर वास्तविक विजय हृदयसे वस्तुकी अधीनता दूर होनेपर ही प्राप्त होती है।
पराजित व्यक्ति ही दूसरेको पराजित करना चाहता है, दूसरेको अपने अधीन बनाना चाहता है। वास्तवमें अपनेको पराजित किये बिना कोई दूसरेको पराजित कर ही नहीं सकता; जैसे-कोई राजा या विद्वान् किसी दूसरेपर विजय प्राप्त करना चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी सेना, सामर्थ्य, बुद्धि, विद्या आदिका सहारा लेना ही पड़ता है। कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है। यह पराधीनता कामनाकी पूर्ति न होनेपर "
"अथवा पूर्ति होनेपर - दोनों ही अवस्थाओंमें ज्यों-की-त्यों रहती है। कामनाकी पूर्ति न होनेपर मनुष्य वस्तुके अभावके कारण पराधीनताका अनुभव करता है और कामनाकी पूर्ति होनेपर अर्थात् वस्तुके मिलनेपर वह उस वस्तुके पराधीन हो जाता है; क्योंकि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुमात्र 'पर' है। कामनाकी पूर्ति न होनेपर तो मनुष्यको पराधीनताका अनुभव होता है, पर कामनाकी पूर्ति होनेपर बुद्धिमें ऐसा अँधेरा छा जाता है कि पराधीन रहते हुए भी मनुष्यको पराधीनताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत स्वाधीनताका अनुभव होता है !
ज्ञानी महापुरुषमें कामनाका सर्वथा अभाव होनेसे वह पूर्णतः स्वाधीन हो जाता है। स्वाधीन पुरुष ही विजयी होता है। परन्तु स्वाधीन पुरुषके मनमें कभी किसीको पराजित करनेका भाव नहीं आता। वह संसारकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकताका अनुभव नहीं करता, प्रत्युत संसार ही उसकी आवश्यकताका अनुभव करता है।
जिसने संसारको जीत लिया है, ऐसे समदर्शी महापुरुषको संसारका बड़ा-से-बड़ा सुख (प्रलोभन) भी आकृष्ट नहीं कर सकता और बड़ा-से-बड़ा दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता-छठे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)।
उसके मनमें संसारके किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी किंचिन्मात्र भी कामना, वासना, स्पृहा, तृष्णा आदि नहीं रहती। यद्यपि उसे अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होता है तथा उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी होती है,"
"तथापि अनुकूलता-प्रतिकूलताका उसके अन्तःकरणपर कोई असर नहीं पड़ता। 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म' - परमात्मतत्त्वमें दोष, विकार या विषमता है ही नहीं। जितने भी दोष या विषमताएँ आती हैं, वे सब प्रकृतिसे रागपूर्वक सम्बन्ध माननेसे ही आती हैं। परमात्मतत्त्व प्रकृतिके सम्बन्धसे सर्वथा निर्लिप्त है, इसलिये उसमें किंचिन्मात्र भी दोष या विषमता नहीं है।
'तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः' - परमात्मतत्त्व निर्दोष और सम है, इसलिये जिन महापुरुषोंका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो गया है, वे परमात्मतत्त्वमें ही स्थित हैं।
असत् के संगसे ही सम्पूर्ण दोषों और विषमताओंकी उत्पत्ति होती है। संसार असत् है। असत् उसे कहते हैं, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मूलमें जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। असत् से सम्बन्ध (तादात्म्य) रहते हुए दोषों और विषमताओंसे बचना असम्भव है। महापुरुषोंके अन्तःकरणमें असत् का महत्त्व न रहनेसे उनपर असत् का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असत् का कोई प्रभाव न पड़नेसे उनका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो जाता है। निर्दोष और सम होनेसे उनकी परमात्मतत्त्वमें स्वतः स्वाभाविक स्थिति हो जाती है, जो कि पहलेसे ही है। जैसे जहाँ धुआँ है, वहाँ अग्नि अवश्य है; क्योंकि अग्निके बिना धुआँ सम्भव ही नहीं, ऐसे ही जिनके अन्तःकरणमें समता है, वे अवश्य ही परमात्मतत्त्वमें स्थित हैं; क्योंकि परमात्मतत्त्वमें स्थिति हुए बिना पूर्ण समता आनी सम्भव ही नहीं।"
"अपनी (स्वयंकी) स्थिति परमात्मतत्त्वमें अथवा समतामें होनेके कारण ही अन्तःकरणमें समता आती है। इसलिये अन्तःकरणमें समता आनेपर ही उन महापुरुषोंकी यह पहचान होती है कि वे परमात्मतत्त्वमें अथवा समतामें स्थित हैं। इसी समताको गीताने 'योग' कहा है- 'समत्वं योग उच्यते' (२।४८), और इसकी प्राप्तिको ही गीता मनुष्य- जन्मकी पूर्णता मानती है।
ज्ञानयोगका यह प्रकरण तेरहवें श्लोकसे चला है। पंद्रहवें श्लोकके अन्तमें आये 'जन्तवः' पदसे बहुवचनका प्रयोग आरम्भ हुआ है, जो इस उन्नीसवें श्लोकतक चला है। सबमें बहुवचन आनेका तात्पर्य है कि जो मनुष्य मोहित हो रहे थे, वे सब-के-सब परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु प्रस्तुत श्लोकमें 'ब्रह्मणि' पदमें एकवचन आया है, जिसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण मनुष्योंको एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। मुक्ति चाहे ब्राह्मणकी हो अथवा चाण्डालकी, दोनोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है। भेद केवल शरीरोंको लेकर है, जो उपादेय है। तत्त्वको लेकर कोई भेद नहीं है। पहले जितने सनकादिक महात्मा हुए हैं, उनको जो तत्त्व प्राप्त हुआ है, वही तत्त्व आज भी प्राप्त होता है।
परिशिष्ट भाव-यहाँ आये 'मन' शब्दको बुद्धिका वाचक समझना चाहिये; क्योंकि समतामें मन स्थित नहीं होता, प्रत्युत बुद्धि ही स्थित होती है। मन ध्यानमें स्थित होता है। यह प्रकरण भी स्थिरबुद्धिका है। "
"मनकी स्थिरता केवल ध्यानावस्थामें रहती है, व्यवहारमें नहीं; परन्तु बुद्धिकी स्थिरता निरन्तर रहती है। कल्याण मनकी स्थिरतामें नहीं होता, प्रत्युत बुद्धिकी स्थिरतासे होता है। मनकी स्थिरतासे सिद्धियाँ पैदा होती हैं। अतः मनकी स्थिरता इतनी ऊँची नहीं है, जितनी बुद्धिकी स्थिरता। भगवान् ने भी दूसरे अध्यायमें स्थितप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि) होनेकी महिमा कही है। अगले श्लोकमें भी भगवान् ने कहा है- 'स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः '।
साधक भूलसे अपनेको तत्त्वज्ञ न मान ले, इसलिये यह पहचान बतायी है कि अगर बुद्धिमें समता नहीं आयी है तो समझ लेना चाहिये कि अभी तत्त्वज्ञान नहीं हुआ है, केवल वहम हुआ है! बुद्धिकी समताका स्वरूप है - राग-द्वेष, हर्ष- शोक आदि न होना। तत्त्वप्राप्ति होनेपर बुद्धिमें निरन्तर समता रहती है। इस समतासे बुद्धिका कभी व्युत्थान अथवा वियोग नहीं होता।
जिनकी बुद्धि समतामें स्थित है, उनमें राग-द्वेष नहीं रहते। उनकी यह समबुद्धि स्वतः अटल बनी रहती है कि सब कुछ एक परमात्मा ही हैं। जब एक परमात्मतत्त्वके सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं, तो फिर कौन द्वेष करे और किससे करे ? जब एक ही सत्ता अटल अनुभवमें आ जाती है, तब कोई कामना नहीं रहती और अशान्ति भी नहीं रहती।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें जिस स्थितिका वर्णन हुआ है, उसकी प्राप्तिका साधन तथा सिद्धके लक्षणोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 20 और 21 की व्याख्या करेंगे, जिसमें भावनाओं पर नियंत्रण और स्थिर मन की शक्ति पर चर्चा होगी।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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