ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 20 से 21 - सच्चा आनंद और त्याग



 "नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे विशेष भगवद् गीता शृंखला में, जहाँ हम श्लोकों को सरलता से समझकर जीवन को बेहतर बनाने की कला सीखते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 5 के श्लोक 21 और 22 की, जो सच्चे सुख और इच्छाओं के त्याग के महत्व को समझाते हैं।


पिछले वीडियो में हमने श्लोक 19 और 20 की चर्चा की थी, जहाँ समानता और स्थिरता के महत्व को समझाया गया था।


आज के श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि भोग-विलास के साधनों में सुख तलाशना एक अस्थायी अनुभव है। सच्चा आनंद तब मिलता है जब हम इच्छाओं पर नियंत्रण रखते हैं और अपने भीतर की शांति को खोजते हैं। श्लोक 21 में बताया गया है कि आत्मा का सुख आंतरिक है, और श्लोक 22 में यह कहा गया है कि भोग-विलास दुख का कारण बनते हैं।


श्लोक 21:

सच्चा सुख वह है, जो हमारे अंदर से उत्पन्न होता है। इसे बाहरी चीज़ों में तलाशना व्यर्थ है।

श्लोक 22:

इच्छाओं को त्यागने से मन शांति प्राप्त करता है और दुखों से मुक्ति मिलती है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 20 से 21"

"(श्लोक-२०)


न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥


उच्चारण की विधि - न, प्रहृष्येत्, प्रियम्, प्राप्य, न, उद्विजेत्, प्राप्य, च, अप्रियम्, स्थिरबुद्धिः, असम्मूढः, ब्रह्मवित्, ब्रह्मणि, स्थितः ॥ २० ॥


प्रियम् अर्थात् प्रियको, प्राप्य अर्थात् प्राप्त होकर, न प्रहृष्येत् अर्थात् हर्षित नहीं हो, च अर्थात् और, अप्रियम् अर्थात् अप्रियको, प्राप्य अर्थात् प्राप्त होकर, न उद्विजेत् अर्थात् उद्विग्न न हो (वह), स्थिरबुद्धिः अर्थात् स्थिरबुद्धि, असम्मूढः अर्थात् संशयरहित, ब्रह्मवित् अर्थात् ब्रह्मवेत्ता पुरुष, ब्रह्मणि अर्थात् सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मामें (एकीभावसे नित्य), स्थितः अर्थात् स्थित है।


अर्थ - जो पुरुष प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मामें एकीभावसे नित्य स्थित है ॥ २० ॥"

"व्याख्या- 'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्'- शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही 'प्रिय' को प्राप्त होना है।


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही 'अप्रिय' को प्राप्त होना है।


प्रिय और अप्रियको प्राप्त होनेपर भी साधकके अन्तःकरणमें हर्ष और शोक नहीं होने चाहिये। यहाँ प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिका यह अर्थ नहीं है कि साधकके हृदयमें अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी-पदार्थोंके प्रति राग या द्वेष है, प्रत्युत यहाँ उन प्राणी-पदार्थोंकी प्राप्तिके ज्ञानको ही प्रिय और अप्रियकी प्राप्ति कहा गया है। प्रिय या अप्रियकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका ज्ञान होनेमें कोई दोष नहीं है। अन्तःकरणमें उनकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका असर पड़ना अर्थात् हर्ष-शोकादि विकार होना ही दोष है।


प्रियता और अप्रियताका ज्ञान तो अन्तःकरणमें होता है, पर हर्षित और उद्विग्न कर्ता होता है। अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला पुरुष प्रकृतिके करणोंद्वारा होनेवाली क्रियाओंको लेकर 'मैं कर्ता हूँ'- ऐसा मान लेता है तथा हर्षित और उद्विग्न होता रहता है। परन्तु जिसका मोह दूर हो गया है, जो तत्त्ववेत्ता है, वह 'गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'- ऐसा जानकर अपनेमें (स्वरूपमें) वास्तविक अकर्तृत्वका अनुभव करता है (गीता - तीसरे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक)। स्वरूपका हर्षित और उद्विग्न होना सम्भव ही नहीं है।"

"स्थिरबुद्धिः' - स्वरूपका ज्ञान स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेयका भाव नहीं रहता। यह ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् इसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी करणकी अपेक्षा नहीं होती। करणोंसे होनेवाला ज्ञान स्थिर तथा सन्देहरहित नहीं होता, इसलिये वह अल्पज्ञान है। परन्तु स्वयं (अपने होनेपन) का ज्ञान स्वयंको ही होनेसे उसमें कभी परिवर्तन या सन्देह नहीं होता। जिस महापुरुषको ऐसे करण-निरपेक्ष ज्ञानका अनुभव हो गया है, उसकी कही जानेवाली बुद्धिमें यह ज्ञान इतनी दृढ़तासे उतर आता है कि उसमें कभी विकल्प, सन्देह, विपरीत भावना, असम्भावना आदि होती ही नहीं। इसलिये उसे 'स्थिरबुद्धिः' कहा गया है।


'असम्मूढः' - जो परमात्मतत्त्व सदा-सर्वत्र विद्यमान है, उसका अनुभव न होना और जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उस उत्पत्ति-विनाशशील संसारको सत्य मानना - ऐसी मूढ़ता साधारण मनुष्यमें रहती है। इस मूढ़ताका जिसमें सर्वथा अभाव हो गया है, उसे ही यहाँ 'असम्मूढः' कहा गया है।


'ब्रह्मवित् '- परमात्मासे अलग होकर परमात्माका अनुभव नहीं होता। परमात्माका अनुभव होनेमें अनुभविता, अनुभव और अनुभाव्य - यह त्रिपुटी नहीं रहती, प्रत्युत त्रिपुटीरहित अनुभवमात्र (ज्ञानमात्र) रहता है। वास्तवमें ब्रह्मको जाननेवाला कौन है - यह बताया नहीं जा सकता। कारण कि ब्रह्मको जाननेवाला ब्रह्मसे अभिन्न हो जाता है*, इसलिये वह अपनेको ब्रह्मवित् मानता ही नहीं अर्थात् उसमें 'मैं ब्रह्मको जानता हूँ' ऐसा अभिमान नहीं रहता। 

* 'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' (मुण्डक० ३। २।९); 'ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' (बृहदारण्यक० ४।४।६)"

"ब्रह्मणि स्थितः ' - वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणी तत्त्वसे नित्य- निरन्तर ब्रह्ममें ही स्थित हैं; परन्तु भूलसे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ही मानते रहनेके कारण मनुष्यको ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। जिसे ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, ऐसे महापुरुषके लिये यहाँ 'ब्रह्मणि स्थितः' पदोंका प्रयोग हुआ है। ऐसे महापुरुषको प्रत्येक परिस्थितिमें नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है।


यद्यपि एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें स्थिति होती है, तथापि ब्रह्ममें स्थिति इस प्रकारकी नहीं है। कारण कि ब्रह्मका अनुभव होनेपर सर्वत्र एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म रह जाता है। उसमें स्थिति माननेवाला दूसरा कोई रहता ही नहीं। जबतक कोई ब्रह्ममें अपनी स्थिति मानता है, तबतक ब्रह्मकी वास्तविक अनुभूतिमें कमी है, परिच्छिन्नता है।


परिशिष्ट भाव - सुषुप्ति और मूर्च्छामें मनुष्यका शरीरसे


अज्ञानपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद होता है अर्थात् मन अविद्यामें लीन होता है; अतः इन अवस्थाओंमें मनुष्यको प्रिय और अप्रियका, शारीरिक पीड़ा आदिका ज्ञान ही नहीं होता। परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुषका शरीरसे ज्ञानपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद होता है। इसलिये उसको प्रिय और अप्रियका, शरीरकी पीड़ा आदिका ज्ञान तो होता है, पर उनसे वह हर्षित-उद्विग्न, सुखी-दुःखी नहीं होता। उसकी शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी परवशता मिट जाती है।


ब्रह्मको जानना और उसमें स्थित होना - दोनों एक ही हैं।


सम्बन्ध-ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव किस प्रकार होता है, इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।"


"अक्षय आनन्दकी प्राप्तिका साधन और उसकी प्राप्ति।


(श्लोक-२१)


बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥


उच्चारण की विधि - बाह्यस्पर्शेषु, असक्तात्मा, विन्दति, आत्मनि, यत्, सुखम्, सः, ब्रह्मयोगयुक्तात्मा, सुखम्, अक्षयम्, अश्नुते ॥ २१ ॥


बाह्यस्पर्शेषु अर्थात् बाहरके विषयोंमें, असक्तात्मा अर्थात् आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला (साधक), आत्मनि अर्थात् आत्मामें (स्थित), यत् अर्थात् जो (ध्यानजनित सात्त्विक), सुखम् अर्थात् आनन्द है, (तत् ) अर्थात् उसको, विन्दति अर्थात् प्राप्त होता है, (तदनन्तर), सः अर्थात् वह, ब्रह्मयोगयुक्तात्मा अर्थात् सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष, अक्षयम् अर्थात् अक्षय, सुखम् अर्थात् आनन्दका, अश्नुते अर्थात् अनुभव करता है।


अर्थ - बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनन्दका अनुभव करता है ॥ २१॥"

"व्याख्या-'बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा' - परमात्माके अतिरिक्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें तथा शब्द, स्पर्श आदि विषयोंके संयोगजन्य सुखमें जिसकी आसक्ति मिट गयी है, ऐसे साधकके लिये यहाँ ये पद प्रयुक्त हुए हैं। जिन साधकोंकी आसक्ति अभी मिटी नहीं है, पर जिनका उद्देश्य आसक्तिको मिटानेका हो गया है, उन साधकोंको भी आसक्तिरहित मान लेना चाहिये। कारण कि उद्देश्यकी दृढ़ताके कारण वे भी शीघ्र ही आसक्तिसे छूट जाते हैं।


पूर्वश्लोकमें वर्णित 'प्रियको प्राप्त होकर हर्षित और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होना चाहिये'- ऐसी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये बाह्यस्पर्शमें आसक्तिरहित होना आवश्यक है।


उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुमात्रका नाम 'बाह्यस्पर्श' है, चाहे उसका सम्बन्ध बाहरसे हो या अन्तःकरणसे। जबतक बाह्यस्पर्शमें आसक्ति रहती है, तबतक अपने स्वरूपका अनुभव नहीं होता। बाह्यस्पर्श निरन्तर बदलता रहता है, पर आसक्तिके कारण उसके बदलनेपर दृष्टि नहीं जाती और उसमें सुखका अनुभव होता है। पदार्थोंको अपरिवर्तनशील, स्थिर माननेसे ही मनुष्य उनसे सुख लेता है। परन्तु वास्तवमें उन पदार्थोंमें सुख नहीं है। सुख पदार्थोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे ही होता है। इसीलिये सुषुप्तिमें जब पदार्थोंके सम्बन्धकी विस्मृति हो जाती है, तब सुखका अनुभव होता है। वहम तो यह है कि पदार्थोंके बिना मनुष्य जी नहीं सकता, पर वास्तवमें देखा जाय तो बाह्य पदार्थोंके वियोगके बिना मनुष्य जी ही नहीं सकता। इसीलिये वह नींद लेता है; क्योंकि नींदमें पदार्थोंको भूल जाते हैं। पदार्थोंको भूलनेपर भी नींदसे जो सुख, ताजगी, बल, नीरोगता, निश्चिन्तता आदि मिलती है, वह जाग्रत् में पदार्थोंके संयोगसे नहीं मिल सकती। "

"इसलिये जाग्रत् में मनुष्यको विश्राम पानेकी, प्राणी- पदार्थोंसे अलग होनेकी इच्छा होती है।  वह नींदको अत्यन्त आवश्यक समझता है; क्योंकि वास्तवमें पदार्थोंके वियोगसे ही मनुष्यको जीवन मिलता है। नींद लेते समय दो बातें होती हैं- एक तो मनुष्य बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता है और दूसरी, उसमें यह भाव रहता है कि नींद लेनेके बाद अमुक कार्य करना है। इन दोनों बातोंमें पदार्थोंसे सम्बन्ध विच्छेद चाहना तो स्वयंकी इच्छा है, जो सदा एक ही रहती है; परन्तु कार्य करनेका भाव बदलता रहता है। कार्य करनेका भाव प्रबल रहनेके कारण मनुष्यकी दृष्टि पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी तरफ नहीं जाती। वह पदार्थोंका सम्बन्ध रखते हुए ही नींद लेता है और जागता है।


यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है! इसका कारण यह है कि स्वयं (अविनाशी चेतन) जिस सम्बन्धको अपनेमें मान लेता है, वह मिटता नहीं। इस माने हुए सम्बन्धको मिटानेका उपाय है - अपनेमें सम्बन्धको न माने। कारण कि प्राणी-पदार्थोंसे सम्बन्ध वास्तवमें है नहीं, केवल माना हुआ है। मानी हुई बात न माननेपर टिक नहीं सकती और मान्यताको पकड़े रहनेपर किसी अन्य साधनसे मिट नहीं सकती। इसलिये माने हुए सम्बन्धकी मान्यताको वर्तमानमें ही मिटा देना चाहिये। फिर मुक्ति स्वतः सिद्ध है।


बाह्य पदार्थोंका सम्बन्ध अवास्तविक है, पर परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक है। मनुष्य सुखकी इच्छासे बाह्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, पर परिणाममें उसे दुःख-ही-दुःख प्राप्त होता है (गीता - पाँचवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। इस प्रकार अनुभव करनेसे बाह्य पदार्थोंकी आसक्ति मिट जाती है।"

"विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्' - बाह्य पदार्थोंकी आसक्ति मिटनेपर अन्तःकरणमें सात्त्विक सुखका अनुभव हो जाता है। बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धसे होनेवाला सुख राजस होता है। जबतक मनुष्य राजस सुख लेता रहता है, तबतक सात्त्विक सुखका अनुभव नहीं होता। राजस सुखमें आसक्तिरहित होनेसे ही सात्त्विक सुखका अनुभव होता है।


'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा' - संसारसे राग मिटते ही ब्रह्ममें अभिन्न भावसे स्वतः स्थिति हो जाती है। जैसे अन्धकारका नाश होना और प्रकाश होना- दोनों एक साथ ही होते हैं, फिर भी पहले अन्धकारका नाश होना और फिर प्रकाश होना माना जाता है। ऐसे ही रागका मिटना और ब्रह्ममें स्थित होना-दोनों एक साथ होनेपर भी पहले रागका नाश 'बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा' और फिर ब्रह्ममें स्थिति 'ब्रह्मयोगयुक्तात्मा' मानी जाती है। जैसे तेरहवें अध्यायके पहले श्लोकमें क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) के द्वारा अपनेको क्षेत्र- (शरीर) से सर्वथा अलग अनुभव करनेकी बात आयी है और फिर दूसरे श्लोकमें क्षेत्रज्ञके द्वारा अपनेको परमात्मतत्त्वसे सर्वथा अभिन्न अनुभव करनेकी बात आयी है। ऐसे ही यहाँ पहले 'बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा' पदसे शरीर- संसारसे अपनेको सर्वथा अलग अनुभव करनेकी बात बताकर फिर 'ब्रह्मयोगयुक्तात्मा' पदसे अपनेको परमात्मतत्त्वसे सर्वथा अभिन्न अनुभव करनेकी बात बतायी गयी है।


भोगोंसे विरक्ति होकर सात्त्विक सुख मिलनेके बाद 'मैं सुखी हूँ', 'मैं ज्ञानी हूँ', 'मैं निर्विकार हूँ', 'मेरे लिये कोई कर्तव्य नहीं है' इस प्रकार 'अहम्' का सूक्ष्म अंश शेष रह जाता है। उसकी निवृत्तिके लिये एकमात्र परमात्मतत्त्वसे अभिन्नताका अनुभव करना आवश्यक है।"

" कारण कि परमात्मतत्त्वसे सर्वथा एक हुए बिना अपनी सत्ता, अपने व्यक्तित्व (परिच्छिन्नता या एकदेशीयता) का सर्वथा अभाव नहीं होता। 'सुखमक्षयमश्नुते' जबतक साधक सात्त्विक सुखका उपभोग करता रहता है, तबतक उसमें सूक्ष्म 'अहम्', सूक्ष्म परिच्छिन्नता रहती है। सात्त्विक सुखका भी उपभोग न करनेसे 'अहम्' का सर्वथा अभाव हो जाता है और साधकको परमात्मस्वरूप, चिन्मय और नित्य एकरस रहनेवाले अविनाशी सुखका अनुभव हो जाता है। इसी अक्षय सुखको 'आत्यन्तिक सुख' (छठे अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक), 'अत्यन्त-सुख' (छठे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक), 'ऐकान्तिक सुख' (चौदहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक) आदि नामोंसे कहा गया है। इसका अनुभव होनेपर उस परमात्मतत्त्वमें स्वाभाविक ही एक आकर्षण होता है, जिसे प्रेम कहते हैं (गीता - अठारहवें अध्यायका चौवनवाँ श्लोक)। इस प्रेममें कभी कमी नहीं आती, प्रत्युत यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है। उस तत्त्वका प्रसंग चलनेपर, उसपर विचार करनेपर पहलेसे कुछ नयापन दीखता है-यही प्रेमका प्रतिक्षण बढ़ना है। इसमें एक समझनेकी बात यह है कि प्रेमके प्रतिक्षण बढ़नेपर भी यदि 'पहले कमी थी और अब पूर्ति हो गयी' ऐसा प्रतीत होता है, तो यह साधन-अवस्था है, यदि नयापन दीखनेपर भी 'पहले कमी थी और अब पूर्ति हो गयी' ऐसा प्रतीत नहीं होता, तो यह सिद्ध-अवस्था है।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने विषयोंसे विरक्त पुरुषको अक्षय सुखकी प्राप्ति बतायी। अब विषयोंसे विरक्ति कैसे हो इसका आगेके श्लोकमें विवेचन करते हैं।"

कल के वीडियो में हम श्लोक 23 की व्याख्या करेंगे, जहाँ क्रोध और भावनाओं पर नियंत्रण का गूढ़ ज्ञान है।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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