ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 22 - सुख और दुःख के परे का मार्ग



"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका श्रीमद्भगवद्गीता की अद्भुत यात्रा में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 5 के श्लोक 22 की, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने सुख और दुःख के पार जाने का मार्ग बताया है।

आपका जीवन बदल सकता है इस ज्ञान से! तो आइए, शुरू करते हैं।


""पिछले वीडियो में हमने श्लोक 21 की चर्चा की, जहां भगवान ने बताया कि कैसे सच्चे सुख का अनुभव केवल अपने भीतर होता है। अगर आपने वह वीडियो नहीं देखा है, तो अभी जाकर देखिए।""


अध्याय 5, श्लोक 22 में भगवान हमें बताते हैं कि जो सुख और दुःख इच्छाओं पर आधारित होते हैं, वे नाशवान होते हैं। इसीलिए हमें अपने मन को स्थिर रखना चाहिए। श्लोक का पाठ है:


श्लोक 22

'ये ही संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।'


इसका अर्थ और महत्व जानने के लिए आइए इसे विस्तार से समझते हैं।""


""श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो सुख हमारे इंद्रियों के संपर्क से मिलता है, वह अस्थायी और दुःख का कारण है। बुद्धिमान व्यक्ति इनसे परे जाते हैं और सच्चे आत्मसुख की खोज करते हैं।

हम कैसे अपने जीवन में इस सिद्धांत को अपना सकते हैं? इस पर चर्चा करें।"


"हम लेके आये है आपके  लिये एक खास Offer. अधिक जानकारी के लिये बने रहे हमारे साथ।


श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 22"

"विषय-भोगोंकी निन्दा।


(श्लोक-२२)


ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥


उच्चारण की विधि - ये, हि, संस्पर्शजाः, भोगाः, दुःखयोनयः, एव, ते, आद्यन्तवन्तः, कौन्तेय, न, तेषु, रमते, बुधः ॥ २२ ॥


ये अर्थात् जो (ये) इन्द्रिय तथा, संस्पर्शजाः अर्थात् विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले, भोगाः अर्थात् सब भोग हैं, ते अर्थात् वे (यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी), हि अर्थात् निःसन्देह, दुःखयोनयः एव अर्थात् दुःखके ही हेतु हैं (और), आद्यन्तवन्तः अर्थात् आदि- अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। (इसलिये), कौन्तेय अर्थात् हे अर्जुन !, बुधः अर्थात् बुद्धिमान् विवेकी पुरुष, तेषु अर्थात् उनमें, न अर्थात् नहीं, रमते अर्थात् रमता ।


अर्थ - जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी दुःखके ही हेतु हैं और आदि- अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन ! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता ॥ २२ ॥"

"व्याख्या'ये हि संस्पर्शजा भोगाः' - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे 'भोग' कहते हैं। सम्बन्ध-जन्य अर्थात् इन्द्रिय-जन्य भोगमें मनुष्य कभी स्वतन्त्र नहीं है। सुख-सुविधा और मान-बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है। अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होती है, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है। तात्पर्य यह है कि परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृतिजन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।


शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्र-विहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होनेसे त्याज्य ही हैं। कारण कि जडताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जडतासे सम्बन्ध विच्छेद करना आवश्यक है।


'आद्यन्तवन्तः' - सम्पूर्ण भोग आने-जानेवाले हैं, अनित्य हैं, परिवर्तनशील हैं (गीता- दूसरे अध्यायका चौदहवाँ श्लोक)। ये कभी एकरूप रह सकते ही नहीं। तात्पर्य है कि इन भोगोंकी स्वयंके साथ किसी भी अंशमें एकता नहीं है। भोग आने-जानेवाले हैं और स्वयं सदा रहनेवाला है। भोग जड हैं और स्वयं चेतन है। भोग विकारी हैं और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अन्तवाले हैं और स्वयं आदि- अन्तसे रहित है। इसलिये स्वयंको भोगोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता। "

"जीव परमात्माका अंश है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५। ७), इसलिये उसे परमात्मासे ही अक्षय सुख मिल सकता है- 'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते' (गीता ५। २१)।


भोग आने-जानेवाले हैं- इस तरफ ध्यान जाते ही सुख- दुःखका प्रभाव कम हो जाता है। इसलिये 'आद्यन्तवन्तः' पद भोगोंके प्रभावको मिटानेके लिये औषधरूप है।


'दुःखयोनय एव ते'- जितने भी सम्बन्ध जन्य सुख हैं, वे सब दुःखके उत्पत्तिस्थान हैं। सम्बन्ध जन्य सुख दुःखसे ही उत्पन्न होता है और दुःखमें ही परिणत होता है। पहले वस्तुके अभावका दुःख होता है, तभी उस वस्तुके मिलनेपर सुख होता है। वस्तुके अभावका दुःख जितनी मात्रामें होता है, वस्तुके मिलनेका सुख भी उतनी ही मात्रामें होता है।


भोगी व्यक्ति दुःखोंसे नहीं बच सकता। कारण कि भोग जडताके सम्बन्धसे होता है और जडताका सम्बन्ध ही जन्म- मरणरूप महान् दुःखका कारण है।


पातंजलयोगदर्शनमें कहा गया है-


'परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ।' (२।१५)


'परिणामदुःख, तापदुःख और संस्कारदुःख - ऐसे तीन प्रकारके दुःख सबमें विद्यमान रहनेके कारण तथा तीनों गुणोंकी वृत्तियोंमें परस्पर विरोध होनेके कारण विवेकी पुरुषके लिये सब-के-सब भोग दुःखरूप ही हैं।'


सम्पूर्ण विषयभोग आरम्भमें सुखरूप प्रतीत होनेपर भी परिणाममें दुःख ही देनेवाले हैं (गीता- अठारहवें अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक); क्योंकि भोगोंके परिणाममें अपनी शक्तिका ह्रास और भोग्य-पदार्थका नाश होता है- यह 'परिणामदुःख' है।"

"दूसरे व्यक्तियोंके पास अपनेसे अधिक भोग देखनेसे, अपने इच्छानुसार पूरे भोग न मिलनेसे, भीतर भोगोंकी आसक्ति होनेपर भी भोग भोगनेकी सामर्थ्य न होनेसे तथा प्राप्त भोगोंके बिछुड़ जानेकी आशंकासे भोगोंके पास रहते हुए भी हृदयमें सन्ताप रहता है - यह 'तापदुःख' है।


किसी कारणवश भोगोंका वियोग हो जानेसे मनुष्य उन भोगोंको याद कर-करके दुःखी होता है- यह 'संस्कारदुःख' है।


भोगोंमें रुचि होनेके कारण मन उन भोगोंको भोगना चाहता है; परन्तु विवेकके कारण बुद्धि उन्हें भोगनेसे रोकती है। ऐसे ही सत्संग करते समय तामसी वृत्तिके कारण नींद आने लगती है और नींदका सुख मनुष्यको अपनी ओर खींचता है; परन्तु सात्त्विक वृत्तिके कारण उसे विचार आता है कि अभी सत्संग कर लें; क्योंकि यह मौका बार-बार मिलेगा नहीं- यह 'गुणवृत्ति-विरोध' है, जिससे साधकोंको बहुत दुःख होता है।


भोगोंको प्राप्त करना अपने वशकी बात नहीं है; क्योंकि इसमें प्रारब्धकी प्रधानता और अपनी परतन्त्रता है। परन्तु भगवान् की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सकता है; क्योंकि उनकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्य-शरीर मिला है। भोग दो मनुष्योंको भी समानरूपसे प्राप्त नहीं हो सकते, पर भगवान् मनुष्यमात्रको समानरूपसे प्राप्त हो सकते हैं। सत्ययुग आदिमें बड़े-बड़े ऋषियोंको जो भगवान् प्राप्त हुए थे, वही आज कलियुगमें भी सबको प्राप्त हो सकते हैं। भोगोंकी प्राप्ति सदाके लिये नहीं होती और सबके लिये नहीं होती। "

"परन्तु भगवान् की प्राप्ति सदाके लिये होती है और सबके लिये होती है। तात्पर्य यह हुआ कि भोगों (जडता) की प्राप्तिमें तो विभिन्नता रहती ही है, पर उनके त्यागमें सब एक हो जाते हैं।


'एव' पदका तात्पर्य है कि भोग निःसन्देह और निश्चितरूपसे दुःखके कारण हैं। उनमें सुख प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें सुखका लेश भी नहीं है।


'न तेषु रमते बुधः' - साधारण मनुष्यको जिन भोगोंमें सुख प्रतीत होता है, उन भोगोंको विवेकशील मनुष्य दुःखरूप ही समझता है। इसलिये वह उन भोगोंमें रमण नहीं करता, उनके अधीन नहीं होता।


विवेकी मनुष्यको इस बातका ज्ञान रहता है कि संसारके समस्त दुःख, सन्ताप, पाप, नरक आदि संयोग-जन्य सुखकी इच्छापर ही आधारित हैं। अपने इस ज्ञानको महत्त्व देनेसे ही वह बुद्धिमान् है। परन्तु जिसने यह जान लिया है कि भोग दुःखप्रद हैं, फिर भी भोगोंकी कामना करता है और उनमें ही रमण करता है, वह वास्तवमें अपने ज्ञानको पूर्णरूपसे महत्त्व न देनेके कारण बुद्धिमान् कहलानेका अधिकारी नहीं है। अपने ज्ञानको महत्त्व देनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य भोगोंकी कामना और उनमें रमण कर ही नहीं सकता।


परिशिष्ट भाव-वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके सम्बन्धसे होनेवाला सुख दुःखोंका कारण है। सुखके भोगीको नियमसे दुःख भोगना ही पड़ता है। सुखकी आशा, कामना और भोगसे वास्तवमें सुख नहीं मिलता, प्रत्युत दुःख ही मिलता है। भोगोंका संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। मनुष्य अनित्यको महत्त्व देकर ही दुःख पाता है।"

"उसको विचार करना चाहिये कि क्या सुख चाहनेसे सुख मिल जायगा और दुःखोंका नाश हो जायगा ? सुखकी इच्छा करनेसे न तो सुख मिलता है और न दुःख मिटता है। दुःखको मिटानेके लिये सुखकी इच्छा करना दुःखकी जड़ है।


एक दुःखका भोग होता है और एक दुःखका प्रभाव होता है। जब मनुष्य दुःखका भोग करता है, तब उसमें सुखकी इच्छा उत्पन्न होती है और जब उसपर दुःखका प्रभाव होता है, तब सुखकी इच्छा मिट जाती है, उससे अरुचि हो जाती है। दुःखके भोगसे मनुष्य दुःखी होता है और दुःखके प्रभावसे वह दुःखसे ऊँचा उठता है। दुःखके प्रभावसे वह दुःखमें तल्लीन न होकर उसके कारणपर विचार करता है कि मेरेको दुःख क्यों हुआ? विचार करनेपर उसको पता लगता है कि सुखासक्तिके सिवाय दुःखका और कोई कारण है नहीं, था नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं।


परिस्थिति भी दुःखका कारण नहीं है; क्योंकि वह बेचारी एक क्षण भी टिकती नहीं। कोई प्राणी भी दुःखका कारण नहीं है; क्योंकि वह हमारे पुराने पापोंका नाश करता है और आगे विकास करता है। संसार भी दुःखका कारण नहीं है; क्योंकि जो भी परिवर्तन होता है, वह हमें दुःख देनेके लिये नहीं होता, प्रत्युत हमारे विकासके लिये होता है। अगर परिवर्तन न हो तो विकास कैसे होगा ? परिवर्तनके बिना बीजका वृक्ष कैसे बनेगा ? रज-वीर्यका शरीर कैसे बनेगा ? बालकसे जवान कैसे बनेगा ? मूर्खसे विद्वान् कैसे बनेगा ? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा ? तात्पर्य है कि स्वाभाविक परिवर्तन विकास करनेवाला है। "

"संसारमें परिवर्तन ही सार है। परिवर्तनके बिना संसार एक अचल, स्थिर चित्रकी तरह ही होता। अतः परिवर्तन दोषी नहीं है, प्रत्युत उसमें सुखबुद्धि करना दोषी है। भगवान् भी दुःखके कारण नहीं हैं, क्योंकि वे आनन्दघन हैं, उनके यहाँ दुःख है ही नहीं। 


'न तेषु रमते बुधः' - विवेकी मनुष्य भोगोंमें रमण नहीं करता; क्योंकि भोगोंकी कामना विवेकियोंकी नित्य वैरी है - 'ज्ञानिनो नित्यवैरिणा' (गीता ३। ३९)। अविवेकीको भोग अच्छे लगते हैं; क्योंकि दोषोंमें गुणबुद्धि अविवेकसे ही होती है। सभी भोग दोषजनित होते हैं। अन्तःकरणमें कोई दोष न हो तो कोई भोग नहीं होता। दोष विवेकीको ही दीखता है। इसलिये वह भोगोंमें रमण नहीं करता अर्थात् उनसे सुख नहीं लेता। 


विवेकी मनुष्य उस वस्तुको नहीं चाहता, जो सदा उसके साथ न रहे। अपने विवेकसे वह इस सत्यको स्वीकार कर लेता है कि मिली हुई कोई भी वस्तु, व्यक्ति, योग्यता और सामर्थ्य मेरी नहीं है और मेरे लिये भी नहीं है। इतना ही नहीं, अनन्त सृष्टिमें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो मेरी हो और मेरे लिये हो। प्यारी-से-प्यारी वस्तु भी सदाके लिये मेरी नहीं है, सदा मेरे साथ रहनेवाली नहीं है। इसलिये विवेकी मनुष्य यह निश्चय कर लेता है कि जो वस्तु और व्यक्ति सदा मेरे साथ रहनेवाले नहीं हैं, उनके बिना मैं सदाके लिये प्रसन्नतासे रह सकता हूँ।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि संयोगजन्य सुख भोगनेवाला दुःखोंसे नहीं बच सकता, तो फिर सुखी कौन होता है- इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।"

कल के वीडियो में हम चर्चा करेंगे श्लोक 23 और 24 की, जिसमें आत्म-संयम और आत्मा की शांति के बारे में बताया गया है। इसे बिल्कुल न चूकें।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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