ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 23 से 24 - सुख और दुःख के परे का मार्ग



"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहाँ हम भगवद गीता के श्लोकों की गहराई में जाकर उनके जीवन के महत्व को समझते हैं।

आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 5 के श्लोक 23 और 24 की। ये श्लोक हमें आत्म-संयम और सच्चे आनंद का रहस्य सिखाते हैं।


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""पिछले वीडियो में, हमने श्लोक 21 और 22 को समझा था, जहाँ भगवान ने सुख और दुःख के पार जाने की बात की थी।""


""आज के श्लोक 23 और 24 में भगवान कृष्ण हमें बताते हैं कि कैसे आत्म-संयम और आंतरिक शांति हमें सच्चा सुख प्रदान कर सकते हैं।""

श्लोक 23: आत्म-संयम की महत्ता और क्रोध पर विजय।

श्लोक 24: भीतर के आनंद और शांत चित्त का महत्व।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 23 से 24"

"काम-क्रोधके वेगको सहन कर सकनेवाले पुरुषको योगी और सुखी बतलाना।


(श्लोक-२३)


शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥


उच्चारण की विधि - शक्नोति, इह, एव, यः, सोढुम्, प्राक्, शरीरविमोक्षणात्, कामक्रोधोद्भवम्, वेगम्, सः, युक्तः, सः, सुखी, नरः ॥ २३॥


यः अर्थात् जो साधक, इह अर्थात् इस मनुष्य शरीरमें, शरीरविमोक्षणात् अर्थात् शरीरका नाश होनेसे, प्राक् अर्थात् पहले-पहले, एव अर्थात् ही, कामक्रोधोद्भवम् अर्थात् काम-क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले, वेगम् अर्थात् वेगको, सोढुम् अर्थात् सहन करनेमें, शक्नोति अर्थात् समर्थ हो जाता है, सः अर्थात् वही, नरः अर्थात् पुरुष, युक्तः अर्थात् योगी है (और), सः अर्थात् वही, सुखी अर्थात् सुखी है।


अर्थ - जो साधक इस मनुष्यशरीरमें, शरीरका नाश होनेसे पहले-पहले ही काम- क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले वेगको सहन करनेमें समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है ॥ २३ ॥"

"व्याख्या- 'शक्नोतीहैव यः..........कामक्रोधोद्भवं वेगम्'- प्राणिमात्रको एक अलौकिक विवेक प्राप्त है। यह विवेक पशु-पक्षी आदि योनियोंमें प्रसुप्त रहता है। उनमें केवल अपनी-अपनी योनिके अनुसार शरीर-निर्वाहमात्रका विवेक रहता है। देव आदि योनियोंमें यह विवेक ढका रहता है; क्योंकि वे योनियाँ भोगोंके लिये मिलती हैं; अतः उनमें भोगोंकी बहुलता तथा भोगोंका उद्देश्य रहता है। मनुष्ययोनिमें भी भोगी और संग्रही मनुष्यका विवेक ढका रहता है। ढके रहनेपर भी यह विवेक मनुष्यको समय-समयपर भोग और संग्रहमें दुःख एवं दोषका दर्शन कराता रहता है। परन्तु इसे महत्त्व न देनेके कारण मनुष्य भोग और संग्रहमें फँसा रहता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह इस विवेकको महत्त्व देकर इसे स्थायी बना ले। इसकी उसे पूर्ण स्वतन्त्रता है। विवेकको स्थायी बनाकर वह राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारोंको सर्वथा समाप्त कर सकता है। इसलिये भगवान् 'इह' पदसे मनुष्यको सावधान करते हैं कि अभी उसे ऐसा दुर्लभ अवसर प्राप्त है, जिसमें वह काम-क्रोधपर विजय प्राप्त करके सदाके लिये सुखी हो सकता है।


मनुष्य-शरीर मुक्त होनेके लिये ही मिला है। इसलिये मनुष्यमात्र काम-क्रोधका वेग सहन करनेमें योग्य, अधिकारी और समर्थ है। इसमें किसी वर्ण, आश्रम आदिकी अपेक्षा भी नहीं है।


मृत्युका कुछ पता नहीं कि कब आ जाय; अतः सबसे पहले काम-क्रोधके वेगको सहन कर लेना चाहिये। काम- क्रोधके वशीभूत नहीं होना है- यह सावधानी जीवनभर रखनी है। यह कार्य मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, कोई दूसरा नहीं। इस कार्यको करनेका अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है, दूसरे शरीरोंमें नहीं। "

"इसलिये शरीर छूटनेसे पहले-पहले ही यह कार्य जरूर कर लेना चाहिये- यही भाव इन पदोंमें है।


उपर्युक्त पदोंसे एक भाव यह भी लिया जा सकता है कि काम-क्रोधके वशीभूत होकर शरीर क्रिया करने लगे-ऐसी स्थितिसे पहले ही उनके वेगको सह लेना चाहिये। कारण कि काम-क्रोधके अनुसार क्रिया आरम्भ होनेके बाद शरीर और वृत्तियाँ अपने वशमें नहीं रहतीं।


भोगोंको पानेकी इच्छासे पहले उनका संकल्प होता है। वह संकल्प होते ही सावधान हो जाना चाहिये कि मैं तो साधक हूँ, मुझे भोगोंमें नहीं फँसना है; क्योंकि यह साधकका काम नहीं है। इस तरह संकल्प उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर देना चाहिये।


पदार्थोंके प्रति राग (काम) रहनेके कारण 'अमुक पदार्थ


सुन्दर और सुखप्रद हैं' आदि संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्प उत्पन्न होनेके बाद उन पदार्थोंको प्राप्त करनेकी कामना उत्पन्न हो जाती है और उनकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है।


काम-क्रोधके वेगको सहन करनेका तात्पर्य है-काम- क्रोधके वेगको उत्पन्न ही न होने देना। काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेके बाद वेग आता है और वेग आनेके बाद काम-क्रोधको रोकना कठिन हो जाता है, इसलिये काम-क्रोधके संकल्पको उत्पन्न न होने देनेमें ही उपर्युक्त पदोंका भाव प्रतीत होता है। कारण यह है कि काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेपर अन्तःकरणमें अशान्ति, उत्तेजना, संघर्ष आदि होने लग जाते हैं, जिनके रहते हुए मनुष्य सुखी नहीं कहा जा सकता। परन्तु इसी श्लोकमें 'स सुखी' पदोंसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले मनुष्यको 'सुखी' बताया गया है। दूसरी बात यह है कि काम-क्रोधके वेगको मनुष्य अपनेसे शक्तिशाली पुरुषके सामने भयसे भी रोक सकता है अथवा व्यापारमें आमदनी होती देखकर लोभसे भी रोक सकता है।"

"परन्तु इस प्रकार भय और लोभके कारण काम- क्रोधका वेग सहनेसे वह सुखी नहीं हो जाता; क्योंकि वह जैसे क्रोधमें फँसा था, ऐसे ही भय और लोभमें फँस गया। तीसरी बात यह है कि इस श्लोकमें 'युक्तः' पदसे काम- क्रोधका वेग सहनेवाले व्यक्तिको योगी कहा गया है; परन्तु संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता (गीता-छठे अध्यायका दूसरा श्लोक)। इसलिये काम-क्रोधके वेगको रोकना अच्छा होते हुए भी साधकके लिये इनके संकल्पको उत्पन्न न होने देना ही उचित है।


काम-क्रोधके संकल्पको रोकनेका उपाय है- अपनेमें काम-क्रोधको न मानना। कारण कि हम (स्वयं) रहनेवाले हैं और काम-क्रोध आने-जानेवाले हैं। इसलिये वे हमारे साथ रहनेवाले नहीं हैं। दूसरी बात, हम काम-क्रोधको अपनेसे अलगरूपसे भी जानते हैं। जिस वस्तुको हम अलगरूपसे जानते हैं, वह वस्तु अपनेमें नहीं होती। तीसरी बात, काम- क्रोधसे रहित हुआ जा सकता है


(गीता ५। २६), 'एतैर्विमुक्तः' (गीता १६ । २२) । इनसे रहित वही हो सकता है, जो वास्तवमें पहलेसे ही इनसे रहित होता है। चौथी बात, भगवान् ने काम-क्रोधको (जो राग-द्वेषके ही स्थूलरूप हैं) क्षेत्र अर्थात् प्रकृतिके विकार बताया है (गीता - तेरहवें अध्यायका छठा श्लोक) । अतः ये प्रकृतिमें ही होते हैं, अपनेमें नहीं; क्योंकि स्वरूप निर्विकार है। इससे सिद्ध होता है कि काम-क्रोध अपनेमें नहीं हैं। इनको अपनेमें मानना मानो इनको निमन्त्रण देना है।


- 'कामक्रोधवियुक्तानाम्' 'स युक्तः नरः ' - अज्ञानके द्वारा जिनका ज्ञान ढका हुआ है, ऐसे मनुष्योंको भगवान् ने इसी अध्यायके पन्द्रहवें श्लोकमें जन्तु (जन्तवः) कहा है। "

"यहाँ काम-क्रोधका वेग सहनेमें समर्थ मनुष्यको 'नरः' कहा है। भाव यह है कि जो काम-क्रोधके वशमें हैं, वे मनुष्य कहलानेयोग्य नहीं हैं। जिसने काम-क्रोधपर विजय प्राप्त कर ली है, वही वास्तवमें नर है, शूरवीर है। समतामें स्थित मनुष्यको योगी कहते हैं। जो अपने विवेकको महत्त्व देकर काम-क्रोधके वेगको उत्पन्न ही नहीं होने देता, वही समतामें स्थित हो सकता है।


'स सुखी'- मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी काम-क्रोध उत्पन्न होनेपर सुख-शान्तिसे नहीं रह सकते। इसलिये जिस मनुष्यने काम-क्रोधके संकल्पको मिटा दिया है, वही वास्तवमें सुखी है। कारण कि काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होते ही मनुष्यके अन्तःकरणमें अशान्ति, चंचलता, संघर्ष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इन दोषोंके रहते हुए वह सुखी कैसे कहा जा सकता है? जब वह काम-क्रोधके वेगके वशीभूत हो जाता है, तब वह दुःखी हो ही जाता है। कारण कि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय लेकर, उनसे सम्बन्ध जोड़कर सुख चाहनेवाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता-यह नियम है।


परिशिष्ट भाव - पहले स्फुरणा होती है। उस स्फुरणामें सत्ता, आसक्ति और आग्रह होनेसे वह स्फुरणा पकड़ी जाती है और संकल्प बन जाती है। संकल्पसे मनोरथ (मनोराज्य) होने लगता है, जिससे काम-क्रोधादिका वेग उत्पन्न होता है (गीता-दूसरे अध्यायका बासठवाँ, तिरसठवाँ श्लोक)। साधकके लिये एक नम्बरकी बात तो यह है कि वेग उत्पन्न ही न होने दे अर्थात् संकल्प न करे। दो नम्बरकी बात है कि वेग उत्पन्न होनेपर भी वैसी क्रिया न करे।


सम्बन्ध-बाह्य सम्बन्धसे होनेवाले सुखके अनर्थका वर्णन करके अब भगवान् आभ्यन्तर तत्त्वके सम्बन्धसे होनेवाले सुखकी महिमाका वर्णन करते हैं।"

"सांख्ययोगीकी अन्तिम स्थिति और निर्वाणब्रह्मको प्राप्त ज्ञानी महापुरुषोंके लक्षण।


(श्लोक-२४)


योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्-तथान्तर्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥


उच्चारण की विधि - यः, अन्तःसुखः, अन्तरारामः, तथा, अन्तज्योतिः, एव, यः, सः, योगी, ब्रह्मनिर्वाणम्, ब्रह्मभूतः, अधिगच्छति ॥ २४ ॥


यः अर्थात् जो पुरुष, एव अर्थात् निश्चय करके, अन्तःसुखः अर्थात् अन्तरात्मामें ही सुखवाला है, अन्तरारामः अर्थात् आत्मामें ही रमण करनेवाला है, तथा अर्थात्  तथा, यः अर्थात् जो, अन्तर्योतिः अर्थात् आत्मामें ही ज्ञानवाला है, सः अर्थात् वह, ब्रह्मभूतः अर्थात् सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त, योगी अर्थात् सांख्ययोगी, ब्रह्मनिर्वाणम् अर्थात् शान्त ब्रह्मको, अधिगच्छति अर्थात् प्राप्त होता है।


अर्थ - जो पुरुष अन्तरात्मामें ही सुखवाला है, आत्मामें ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्मको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥"

"व्याख्या- 'योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्र्योतिरेव यः'- जिसको प्रकृतिजन्य बाह्य पदार्थोंमें सुख प्रतीत नहीं होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मामें ही सुख मिलता है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तःसुखः' कहा गया है। परमात्मतत्त्वके सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्त्वमें सुखका अनुभव उसे हर समय होता है; क्योंकि उसके सुखका आधार बाह्य पदार्थोंका संयोग नहीं होता।


स्वयं अपनी सत्तामें निरन्तर स्थित रहनेके लिये बाह्यकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। स्वयंको स्वयंसे दुःख नहीं होता, स्वयंको स्वयंसे अरुचि नहीं होती - यह अन्तः सुख है। जो सदाके लिये न मिले और सभीको न मिले, वह 'बाह्य' है। परन्तु जो सदाके लिये मिले और सभीको मिले, वह 'आभ्यन्तर' है।


जो भोगोंमें रमण नहीं करता, प्रत्युत केवल परमात्मतत्त्वमें ही रमण करता है, और व्यवहारकालमें भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्त्वमें ही व्यवहार हो रहा है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तरारामः' कहा गया है।


इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं, उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्त्वका ज्ञान है। जिस साधकका यह ज्ञान हर समय जाग्रत् रहता है, उसे यहाँ 'अन्तर्ज्यातिः' कहा गया है। 


सांसारिक ज्ञानका तो आरम्भ और अन्त होता है, पर उस परमात्मतत्त्वके ज्ञानका न आरम्भ होता है, न अन्त। वह नित्य-निरन्तर रहता है। इसलिये 'सबमें एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है' ऐसा ज्ञान सांख्ययोगीमें नित्य-निरन्तर और स्वतः-स्वाभाविक रहता है। 'स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति' - सांख्ययोगका ऊँचा साधक ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करता है,"

"जो परिच्छिन्नताका द्योतक है। कारण कि साधकमें 'मैं स्वाधीन हूँ', 'मैं मुक्त हूँ', 'मैं ब्रह्ममें स्थित हूँ'- इस प्रकार परिच्छिन्नताके संस्कार रहते हैं। ब्रह्मभूत साधकको अपनेमें परिच्छिन्नताका अनुभव नहीं होता। जबतक किंचिन्मात्र भी परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व शेष है, तबतक वह तत्त्वनिष्ठ नहीं हुआ है। इसलिये इस अवस्थामें सन्तोष नहीं करना चाहिये।


'ब्रह्मनिर्वाणम्' - पदका अर्थ है- जिसमें कभी कोई हलचल हुई नहीं, है नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं - ऐसा निर्वाण अर्थात् शान्त ब्रह्म।


जब ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका व्यक्तित्व निर्वाण ब्रह्ममें लीन हो जाता है, तब एकमात्र निर्वाण ब्रह्म ही शेष रह जाता है अर्थात् साधक परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्न हो जाता है- तत्त्वनिष्ठ हो जाता है, जो कि स्वतः सिद्ध है। ब्रह्मभूत अवस्थामें तो साधक ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करता है, पर व्यक्तित्वका नाश होनेपर अनुभव करनेवाला कोई नहीं रहता। साधक ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है


- 'ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' (बृहदारण्यक० ४।४।६)।


परिशिष्ट भाव - यहाँ 'अन्तः' पदका अर्थ 'परमात्मा' मानना चाहिये, न कि 'अन्तःकरण'। कारण कि अन्तःकरणमें सुखवाले अथवा अन्तःकरणमें रमण करनेवाले या अन्तःकरणमें ज्ञानवाले मनुष्यको ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मकी प्राप्ति तो अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने निवृत्तिपूर्वक सांख्ययोगकी साधना बतायी। अब आगेके श्लोकमें प्रवृत्तिपूर्वक सांख्ययोगकी साधना बताते हैं।"

कल के वीडियो में, हम श्लोक 25 और 26 को समझेंगे, जहाँ भगवान मोक्ष और भक्ति के मार्ग की व्याख्या करते हैं।

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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