ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 25 से 26 - शांति और मोक्ष का रहस्य
"नमस्कार दोस्तों!
आपका स्वागत है हमारे चैनल पर जहाँ हम भगवद गीता के अद्भुत श्लोकों का सरल व्याख्या के साथ अध्ययन करते हैं।
आज हम अध्याय 5 के श्लोक 25 और 26 को समझने जा रहे हैं, जो हमें सच्ची शांति और आत्म-संयम का संदेश देते हैं।
तो चलिए, इस गूढ़ ज्ञान को समझते हैं और अपने जीवन में लागू करते हैं।""
""पिछले वीडियो में हमने श्लोक 23 और 24 की चर्चा की थी।
श्लोक 23 में बताया गया कि इच्छाओं पर काबू पाने से सुख और शांति प्राप्त होती है।
श्लोक 24 ने हमें अंदर की ज्योति और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया।""
""आज हम श्लोक 25 और 26 की चर्चा करेंगे।
श्लोक 25 हमें बताता है कि कैसे सच्चे योगी और ज्ञानी शांति और मोक्ष प्राप्त करते हैं।
श्लोक 26 हमें सिखाता है कि क्रोध और कामना पर विजय प्राप्त करने से जीवन में स्थिरता आती है।
इन श्लोकों में दिए गए संदेश आपके जीवन को गहराई से प्रभावित कर सकते हैं।"
"हम लेके आये है आपके लिये एक खास Offer. अधिक जानकारी के लिये बने रहे हमारे साथ।
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 25 से 26"
"(श्लोक-२५)
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाण-मृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
उच्चारण की विधि - लभन्ते, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋषयः, क्षीणकल्मषाः, छिन्नद्वैधाः, यतात्मानः, सर्वभूतहिते रताः ॥ २५॥
क्षीणकल्मषाः अर्थात् जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, छिन्नद्वैधाः अर्थात् जिनके सब संशय ज्ञानके द्वारा निवृत्त हो गये हैं, सर्वभूतहिते अर्थात् जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें, रताः अर्थात् रत हैं (और), यतात्मानः अर्थात् जिनका जीता हुआ मन, निश्चलभावसे परमात्मामें स्थित है (वे), ऋषयः अर्थात् ब्रह्मवेत्ता पुरुष, ब्रह्मनिर्वाणम् अर्थात् शान्त ब्रह्मको, लभन्ते अर्थात् प्राप्त होते हैं।
अर्थ - जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञानके द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभावसे परमात्मामें स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्मको प्राप्त होते हैं ॥ २५ ॥"
"व्याख्या- 'यतात्मानः '- नित्य सत्यतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ लक्ष्य होनेके कारण साधकोंको शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वशमें हो जाते हैं। वशमें होनेके कारण इनमें राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली हो जाती है।
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपने और अपने लिये मानते रहनेसे ही ये अपने वशमें नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जबतक विद्यमान रहते हैं, तबतक साधक स्वयं इनके वशमें रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीरादिको कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा माननेसे इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वशमें हो जाते हैं। अतः जिनका शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें अपनेपनका भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादिको कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकोंके लिये यहाँ 'यतात्मानः' पद आया है।
'सर्वभूतहिते रताः' - सांख्ययोगकी सिद्धिमें व्यक्तित्वका अभिमान मुख्य बाधक है। इस व्यक्तित्वके अभिमानको मिटाकर तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करनेके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव होना आवश्यक है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें प्रीति ही उसके व्यक्तित्वको मिटानेका सुगम साधन है।
जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है।"
"जैसे अपने कहलानेवाले शरीरमें आकृति, अवयव, कार्य, नाम आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी ऐसा भाव रहता है कि सभी अंगोंको आराम पहुँचे, किसी भी अंगको कष्ट न हो, ऐसे ही वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, साधन- पद्धति आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होनी चाहिये कि सबको सुख पहुँचे, सबका हित हो, कभी किसीको किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो। कारण कि बाहरसे भिन्नता रहनेपर भी भीतरसे एक परमात्मतत्त्व ही समानरूपसे सबमें परिपूर्ण है। अतः प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनेसे व्यक्तिगत स्वार्थभाव सुगमतासे नष्ट हो जाता है और परमात्मतत्त्वके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।
'छिन्नद्वैधाः '- जबतक तत्त्वप्राप्तिका एक निश्चय दृढ़ नहीं होता, तबतक अच्छे-अच्छे साधकोंके अन्तःकरणमें भी कुछ-न-कुछ दुविधा विद्यमान रहती है। दृढ़ निश्चय होनेपर साधकोंको अपनी साधनामें कोई संशय, विकल्प, भ्रम आदि नहीं रहता और वे असंदिग्धरूपसे तत्परतापूर्वक अपने साधनमें लग जाते हैं।
'क्षीणकल्मषाः '- प्रकृतिसे माना हुआ जो भी सम्बन्ध है, वह सब कल्मष ही है; क्योंकि प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही सम्पूर्ण कल्मषों अर्थात् पापों, दोषों, विकारोंका हेतु है। प्रकृति तथा उसके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे स्पष्टतया अपना अलग अनुभव करनेसे साधकमें निर्विकारता स्वतः आ जाती है।
'ऋषयः'- 'ऋष्' धातुका अर्थ है - ज्ञान। उस ज्ञान-(विवेक) को महत्त्व देनेवाले ऋषि कहलाते हैं। "
"प्राचीनकालमें ऋषियोंने गृहस्थमें रहते हुए भी परमात्मतत्त्वको प्राप्त किया था। इस श्लोकमें भी सांसारिक व्यवहार करते हुए विवेकपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाले साधकोंका वर्णन है। अतः अपने विवेकको महत्त्व देनेवाले ये साधक भी ऋषि ही हैं।
'लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्'- ब्रह्म तो सभीको सदा-सर्वदा प्राप्त है ही, पर परिवर्तनशील शरीर आदिसे अपनी एकता मान लेनेके कारण मनुष्य ब्रह्मसे विमुख रहता है। जब शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब सम्पूर्ण विकारों और संशयोंका नाश होकर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्मका अनुभव हो जाता है।
'लभन्ते'- पदका तात्पर्य है कि जैसे लहरें समुद्रमें लीन हो जाती हैं, ऐसे ही सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्ममें लीन हो जाते हैं। जैसे जल-तत्त्वमें समुद्र और लहरें - ये दो भेद नहीं हैं, ऐसे ही निर्वाण ब्रह्ममें आत्मा और परमात्मा- ये दो भेद नहीं हैं।
परिशिष्ट भाव-लोगोंकी दृष्टिमें ज्ञानयोगी दूसरोंका हित करता हुआ (सर्वभूतहिते रताः) दीखता है, पर वास्तवमें वह दूसरोंका हित करता नहीं, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः- स्वाभाविक दूसरोंका हित होता है।
सम्बन्ध - चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें भगवान् ने सांख्ययोगके साधकोंद्वारा निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त करनेकी बात कही। अब आगेके श्लोकमें यह बताते हैं कि निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर उसका कैसा अनुभव होता है ?"
"(श्लोक-२६)
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥
उच्चारण की विधि - कामक्रोधवियुक्तानाम्, यतीनाम्, यतचेतसाम्, अभितः, ब्रह्मनिर्वाणम्, वर्तते, विदितात्मनाम् ॥ २६ ॥
और -
कामक्रोधवियुक्तानाम् अर्थात् काम-क्रोधसे रहित, यतचेतसाम् अर्थात् जीते हुए चित्तवाले, विदितात्मनाम् अर्थात् परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार किये हुए, यतीनाम् अर्थात् ज्ञानी पुरुषोंके लिये, अभितः अर्थात् सब ओरसे, ब्रह्मनिर्वाणम् अर्थात् शान्त परब्रह्म परमात्मा (ही), वर्तते अर्थात् परिपूर्ण हैं।
अर्थ - काम-क्रोधसे रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषोंके लिये सब ओरसे शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं ॥ २६ ॥"
"व्याख्या- 'कामक्रोधवियुक्तानां यतीनाम्'- भगवान् उपर्युक्त पदोंसे यह स्पष्ट कह रहे हैं कि सिद्ध महापुरुषमें काम-क्रोधादि दोषोंकी गन्ध भी नहीं रहती। काम-क्रोधादि दोष उत्पत्ति-विनाशशील असत् पदार्थों (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) के सम्बन्धसे उत्पन्न होते हैं। सिद्ध महापुरुषको उत्पत्ति-विनाशरहित सत्-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है, अतः उत्पत्ति- विनाशशील असत् पदार्थोंसे उसका सम्बन्ध सर्वथा नहीं रहता। उसके अनुभवमें अपने कहलानेवाले शरीर- अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारके साथ अपने सम्बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है; अतः उसमें काम-क्रोध आदि विकार कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? यदि काम-क्रोध सूक्ष्मरूपसे भी हों, तो अपनेको जीवन्मुक्त मान लेना भ्रम ही है।
उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी इच्छाको 'काम' कहते हैं। काम अर्थात् कामना अभावमें पैदा होती है। अभाव सदैव असत् में रहता है। सत्-स्वरूपमें अभाव है ही नहीं। परन्तु जब स्वरूप असत् से तादात्म्य कर लेता है, तब असत्- अंशके अभावको वह अपनेमें मान लेता है। अपनेमें अभाव माननेसे ही कामना पैदा होती है और कामना-पूर्तिमें बाधा लगनेपर क्रोध आ जाता है। इस प्रकार स्वरूपमें कामना न होनेपर भी तादात्म्यके कारण अपनेमें कामनाकी प्रतीति होती है। परन्तु जिनका तादात्म्य नष्ट हो गया है और स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, उन्हें स्वयंमें असत् के अभावका अनुभव हो ही कैसे सकता है ?"
"साधन करनेसे काम-क्रोध कम होते हैं- ऐसा साधकोंका अनुभव है। जो चीज कम होनेवाली होती है, वह मिटनेवाली होती है, अतः जिस साधनसे ये काम-क्रोध कम होते हैं, उसी साधनसे ये मिट भी जाते हैं।
साधन करनेवालोंको यह अनुभव होता है कि (१) काम- क्रोध आदि दोष पहले जितनी जल्दी आते थे, उतनी जल्दी अब नहीं आते। (२) पहले जितने वेगसे आते थे, उतने वेगसे अब नहीं आते और (३) पहले जितनी देरतक ठहरते थे, उतनी देरतक अब नहीं ठहरते। कभी-कभी साधकको ऐसा भी प्रतीत होता है कि काम-क्रोधका वेग पहलेसे भी अधिक आ गया। इसका कारण यह है कि (१) साधन करनेसे भोगासक्ति तो मिटती चली गयी और पूर्णावस्था प्राप्त हुई नहीं। (२) अन्तःकरण शुद्ध होनेसे थोड़े काम- क्रोध भी साधकको अधिक प्रतीत होते हैं। (३) कोई मनके विरुद्ध कार्य करता है तो वह साधकको बुरा लगता है, पर साधक उसकी परवाह नहीं करता। बुरा लगनेके भावका भीतर संग्रह होता रहता है। फिर अन्तमें थोड़ी-सी बातपर भी जोरसे क्रोध आ जाता है; क्योंकि भीतर जो संग्रह हुआ था, वह एक साथ बाहर निकलता है। इससे दूसरे व्यक्तिको भी आश्चर्य होता है कि इतनी थोड़ी-सी बातपर इसे इतना क्रोध कैसे आ गया !
कभी-कभी वृत्तियाँ ठीक होनेसे साधकको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी। परन्तु वास्तवमें जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।"
"यतचेतसाम्' - जबतक असत् का सम्बन्ध रहता है, तबतक मन वशमें नहीं होता। असत् का सम्बन्ध सर्वथा न रहनेसे महापुरुषोंका कहलानेवाला मन स्वतः वशमें रहता है।
'अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्' - अपने स्वरूपका वास्तविक बोध हो जानेसे उन महापुरुषोंको यहाँ 'विदितात्मनाम्' कहा गया है। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्यको लेकर मनुष्यजन्म हुआ है और मनुष्यजन्मकी इतनी महिमा गायी गयी है, उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया है।
शरीरके रहते हुए अथवा शरीर छूटनेके बाद-नित्य- निरन्तर वे महापुरुष शान्त ब्रह्ममें ही स्थित रहते हैं। जैसे भिन्न-भिन्न क्रियाओंको करते समय साधारण मनुष्योंकी शरीरमें स्थितिकी मान्यता निरन्तर रहती है, ऐसे ही भिन्न- भिन्न क्रियाओंको करते समय उन महापुरुषोंकी स्थिति निरन्तर एक ब्रह्ममें ही रहती है। उनकी इस स्वाभाविक स्थितिमें कभी थोड़ा भी अन्तर नहीं आता; क्योंकि जिस विभागमें क्रियाएँ होती हैं, उस विभाग (असत्) से उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा।
सम्बन्ध-अब आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् यह बताते हैं कि जिस तत्त्वको ज्ञानयोगी और कर्मयोगी प्राप्त करता है, उसी तत्त्वको ध्यानयोगी भी प्राप्त कर सकता है*।
* ध्यानयोग साधकको स्वतन्त्रतासे परमात्माकी प्राप्ति कराता है एवं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगके साधकोंद्वारा भी इसका उपयोग किया जा सकता है। जप, ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय- ये प्रत्येक साधकके लिये उपयोगी हैं और आवश्यक भी।"
"कल के वीडियो में हम श्लोक 27 और 28 की चर्चा करेंगे।
इन श्लोकों में बताया गया है ध्यान और संयम का वास्तविक अर्थ।
तो बने रहिए हमारे साथ और जानिए गीता का गूढ़ ज्ञान।"
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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