ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 17 - ध्यान, योग और आत्म-संतुलन का मार्गदर्शन


 

"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहां हम श्रीभगवद्गीता के गूढ़ रहस्यों को सरल शब्दों में समझते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 17 की, जिसमें श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं योग और आत्म-संतुलन का महत्व। चलिए, इस अद्भुत ज्ञान यात्रा को शुरू करते हैं।


पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 श्लोक 16 का अर्थ समझा, जहां श्रीकृष्ण ने असंयमित जीवन के परिणामों के बारे में बताया था। आज हम उससे एक कदम आगे बढ़कर संतुलित जीवन के लाभों को जानेंगे।


आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 17 पर, जिसमें श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि संतुलित आहार, श्रम और ध्यान से हम कैसे योग में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 17"

"(श्लोक-१७)


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥


उच्चारण की विधि - युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य, कर्मसु, युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगः, भवति, दुःखहा ॥ १७॥


शब्दार्थ - दुःखहा अर्थात् दुःखोंका नाश करनेवाला, योगः अर्थात् योग (तो), युक्ताहार- विहारस्य अर्थात् यथायोग्य, आहार-विहार करनेवालेका, कर्मसु अर्थात् कर्मोंमें, युक्तचेष्टस्य अर्थात् यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका (और), युक्तस्वप्नावबोधस्य अर्थात् यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका (ही सिद्ध), भवति अर्थात् होता है।


अर्थ - दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ॥ १७॥"

"व्याख्या 'युक्ताहारविहारस्य'- भोजन सत्य और न्यायपूर्वक कमाये हुए धनका हो, सात्त्विक हो, अपवित्र न हो। भोजन स्वादबुद्धि और पुष्टिबुद्धिसे न किया जाय, प्रत्युत साधनबुद्धिसे किया जाय। भोजन धर्मशास्त्र और आयुर्वेदकी दृष्टिसे किया जाय तथा उतना ही किया जाय, जितना सुगमतासे पच सके। भोजन शरीरके अनुकूल हो तथा वह हलका और थोड़ी मात्रामें (खुराकसे थोड़ा कम) हो-ऐसा भोजन करनेवाला ही युक्त (यथोचित) आहार करनेवाला है।


विहार भी यथायोग्य हो अर्थात् ज्यादा घूमना-फिरना न हो, प्रत्युत स्वास्थ्यके लिये जैसा हितकर हो, वैसा ही घूमना- फिरना हो। व्यायाम, योगासन आदि भी न तो अधिक मात्रामें किये जायँ और न उनका अभाव ही हो। ये सभी यथायोग्य हों। ऐसा करनेवालेको यहाँ युक्त-विहार करनेवाला बताया गया है।


'युक्तचेष्टस्य कर्मसु' - अपने वर्ण-आश्रमके अनुकूल जैसा देश, काल, परिस्थिति आदि प्राप्त हो जाय, उसके अनुसार शरीर-निर्वाहके लिये कर्म किये जायँ और अपनी शक्तिके अनुसार कुटुम्बियोंकी एवं समाजकी हितबुद्धिसे सेवा की जाय तथा परिस्थितिके अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय; उसको बड़ी प्रसन्नतापूर्वक किया जाय-इस प्रकार जिसकी कर्मोंमें यथोचित चेष्टा है, उसका नाम यहाँ 'युक्तचेष्ट' है।


'युक्तस्वप्नावबोधस्य' - सोना इतनी मात्रामें हो, जिससे जगनेके समय निद्रा-आलस्य न सताये। दिनमें जागता रहे और रात्रिके समय भी आरम्भमें तथा रातके अन्तिम भागमें जागता रहे। रातके मध्यभागमें सोये। इसमें भी रातमें ज्यादा देरतक जागनेसे सबेरे जल्दी नींद नहीं खुलेगी। अतः जल्दी सोये और जल्दी जागे। तात्पर्य है कि जिस सोने और जागनेसे स्वास्थ्यमें बाधा न पड़े, योगमें विघ्न न आये, ऐसे यथोचित सोना और जागना चाहिये।"

"यहाँ 'युक्तस्वप्नस्य' कहकर निद्रावस्थाको ही यथोचित कह देते, तो योगकी सिद्धिमें बाधा नहीं लगती थी और पूर्वश्लोकमें कहे हुए 'अधिक सोना और बिलकुल न सोना' - इनका निषेध यहाँ 'यथोचित सोना' कहनेसे ही हो जाता, तो फिर यहाँ 'अवबोध' शब्द देनेमें क्या तात्पर्य है ? यहाँ 'अवबोध' शब्द देनेका तात्पर्य है- जिसके लिये मानवजन्म मिला है, उस काममें लग जाना, भगवान् में लग जाना अर्थात् सांसारिक सम्बन्धसे ऊँचा उठकर साधनामें यथायोग्य समय लगाना। इसीका नाम जागना है।


यहाँ ध्यानयोगीके आहार, विहार, चेष्टा, सोना और जगना - इन पाँचोंको 'युक्त' (यथायोग्य) कहनेका तात्पर्य है कि वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति, जीविका आदिको लेकर सबके नियम एक समान नहीं चल सकते; अतः जिसके लिये जैसा उचित हो, वैसा करनेसे दुःखोंका नाश करनेवाला योग सिद्ध हो जाता है।


'योगो भवति दुःखहा' - इस प्रकार यथोचित आहार, विहार आदि करनेवाले ध्यानयोगीका दुःखोंका अत्यन्त अभाव करनेवाला योग सिद्ध हो जाता है।


योग और भोगमें विलक्षण अन्तर है। योगमें तो भोगका अत्यन्त अभाव है, पर भोगमें योगका अत्यन्त अभाव नहीं है। कारण कि भोगमें जो सुख होता है, वह सुखानुभूति भी असत् के संयोगका वियोग होनेसे होती है। परन्तु मनुष्यकी उस वियोगपर दृष्टि न रहकर असत् के संयोगपर ही दृष्टि रहती है। अतः मनुष्य भोगके सुखको संयोगजन्य ही मान लेता है और ऐसा माननेसे ही भोगासक्ति पैदा होती है। इसलिये उसको दुःखोंका नाश करनेवाले योगका अनुभव नहीं होता। दुःखोंका नाश करनेवाला योग वही होता है, जिसमें भोगका अत्यन्त अभाव होता है।"

"विशेष बात


यद्यपि यह श्लोक ध्यानयोगीके लिये कहा गया है, तथापि इस श्लोकको सभी साधक अपने काममें ले सकते हैं और इसके अनुसार अपना जीवन बनाकर अपना उद्धार कर सकते हैं। इस श्लोकमें मुख्यरूपसे चार बातें बतायी गयी हैं - युक्त आहार-विहार, युक्त कर्म, युक्त सोना और युक्त जागना। इन चार बातोंको साधक काममें कैसे लाये ? इसपर विचार करना है।


हमारे पास चौबीस घंटे हैं और हमारे सामने चार काम हैं। चौबीस घंटोंको चारका भाग देनेसे प्रत्येक कामके लिये छः- छः घंटे मिल जाते हैं; जैसे- (१) आहार-विहार अर्थात् भोजन करना और घूमना-फिरना इन शारीरिक आवश्यक कार्योंके लिये छः घंटे। (२) कर्म अर्थात् खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका सम्बन्धी कार्योंके लिये छः घंटे। (३) सोनेके लिये छः घंटे और (४) जागने अर्थात् भगवत्प्राप्तिके लिये जप, ध्यान, साधन-भजन, कथा-कीर्तन आदिके लिये छः घंटे।


इन चार बातोंके भी दो-दो बातोंके दो विभाग हैं- एक विभाग 'उपार्जन' अर्थात् कमानेका है और दूसरा विभाग 'व्यय' अर्थात् खर्चेका है। युक्त कर्म और युक्त जगना-ये दो बातें उपार्जनकी हैं। युक्त आहार-विहार और युक्त सोना - ये दो बातें व्ययकी हैं। उपार्जन और व्यय- इन दो विभागोंके लिये हमारे पास दो प्रकारकी पूँजी है- (१) सांसारिक धन-धान्य और (२) आयु।


पहली पूँजी-धन-धान्यपर विचार किया जाय तो उपार्जन अधिक करना तो चल जायगा, पर उपार्जनकी अपेक्षा अधिक खर्चा करनेसे काम नहीं चलेगा। इसलिये आहार- विहारमें छः घंटे न लगाकर चार घंटेसे ही काम चला ले और खेती, व्यापार आदिमें आठ घंटे लगा दे। तात्पर्य है कि आहार-विहारका समय कम करके जीविका सम्बन्धी कार्योंमें अधिक समय लगा दे।"

"दूसरी पूँजी-आयुपर विचार किया जाय तो सोनेमें आयु व्यर्थ खर्च होती है। अतः सोनेमें छः घंटे न लगाकर चार घंटेसे ही काम चला ले और भजन-ध्यान आदिमें आठ घंटे लगा दे। तात्पर्य है कि जितना कम सोनेसे काम चल जाय, उतना चला ले और नींदका बचा हुआ समय भगवान् के भजन-ध्यान आदिमें लगा दे। इस उपार्जन (साधन-भजन) की मात्रा तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहनी चाहिये; क्योंकि हम यहाँ सांसारिक धन-वैभव आदि कमानेके लिये नहीं आये हैं, प्रत्युत परमात्माकी प्राप्ति करनेके लिये ही आये हैं। इसलिये दूसरे समयमेंसे जितना समय निकाल सकें, उतना समय निकालकर अधिक-से-अधिक भजन-ध्यान करना चाहिये।


दूसरी बात, जीविका सम्बन्धी कर्म करते समय भी भगवान् को याद रखे और सोते समय भी भगवान् को याद रखे। सोते समय यह समझे कि अबतक चलते-फिरते, बैठकर भजन किया है, अब लेटकर भजन करना है। लेटकर भजन करते-करते नींद आ जाय तो आ जाय, पर नींदके लिये नींद नहीं लेनी है। इस प्रकार लेटकर भगवत्स्मरण करनेका समय पूरा हो गया, तो फिर उठकर भजन-ध्यान, सत्संग-स्वाध्याय करे और भगवत्स्मरण करते हुए ही काम-धंधेमें लग जाय, तो सब-का-सब काम-धंधा भजन हो जायगा।


परिशिष्ट भाव - सोलहवाँ और सत्रहवाँ श्लोक ध्यानयोगीके लिये तो उपयोगी हैं ही, अन्य योगियों (साधकों) के लिये भी बड़े उपयोगी हैं।


सम्बन्ध-पीछेके दो श्लोकोंमें ध्यानयोगके लिये अन्वय- व्यतिरेक-रीतिसे खास नियम बता दिये। अब ऐसे नियमोंका पालन करते हुए स्वरूपका ध्यान करनेवाले साधककी क्या स्थिति होती है, यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।"

कल के वीडियो में हम अध्याय 6 श्लोक 18 की चर्चा करेंगे, जहां ध्यान की गहन अवस्था और इसकी महत्ता का वर्णन किया गया है।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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