ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 19 - ध्यान और स्थिरता के गूढ़ रहस्य!

 

"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहाँ हम भगवद गीता के श्लोकों का गहराई से विश्लेषण करते हैं। आज हम अध्याय 6 के श्लोक 19 पर चर्चा करेंगे, जो ध्यान और मन की स्थिरता के गूढ़ रहस्य को उजागर करता है। बने रहिए हमारे साथ इस अद्भुत यात्रा में।


पिछले श्लोक में हमने जाना कि किस प्रकार संतुलित आहार, दिनचर्या और जीवनशैली ध्यान के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह हमें मन और शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करने में मदद करता है।


आज के श्लोक में, श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि ध्यान में मन की स्थिति कैसी होनी चाहिए। इसे एक दीपक की स्थिर लौ से तुलना करते हुए, उन्होंने ध्यान की शक्ति को उजागर किया है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 19"

"दीपके दृष्टान्तसे योगीके चित्तकी स्थितिका वर्णन ।


(श्लोक-१९)


यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥


उच्चारण की विधि - यथा, दीपः, निवातस्थः, न, इङ्गते, सा, उपमा, स्मृता, योगिनः, यतचित्तस्य, युञ्जतः, योगम्, आत्मनः ॥ १९ ॥


शब्दार्थ - यथा अर्थात् जिस प्रकार, निवातस्थः अर्थात् वायुरहित स्थानमें स्थित, दीपः अर्थात् दीपक, न इङ्गते अर्थात् चलायमान नहीं होता, सा अर्थात् वैसी ही, उपमा अर्थात् उपमा, आत्मनः अर्थात् परमात्माके, योगम् अर्थात् ध्यानमें, युञ्जतः अर्थात् लगे हुए, योगिनः अर्थात् योगीके, यतचित्तस्य अर्थात् जीते हुए चित्तकी, स्मृता अर्थात् कही गयी है।


अर्थ - जिस प्रकार वायुरहित स्थानमें स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्माके ध्यानमें लगे हुए योगीके जीते हुए चित्तकी कही गयी है ॥ १९ ॥"

"व्याख्या- 'यथा दीपो निवातस्थो...युञ्जतो योगमात्मनः'- जैसे सर्वथा स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें रखे हुए दीपककी लौ थोड़ी भी हिलती-डुलती नहीं है, ऐसे ही जो योगका अभ्यास करता है, जिसका मन स्वरूपके चिन्तनमें लगता है और जिसने चित्तको अपने वशमें कर रखा है, उस ध्यानयोगीके चित्तके लिये भी दीपककी लौकी उपमा दी गयी है। तात्पर्य है कि उस योगीका चित्त स्वरूपमें ऐसा लगा हुआ है कि उसमें एक स्वरूपके सिवाय दूसरा कुछ भी चिन्तन नहीं होता। 


पूर्वश्लोकमें जिस योगीके चित्तको विनियत कहा गया है, उस वशीभूत किये हुए चित्तवाले योगीके लिये यहाँ 'यतचित्तस्य' पद आया है।


कोई भी स्थान वायुसे सर्वथा रहित नहीं होता। वायु सर्वत्र रहती है। कहींपर वायु स्पन्दनरूपसे रहती है और कहींपर निःस्पन्दनरूपसे रहती है। इसलिये यहाँ 'निवातस्थः' पद वायुके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत स्पन्दित वायुके अभावका वाचक है।


यहाँ उपमेय चित्तको पर्वत आदि स्थिर, अचल पदार्थोंकी उपमा न देकर दीपककी लौकी ही उपमा क्यों दी गयी ? दीपककी लौ तो स्पन्दित वायुसे हिल भी सकती है, पर पर्वत कभी हिलता ही नहीं। अतः पर्वतकी ही उपमा देनी चाहिये थी ? "

"इसका उत्तर यह है कि पर्वत स्वभावसे ही स्थिर, अचल और प्रकाशहीन है, जब कि दीपककी लौ स्वभावसे चंचल और प्रकाशमान है। चंचल वस्तुको स्थिर रखनेमें विशेष कठिनता पड़ती है। चित्त भी दीपककी लौके समान स्वभावसे ही चंचल है, इसलिये चित्तको दीपककी लौकी उपमा दी गयी है।


दूसरी बात, जैसे दीपककी लौ प्रकाशमान होती है, ऐसे ही योगीके चित्तकी परमात्मतत्त्वमें जागृति रहती है। यह जागृति सुषुप्तिसे विलक्षण है। यद्यपि सुषुप्ति और समाधि-इन दोनोंमें संसारकी निवृत्ति समान रहती है, तथापि सुषुप्तिमें चित्तवृत्ति अविद्यामें लीन हो जाती है। अतः उस अवस्थामें स्वरूपका भान नहीं होता। परन्तु समाधिमें चित्तवृत्ति जाग्रत् रहती है अर्थात् चित्तमें स्वरूपकी जागृति रहती है। इसीलिये यहाँ दीपककी लौका दृष्टान्त दिया गया है। इसी बातको चौथे अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें 'ज्ञानदीपिते' पदसे कहा है।


सम्बन्ध-जिस अवस्थामें पूर्णता प्राप्त होती है, उस अवस्थाका आगेके श्लोकमें स्पष्ट वर्णन करते हैं।"

कल के श्लोक में हम जानेंगे ध्यान की गहन स्थिति और उसकी अनुभूति के बारे में। ध्यान की पूर्णता और उसके फलस्वरूप आत्मा की स्थिरता पर चर्चा करेंगे।

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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