ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 4 - आत्म-संयम और साधना का महत्व
"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारी भगवद गीता श्लोक चर्चा सीरीज में। आज हम अध्याय 6 के श्लोक 4 पर चर्चा करेंगे। यह श्लोक हमें आत्म-संयम और साधना की महत्ता को समझाने में मदद करता है। तो चलिए, शुरुआत करते हैं!""
""पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 2 और 3 पर चर्चा की, जहां श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और सन्यास के महत्व को समझाया था।""
""आज का श्लोक हमें यह सिखाता है कि जब कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित कर लेता है और हर भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, तब वह सच्चे साधक के रूप में पहचाना जाता है। यह आत्म-संयम और साधना का एक अद्भुत पाठ है।""
श्लोक:
""यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।""
अर्थ: जब कोई व्यक्ति इंद्रिय सुखों और कर्मों के प्रति आसक्त नहीं होता और वह अपने सभी संकल्पों का त्याग करता है, तभी वह योग की उन्नति को प्राप्त करता है।
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मनुष्य को अपने इंद्रियों और इच्छाओं को नियंत्रित करना चाहिए। जब व्यक्ति हर प्रकार की आसक्ति को छोड़ देता है, तभी वह आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता है।
"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 4"
"योगारूढ़ पुरुषके लक्षण ।
(श्लोक-४)
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
उच्चारण की विधि - यदा, हि, न, इन्द्रियार्थेषु, न, कर्मसु, अनुषज्जते, सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी, योगारूढः, तदा, उच्यते ॥ ४ ॥
शब्दार्थ - यदा अर्थात् जिस कालमें, न अर्थात् न (तो), इन्द्रियार्थेषु अर्थात् इन्द्रियोंके भोगोंमें (और), न अर्थात् न, कर्मसु अर्थात् कर्मोंमें, हि अर्थात् ही, अनुषज्जते अर्थात् आसक्त होता है, तदा अर्थात् उस कालमें, सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी अर्थात् सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष, योगारूढः अर्थात् योगारूढ़, उच्यते अर्थात् कहा जाता है।
अर्थ - जिस कालमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है उस कालमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है ॥ ४॥"
"व्याख्या'यदा हि नेन्द्रियार्थेषु (अनुषज्जते)'- साधक इन्द्रियोंके अर्थोंमें अर्थात् प्रारब्धके अनुसार प्राप्त होनेवाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन पाँचों विषयोंमें; अनुकूल पदार्थ, परिस्थिति, घटना, व्यक्ति आदिमें और शरीरके आराम, मान, बड़ाई आदिमें आसक्ति न करे, इनका भोगबुद्धिसे भोग न करे, इनमें राजी न हो, प्रत्युत यह अनुभव करे कि ये सब विषय, पदार्थ आदि आये हैं और प्रतिक्षण चले जा रहे हैं। ये आने-जानेवाले और अनित्य हैं, फिर इनमें क्या राजी हों- ऐसा अनुभव करके इनसे निर्लेप रहे।
इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्त न होनेका साधन है- इच्छापूर्तिका सुख न लेना। जैसे, कोई मनचाही बात हो जाय; मनचाही वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि मिल जाय और जिसको नहीं चाहता, वह न हो तो मनुष्य उसमें राजी (प्रसन्न) हो जाता है तथा उससे सुख लेता है। सुख लेनेपर इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति बढ़ती है। अतः साधकको चाहिये कि अनुकूल वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके मिलनेकी इच्छा न करे और बिना इच्छाके अनुकूल वस्तु आदि मिल भी जाय तो उसमें राजी न हो। ऐसा होनेसे इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति नहीं होगी। दूसरी बात, मनुष्यके पास अनुकूल चीजें न होनेसे यह उन चीजोंके अभावका अनुभव करता है और उनके मिलनेपर यह उनके अधीन हो जाता है। जिस समय इसको अभावका अनुभव होता था, उस समय भी परतन्त्रता थी और अब उन चीजोंके मिलनेपर भी 'कहीं इनका वियोग न हो जाय'- इस तरहकी परतन्त्रता होती है। अतः वस्तुके न मिलने और मिलनेमें फर्क इतना ही रहा कि वस्तुके न मिलनेसे तो वस्तुकी परतन्त्रताका अनुभव होता था, "
"पर वस्तुके मिलनेपर परतन्त्रताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत उसमें मनुष्यको स्वतन्त्रता दीखती है- यह उसको धोखा होता है। जैसे कोई किसीके साथ विश्वासघात करता है, ऐसे ही अनुकूल परिस्थितिमें राजी होनेसे मनुष्य अपने साथ विश्वासघात करता है। कारण कि यह मनुष्य अनुकूल परिस्थितिके अधीन हो जाता है, उसको भोगते-भोगते इसका स्वभाव बिगड़ जाता है और बार-बार सुख भोगनेकी कामना होने लगती है। यह सुखभोगकी कामना ही इसके जन्म-मरणका कारण बन जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि अनुकूलताकी इच्छा करना, आशा करना और अनुकूल विषय आदिमें राजी होना-यह सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल है। इससे कोई-सा भी अनर्थ, पाप बाकी नहीं रहता। अगर इसका त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है।
तीसरी बात, हमारे पास निर्वाहमात्रके सिवाय जितनी अनुकूल भोग्य वस्तुएँ हैं, वे अपनी नहीं हैं। वे किसकी हैं, इसका हमें पता नहीं है; परन्तु जब कोई अभावग्रस्त प्राणी मिल जाय, तो उस सामग्रीको उसीकी समझकर उसके अर्पण कर देनी चाहिये [यह आपकी ही है-ऐसा उससे कहना नहीं है], और उसे देकर ऐसा मानना चाहिये कि निर्वाहसे अतिरिक्त जो वस्तुएँ मेरे पास पड़ी थीं, उस ऋणसे मैं मुक्त हो गया हूँ। तात्पर्य है कि निर्वाहसे अतिरिक्त वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्यकी भोगोंमें आसक्ति नहीं होती।
'न कर्मस्वनुषज्जते ' * - जैसे इन्द्रियोंको अर्थोंमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये, ऐसे ही कर्मोंमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये अर्थात् क्रियमाण कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें और उन कर्मोंकी तात्कालिक फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये।"
"* यहाँ 'कर्मसु' पद बहुवचन है, जिसका तात्पर्य है कि आसक्त पुरुषमें अनेक कर्मोंकी और उनके फलोंकी इच्छा रहती है। परन्तु अठारहवें अध्यायके पैंतालीसवें श्लोकमें 'कर्मणि' पद एकवचन है, जिसका तात्पर्य है कि आसक्तिरहित पुरुषके द्वारा कर्म तो अनेक होते हैं, पर उसमें कर्तव्यबुद्धि एक ही रहती है।
कारण कि कर्म करनेमें भी एक राग होता है। कर्म ठीक तरहसे हो जाता है तो उससे एक सुख मिलता है और कर्म ठीक तरहसे नहीं होता तो मनमें एक दुःख होता है। यह सुख-दुःखका होना कर्मकी आसक्ति है। अतः साधक कर्म तो विधिपूर्वक और तत्परतासे करे, पर उसमें आसक्त न होकर सावधानीपूर्वक निर्लिप्त रहे कि ये तो आने-जानेवाले हैं और हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले हैं; अतः इनके होने-न- होनेमें, आने-जानेमें हमारेमें क्या फर्क पड़ता है ?
कर्मोंमें आसक्ति होनेकी पहचान क्या है? अगर क्रियमाण (वर्तमानमें किये जानेवाले) कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें और उनसे मिलनेवाले तात्कालिक फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें अर्थात् सिद्धि-असिद्धिमें मनुष्य निर्विकार नहीं रहता, प्रत्युत उसके अन्तःकरणमें हर्ष-शोकादि विकार होते हैं, तो समझना चाहिये कि उसकी कर्मोंमें और उनके तात्कालिक फलमें आसक्ति रह गयी है।
इन्द्रियोंके अर्थोंमें और कर्मोंमें आसक्त न होनेका तात्पर्य यह हुआ कि स्वयं (स्वरूप) चिन्मय परमात्माका अंश होनेसे नित्य अपरिवर्तनशील है और पदार्थ तथा क्रियाएँ प्रकृतिका कार्य होनेसे नित्य-निरन्तर बदलते रहते हैं। परन्तु जब स्वयं उन परिवर्तनशील पदार्थों और क्रियाओंमें आसक्त हो जाता है, तब यह उनके अधीन हो जाता है और बार-बार जन्म-मरणरूप महान् दुःखोंका अनुभव करता रहता है। "
"उन पदार्थों और क्रियाओंसे अर्थात् प्रकृतिसे सर्वथा मुक्त होनेके लिये भगवान् ने दो विभाग बताये हैं कि न तो इन्द्रियोंके अर्थोंमें अर्थात् पदार्थोंमें आसक्ति करे और न कर्मोंमें (क्रियाओंमें) आसक्ति करे। ऐसा करनेपर मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है।
यहाँ एक बात समझनेकी है कि क्रियाओंमें प्रियता प्रायः फलको लेकर ही होती है और फल होता है- इन्द्रियोंके भोग। अतः इन्द्रियोंके भोगोंकी आसक्ति सर्वथा मिट जाय तो क्रियाओंकी आसक्ति भी मिट जाती है। फिर भी भगवान् ने क्रियाओंकी आसक्ति मिटानेकी बात अलग क्यों कही ? इसका कारण यह है कि क्रियाओंमें भी एक स्वतन्त्र आसक्ति होती है। फलेच्छा न होनेपर भी मनुष्यमें एक करनेका वेग होता है। यह वेग ही क्रियाओंकी आसक्ति है, जिसके कारण मनुष्यसे बिना कुछ किये रहा नहीं जाता, वह कुछ-न-कुछ काम करता ही रहता है।
यह आसक्ति मिटती है केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे अथवा भगवान् के लिये कर्म करनेसे। इसलिये भगवान् ने बारहवें अध्यायमें पहले अभ्यासयोग बताया। परन्तु भीतरमें करनेका वेग होनेसे अभ्यासमें मन नहीं लगता; अतः करनेका वेग मिटानेके लिये दसवें श्लोकमें बताया कि साधक मेरे लिये ही कर्म करे (बारहवें अध्यायका दसवाँ श्लोक)। तात्पर्य है कि पारमार्थिक अभ्यास आदि करनेमें जिसका मन नहीं लगता और भीतरमें कर्म करनेका वेग (आसक्ति) पड़ा है, तो वह भक्तियोगका साधक केवल भगवान् के लिये ही कर्म करे। इससे उसकी आसक्ति मिट जायगी। ऐसे ही कर्मयोगका साधक केवल संसारके हितके लिये ही कर्म करे, तो उसका करनेका वेग (आसक्ति) मिट जायगा।"
"जैसे कर्म करनेकी आसक्ति होती है, ऐसे ही कर्म न करनेकी भी आसक्ति होती है। कर्म न करनेकी आसक्ति भी नहीं होनी चाहिये; क्योंकि कर्म न करनेकी आसक्ति आलस्य और प्रमाद पैदा करती है, जो कि तामसी वृत्ति है और कर्म करनेकी आसक्ति व्यर्थ चेष्टाओंमें लगाती है, जो कि राजसी वृत्ति है।
वह योगारूढ़ कितने दिनोंमें, कितने महीनोंमें अथवा कितने वर्षोंमें होगा ? इसके लिये भगवान् 'यदा' और 'तदा' पद देकर बताते हैं कि जिस कालमें मनुष्य इन्द्रियोंके अर्थोंमें और क्रियाओंमें सर्वथा आसक्तिरहित हो जाता है, तभी वह योगारूढ़ हो जाता है। जैसे, किसीने यह निश्चय कर लिया कि 'मैं आजसे कभी इच्छापूर्तिका सुख नहीं लूँगा।' अगर वह अपने इस निश्चय (प्रतिज्ञा) पर दृढ़ रहे, तो वह आज ही योगारूढ़ हो जायगा। इस बातको बतानेके लिये ही भगवान् ने 'यदा' और 'तदा' पदोंके साथ 'हि' पद दिया है।
पदार्थों और क्रियाओंमें आसक्ति करने और न करनेमें भगवान् ने मनुष्यमात्रको यह स्वतन्त्रता दी है कि तुम साक्षात् मेरे अंश हो और ये पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृतिजन्य हैं। इनमें पदार्थ भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा क्रियाओंका भी आरम्भ और अन्त हो जाता है। अतः ये नित्य रहनेवाले नहीं हैं और तुम नित्य रहनेवाले हो। तुम नित्य होकर भी अनित्यमें फँस जाते हो, अनित्यमें आसक्ति, प्रियता कर लेते हो। इससे तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगता, केवल दुःख-ही-दुःख पाते रहते हो। अतः तुम आजसे ही यह विचार कर लो कि 'हमलोग पदार्थों और क्रियाओंमें सुख नहीं लेंगे' तो तुमलोग आज ही योगारूढ़ हो जाओगे; क्योंकि योग अर्थात् समता तुम्हारे घरकी चीज है। "
"समता तुम्हारा स्वरूप है और स्वरूप सत् है। सत् का कभी अभाव नहीं होता और असत् का कभी भाव नहीं होता। ऐसे सत्- स्वरूप तुम असत् पदार्थों और क्रियाओंमें आसक्ति मत करो तो तुम्हें स्वतःसिद्ध योगारूढ़ अवस्थाका अनुभव हो जायगा।
'सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी' - हमारे मनमें जितनी स्फुरणाएँ होती हैं, उन स्फुरणाओंमेंसे जिस स्फुरणामें सुख होता है और उसको लेकर यह विचार होता है कि 'हमें ऐसा मिल जाय; हम इतने सुखी हो जायँगे', तो इस तरह स्फुरणामें लिप्तता होनेसे उस स्फुरणाका नाम 'संकल्प' हो जाता है। वह संकल्प ही अनुकूलता-प्रतिकूलताके कारण सुखदायी और दुःखदायी होता है। जैसे सुखदायी संकल्प लिप्तता (राग-द्वेष) करता है, ऐसे ही दुःखदायी संकल्प भी लिप्तता करता है। अतः दोनों ही संकल्प बन्धनमें डालनेवाले हैं। उनसे हानिके सिवाय कुछ लाभ नहीं है; क्योंकि संकल्प न तो अपने स्वरूपका बोध होने देता है, न दूसरोंकी सेवा करने देता है, न भगवान् में प्रेम होने देता है, न भगवान् में मन लगने देता है, न अपने नजदीकके कुटुम्बियोंके अनुकूल ही बनने देता है। तात्पर्य है कि अपना संकल्प रखनेसे न अपना हित होता है, न संसारका हित होता है, न कुटुम्बियोंकी कोई सेवा होती है, न भगवान् की प्राप्ति होती है और न अपने स्वरूपका बोध ही होता है। इससे केवल हानि-ही-हानि होती है। ऐसा समझकर साधकको सम्पूर्ण संकल्पोंसे रहित हो जाना चाहिये, जो कि वास्तवमें है ही।
मनमें होनेवाली स्फुरणा यदि संकल्पका रूप धारण न करे, तो वह स्फुरणा स्वतः नष्ट हो जाती है। "
"स्फुरणा होनेमात्रसे मनुष्यकी उतनी हानि नहीं होती और पतन भी नहीं होता; परन्तु समय तो नष्ट होता ही है; अतः वह स्फुरणा भी त्याज्य है। पर संकल्पोंका त्याग तो साधकको जरूर ही करना चाहिये। कारण कि संकल्पोंका त्याग किये बिना अर्थात् अपने मनकी छोड़े बिना साधक योगारूढ़ नहीं होता और योगारूढ़ हुए बिना परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, कृतकृत्यता नहीं होती, मनुष्यजन्म सार्थक नहीं होता, भगवान् में प्रेम नहीं होता, दुःखोंका सर्वथा अन्त नहीं होता।
दूसरे श्लोकमें तो भगवान् ने व्यतिरेक-रीतिसे कहा है कि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता और यहाँ अन्वय रीतिसे कहते हैं कि संकल्पोंका त्याग करनेसे मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है। इसका तात्पर्य यह निकला कि साधकको किसी प्रकारका संकल्प नहीं रखना चाहिये।
संकल्पोंके त्यागके उपाय- (१) भगवान् ने हमारे लिये अपनी तरफसे अन्तिम जन्म (मनुष्यजन्म) दिया है कि तुम इससे अपना उद्धार कर लो। अतः हमें मनुष्य-जन्मके अमूल्य, मुक्तिदायक समयको निरर्थक संकल्पोंमें बरबाद नहीं करना है-ऐसा विचार करके संकल्पोंको हटा दे।
२) कर्मयोगके साधकको अपने कर्तव्यका पालन करना है। कर्तव्यका सम्बन्ध वर्तमानसे है, भूत-भविष्यत् कालसे नहीं। परन्तु संकल्प-विकल्प भूत और भविष्यत् कालके होते हैं; वर्तमानके नहीं। अतः साधकको अपने कर्तव्यका त्याग करके भूत-भविष्यत् कालके संकल्प-विकल्पोंमें नहीं फँसना चाहिये, प्रत्युत आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करनेमें लगे रहना चाहिये (गीता- तीसरे अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) ।"
"(३) ज्ञानयोगके साधकको इस बातपर दृढ़ रहना चाहिये कि वास्तवमें सत्ता एक परमात्मतत्त्वकी ही है। संकल्पोंकी, संसारकी सत्ता ही नहीं है। इसलिये कोई संकल्प आये तो वह उससे उदासीन रहे; उसमें न राग करे, न द्वेष।
(४) भक्तियोगके साधकको विचार करना चाहिये कि मनमें जितने भी संकल्प आते हैं, वे प्रायः भूतकालके आते हैं, जो कि अभी नहीं है अथवा भविष्यत् कालके आते हैं, जो कि आगे होनेवाला है अर्थात् जो अभी नहीं है। अतः जो अभी नहीं है, उसके चिन्तनमें समय बरबाद करना और जो भगवान् अभी हैं, अपनेमें हैं और अपने हैं, उनका चिन्तन न करना-यह कितनी बड़ी गलती है! ऐसा विचार करके संकल्पोंको हटा दे।
'योगारूढस्तदोच्यते'- सिद्धि-असिद्धिमें सम रहनेका नाम 'योग' है (गीता - दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ श्लोक)। इस योग अर्थात् समतापर आरूढ़ होना, स्थित होना ही योगारूढ़ होना है। योगारूढ़ होनेपर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
दूसरे श्लोकमें भगवान् ने यह कहा था कि संकल्पोंका त्याग किये बिना कोई-सा भी योग सिद्ध नहीं होता और यहाँ कहा है कि संकल्पोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे वह योगारूढ़ हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि सभी तरहके योगोंसे योगारूढ़ अवस्था प्राप्त होती है। यद्यपि यहाँ कर्मयोगका ही प्रकरण है, पर संकल्पोंका सर्वथा त्याग करनेसे योगारूढ़ अवस्थामें सब एक हो जाते हैं (गीता- पाँचवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)।
परिशिष्ट भाव - योगारूढ़की पहचान क्या है? इसके लिये यहाँ तीन बातें बतायी हैं- पदार्थों (वस्तुओं तथा व्यक्तियों) में आसक्ति न होना, क्रियाओंमें आसक्ति न होना और सम्पूर्ण संकल्पोंका अर्थात् मनचाहीका त्याग होना। "
"तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके भोगोंमें और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तथा भीतरसे यह आग्रह भी न हो कि ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये। जिसकी न तो पदार्थोंमें आसक्ति है और न पदार्थोंके अभावमें आसक्ति है; न क्रियाओंमें आसक्ति है और न क्रियाओंके अभावमें आसक्ति है तथा न कोई संकल्प है, वह 'योगारूढ़' है। तात्पर्य है कि पदार्थ मिले या न मिले, व्यक्ति मिले या न मिले, क्रिया हो या न हो-इसका कोई आग्रह नहीं होना चाहिये (गीता- तीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक)।
साधकको विचार करना चाहिये कि ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सदा हमारे पास रहेगी और हम सदा उसके पास रहेंगे? ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जो सदा हमारे साथ रहेगा और हम सदा उसके साथ रहेंगे? ऐसी कौन-सी क्रिया है, जिसको हम सदा करते रहेंगे और जो सदा हमसे होती रहेगी ? सदाके लिये हमारे साथ न कोई वस्तु रहेगी, न कोई व्यक्ति रहेगा और न कोई क्रिया रहेगी। एक दिन हमें वस्तु, व्यक्ति और क्रियासे रहित होना ही पड़ेगा। अगर हम वर्तमानमें ही उनके वियोगको स्वीकार कर लें, उनसे असंग हो जायँ तो जीवन्मुक्ति स्वतः सिद्ध है। तात्पर्य है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियाका संयोग तो अनित्य है, पर वियोग नित्य है। नित्यको स्वीकार करनेसे नित्य-तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और कोई अभाव शेष नहीं रहता।
इन्द्रियोंके भोगोंमें और कर्मोंमें आसक्ति न होनेका अर्थ है - कामनारहित और कर्तृत्वरहित होना। इन्द्रियोंके भोगोंमें, पदार्थोंमें आसक्ति न हो तो साधक कामनारहित हो जाता है और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तो कर्तृत्वरहित हो जाता है। "
"कामनारहित और कर्तृत्वरहित होनेपर स्वरूपमें स्वतः स्थिति हो जाती है। वास्तवमें स्थिति होती नहीं, प्रत्युत स्थिति है; परन्तु कामनारहित और कर्तृत्वरहित न होनेसे इसका अनुभव नहीं होता। कामना और कर्तृत्वका अभाव होनेपर स्वरूपमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है।
जैसे लिखनेके समय लेखनीको काममें लेते हैं और लिखना पूरा होते ही लेखनीको ज्यों-का-त्यों रख देते हैं, ऐसे ही साधक कार्य करते समय शरीरको काममें ले और कार्य पूरा होते ही उसको ज्यों-का-त्यों रख दे अर्थात् उससे असंग हो जाय तो प्रत्येक क्रियाके बाद उसकी योग (समता) में स्थिति होगी। अगर क्रियासे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाय तो वह योगारूढ़ हो जायगा।
क्रिया (भोग) और पदार्थ (ऐश्वर्य) की आसक्तिसे पतन होता है (गीता-दूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक)।
इसलिये न तो क्रियामें आसक्ति हो और न फलमें ही आसक्ति हो (गीता- दूसरे अध्यायका सैंतालीसवाँ और पाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक)। संकल्पजन्य सुखका भोग भी न हो अर्थात् संकल्पपूर्तिका सुख भी न ले। अपनी मुक्तिका भी संकल्प न हो; क्योंकि मुक्तिके संकल्पसे बन्धनकी सत्ता दृढ़ होती है। अतः कोई भी संकल्प न रखकर उदासीन रहे।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने योगारूढ़ मनुष्यके लक्षण बताते हुए 'यदा' और 'तदा' पदसे योगारूढ़ होनेमें अर्थात् अपना उद्धार करनेमें मनुष्यको स्वतन्त्र बताया। अब आगेके श्लोकमें भगवान् मनुष्यमात्रको अपना उद्धार करनेकी प्रेरणा करते हैं।"
दोस्तों, अगले वीडियो में हम अध्याय 6 के श्लोक 5 पर चर्चा करेंगे। यह श्लोक हमें आत्मा को ऊपर उठाने और अपनी सोच को सुधारने की प्रेरणा देगा। इसे मिस मत करना!
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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