ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 6 से 7 - आत्मनियंत्रण और आंतरिक शक्ति के गूढ़ रहस्य



नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका भगवद गीता के अध्याय 6 की चर्चा में, जहाँ हम आपके लिए श्लोकों का गहराई से अध्ययन करते हैं। आज हम जानेंगे कि आत्मनियंत्रण और आंतरिक शक्ति कैसे हमारे जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं।


पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 5 पर चर्चा की थी, जिसमें आत्मा के उद्धार की प्रक्रिया को समझाया गया।


आज के श्लोक 6 और 7 हमें सिखाते हैं कि आत्मा का शत्रु कौन है और कैसे आत्म-शक्ति ही हमारी सबसे बड़ी मित्र बन सकती है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, जो व्यक्ति आत्मा को जीत लेता है, वही अपने जीवन का स्वामी बनता है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 6 से 7"

"आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है, इस पूर्वोक्त रहस्यका प्रतिपादन ।


(श्लोक-६)


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥


उच्चारण की विधि - बन्धुः, आत्मा, आत्मनः, तस्य, येन, आत्मा, एव, आत्मना, जितः, अनात्मनः, तु, शत्रुत्वे, वर्तेत, आत्मा, एव, शत्रुवत् ॥ ६ ॥


शब्दार्थ - येन अर्थात् जिस, आत्मना अर्थात् जीवात्माद्वारा, आत्मा अर्थात् मन और इन्द्रियों सहित शरीर, जितः अर्थात् जीता हुआ है, तस्य अर्थात् उस, आत्मनः अर्थात् जीवात्माका (तो वह), आत्मा अर्थात् आप, एव अर्थात् ही, बन्धुः अर्थात् मित्र है, तु अर्थात् और, अनात्मनः अर्थात् जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये (वह), आत्मा अर्थात् आप, एव अर्थात् ही, शत्रुवत् अर्थात् शत्रुके सदृश, शत्रुत्वे अर्थात् शत्रुतामें, वर्तेत अर्थात् बरतता है।


अर्थ - जिस जीवात्माद्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्माका तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियोंसहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रुके सदृश शत्रुतामें बर्तता है ॥ ६ ॥"

"व्याख्या-' बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः'- अपनेमें अपने सिवाय दूसरेकी सत्ता है ही नहीं। अतः जिसने अपनेमें अपने सिवाय दूसरे (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रखी है अर्थात् असत् पदार्थोंके आश्रयका सर्वथा त्याग करके जो अपने सम स्वरूपमें स्थित हो गया है, उसने अपने-आपको जीत लिया है।


वह अपने-आपमें स्थित हो गया- इसकी क्या पहचान है ? उसका अन्तःकरण समतामें स्थित हो जायगा; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है। उस ब्रह्मकी निर्दोषता और समता उसके अन्तःकरणपर आ जाती है। इससे पता लग जाता है कि वह ब्रह्ममें स्थित है (गीता- पाँचवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक)। तात्पर्य यह निकला कि ब्रह्ममें स्थित होनेसे ही उसने अपने द्वारा अपने-आपपर विजय प्राप्त कर ली है। वास्तवमें ब्रह्ममें स्थिति तो नित्य-निरन्तर थी ही, केवल मन, बुद्धि आदिको अपना माननेसे ही उस स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा था।


संसारमें दूसरोंकी सहायताके बिना कोई भी किसीपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता और दूसरोंकी सहायता लेना ही स्वयंको पराजित करना है। इस दृष्टिसे स्वयं पहले पराजित होकर ही दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है। जैसे, कोई अस्त्र-शस्त्रोंसे दूसरेको पराजित करता है, तो वह दूसरोंको पराजित करनेमें अपने लिये अस्त्र-शस्त्रोंकी आवश्यकता मानता है; अतः स्वयं अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित ही हुआ।"

"कोई शास्त्रके द्वारा, बुद्धिके द्वारा शास्त्रार्थ करके दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है, तो वह स्वयं पहले शास्त्र और बुद्धिसे पराजित होता ही है और होना ही पड़ेगा। तात्पर्य यह निकला कि जो किसी भी साधनसे जिस किसीपर भी विजय करता है, वह अपने-आपको ही पराजित करता है। स्वयं पराजित हुए बिना दूसरोंपर कभी कोई विजय कर ही नहीं सकता- यह नियम है। अतः जो अपने लिये दूसरोंकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं समझता, वही अपने-आपसे अपने-आपपर विजय प्राप्त करता है और वही स्वयं अपना बन्धु है।


'अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्' - जो अपने सिवाय दूसरोंकी अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, वैभव, राज्य, जमीन, घर, पद, अधिकार आदिकी अपने लिये आवश्यकता मानता है, वही 'अनात्मा' है। तात्पर्य है कि जो अपना स्वरूप नहीं है, आत्मा नहीं है, उसको अपने लिये आवश्यक और सहायक समझता है तथा उसको अपना स्वरूप मान लेता है। ऐसा अनात्मा होकर जो किसी भी प्राकृत पदार्थको अपना समझता है, वह आप ही अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है। यद्यपि वह यही समझता है कि मन, बुद्धि आदिको अपना मानकर मैंने उनपर अपना आधिपत्य कर लिया है, उनपर विजय प्राप्त कर ली है, तथापि वास्तवमें (उनको अपना माननेसे) वह खुद ही पराजित हुआ है। तात्पर्य यह निकला कि दूसरोंसे पराजित होकर अपनी विजय समझना ही अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करना है।"

"शत्रुत्वे' कहनेमें भाव यह है कि जो अपना नहीं है, उससे 'मैं' और 'मेरा' पनका सम्बन्ध मानना अपने साथ शत्रुपनेमें मुख्य हेतु है। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयं प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है- यहींसे शत्रुता शुरू हो जाती है। मनुष्य प्राकृत वस्तुओंपर जितना-जितना अधिकार जमाता चला जाता है, उतना-उतना वह अपने-आपको पराधीन बनाता चला जाता है। उसमें भी वह मान, बड़ाई, कीर्ति आदि चाहता है और अधिक-से-अधिक पतनकी तरफ जाता है। उसको दीखता तो यही है कि मैं अच्छा कर रहा हूँ, मेरी उन्नति हो रही है, पर बात बिलकुल उलटी है। वास्तवमें वह अपने साथ अपनी शत्रुताको ही बढ़ा रहा है।


बड़े आश्चर्यकी बात है कि जो मानवशरीर जडताका सर्वथा त्याग करके केवल चिन्मयताकी प्राप्तिके लिये मिला है, उसको भूलकर वह वर्तमानमें तथा मरनेके बाद भी मूर्ति, चित्र आदिके रूपमें अपना नाम-रूप कायम रहे- इस तरह जडताको महत्त्व देकर उसको स्थिर रखना चाहता है। इस तरह चिन्मय होकर भी जडताकी दासतामें फँसकर वह अपने साथ महान् शत्रुताका ही बर्ताव करता है।


'शत्रुवत्' कहनेमें भाव यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको अपनी समझकर वह अपनेको उनका अधिपति मानता है; परन्तु वास्तवमें हो जाता है उनका दास ! यद्यपि उसका बर्ताव अपनी दृष्टिसे अपना अहित करनेका नहीं होता, तथापि परिणाममें तो उसका अपना अहित ही होता है। "

"इसलिये भगवान् ने कहा कि उसका बर्ताव अपने साथ शत्रुवत् अर्थात् शत्रुताकी तरह होता है।


तात्पर्य यह हुआ कि कोई भी मनुष्य अपनी दृष्टिसे अपने साथ शत्रुताका बर्ताव नहीं करता। परन्तु असत् वस्तुका आश्रय लेकर मनुष्य अपने हितकी दृष्टिसे भी जो कुछ बर्ताव करता है, वह बर्ताव वास्तवमें अपने साथ शत्रुकी तरह ही होता है; क्योंकि असत् वस्तुका आश्रय परिणाममें जन्म- मृत्युरूप महान् दुःख देनेवाला है। 


परिशिष्ट भाव-शरीरमें मैं-मेरापन न रहे तो आप ही अपना मित्र है और शरीरको मैं-मेरा माने तो आप ही अपने शत्रुकी तरह है अर्थात् अनात्माको सत्ता देनेसे उसका परिणाम शत्रुकी तरह ही होगा।


'शत्रुवत्' - जो नुकसान शत्रु करता है, वही नुकसान वह खुद अपना करता है। वास्तवमें भोगी मनुष्य अपना जितना नुकसान करता है, उतना शत्रु भी नहीं कर सकता। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो शत्रुके द्वारा हमारा भला ही होता है। वह हमारा बुरा कर ही नहीं सकता। कारण कि वह वस्तुओंतक ही पहुँचता है, स्वयंतक पहुँचता ही नहीं। अतः नाशवान् के नाशके सिवाय और वह कर ही क्या सकता है ? नाशवान् के नाशसे हमारा भला ही होगा। वास्तवमें हमारा नुकसान हमारा भाव बिगड़नेसे ही होता है।


सम्बन्ध- अपने द्वारा अपनी विजय करनेका परिणाम क्या होता है? इसका उत्तर आगेके तीन श्लोकोंमें देते हैं।"


"शरीर, मन, इन्द्रियादिको जीतनेका फल ।


(श्लोक-७)


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ 


उच्चारण की विधि  - जितात्मनः, प्रशान्तस्य, परमात्मा, समाहितः, शीतोष्णसुखदुःखेषु, तथा, मान अपमानयोः ॥ ७॥ 


शब्दार्थ - शीतोष्णसुखदुःखेषु अर्थात् सरदी-गरमी और सुख-दुःखादिमें, तथा अर्थात् तथा, मानापमानयोः अर्थात् मान और अपमानमें, प्रशान्तस्य अर्थात् जिसके अन्तः करणकी वृत्तियाँ भलीभाँति शान्त हैं, (ऐसे), जितात्मनः अर्थात् स्वाधीन आत्मावाले पुरुषके (ज्ञानमें), परमात्मा अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा, समाहितः अर्थात् सम्यक् प्रकारसे स्थित हैं अर्थात् उसके ज्ञानमें परमात्माके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।


अर्थ - सरदी-गरमी और सुख-दुःखादिमें तथा मान और अपमानमें जिसके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ भलीभाँति शान्त हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुषके ज्ञानमें सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् प्रकारसे स्थित है अर्थात् उसके ज्ञानमें परमात्माके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं ॥ ७ ॥"

"व्याख्या- [छठे श्लोकमें 'अनात्मनः' पद और यहाँ 'जितात्मनः' पद आया है। इसका तात्पर्य है कि जो 'अनात्मा' होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थोंके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन करके अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है और जो 'जितात्मा' होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध न मानकर अपने साथ मित्रताका बर्ताव करता है। इस तरह अनात्मा मनुष्य अपना पतन करता है और जितात्मा मनुष्य अपना उद्धार करता है।]


'जितात्मनः' - जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी भी प्राकृत पदार्थकी अपने लिये सहायता नहीं मानता और उन प्राकृत पदार्थोंके साथ किंचिन्मात्र भी अपनेपनका सम्बन्ध नहीं जोड़ता, उसका नाम 'जितात्मा' है। जितात्मा मनुष्य अपना तो हित करता ही है, उसके द्वारा दुनियाका भी बड़ा भारी हित होता है।


'शीतोष्णसुखदुःखेषु प्रशान्तस्य' - यहाँ 'शीत' और 'उष्ण' - इन दोनों पदोंपर गहरा विचार करें तो ये सरदी और गरमीके वाचक सिद्ध नहीं होते; क्योंकि सरदी और गरमी ये दोनों केवल त्वगिन्द्रियके विषय हैं। अगर जितात्मा पुरुष केवल एक त्वगिन्द्रियके विषयमें ही शान्त रहेगा तो श्रवण, नेत्र, रसना और घ्राण- इन इन्द्रियोंके विषय बाकी रह जायँगे, अर्थात् इनमें उसका प्रशान्त रहना बाकी रह जायगा तो उसमें पूर्णता नहीं आयेगी। अतः यहाँ 'शीत' और 'उष्ण' पद अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं।"

"शीत अर्थात् अनुकूलताकी प्राप्ति होनेपर भीतरमें एक तरहकी शीतलता मालूम देती है और उष्ण अर्थात् प्रतिकूलताकी प्राप्ति होनेपर भीतरमें एक तरहका सन्ताप मालूम देता है। तात्पर्य है कि भीतरमें न शीतलता हो और न सन्ताप हो, प्रत्युत एक समान शान्ति बनी रहे अर्थात् इन्द्रियोंके अनुकूल-प्रतिकूल विषय, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होनेपर भीतरकी शान्ति भंग न हो।


कारण कि भीतरमें जो स्वतःसिद्ध शान्ति है, वह अनुकूलतामें राजी होनेसे और प्रतिकूलतामें नाराज होनेसे भंग हो जाती है। अतः शीत-उष्णमें प्रशान्त रहनेका अर्थ हुआ कि बाहरसे होनेवाले संयोग-वियोगका भीतर असर न पड़े।


अब यह विचार करना चाहिये कि 'सुख' और 'दुःख' पदसे क्या अर्थ लें। सुख और दुःख दो-दो तरहके होते हैं-


(१) साधारण लौकिक दृष्टिसे जिसके पास धन-सम्पत्ति- वैभव, स्त्री-पुत्र आदि अनुकूल सामग्रीकी बहुलता हो, उसको लोग 'सुखी' कहते हैं। जिसके पास धनसम्पत्ति- वैभव, स्त्री-पुत्र आदि अनुकूल सामग्रीका अभाव हो, उसको लोग 'दुःखी' कहते हैं।


(२) जिसके पास बाहरकी सुखदायी सामग्री नहीं है, वह भोजन कहाँ करेगा-इसका पता नहीं है, पासमें पहननेके लिये पूरे कपड़े नहीं हैं, रहनेके लिये स्थान नहीं है, साथमें कोई सेवा करनेवाला नहीं है-ऐसी अवस्था होनेपर भी जिसके मनमें दुःख सन्ताप नहीं होता "

"और जो किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिकी आवश्यकताका अनुभव भी नहीं करता, प्रत्युत हर हालतमें बड़ा प्रसन्न रहता है, वह 'सुखी' कहलाता है। परन्तु जिसके पास बाहरकी सुखदायी सामग्री पूरी है, भोजनके लिये बढ़िया-से-बढ़िया पदार्थ हैं, पहननेके लिये बढ़िया-से-बढ़िया कपड़े हैं, रहनेके लिये बहुत बढ़िया मकान है, सेवाके लिये कई नौकर हैं- ऐसी अवस्था होनेपर भी भीतरमें रात-दिन चिन्ता रहती है कि मेरी यह सामग्री कहीं नष्ट न हो जाय ! यह सामग्री कायम कैसे रहे, बढ़े कैसे ? आदि। इस तरह बाहरकी सामग्री रहनेपर भी जो भीतरसे दुःखी रहता है, वह 'दुःखी' कहलाता है।


उपर्युक्त दो प्रकारसे सुख-दुःख कहनेका तात्पर्य है - बाहरकी सामग्रीको लेकर सुखी-दुःखी होना और भीतरकी प्रसन्नता-खिन्नताको लेकर सुखी-दुःखी होना। गीतामें जहाँ सुख-दुःखमें 'सम' होनेकी बात आयी है, वहाँ बाहरकी सामग्रीमें सम रहनेके लिये कहा गया है; जैसे- समदुःखसुखः ' (१२। १३; १४। २४),


'शीतोष्णसुखदुःखेषु समः' (१२। १८) आदि। जहाँ सुख-दुःखसे 'रहित' होनेकी बात आयी है, वहाँ भीतरकी प्रसन्नता और खिन्नतासे रहित होनेके लिये कहा गया है; जैसे- 'द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः' (१५।५) आदि।


जहाँ सुख-दुःखमें सम होनेकी बात है, वहाँ सुख-दुःखकी सत्ता तो है, पर उसका असर नहीं पड़ता और जहाँ सुख- दुःखसे रहित होनेकी बात है, वहाँ सुख-दुःखकी सत्ता ही नहीं है। "

"इस तरह चाहे बाहरकी सुखदायी-दुःखदायी सामग्री प्राप्त होनेपर भीतरसे सम होना कहें, चाहे भीतरसे सुख- दुःखसे रहित होना कहें - दोनोंका तात्पर्य एक ही है; क्योंकि सम भी भीतरसे है और रहित भी भीतरसे है।


यहाँ शीत-उष्ण और सुख-दुःखमें प्रशान्त (सम) रहनेकी बात कही गयी है। अनुकूलतासे सुख होता है- 'अनुकूलवेदनीयं सुखम्' और प्रतिकूलतासे दुःख होता है - 'प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।' इसलिये अगर शीत- उष्णका अर्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता लिया जाय तो सुख- दुःख कहना व्यर्थ हो जायगा और सुख-दुःख कहनेसे शीत- उष्ण कहना व्यर्थ हो जायगा; क्योंकि सुख-दुःख पद शीत- उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) के ही वाचक हैं। फिर यहाँ शीत-उष्ण और सुख-दुःख पदोंकी सार्थकता कैसे सिद्ध होगी ? इसके लिये 'शीत-उष्ण' पदसे प्रारब्धके अनुसार आनेवाली अनुकूलता-प्रतिकूलताको लिया जाय और 'सुख- दुःख' पदसे वर्तमानमें किये जानेवाले क्रियमाण कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्ति तथा उनके तात्कालिक फलकी सिद्धि- असिद्धिको लिया जाय तो इन पदोंकी सार्थकता सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह निकला कि चाहे प्रारब्धकी अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति हो, चाहे क्रियमाणकी तात्कालिक सिद्धि-असिद्धि हो-इन दोनोंमें ही प्रशान्त (निर्विकार) रहे।


इस प्रकरणके अनुसार भी उपर्युक्त अर्थ ठीक दीखता है।"

"कारण कि इसी अध्यायके चौथे श्लोकमें आये 'नेन्द्रियार्थेषु (अनुषज्जते)' पदको यहाँ 'शीत-उष्ण' पदसे कहा गया है और 'न कर्मसु अनुषज्जते' पदोंको यहाँ सुख-दुःख पदसे कहा गया है अर्थात् वहाँ प्रारब्धके अनुसार आयी हुई अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें और क्रियमाण कर्मोंकी पूर्ति- अपूर्ति तथा तात्कालिक फलकी सिद्धि-असिद्धिमें आसक्तिरहित होनेकी बात आयी है और यहाँ उन दोनोंमें प्रशान्त होनेकी बात आयी है।


'तथा मानापमानयोः' - ऐसे ही जो मान-अपमानमें भी प्रशान्त है। अब यहाँ कोई शंका करे कि मान-अपमान भी तो प्रारब्धका फल है; अतः यह शीत-उष्ण (अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति) के ही अन्तर्गत आ गया। फिर इसको अलगसे क्यों लिया गया ? मान-अपमानको अलगसे इसलिये लिया गया है कि शीत-उष्ण तो दैवेच्छा (अनिच्छा) कृत प्रारब्धका फल है, पर मान-अपमान परेच्छाकृत प्रारब्धका फल है। यह परेच्छाकृत प्रारब्ध मान-बड़ाईमें भी होता है और निन्दा-स्तुति आदिमें भी होता है। इसलिये 'मान- अपमान' पदमें निन्दा-स्तुति लेना चाहें, तो ले सकते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगी दूसरोंके द्वारा किये गये मान- अपमानमें भी प्रशान्त रहता है अर्थात् उसकी शान्तिमें किंचिन्मात्र भी फर्क नहीं पड़ता। 


मान-अपमानमें प्रशान्त रहनेका उपाय - साधकका कोई मान-आदर करे, तो साधक यह न माने कि यह मेरे कर्मोंका, मेरे गुणोंका, मेरी अच्छाईका फल है, "

"प्रत्युत यही माने कि यह तो मान-आदर करनेवालेकी सज्जनता है, उदारता है। उसकी सज्जनताको अपना गुण मानना ईमानदारी नहीं है। अगर कोई अपमान कर दे, तो ऐसा माने कि यह मेरे कर्मोंका ही फल है। इसमें अपमान करनेवालेका कोई दोष नहीं है, प्रत्युत वह तो दयाका पात्र है; क्योंकि उस बेचारेने मेरे पापोंका फल भुगतानेमें निमित्त बनकर मेरेको शुद्ध कर दिया है। इस तरह माननेसे साधक मान-अपमानमें प्रशान्त, निर्विकार हो जायगा। अगर वह मानको अपना गुण और अपमानको दूसरोंका दोष मानेगा, तो वह मान-अपमानमें प्रशान्त नहीं हो सकेगा।


'परमात्मा समाहितः ' - शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान-इन छहोंमें प्रशान्त, निर्विकार रहनेसे सिद्ध होता है कि उसको परमात्मा प्राप्त हैं। कारण कि भीतरसे विलक्षण आनन्द मिले बिना बाहरकी अनुकूलता- प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि और मान-अपमानमें वह प्रशान्त नहीं रह सकता। वह प्रशान्त रहता है, तो उसको एकरस रहनेवाला विलक्षण आनन्द मिल गया है। इसलिये गीताने जगह-जगह कहा है कि 'जिन पुरुषोंका मन साम्यावस्थामें स्थित है, उन पुरुषोंने इस जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है' (पाँचवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक); जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक लाभका होना मान ही नहीं सकता और जिसमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं हो सकता (छठे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक), आदि-आदि।


परिशिष्ट भाव-जिसकी आत्मा मित्रकी तरह है अर्थात् जिसका शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन नहीं है, वह अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख और मान-अपमान प्राप्त होनेपर भी सम, निर्विकार रहता है। ऐसा मनुष्य सिद्ध कर्मयोगी है अर्थात् उसको परमात्माका अनुभव हो चुका है - ऐसा मानना चाहिये। कारण कि अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख और मान-अपमान तो आते-जाते हैं, पर परमात्मतत्त्व ज्यों-का-त्यों रहता है।"

अगले वीडियो में हम श्लोक 8 और 9 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान हमें आत्मज्ञानी और संतुष्ट व्यक्ति के गुण बताएंगे।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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