ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 8 - आत्मज्ञान और ध्यान की ओर कदम
"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहां हम हर दिन भगवद गीता के गूढ़ रहस्यों को समझने का प्रयास करते हैं। आज हम अध्याय 6 के श्लोक 8 की व्याख्या करेंगे। यह श्लोक हमें सिखाता है कि ज्ञान और ध्यान का समन्वय जीवन में शांति और स्थिरता कैसे लाता है। अगर आप इस यात्रा में हमारे साथ हैं, तो वीडियो को लाइक और शेयर करना न भूलें।
पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 6 और 7 पर चर्चा की थी, जहां हमने आत्मसंयम और ध्यान के महत्व को समझा। हमने जाना कि कैसे एक योगी अपने मन को नियंत्रित कर जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करता है।
आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आत्मज्ञानी योगी के लक्षणों का वर्णन करते हैं। यह श्लोक उन सिद्धांतों पर आधारित है, जो हमें भौतिक सुखों से परे आत्मिक सुख की ओर ले जाते हैं। आइए, इस श्लोक की व्याख्या में गहराई से उतरते हैं।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 8"
"अतः इनमेंसे कोई चला गया तो क्या ? कोई बिगड़ गया तो क्या ? इन बातोंको लेकर उसके अन्तःकरणमें कोई विकार पैदा नहीं होता। इन स्वर्ण आदि प्राकृत पदार्थोंका मूल्य तो प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखते हुए ही प्रतीत होता है और तभीतक उनके बढ़िया-घटियापनेका अन्तःकरणमें असर होता है। पर वास्तविक बोध हो जानेपर जब प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब उसके अन्तःकरणमें इन प्राकृत (भौतिक) पदार्थोंका कुछ भी मूल्य नहीं रहता अर्थात् बढ़िया-घटिया सब पदार्थोंमें उसका समभाव हो जाता है।
सार यह निकला कि उसकी दृष्टि पदार्थोंके उत्पन्न और नष्ट होनेवाले स्वभावपर रहती है अर्थात् उसकी दृष्टिमें इन प्राकृत पदार्थोंके उत्पन्न और नष्ट होनेमें कोई फर्क नहीं है। सोना उत्पन्न और नष्ट होता है, पत्थर उत्पन्न और नष्ट होता है तथा ढेला भी उत्पन्न और नष्ट होता है। उनकी इस अनित्यतापर दृष्टि रहनेसे उसको सोना, पत्थर और ढेलेमें तत्त्वसे कोई फर्क नहीं दीखता। इन तीनोंके नाम इसलिये लिये हैं कि इनके साथ व्यवहार तो यथायोग्य ही होना चाहिये और यथायोग्य करना ही उचित है तथा वह यथायोग्य व्यवहार करता भी है, पर उसकी दृष्टि उनके विनाशीपनेपर ही रहती है। उनमें जो परमात्मतत्त्व एक समान परिपूर्ण है, उस परमात्मतत्त्वकी स्वतःसिद्ध समता उसमें रहती है।
'युक्त इत्युच्यते योगी' - ऐसा ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त, निर्विकार, जितेन्द्रिय और समबुद्धिवाला सिद्ध कर्मयोगी युक्त अर्थात् योगारूढ़, समतामें स्थित कहा जाता है।"
अगले वीडियो में हम अध्याय 6 के श्लोक 9 की चर्चा करेंगे, जहां हम जानेंगे कि एक योगी अपने व्यवहार में समानता कैसे बनाए रखता है। यह श्लोक हमें सिखाएगा कि हर किसी में एक समानता देखना कैसे संभव है।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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