ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 9 - समभाव का संदेश


 "नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे भगवद गीता ज्ञान सत्र में, जहां हम रोजाना एक श्लोक पर चर्चा करते हैं। आज हम अध्याय 6, श्लोक 9 के गहरे संदेश को समझेंगे। यह श्लोक हमें जीवन में समभाव और शांति का महत्व सिखाता है।


पिछले श्लोक में हमने कर्मयोग और ध्यान की महिमा पर चर्चा की थी। यह जानना बहुत जरूरी है कि कैसे कर्म और ध्यान हमें मुक्ति की ओर ले जाते हैं।


आज का श्लोक 9 हमें सिखाता है कि मित्र, शत्रु और तटस्थ लोगों के प्रति समान दृष्टि कैसे रखनी चाहिए। यह हमें बताता है कि हर व्यक्ति में परमात्मा का निवास है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 9"

"(श्लोक-९)


सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ 


उच्चारण की विधि - सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु, साधुषु, अपि, च, पापेषु, समबुद्धिः, विशिष्यते ॥ ९ ॥


शब्दार्थ - सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु अर्थात् सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणोंमें, साधुषु अर्थात् धर्मात्माओंमें, च अर्थात् और, पापेषु अर्थात् पापियोंमें, अपि अर्थात् भी, समबुद्धिः अर्थात् समान भाव रखनेवाला, विशिष्यते अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ है।


अर्थ - सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणोंमें, धर्मात्माओंमें और पापियोंमें भी समानभाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है ॥ ९ ॥"

"व्याख्या [आठवें श्लोकमें पदार्थोंमें समता बतायी, अब इस श्लोकमें व्यक्तियोंमें समता बताते हैं। व्यक्तियोंमें समता बतानेका तात्पर्य है कि वस्तु तो अपनी तरफसे कोई क्रिया नहीं करती; अतः उसमें समबुद्धि होना सुगम है, परन्तु व्यक्ति तो अपने लिये और दूसरोंके लिये भी क्रिया करता है; अतः उसमें समबुद्धि होना कठिन है। इसलिये व्यक्तियोंके आचरणोंको देखकर भी जिसकी बुद्धिमें, विचारमें कोई विषमता या पक्षपात नहीं होता, ऐसा समबुद्धिवाला पुरुष श्रेष्ठ है ।]


'सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु' - जो माता की तरह ही, पर ममतारहित होकर बिना किसी कारणके सबका हित चाहनेके और हित करनेके स्वभाववाला होता है, उसको 'सुहृद्' कहते हैं और जो उपकारके बदले उपकार करनेवाला होता है, उसको 'मित्र' कहते हैं।


जैसे सुहृङ्का बिना कारण दूसरोंका हित करनेका स्वभाव होता है, ऐसे ही जिसका बिना कारण दूसरोंका अहित करनेका स्वभाव होता है, उसको 'अरि' कहते हैं। जो अपने स्वार्थसे अथवा अन्य किसी कारणविशेषको लेकर दूसरोंका अहित, अपकार करता है, वह 'द्वेष्य' होता है।


दो आपसमें वाद-विवाद कर रहे हैं, उनको देखकर भी जो तटस्थ रहता है, किसीका किंचिन्मात्र भी पक्षपात नहीं करता और अपनी तरफसे कुछ कहता भी नहीं, वह 'उदासीन' कहलाता है। परन्तु उन दोनोंकी लड़ाई मिट जाय और दोनोंका हित हो जाय ऐसी चेष्टा करनेवाला 'मध्यस्थ' कहलाता है।"

"एक तो बन्धु अर्थात् सम्बन्धी है और दूसरा बन्धु नहीं है, पर दोनोंके साथ बर्ताव करनेमें उसके मनमें कोई विषमभाव नहीं होता। जैसे, उसके पुत्रने अथवा अन्य किसीके पुत्रने कोई बुरा काम किया है, तो वह उनके अपराधके अनुरूप दोनोंको ही समान दण्ड देता है, ऐसे ही उसके पुत्रने अथवा दूसरेके पुत्रने कोई अच्छा काम किया है, तो उनको पुरस्कार देनेमें भी उसका कोई पक्षपात नहीं होता।


'साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते' - श्रेष्ठ आचरण करनेवालों और पाप-आचरण करनेवालोंके साथ व्यवहार करनेमें तो अन्तर होता है और अन्तर होना ही  चाहिये, पर उन दोनोंकी हितैषितामें अर्थात् उनका हित करनेमें, दुःखके समय उनकी सहायता करनेमें उसके अन्तःकरणमें कोई विषमभाव, पक्षपात नहीं होता। 'सबमें एक परमात्मा हैं, ऐसा स्वयंमें होता है, बुद्धिमें सबकी हितैषिता होती है, मनमें सबका हितचिन्तन होता है, और व्यवहारमें परता-ममता छोड़कर सबके सुखका सम्पादन होता है।


जहाँ विषमबुद्धि अधिक रहनेकी सम्भावना है, वहाँ भी समबुद्धि होना विशेष है। वहाँ समबुद्धि हो जाय, तो फिर सब जगह समबुद्धि हो जाती है।


इस श्लोकमें भाव, गुण, आचरण आदिकी भिन्नताको लेकर नौ प्रकारके प्राणियोंका नाम आया है। इन प्राणियोंके भाव, गुण, आचरण आदिकी भिन्नताको लेकर उनके साथ बर्ताव करनेमें विषमता आ जाय, तो वह दोषी नहीं है। "

"कारण कि वह बर्ताव तो उनके भाव, आचरण, परिस्थिति आदिके अनुसार ही है और उनके लिये ही है, अपने लिये नहीं। परन्तु उन सबमें परमात्मा ही परिपूर्ण हैं- इस भावमें कोई फर्क नहीं आना चाहिये और अपनी तरफसे सबकी सेवा बन जाय इस भावमें भी कोई अन्तर नहीं आना चाहिये।


तात्पर्य यह हुआ कि जिस किसी मार्गसे जिसको तत्त्वबोध हो जाता है, उसकी सब जगह समबुद्धि हो जाती है अर्थात् किसी भी जगह पक्षपात न होकर समान रीतिसे सेवा और चाहिये, पर उन दोनोंकी हितैषितामें अर्थात् उनका हित करनेमें, दुःखके समय उनकी सहायता करनेमें उसके अन्तःकरणमें कोई विषमभाव, पक्षपात नहीं होता। 'सबमें एक परमात्मा हैं, ऐसा स्वयंमें होता है, बुद्धिमें सबकी हितैषिता होती है, मनमें सबका हितचिन्तन होता है, और व्यवहारमें परता-ममता छोड़कर सबके सुखका सम्पादन होता है।


जहाँ विषमबुद्धि अधिक रहनेकी सम्भावना है, वहाँ भी समबुद्धि होना विशेष है। वहाँ समबुद्धि हो जाय, तो फिर सब जगह समबुद्धि हो जाती है।


इस श्लोकमें भाव, गुण, आचरण आदिकी भिन्नताको लेकर नौ प्रकारके प्राणियोंका नाम आया है। इन प्राणियोंके भाव, गुण, आचरण आदिकी भिन्नताको लेकर उनके साथ बर्ताव करनेमें विषमता आ जाय, तो वह दोषी नहीं है। कारण कि वह बर्ताव तो उनके भाव, आचरण, परिस्थिति आदिके अनुसार ही है और उनके लिये ही है, अपने लिये नहीं। "

"परन्तु उन सबमें परमात्मा ही परिपूर्ण हैं- इस भावमें कोई फर्क नहीं आना चाहिये और अपनी तरफसे सबकी सेवा बन जाय इस भावमें भी कोई अन्तर नहीं आना चाहिये।


तात्पर्य यह हुआ कि जिस किसी मार्गसे जिसको तत्त्वबोध हो जाता है, उसकी सब जगह समबुद्धि हो जाती है अर्थात् किसी भी जगह पक्षपात न होकर समान रीतिसे सेवा और  हितका भाव हो जाता है। जैसे भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् हैं- 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता ५। २९), ऐसे ही वह सिद्ध कर्मयोगी भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् हो जाता है - 'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा० ३।२५।२१) ।


यहाँ सुहृद्, मित्र आदि नाम लेनेके बाद अन्तमें 'साधुष्वपि च पापेषु' कहनेका तात्पर्य है कि जिसकी श्रेष्ठ आचरणवालों और निकृष्ट आचरणवालोंमें समबुद्धि हो जायगी, उसकी सब जगह समबुद्धि हो जायगी। कारण कि संसारमें आचरणोंकी ही मुख्यता है, आचरणोंका ही असर पड़ता है, आचरणोंसे ही मनुष्यकी परीक्षा होती है, आचरणोंसे ही श्रद्धा-अश्रद्धा होती है, स्वाभाविक दृष्टि आचरणोंपर ही पड़ती है और आचरणोंसे ही सद्भाव-दुर्भाव पैदा होते हैं। भगवान् ने भी 'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः' (३।२१) कहकर आचरणकी बात मुख्य बतायी है। इसलिये श्रेष्ठ आचरणवाले और निकृष्ट आचरणवाले-इन दोनोंमें समता हो जायगी, तो फिर सब जगह समता हो जायगी, इन दोनोंमें भी श्रेष्ठ आचरणवाले पुरुषोंमें तो सद्भाव होना सुगम है, पर पाप-आचरणवाले पुरुषोंमें सद्भाव होना कठिन है। "

"अतः भगवान् ने यहाँ 'अपि च' दो अव्ययोंका प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है 'और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी' जिसकी समबुद्धि है, वह श्रेष्ठ है।


यहाँ दीखनेवालोंको लेकर देखनेवालेकी स्थितिका वर्णन किया गया है; अतः 'समबुद्धिर्विशिष्यते' कहा है। देखनेवालेमें जो समबुद्धि होती है, वह हरेकको दीखती नहीं, पर साधकके लिये तो वही मुख्य है; क्योंकि साधक 'मैं अपनी दृष्टिसे कैसा हूँ', ऐसे अपने-आपको देखता है। इसलिये अपने-आपसे अपना उद्धार करनेके लिये कहा गया है (छठे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)।


संसारमें प्रायः दूसरोंके आचरणोंपर ही दृष्टि रहती है। साधकको विचार करना चाहिये कि मेरी दृष्टि अपने भावोंपर रहती है या दूसरेके आचरणोंपर ? दूसरोंके आचरणोंपर दृष्टि रहनेसे जिस दृष्टिसे अपना कल्याण होता है, वह दृष्टि बंद हो जाती है और अँधेरा हो जाता है। इसलिये दूसरोंके श्रेष्ठ और निकृष्ट आचरणोंपर दृष्टि न रहकर उनका जो वास्तविक स्वरूप है, उसपर दृष्टि रहनी चाहिये। स्वरूपपर दृष्टि रहनेसे उनके आचरणोंपर दृष्टि नहीं रहेगी; क्योंकि स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है, जब कि आचरण बदलते रहते हैं। सत्य-तत्त्वपर रहनेवाली दृष्टि भी सत्य होती है। परन्तु जिसकी दृष्टि केवल आचरणोंपर ही रहती है, उसकी दृष्टि असत् पर रहनेसे असत् ही होती है। इसमें भी अशुद्ध आचरणोंपर जिसकी ज्यादा दृष्टि है, उसका तो पतन ही समझना चाहिये। "

"तात्पर्य है कि जो आचरण आदरणीय नहीं है, ऐसे अशुद्ध आचरणोंको जो मुख्यता देता है, वह तो अपना पतन ही करता है। अतः भगवान् ने यहाँ अशुद्ध आचरण करनेवाले पापीमें भी समबुद्धिवालेको श्रेष्ठ बताया है। कारण कि उसकी दृष्टि सत्य-तत्त्वपर रहनेसे उसकी दृष्टिमें सब कुछ परमात्मतत्त्व ही रहता है। फिर आगे चलकर 'सब कुछ' नहीं रहता, केवल परमात्मतत्त्व ही रहता है। उसीकी यहाँ 'समबुद्धिर्विशिष्यते' पदसे महिमा गायी गयी है।


विशेष बात


गीताका योग 'समता' ही है- 'समत्वं योग उच्यते' (२। ४८)। गीताकी दृष्टिसे अगर समता आ गयी तो दूसरे किसी लक्षणकी जरूरत नहीं है अर्थात् जिसको वास्तविक समताकी प्राप्ति हो गयी है, उसमें सभी सद्गुण-सदाचार स्वतः आ जायँगे और उसकी संसारपर विजय हो जायगी (पाँचवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक)। विष्णुपुराणमें प्रह्लादजीने भी कहा है कि समता भगवान् की आराधना (भजन) है- 'समत्वमाराधनमच्युतस्य' (१।१७। ९०)। इस तरह जिस समताकी असीम, अपार, अनन्त महिमा है, जिसका वर्णन कभी कोई कर ही नहीं सकता, उस समताकी प्राप्तिका उपाय है- बुराईरहित होना। बुराईरहित होनेका उपाय है- (१) किसीको बुरा न मानें (२) किसीका बुरा न करें, (३) किसीका बुरा न सोचें, (४) किसीमें बुराई न देखें, (५) किसीकी बुराई न सुनें, (६) किसीकी बुराई न कहें। इन छः बातोंका दृढ़तासे पालन करें, तो हम बुराईरहित हो जायँगे। "

"बुराईरहित होते ही हमारेमें स्वतः-स्वाभाविक अच्छाई आ जायगी; क्योंकि अच्छाई हमारा स्वरूप है।


अच्छाईको लानेके लिये हम प्रयत्न करते हैं, साधन करते हैं; परन्तु वर्षोंतक साधन करनेपर भी वास्तविक अच्छाई हमारेमें नहीं आती और साधन करनेपर खुदको भी सन्तोष नहीं होता, प्रत्युत यही विचार होता है कि इतना साधन करनेपर भी सद्गुण-सदाचार नहीं आये। अतः ये सद्गुण- सदाचार आनेके हैं नहीं - ऐसा समझकर हम साधनसे हताश हो जाते हैं। हताश होनेमें मुख्य कारण यही है कि हमने अच्छाईको उद्योगसाध्य माना है और बुराईको सर्वथा नहीं छोड़ा है। बुराईका सर्वथा त्याग किये बिना आंशिक अच्छाई बुराईको बल देती रहती है। कारण कि आंशिक अच्छाईसे अच्छाईका अभिमान होता है और जितनी बुराई है, वह सब- की-सब अच्छाईके अभिमानपर ही अवलम्बित है। पूर्ण अच्छाई होनेपर अच्छाईका अभिमान नहीं होता और बुराई भी उत्पन्न नहीं होती। अतः बुराईका त्याग करनेपर अच्छाई बिना उद्योग किये और बिना चाहे स्वतः आ जाती है। जब अच्छाई हमारेमें आ जाती है, तब हम अच्छे हो जाते हैं। जब हम अच्छे हो जाते हैं, तब हमारे द्वारा स्वाभाविक ही अच्छाई होने लगती है। जब अच्छाई होने लग जाती है, तब सृष्टिके द्वारा स्वाभाविक ही हमारा जीवन-निर्वाह होने लगता है अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिये हमें परिश्रम नहीं करना पड़ता और दूसरोंका आश्रय भी नहीं लेना पड़ता। ऐसी अवस्थामें हम संसारके आश्रयसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।  "

"संसारके आश्रयसे सर्वथा मुक्त होते ही हमें स्वतःसिद्ध समता प्राप्त हो जाती है और हम कृतकृत्य हो जाते हैं, जीवन्मुक्त हो जाते हैं।


परिशिष्ट भाव - समताका विभाग अलग है और विषमताका विभाग अलग है। परमात्मतत्त्व सम है और संसार विषम है। सिद्ध कर्मयोगीकी विषम व्यवहारमें भी समबुद्धि रहती है। बर्ताव करनेमें जिनसे कभी एकता नहीं हो सकती, एकता करनी भी नहीं चाहिये और एकता कर भी नहीं सकते, उन मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें और सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, साधु तथा पापी व्यक्तियोंमें भी उसकी समबुद्धि रहती है। कारण कि उसको 'एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है' - ऐसा अनुभव हो गया है।


एक सोनेसे बनी हुई विष्णुभगवान् की मूर्ति हो और एक सोनेसे बनी हुई कुत्तेकी मूर्ति हो तो तौलमें बराबर होनेके कारण दोनोंका मूल्य समान होगा। विष्णुभगवान् सर्वश्रेष्ठ एवं परमपूज्य हैं और कुत्ता नीच (अस्पृश्य) एवं अपूज्य है- इस तरह बाहरी रूपको देखें तो दोनोंमें बड़ा भारी फर्क है, पर सोनेको देखें तो दोनोंमें कोई फर्क नहीं! इसी तरह संसारमें कोई मित्र है, कोई शत्रु है; कोई महात्मा है, कोई दुरात्मा है; कोई अच्छा है, कोई मन्दा है; कोई सज्जन है, कोई दुष्ट है; कोई सदाचारी है, कोई दुराचारी है; कोई धर्मात्मा है, कोई पापी है; कोई विद्वान् है, कोई मूर्ख है- यह सब तो बाहरी दृष्टिसे है, पर तत्त्वसे देखें तो सब-के-सब एक भगवान् ही हैं। एक भगवान् ही अनन्त रूपोंमें प्रकट हुए हैं। "

"जानकार मनुष्य उनको पहचान लेता है, दूसरा नहीं पहचान सकता।


स्नान करते समय शरीरमें साबुन लगाकर दर्पणमें देखे तो शरीर बहुत बुरा, भद्दा दीखेगा। कहीं फफोले दीखेंगे, कहीं लकीरें दीखेंगी। परन्तु ऐसा दीखनेपर भी मनमें दुःख नहीं होगा कि कैसी बीमारी हो गयी! कारण कि भीतर यह भाव रहता है कि यह तो ऊपरसे ऐसा दीखता है, जल डालते ही साफ हो जायगा। ऐसे ही सब परमात्माके स्वरूप हैं, पर ऊपरसे शरीरोंमें उनका अलग-अलग स्वभाव दीखता है। वास्तवमें ऊपरसे दीखनेवाले भी परमात्माके ही स्वरूप हैं, पर अपने राग-द्वेषके कारण वे अलग-अलग दीखते हैं।


जो बात पाँचवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें 'कर्मयोगो विशिष्यते' पदोंसे कही थी, वही बात यहाँ 'समबुद्धिर्विशिष्यते' पदोंसे कही है। समबुद्धिवाला मनुष्य निर्लिप्त रहता है। निर्लिप्त रहनेसे 'योग' होता है, लिप्तता होते ही 'भोग' हो जाता है। समबुद्धि तीनों योगोंमें है, पर कर्मयोगमें विशेष है; क्योंकि भौतिक साधना होनेसे कर्मयोगीके सामने विषमता ज्यादा आती है।


सम्बन्ध-जो समता (समबुद्धि) कर्मयोगसे प्राप्त होती है, वही समता ध्यानयोगसे भी प्राप्त होती है। इसलिये भगवान् ध्यानयोगका प्रकरण आरम्भ करते हुए पहले ध्यानयोगके लिये प्रेरणा करते हैं।"

कल के वीडियो में हम श्लोक 10 की चर्चा करेंगे, जिसमें ध्यान और एकांत जीवन के महत्व को समझाया गया है।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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