ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 36 - मन को साधने का उपाय

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका श्रीमद्भगवद्गीता के दिव्य ज्ञान से भरी इस यात्रा में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 36 का गूढ़ अर्थ और इसका हमारे जीवन में महत्व। तो चलिए, ज्ञान की इस अनमोल यात्रा को शुरू करते हैं।


पिछले वीडियो में हमने जाना था कि कैसे आत्मसंयम और ध्यान से आत्मा के मार्ग को प्रशस्त किया जा सकता है। आज हम इसी विषय को और गहराई से समझेंगे।


आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण हमें बता रहे हैं कि बिना संयम के मन को साधना असंभव है। लेकिन सही साधना और संयम से यह संभव है। इस श्लोक के माध्यम से जानेंगे कैसे यह ज्ञान हमारे जीवन को बदल सकता है।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 36"

"मनके वशमें न करनेपर योगकी दुष्प्राप्यताका और वशमें होनेपर प्राप्त होनेका कथन । (श्लोक-३६)


असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।। 


उच्चारण की विधि - असंयतात्मना, योगः, दुष्प्रापः, इति, मे, मतिः, वश्यात्मना, तु, यतता, शक्यः, अवाप्तुम्, उपायतः ॥ ३६ ॥


शब्दार्थ - असंयतात्मना अर्थात् जिसका मन वशमें किया हुआ नहीं है ऐसे पुरुषद्वारा, योगः अर्थात् योग, दुष्प्रापः अर्थात् दुष्प्राप्य है, तु अर्थात् और, वश्यात्मना अर्थात् वशमें किये हुए मनवाले, यतता अर्थात् प्रयत्नशील पुरुषद्वारा, उपायतः अर्थात् साधनसे (उसका), अवाप्तुम् अर्थात् प्राप्त होना, शक्यः अर्थात् सहज है, इति अर्थात् यह, मे अर्थात् मेरा, मतिः अर्थात् मत है।


अर्थ - जिसका मन वशमें किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुषद्वारा योग दुष्प्राप्य है और वशमें किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है - यह मेरा मत है ॥ ३६ ॥"

"व्याख्या-'असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः'- मेरे मतमें तो जिसका मन वशमें नहीं है; उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है, उतनी मनकी चंचलता बाधक नहीं है। जैसे, पतिव्रता स्त्री मनको वशमें तो रखती है, पर उसे एकाग्र नहीं करती। अतः ध्यानयोगीको अपना मन वशमें करना चाहिये। मन वशमें होनेपर वह मनको जहाँ लगाना चाहे, वहाँ लगा सकता है, जितनी देर लगाना चाहे, उतनी देर लगा सकता है और जहाँसे हटाना चाहे, वहाँसे हटा सकता है।


प्रायः साधकोंकी यह प्रवृत्ति होती है कि वे साधन तो श्रद्धा-पूर्वक करते हैं, पर उनके प्रयत्नमें शिथिलता रहती है, जिससे साधकमें संयम नहीं रहता अर्थात् मन, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणका पूर्णतया संयम नहीं होता। इसलिये योगकी प्राप्तिमें कठिनता होती है अर्थात् परमात्मा सदा-सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी जल्दी प्राप्त नहीं होते।


भगवान् की तरफ चलनेवाले, वैष्णव संस्कारवाले साधकोंकी मांस आदिमें जैसी अरुचि होती है, वैसी अरुचि साधककी विषय-भोगोंमें नहीं होती अर्थात् विषय- भोग उतने निषिद्ध और पतन करनेवाले नहीं दीखते। कारण कि विषयभोगोंका ज्यादा अभ्यास होनेसे उनमें मांस आदिकी तरह ग्लानि नहीं होती। मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है, पर उससे भी ज्यादा पतन होता है- रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगनेसे। कारण कि मांस आदिमें तो 'यह निषिद्ध वस्तु है' ऐसी भावना रहती है, पर भोगोंको भोगनेसे 'यह निषिद्ध है' ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगोंके जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं, वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है, वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा।"

"वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा। परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं, वे जन्म-जन्मान्तरतक विषयभोगोंमें और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।तात्पर्य है कि साधकके अन्तःकरणमें विषयभोगोंकी रुचि रहनेके कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पाता, मन- इन्द्रियोंको अपने वशमें नहीं कर पाता। इसलिये उसको योगकी प्राप्तिमें अर्थात् ध्यानयोगकी सिद्धिमें कठिनता होती है।


' परन्तु जो तत्परतापूर्वक साधनमें लगा हुआ है अर्थात् जो ध्यानयोगकी सिद्धिके लिये ध्यानयोगके उपयोगी आहार- विहार, सोना-जागना आदि उपायोंका अर्थात् नियमोंका नियतरूपसे और दृढ़तापूर्वक पालन करता है और जिसका मन सर्वथा वशमें है, ऐसे वश्यात्मा साधकके द्वारा योग प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् उसको ध्यानयोगकी सिद्धि मिल सकती है, ऐसा मेरा मत है वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ' - ' इति मे मतिः ।'


वश्यात्मा होनेका उपाय है- सबसे पहले अपने-आपको यह समझे कि 'मैं भोगी नहीं हूँ। मैं जिज्ञासु हूँ तो केवल तत्त्वको जानना ही मेरा काम है; मैं भगवान् का हूँ तो केवल भगवान् के अर्पित होना ही मेरा काम है; मैं सेवक हूँ तो केवल सेवा करना ही मेरा काम है। किसीसे कुछ भी चाहना मेरा काम नहीं है' - इस तरह अपनी अहंताका परिवर्तन कर दिया जाय तो मन बहुत जल्दी वशमें हो जाता है। जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वशमें हो जाता है। मनमें उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका राग रहना ही मनकी अशुद्धि है। जब साधकका एक  परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है, तब उत्पत्ति- विनाशशील वस्तुओंका राग हट जाता है और मन शुद्ध हो जाता है।"

"व्यवहारमें साधक यह सावधानी रखे कि कभी किसी अंशमें पराया हक न आ जाय; क्योंकि पराया हक लेनेसे मन अशुद्ध हो जाता है। कहीं नौकरी, मजदूरी करे, तो जितने पैसे मिलते हैं, उससे अधिक काम करे। व्यापार करे तो वस्तुका तौल, नाप या गिनती औरोंकी अपेक्षा ज्यादा भले ही हो जाय, पर कम न हो। मजदूर आदिको पैसे दे तो उसके कामके जितने पैसे बनते हों, उससे कुछ अधिक पैसे उसे दे। इस प्रकार व्यवहार करनेसे मन शुद्ध हो जाता है।


मार्मिक बात


ध्यानयोगमें अर्जुनने मनकी चंचलताको बाधक माना और उसको रोकना वायुको रोकनेकी तरह असम्भव बताया। इसपर भगवान् ने मनके निग्रहके लिये अभ्यास और वैराग्य-ये दो उपाय बताये। इन दोनोंमें भी ध्यानयोगके लिये 'अभ्यास' मुख्य है (गीता- छठे अध्यायका छब्बीसवाँ श्लोक)। 'वैराग्य' ज्ञानयोगके लिये विशेष उपयोगी होता है। यद्यपि वैराग्य ध्यानयोगमें भी सहायक है, तथापि ध्यानयोगमें रागके रहते हुए भी मनको रोका जा सकता है। अगर यह कहा जाय कि रागके रहते हुए मन नहीं रुकता, तो एक आपत्ति आती है। पातंजलयोगदर्शनके अनुसार चित्त-वृत्तियोंका निरोध अभ्याससे ही हो सकता है। अगर उसमें वैराग्य ही कारण हो, तो सिद्धियोंकी प्राप्ति कैसे होगी ? (जिसका वर्णन पातंजलयोगदर्शनके विभूतिपादमें किया गया है।) तात्पर्य है कि अगर भीतर राग रहते हुए चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है, तो उसमें रागके कारणसे सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। कारण कि संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) किसी-न- किसी सिद्धिके लिये किया जाता है और जहाँ सिद्धिका उद्देश्य है, वहाँ रागका अभाव कैसे हो सकता है ? परन्तु जहाँ केवल परमात्मतत्त्वका उद्देश्य होता है, वहाँ ये धारणा, ध्यान और समाधि भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक हो जाते हैं।"

"एकाग्रताके बाद जब चित्तकी निरुद्ध-अवस्था आती है, तब समाधि होती है। समाधि कारणशरीरमें होती है और समाधिसे भी व्युत्थान होता है। जबतक समाधि और व्युत्थान- ये दो अवस्थाएँ हैं, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर तो सहजावस्था होती है, जिससे व्युत्थान होता ही नहीं। अतः चित्तकी चंचलताको रोकनेके विषयमें भगवान् ज्यादा नहीं बोले; क्योंकि चित्तको निरुद्ध करना भगवान् का ध्येय नहीं है अर्थात् भगवान् ने जिस ध्यानका वर्णन किया है, वह ध्यान साधन है, ध्येय नहीं। भगवान् के मतमें संसारमें जो राग है, यही खास बाधा है और इसको दूर करना ही भगवान् का उद्देश्य है। ध्यान तो एक शक्ति है, एक पूँजी है, जिसका लौकिक-पारलौकिक सिद्धियों आदिमें सम्यक् उपयोग किया जा सकता है।


स्वयं केवल परमात्मतत्त्वको चाहता है, तो उसको मनको एकाग्र करनेकी इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता प्रकृतिके कार्य मनसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी, मनसे अपनापन हटानेकी है। अतः जब समाधिसे भी उपरति हो जाती है, तब सर्वातीत तत्त्वकी प्राप्ति होती है। तात्पर्य है कि जबतक समाधि-अवस्थाकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक उसमें एक आकर्षण रहता है। जब वह अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब उसमें आकर्षण न रहकर सच्चे जिज्ञासुको उससे उपरति हो जाती है। उपरति होनेसे अर्थात् अवस्थामात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे अवस्थातीत चिन्मय-तत्त्वकी अनुभूति स्वतः हो जाती है। यही योगकी सिद्धि है। चिन्मय-तत्त्वके साथ स्वयंका नित्ययोग अर्थात् नित्य-सम्बन्ध है।"

"परिशिष्ट भाव - वास्तवमें ध्यानयोगकी सिद्धिके लिये मनका निग्रह करना उतना आवश्यक नहीं है, जितना उसको वशमें करना अर्थात् शुद्ध करना आवश्यक है। शुद्ध करनेका तात्पर्य है - मनमें विषयोंका राग न रहना। जिसने अपने मनको शुद्ध कर लिया है, उसका ध्यानयोग प्रयत्न करनेपर सिद्ध हो जाता है।


भगवान् ने इकतीसवें श्लोकमें 'सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः' पदोंसे जो बात कही थी, उसमें मुख्य बाधा है- भगवद्बुद्धि न होना और बत्तीसवें श्लोकमें 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन' पदोंसे जो बात कही थी, उसमें मुख्य बाधा है- राग-द्वेष होना। परन्तु अर्जुनने भूलसे मनकी चंचलताको बाधक समझ लिया ! वास्तवमें मनकी चंचलता बाधक नहीं है, प्रत्युत सबमें भगवद्बुद्धि न होना और राग-द्वेष होना बाधक है। जबतक राग-द्वेष रहते हैं, तबतक सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होती और जबतक सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होती अर्थात् भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहती है, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं होता।


वृत्तिका निरोध करनेसे वृत्तिकी सत्ता आती है; क्योंकि वृत्तिकी सत्ता स्वीकार की है, तभी तो निरोध करते हैं। स्वरूपमें कोई वृत्ति नहीं है। अतः वृत्तिका निरोध करनेसे कुछ कालके लिये मनका निरोध होगा, फिर व्युत्थान हो जायगा। अगर दूसरी सत्ताकी मान्यता ही न रहे, तो फिर व्युत्थानका प्रश्न ही पैदा नहीं होगा। कारण कि दूसरी सत्ता न हो तो मन है ही नहीं! 


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि जिसका अन्तःकरण पूरा वशमें नहीं है अर्थात् जो शिथिल प्रयत्नवाला है, उसको योगकी प्राप्तिमें कठिनता होती है। इसपर अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें प्रश्न करते हैं।"

"कल के वीडियो में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 37, जिसमें श्रीकृष्ण बताएंगे कि साधना के मार्ग में यदि कोई बाधा आए तो क्या करना चाहिए। बने रहें हमारे साथ।


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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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