ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 41 - समझें जीवन का मार्ग #BhagavadGita
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"🙏 नमस्कार!
स्वागत है आपका हमारी भगवद गीता श्रृंखला में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 41। यह श्लोक हमारे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण सवालों का उत्तर देता है - आध्यात्मिक प्रगति का रहस्य। पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 श्लोक 40 के माध्यम से समझा कि कैसे श्री कृष्ण ने बताया कि आध्यात्मिक प्रयास व्यर्थ नहीं जाते।
आज हम जानेंगे श्री कृष्ण का शाश्वत ज्ञान और उनके द्वारा बताए गए आध्यात्मिक पथ की महिमा। यह श्लोक हमें सिखाता है कि कैसे हमारे पिछले कर्म और प्रयास जीवन को सही दिशा में ले जाते हैं।"
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 41"
"योगभ्रष्ट पुरुषोंको स्वर्गलोक और पवित्र धनवान् के घरमें जन्म प्राप्त होनेका कथन। (श्लोक-४१)
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः । शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
उच्चारण की विधि - प्राप्य, पुण्यकृताम्, लोकान्, उषित्वा, शाश्वतीः, समाः, शुचीनाम्, श्रीमताम्, गेहे, योगभ्रष्टः, अभिजायते ॥ ४१ ॥
शब्दार्थ - योगभ्रष्टः अर्थात् योगभ्रष्ट पुरुष, पुण्यकृताम् अर्थात् पुण्यवानोंके, लोकान् अर्थात् लोकोंको अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकोंको, प्राप्य अर्थात् प्राप्त होकर (उनमें), शाश्वतीः अर्थात् बहुत, समाः अर्थात् वर्षोंतक, उषित्वा अर्थात् निवास करके (फिर), शुचीनाम् अर्थात् शुद्ध आचरणवाले, श्रीमताम् अर्थात् श्रीमान् पुरुषोंके, गेहे अर्थात् घरमें, अभिजायते अर्थात् जन्म लेता है।
अर्थ - योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानोंके लोकोंको अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकोंको प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षोंतक निवास करके फिर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषोंके घरमें जन्म लेता है ॥ ४१ ॥"
व्याख्या 'प्राप्य पुण्यकृतां लोकान्'- जो लोग शास्त्रीय विधि-विधानसे यज्ञ आदि कर्मोंको सांगोपांग करते हैं, उन लोगोंका स्वर्गादि लोकोंपर अधिकार है, इसलिये उन लोकोंको यहाँ 'पुण्यकर्म करनेवालोंके लोक' कहा गया है। तात्पर्य है कि उन लोकोंमें पुण्यकर्म करनेवाले ही जाते हैं, पापकर्म करनेवाले नहीं। परन्तु जिन साधकोंको पुण्य-कर्मोंके फलरूप सुख भोगनेकी इच्छा नहीं है, उनको वे स्वर्गादि लोक विघ्नरूपमें और मुफ्तमें मिलते हैं! तात्पर्य है कि यज्ञादि शुभ कर्म करनेवालोंको परिश्रम करना पड़ता है, उन लोकोंकी याचना-प्रार्थना करनी पड़ती है, यज्ञादि कर्मोंको विधि- विधानसे और सांगोपांग करना पड़ता है, तब कहीं उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति होती है। वहाँ भी उनकी भोगोंकी वासना बनी रहती है; क्योंकि उनका उद्देश्य ही भोग भोगनेका था। परन्तु जो किसी कारणवश अन्तसमयमें साधनसे विचलितमना हो जाते हैं, उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये न तो परिश्रम करना पड़ता है, न उनकी याचना करनी पड़ती है और न उनकी प्राप्तिके लिये यज्ञादि शुभ कर्म ही करने पड़ते हैं। फिर भी उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो जाती है। वहाँ रहनेपर भी उनकी वहाँके भोगोंसे अरुचि हो जाती है; क्योंकि उनका उद्देश्य भोग भोगनेका था ही नहीं। वे तो केवल सांसारिक सूक्ष्म वासनाके कारण उन लोकोंमें जाते हैं।
"परन्तु उनकी वह वासना भोगी पुरुषोंकी वासनाके समान नहीं होती। जो केवल भोग भोगनेके लिये स्वर्गमें जाते हैं, वे जैसे भोगोंमें तल्लीन होते हैं, वैसे योगभ्रष्ट तल्लीन नहीं हो सकता। कारण कि भोगोंकी इच्छावाले पुरुष भोगबुद्धिसे भोगोंको स्वीकार करते हैं और योगभ्रष्टको विघ्नरूपसे भोगोंमें जाना पड़ता है।
'उषित्वा शाश्वतीः समाः' - स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें यज्ञादि शुभकर्म करनेवाले भी (भोग भोगनेके उद्देश्यसे) जाते हैं और योगभ्रष्ट भी जाते हैं। भोग भोगनेके उद्देश्यसे स्वर्गमें जानेवालोंके पुण्य क्षीण होते हैं और पुण्योंके क्षीण होनेपर उन्हें लौटकर मृत्युलोकमें आना पड़ता है। इसलिये वे वहाँ सीमित वर्षांतक ही रह सकते हैं। परन्तु जिसका उद्देश्य भोग भोगनेका नहीं है, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिका है, वह योगभ्रष्ट किसी सूक्ष्म वासनाके कारण स्वर्गमें चला जाय, तो वहाँ उसकी साधन-सम्पत्ति क्षीण नहीं होती। इसलिये वह वहाँ असीम वर्षोंतक रहता है अर्थात् उसके लिये वहाँ रहनेकी कोई सीमा नहीं होती।
जो भोग भोगनेके उद्देश्यसे ऊँचे लोकोंमें जाते हैं, उनका उन लोकोंमें जाना कर्मजन्य है। परन्तु योगभ्रष्टका ऊँचे लोकोंमें जाना कर्मजन्य नहीं है; किन्तु यह तो योगका प्रभाव है, उनकी साधन-सम्पत्तिका प्रभाव है, उनके सत्- उद्देश्यका प्रभाव है।"
"स्वर्ग आदिका सुख भोगनेके उद्देश्यसे जो उन लोकोंमें जाते हैं, उनको न तो वहाँ रहनेमें स्वतन्त्रता है और न वहाँसे आनेमें ही स्वतन्त्रता है। उन्होंने भोग भोगनेके उद्देश्यसे ही यज्ञादि कर्म किये हैं, इसलिये उन शुभ कर्मोंका फल जबतक समाप्त नहीं होता, तबतक वे वहाँसे नीचे नहीं आ सकते और शुभ कर्मोंका फल समाप्त होनेपर वे वहाँ रह भी नहीं सकते। परन्तु जो परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही साधन करनेवाले हैं और केवल अन्तसमयमें योगसे विचलित होनेके कारण स्वर्ग आदिमें गये हैं, उनका वासनाके तारतम्यके कारण वहाँ ज्यादा-कम रहना हो सकता है, पर वे वहाँके भोगोंमें फँस नहीं सकते। कारण कि जब योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है (छठे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक), तब वह योगभ्रष्ट वहाँ फँस ही कैसे सकता है ?
'शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते' - स्वर्गादि लोकोंके भोग भोगनेपर जब भोगोंसे अरुचि हो जाती है, तब वह योगभ्रष्ट लौटकर मृत्युलोकमें आता है और शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। उसके फिर लौटकर आनेमें क्या कारण है ? वास्तवमें इसका कारण तो भगवान् ही जानें; किन्तु गीतापर विचार करनेसे ऐसा दीखता है कि वह मनुष्य जन्ममें साधन करता रहा। वह साधनको छोड़ना नहीं चाहता था, पर अन्तसमयमें साधन छूट गया। "
"अतः उस साधनका जो महत्त्व उसके अन्तःकरणमें अंकित है, वह स्वर्गादि लोकोंमें भी उस योगभ्रष्टको अज्ञातरूपसे पुनः साधन करनेके लिये प्रेरित करता रहता है, उकसाता रहता है। इससे उस योगभ्रष्टके मनमें आती है कि मैं साधन करूँ। ऐसी मनमें क्यों आती है-इसका उसको पता नहीं लगता। जब श्रीमानोंके घरमें भोगोंके परवश होनेपर भी पूर्वजन्मका अभ्यास उसको जबर्दस्ती खींच लेता है (छठे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक) तब वह साधन उसको स्वर्ग आदिमें साधनके बिना चैनसे कैसे रहने देगा ? अतः भगवान् उसको साधन करनेका मौका देनेके लिये शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म देते हैं।
जिनका धन शुद्ध कमाईका है, जो कभी पराया हक नहीं लेते, जिनके आचरण तथा भाव शुद्ध हैं, जिनके अन्तःकरणमें भोगोंका और पदार्थोंका महत्त्व, उनकी ममता नहीं है, जो सम्पूर्ण पदार्थ, घर, परिवार आदिको साधन-सामग्री समझते हैं, जो भोगबुद्धिसे किसीपर अपना व्यक्तिगत आधिपत्य नहीं जमाते, वे 'शुद्ध श्रीमान्' कहे जाते हैं। जो धन और भोगोंपर अपना आधिपत्य जमाते हैं, वे अपनेको तो उन धन और पदार्थोंका मालिक मानते हैं, पर हो जाते हैं उनके गुलाम ! इसलिये वे शुद्ध श्रीमान् नहीं हैं।
सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें तो भगवान् ने अर्जुनके प्रश्नके अनुसार योगभ्रष्टकी गति बतायी। अब आगेके श्लोकमें 'अथवा' कहकर अपनी ही तरफसे दूसरे योगभ्रष्टकी बात कहते हैं।"
कल हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 42, जिसमें भगवान श्री कृष्ण आध्यात्मिक यात्रा की एक और गहरी व्याख्या करते हैं। 🙏 आपका धन्यवाद! अगर यह वीडियो आपको पसंद आया हो, तो लाइक करें, शेयर करें और सब्सक्राइब करें। अपनी राय और सवाल कमेंट करें, ताकि हम अगले वीडियो में उनका उत्तर दे सकें।
दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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