ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 42 - आत्मा के पुनर्जन्म का महत्व #BhagavadGita
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
नमस्कार दोस्तों! आपका स्वागत है हमारे 'भगवद गीता के रहस्यों' चैनल पर। आज हम अध्याय 6, श्लोक 42 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण हमें आत्मा के पुनर्जन्म के महत्व और उससे जुड़े अद्भुत ज्ञान के बारे में बता रहे हैं। तो चलिए, इस दिव्य यात्रा को शुरू करते हैं। पिछले एपिसोड में हमने श्लोक 41 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि कैसे योगी जीवन में आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त करता है। आज के श्लोक में, भगवान श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि किस प्रकार आध्यात्मिक साधना और पुण्य कर्मों का फल हमें अगले जन्म में उच्चतर आध्यात्मिक मार्ग पर ले जाता है।
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 42"
"वैराग्यवान् योगभ्रष्टोंका ज्ञानवान् योगियोंके घरोंमें जन्म और पूर्वदेहके बुद्धियोगको अनायास ही प्राप्त होनेका कथन।
(श्लोक-४२)
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् । एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥
उच्चारण की विधि - अथवा, योगिनाम्, एव, कुले, भवति, धीमताम्, एतत्, हि, दुर्लभतरम्, लोके, जन्म, यत्, ईदृशम् ॥ ४२ ॥
शब्दार्थ - अथवा अर्थात् अथवा (वैराग्यवान् पुरुष उन लोकोंमें न जाकर), धीमताम् अर्थात् ज्ञानवान्, योगिनाम् अर्थात् योगियोंके, एव अर्थात् ही, कुले अर्थात् कुलमें, भवति अर्थात् जन्म लेता है (परंतु), ईदृशम् अर्थात् इस प्रकारका, यत् अर्थात् जो, एतत् अर्थात् यह, जन्म अर्थात् जन्म है (सो), लोके अर्थात् संसारमें, हि अर्थात् निःसन्देह, दुर्लभतरम् अर्थात् अत्यन्त दुर्लभ है।
अर्थ - अथवा वैराग्यवान् पुरुष उन लोकोंमें न जाकर ज्ञानवान् योगियोंके ही कुलमें जन्म लेता है। परन्तु इस प्रकारका जो यह जन्म है, सो संसारमें निःसन्देह अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४२ ॥"
"व्याख्या- [साधन करनेवाले दो तरहके होते हैं - वासनासहित और वासनारहित। जिसको साधन अच्छा लगता है, जिसकी साधनमें रुचि हो जाती है और जो परमात्माकी प्राप्तिका उद्देश्य बनाकर साधनमें लग भी जाता है, पर अभी उसकी भोगोंमें वासना सर्वथा नहीं मिटी है, वह अन्तसमयमें साधनसे विचलित होनेपर योगभ्रष्ट हो जाता है, तो वह स्वर्गादि लोकोंमें बहुत वर्षांतक रहकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। (इस योगभ्रष्टकी बात पूर्वश्लोकमें बता दी)। दूसरा साधक, जिसके भीतर वासना नहीं है, तीव्र वैराग्य है और जो परमात्माका उद्देश्य रखकर तेजीसे साधनमें लगा है, पर अभी पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है, वह किसी विशेष कारणसे योगभ्रष्ट हो जाता है तो उसको स्वर्ग आदिमें नहीं जाना पड़ता, प्रत्युत वह सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेता है (इस योगभ्रष्टकी बात इस श्लोकमें बता रहे हैं) ।]
'अथवा' - तुमने जिस योगभ्रष्टकी बात पूछी थी, वह तो मैंने कह दी। परन्तु जो संसारसे विरक्त होकर, संसारसे सर्वथा विमुख होकर साधनमें लगा हुआ है, वह भी किसी कारणसे, किसी परिस्थितिसे तत्काल मर जाय और उसकी वृत्ति अन्तसमयमें साधनमें न रहे, तो वह भी योगभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे योगभ्रष्टकी गतिको मैं यहाँ कह रहा हूँ।
'योगिनामेव कुले भवति धीमताम्' - जो परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर चुके हैं, जिनकी बुद्धि परमात्मतत्त्वमें स्थिर हो गयी है, ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त बुद्धिमान् योगियोंके कुलमें वह वैराग्यवान् योगभ्रष्ट जन्म लेता है।"
"कुले' कहनेका तात्पर्य है कि उसका जन्म साक्षात् जीवन्मुक्त योगी महापुरुषके कुलमें ही होता है; क्योंकि श्रुति कहती है कि उस ब्रह्मज्ञानीके कुलमें कोई भी ब्रह्मज्ञानसे रहित नहीं होता अर्थात् सब ब्रह्मज्ञानी ही होते हैं- 'नास्याब्रह्मवित् कुले भवति' (मुण्डक० ३। २। ९)।
'एतद्धि दुर्लभतरं * लोके जन्म यदीदृशम्' - उसका यह इस प्रकारका योगियोंके कुलमें जन्म होना इस लोकमें बहुत ही दुर्लभ है।
* यहाँ 'दुर्लभतर' शब्दमें 'तरप्' प्रत्यय देनेका तात्पर्य है कि श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाले और योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले- इन दोनों योगभ्रष्टोंमेंसे योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवालेका जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।
तात्पर्य है कि शुद्ध सात्त्विक राजाओंके, धनवानोंके और प्रसिद्ध गुणवानोंके घरमें जन्म होना भी दुर्लभ माना जाता है, पुण्यका फल माना जाता है; फिर तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगी महापुरुषोंके यहाँ जन्म होना तो दुर्लभतर- बहुत ही दुर्लभ है! कारण कि उन योगियोंके कुलमें, घरमें स्वाभाविक ही पारमार्थिक वायुमण्डल रहता है। वहाँ सांसारिक भोगोंकी चर्चा ही नहीं होती। अतः वहाँके वायुमण्डलसे, दृश्यसे, तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके संगसे, अच्छी शिक्षा आदिसे उसके लिये साधनमें लगना बहुत सुगम हो जाता है और वह बचपनसे ही साधनमें लग जाता है। इसलिये ऐसे योगियोंके कुलमें जन्म लेनेको दुर्लभतर बताया गया है।
विशेष बात
यहाँ 'एतत् ' और 'ईदृशम्' - ये दो पद आये हैं। 'एतत् ' पदसे तो तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट समझना चाहिये (जिसका इस श्लोकमें वर्णन हुआ है) "
"और 'ईदृशम्' पदसे उन तत्त्वज्ञ योगी महापुरुषोंके संगका अवसर जिसको प्राप्त हुआ है- इस प्रकारका साधक समझना चाहिये। संसारमें दो प्रकारकी प्रजा मानी जाती है- बिन्दुज और नादज। जो माता- पिताके रज-वीर्यसे पैदा होती है, वह 'बिन्दुज प्रजा' कहलाती है; और जो महापुरुषोंके नादसे अर्थात् शब्दसे, उपदेशसे पारमार्थिक मार्गमें लग जाती है, वह 'नादज प्रजा' कहलाती है। यहाँ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट 'बिन्दुज' है और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका संगप्राप्त साधक 'नादज' है। इन दोनों ही साधकोंको ऐसा जन्म और संग मिलना बड़ा दुर्लभ है।
शास्त्रोंमें मनुष्यजन्मको दुर्लभ बताया है, पर मनुष्यजन्ममें महापुरुषोंका संग मिलना और भी दुर्लभ है। १-दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः । तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ।। (श्रीमद्भा० ११।२।२९)
नारदजी अपने भक्तिसूत्रमें कहते हैं- 'महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च' अर्थात् महापुरुषोंका संग दुर्लभ है, अगम्य है और अमोघ है। कारण कि एक तो उनका संग मिलना कठिन है और भगवान् की कृपासे ऐसा संग मिल भी जाय तो उन महापुरुषोंको पहचानना कठिन है।
२-जब द्रवै दीनदयालु राघव साधु संगति पाइये। (विनयपत्रिका १३६ । १०)
परन्तु उनका संग किसी भी तरहसे मिल जाय, वह कभी निष्फल नहीं जाता। तात्पर्य है कि महापुरुषोंका संग मिलनेकी दृष्टिसे ही उपर्युक्त दोनों साधकोंको 'दुर्लभतर' बताया गया है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने वैराग्यवान् योगभ्रष्टका तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म होना बताया। अब वहाँ जन्म होनेके बाद क्या होता है- यह बात आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
कल के एपिसोड में हम श्लोक 43 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण योगी की तपस्या और उच्चतर चेतना के मार्ग की महिमा को उजागर करेंगे। तो दोस्तों, यह था आज का श्लोक। अगर आपको यह जानकारी उपयोगी लगी हो, तो लाइक करें, शेयर करें और अपने सवाल कमेंट में लिखें। हमारे साथ जुड़े रहें और अगले एपिसोड के लिए सब्सक्राइब करना न भूलें। धन्यवाद!
दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
Comments
Post a Comment