ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 44 - अध्यात्मिक ज्ञान की गहराई #BhagavadGita

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारी 'भगवद गीता ज्ञान यात्रा' में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 44 पर। क्या आप तैयार हैं कृष्ण और अर्जुन के दिव्य संवाद में डूबने के लिए? आइए शुरुआत करें। पिछले एपिसोड में, हमने अध्याय 6 के श्लोक 43 पर चर्चा की थी, जिसमें पुनर्जन्म और आत्मा की उन्नति के बारे में बताया गया था। अगर आपने वह एपिसोड नहीं देखा, तो अभी जाकर देखिए! आज के श्लोक में भगवान कृष्ण हमें बताते हैं कि कैसे पिछले जन्म के आध्यात्मिक प्रयास इस जन्म में भी फल देते हैं और मोक्ष के मार्ग में मददगार बनते हैं।


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 44"

"पवित्र धनियोंके घरमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टोंका भी पूर्वाभ्यासके बलसे भगवान्‌की ओर आकर्षित किये जानेका तथा योगकी जिज्ञासाके महत्त्वका कथन ।


(श्लोक-४४)


पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः । जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ 


उच्चारण की विधि - पूर्वाभ्यासेन, तेन, एव, ह्रियते, हि, अवशः, अपि, सः, जिज्ञासुः, अपि, योगस्य, शब्दब्रह्म, अतिवर्तते ॥ ४४ ॥


शब्दार्थ - सः अर्थात् वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट), अवशः अर्थात् पराधीन हुआ, अपि अर्थात् भी, तेन अर्थात् उस, पूर्वाभ्यासेन अर्थात् पहलेके अभ्याससे, एव अर्थात् ही, हि अर्थात् निःसन्देह (भगवान्की ओर), ह्रियते अर्थात् आकर्षित किया जाता है (तथा), योगस्य अर्थात् समबुद्धिरूप योगका, जिज्ञासुः अर्थात् जिज्ञासु, अपि अर्थात् भी, शब्दब्रह्म अर्थात् वेदमें कहे हुए सकाम कर्मोंके फलको, अतिवर्तते अर्थात् उल्लंघन कर जाता है।


अर्थ - वह श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहलेके अभ्याससे ही निःसन्देह भगवान्की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समबुद्धिरूप योगका जिज्ञासु भी वेदमें कहे हुए सकाम कर्मोंके फलको उल्लंघन कर जाता है ॥ ४४ ॥"

"व्याख्या- 'पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः'- योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टको जैसी साधनकी सुविधा मिलती है, जैसा वायुमण्डल मिलता है, जैसा संग मिलता है, जैसी शिक्षा मिलती है, वैसी साधनकी सुविधा, वायुमण्डल, संग, शिक्षा आदि श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवालोंको नहीं मिलती। परन्तु स्वर्गादि लोकोंमें जानेसे पहले मनुष्य-जन्ममें जितना योगका साधन किया है, सांसारिक भोगोंका त्याग किया है, उसके अन्तःकरणमें जितने अच्छे संस्कार पड़े हैं, उस मनुष्य-जन्ममें किये हुए अभ्यासके कारण ही भोगोंमें आसक्त होता हुआ भी वह परमात्माकी तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है।


'अवशोऽपि' कहनेका तात्पर्य है कि वह श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेसे पहले बहुत वर्षोंतक स्वर्गादि लोकोंमें रहा है। वहाँ उसके लिये भोगोंकी बहुलता रही है और यहाँ (साधारण घरोंकी अपेक्षा) श्रीमानोंके घरमें भी भोगोंकी बहुलता है। उसके मनमें जो भोगोंकी आसक्ति है, वह भी अभी सर्वथा मिटी नहीं है, इसलिये वह भोगोंके परवश हो जाता है। परवश होनेपर भी अर्थात् इन्द्रियाँ, मन आदिका भोगोंकी तरफ आकर्षण होते रहनेपर भी पूर्वके अभ्यास आदिके कारण वह जबर्दस्ती परमात्माकी तरफ खिंच जाता है। कारण यह है कि भोग-वासना कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह है 'असत्' ही। उसका जीवके सत्-स्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जितना ध्यानयोग आदि साधन किया है, साधनके जितने संस्कार हैं वे कितने ही साधारण क्यों न हों, पर वे हैं 'सत् ' ही। वे सभी जीवके सत्-स्वरूपके अनुकूल हैं। इसलिये वे संस्कार भोगोंके परवश हुए योगभ्रष्टको भीतरसे खींचकर परमात्माकी तरफ लगा ही देते हैं।"

"जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते' - इस प्रकरणमें अर्जुनका प्रश्न था कि साधनमें लगा हुआ शिथिल प्रयत्नवाला साधक अन्तसमयमें योगसे विचलित हो जाता है तो वह योगकी संसिद्धिको प्राप्त न होकर किस गतिको जाता है अर्थात् उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता ? इसके उत्तरमें भगवान् ने इस लोकमें और परलोकमें योगभ्रष्टका पतन न होनेकी बात इस श्लोकके पूर्वार्धतक कही। अब इस श्लोकके उत्तरार्धमें योगमें लगे हुए योगीकी वास्तविक महिमा कहनेके लिये योगके जिज्ञासुकी महिमा कहते हैं। जब योगका जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्म और उनके फलोंका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् उनसे ऊपर उठ जाता है, फिर योगभ्रष्टके लिये तो कहना ही क्या है! अर्थात् उसके पतनकी कोई शंका ही नहीं है। वह योगमें प्रवृत्त हो चुका है; अतः उसका तो अवश्य उद्धार होगा ही।


यहाँ 'जिज्ञासुरपि योगस्य' पदोंका अर्थ होता है कि जो अभी योगभ्रष्ट भी नहीं हुआ है और योगमें प्रवृत्त भी नहीं हुआ है; परन्तु जो योग (समता) को महत्त्व देता है और उसको प्राप्त करना चाहता है-ऐसा योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका * अर्थात् वेदोंके सकाम कर्मके भागका अतिक्रमण कर जाता है।


* वेदोंमें जो साधन सामग्री है, उसको इस 'शब्दब्रह्म' के अन्तर्गत नहीं लेना चाहिये।


योगका जिज्ञासु वह है, जो भोग और संग्रहको साधारण लोगोंकी तरह महत्त्व नहीं देता, प्रत्युत उनकी उपेक्षा करके योगको अधिक महत्त्व देता है। उसकी भोग और संग्रहकी रुचि मिटी नहीं है, पर सिद्धान्तसे योगको ही महत्त्व देता है। इसलिये वह योगारूढ़ तो नहीं हुआ है, पर योगका जिज्ञासु है, योगको प्राप्त करना चाहता है। इस जिज्ञासामात्रका यह माहात्म्य है कि वह वेदोंमें कहे सकाम कर्मोंसे और उनके फलसे ऊँचा उठ जाता है।"

"इससे सिद्ध हुआ कि जो यहाँके भोगोंकी और संग्रहकी रुचि सर्वथा मिटा न सके और तत्परतासे योगमें भी न लग सके, उसकी भी इतनी महत्ता है, तो फिर योगभ्रष्टके विषयमें तो कहना ही क्या है! ऐसी ही बात भगवान् ने दूसरे अध्यायके चालीसवें श्लोकमें कही है कि योग (समता) का आरम्भ भी नष्ट नहीं होता और उसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है। फिर जो योगमें प्रवृत्त हो चुका है, उसका पतन कैसे हो सकता है? उसका तो कल्याण होगा ही, इसमें सन्देह नहीं है।


विशेष बात


(१) 'योगभ्रष्ट' बहुत विशेषतावाले मनुष्यका नाम है। कैसी विशेषता ? कि मनुष्योंमें हजारों और हजारोंमें कोई एक सिद्धिके लिये यत्न करता है (गीता - सातवें अध्यायका तीसरा श्लोक) तथा सिद्धिके लिये यत्न करनेवाला ही योगभ्रष्ट होता है।


योगमें लगनेवालेकी बड़ी महिमा है। इस योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् ऊँचे-से-ऊँचे ब्रह्मलोक आदि लोकोंसे भी उसकी अरुचि हो जाती है। कारण कि ब्रह्मलोक आदि सभी लोक पुनरावर्ती हैं और वह अपुनरावर्ती चाहता है। जब योगकी जिज्ञासामात्र होनेकी इतनी महिमा है, तो फिर योगभ्रष्टकी कितनी महिमा होनी चाहिये ! कारण कि उसके उद्देश्यमें योग (समता) आ गयी है, तभी तो वह योगभ्रष्ट हुआ है।


इस योगभ्रष्टमें महिमा योगकी है, न कि भ्रष्ट होनेकी। जैसे कोई 'आचार्य' की परीक्षामें फेल हो गया हो, वह क्या 'शास्त्री' और 'मध्यमा' की परीक्षामें पास होनेवालेसे नीचा होगा ? नहीं होगा। ऐसे ही जो योगभ्रष्ट हो गया है, वह सकामभावसे बड़े-बड़े यज्ञ, दान, तप आदि करनेवालोंसे नीचा नहीं होता, प्रत्युत बहुत श्रेष्ठ होता है। कारण कि उसका उद्देश्य समता हो गया है। "

"बड़े-बड़े यज्ञ, दान, तपस्या आदि करनेवालोंको लोग बड़ा मानते हैं, पर वास्तवमें बड़ा वही है, जिसका उद्देश्य समताका है। समताका उद्देश्यवाला शब्दब्रह्मका भी अतिक्रमण कर जाता है। इस योगभ्रष्टके प्रसंगसे साधकोंको उत्साह दिलानेवाली एक बड़ी विचित्र बात मिलती है कि अगर साधक 'हमें तो परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है' - ऐसा दृढ़तासे विचार कर लें, तो वे शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जायँगे !


(२) यदि साधक आरम्भमें 'समता' को प्राप्त न भी कर सके, तो भी उसको अपनी रुचि या उद्देश्य समता प्राप्तिका ही रखना चाहिये; जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-


मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥ (मानस १।८।४)


तात्पर्य यह है कि साधक चाहे जैसा हो, पर उसकी रुचि या उद्देश्य सदैव ऊँचा रहना चाहिये। साधककी रुचि या उद्देश्यपूर्तिकी लगन जितनी तेज, तीव्र होगी, उतनी ही जल्दी उसके उद्देश्यकी सिद्धि होगी। भगवान् का स्वभाव है कि वे यह नहीं देखते कि साधक करता क्या है, प्रत्युत यह देखते हैं कि साधक चाहता क्या है-


रीझत राम जानि जन जी की ॥ रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की ॥


(मानस १। २९। २-३)


एक प्रज्ञाचक्षु सन्त रोज मन्दिरमें (भगवद्विग्रहका दर्शन करने) जाया करते थे। एक दिन जब वे मन्दिर गये, तब किसीने पूछ लिया कि आप यहाँ किसलिये आते हैं? सन्तने उत्तर दिया कि दर्शन करनेके लिये आता हूँ। उसने कहा कि आपको तो दिखायी ही नहीं देता ! सन्त बोले- मुझे दिखायी नहीं देता तो क्या भगवान् को भी दिखायी नहीं देता ? मैं उन्हें नहीं देखता, पर वे तो मुझे देखते हैं; बस, इसीसे मेरा काम बन जायगा !"

"इसी तरह हम समताको प्राप्त भले ही न कर सकें, फिर भी हमारी रुचि या उद्देश्य समताका ही रहना चाहिये, जिसको भगवान् देखते ही हैं! अतः हमारा काम जरूर बन जायगा।


परिशिष्ट भाव - सांसारिक पुण्य तो पापकी अपेक्षासे (द्वन्द्ववाला) है, पर भगवान् के सम्बन्ध (सत्संग, भजन आदि) से होनेवाला पुण्य (योग्यता, सामर्थ्य) विलक्षण है। इसलिये सांसारिक पुण्य मनुष्यको भगवान् में नहीं लगाता, पर भगवत्सम्बन्धी पुण्य मनुष्यको भगवान् में ही लगाता है। यह पुण्य फल देकर नष्ट नहीं होता (गीता २। ४०)। सांसारिक कामनाओंका त्याग करना और भगवान् की तरफ लगना-दोनों ही भगवत्सम्बन्धी पुण्य हैं।


'पूर्वाभ्यासेन तेनैव' पदोंका तात्पर्य है कि वर्तमान जन्ममें सत्संग, सच्चर्चा आदि न होनेपर भी केवल पूर्वाभ्यासके कारण वह परमात्मामें लग जाता है। इस पूर्वाभ्यासमें क्रिया (प्रवृत्ति) नहीं है, प्रत्युत गति है *।


* गति और प्रवृत्तिका भेद जाननेके लिये पन्द्रहवें अध्यायके छठे श्लोकका परिशिष्ट भाव देखना चाहिये।


जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते' में भी क्रियावाला अभ्यास न होकर गतिवाला अभ्यास है। तात्पर्य है कि इस अभ्यासमें प्रयत्न भी नहीं है और कर्तृत्व भी नहीं है, पर गति है। गतिमें स्वतः परमात्माकी ओर खींचनेकी शक्ति है। क्रियावाला अभ्यास किया जाता है और गतिवाला अभ्यास स्वतः होता है।


सम्बन्ध-श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेके बाद जब वह योगभ्रष्ट परमात्माकी तरफ खिंचता है, तब उसकी क्या दशा होती है ? यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।"

कल के एपिसोड में, हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 45 पर। इसमें आध्यात्मिक साधना की महिमा का वर्णन मिलेगा। इसे बिलकुल मिस मत करिएगा। धन्यवाद दोस्तों, इस एपिसोड को देखने के लिए। अगर आपको यह वीडियो पसंद आया हो, तो लाइक और सब्सक्राइब ज़रूर करें। अपने अनुभव और प्रश्न कमेंट बॉक्स में लिखें। हमें आपके सुझावों का इंतजार रहेगा। मिलते हैं अगले एपिसोड में!

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