ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 1 - अध्यात्म का सच्चा मार्ग #BhagavadGita

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"जय श्रीकृष्ण दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर।

आज हम चर्चा करेंगे श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 7 के श्लोक 1 की। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जो गूढ़ और महत्वपूर्ण संदेश देते हैं, उसे समझेंगे और इसे अपने जीवन में कैसे लागू कर सकते हैं, इस पर चर्चा करेंगे। तो आइए इस अध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत करते हैं। साथ ही, हमारे ‘अब सीखो भी और जीतो भी’ प्रमोशन में भाग लेना न भूलें। चलिए शुरू करते हैं।"

पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 47 पर चर्चा की थी, जहाँ योग और ध्यान की महिमा पर जोर दिया गया था। आपने इसे देखा? अगर नहीं, तो अभी जाकर देखिए!

"आज का श्लोक भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जहाँ वे अर्जुन को परमात्मा की अनुभूति के लिए समर्पण का मार्ग दिखाते हैं। श्लोक इस प्रकार है:

श्री भगवानुवाच:

'मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।"

"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 7 श्लोक 1"

"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


अथ सप्तमोऽध्यायः


अवतरणिका


श्रीभगवान् ने छठे अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें योगीकी महिमा कही और सैंतालीसवें श्लोकमें कहा कि योगियोंमें भी जो मुझमें श्रद्धा-प्रेम करके मेरा भजन करते हैं, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ हैं। भक्तोंको जैसे भगवान् की याद आती है तो वे उसमें तल्लीन हो जाते हैं- मस्त हो जाते हैं, ऐसे ही भगवान् के सामने भक्तोंका विशेष प्रसंग आता है तो भगवान् उसमें मस्त हो जाते हैं। इसी मस्तीमें सराबोर होते हुए भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही सातवें अध्यायका विषय अपनी तरफसे प्रारम्भ कर देते हैं।


१-७ भगवान्‌के द्वारा समग्ररूपके वर्णनकी प्रतिज्ञा करना तथा अपरा-परा प्रकृतियोंके संयोगसे प्राणियोंकी उत्पत्ति बताकर अपनेको सबका मूल कारण बताना"

"समग्ररूपका वर्णन सुननेके लिये अर्जुनके प्रति भगवान्‌की आज्ञा ।


(श्लोक-१) श्रीभगवानुवाच


मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥


उच्चारण की विधि - मयि, आसक्तमनाः, पार्थ, योगम्, युञ्जन्, मदाश्रयः, असंशयम्, समग्रम्, माम्, यथा, ज्ञास्यसि, तत्, शृणु ॥ १॥


शब्दार्थ - पार्थ अर्थात् हे पार्थ!, मयि आसक्तमनाः अर्थात् अनन्य प्रेमसे, मुझमें आसक्तचित्त (तथा अनन्य भावसे), मदाश्रयः अर्थात् मेरे परायण होकर, योगम् अर्थात् योगमें, युञ्जन् अर्थात् लगा हुआ (तू), यथा अर्थात् जिस प्रकारसे, समग्रम् अर्थात् सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणोंसे युक्त, सबके आत्मरूप, माम् अर्थात् मुझको, असंशयम् अर्थात् संशयरहित, ज्ञास्यसि अर्थात् जानेगा, तत् अर्थात् उसको, शृणु अर्थात् सुन।


अर्थ - श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ ! अनन्यप्रेमसे मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभावसे मेरे परायण होकर योगमें लगा हुआ तू जिस प्रकारसे सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणोंसे युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन ॥ १॥"

"व्याख्या 'मय्यासक्तमनाः' मेरेमें ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात् अधिक स्नेहके कारण जिसका मन स्वाभाविक ही मेरेमें लग गया है, चिपक गया है, उसको मेरी याद करनी नहीं पड़ती, प्रत्युत स्वाभाविक मेरी याद आती है और विस्मृति कभी होती ही नहीं - ऐसा तू मेरेमें मनवाला हो।


जिसका उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका और शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्धका आकर्षण मिट गया है, जिसका इस लोकमें शरीरके आराम, आदर-सत्कार और नामकी बड़ाईमें तथा स्वर्गादि परलोकके भोगोंमें किंचिन्मात्र भी खिंचाव, आसक्ति या प्रियता नहीं है, प्रत्युत केवल मेरी तरफ ही खिंचाव है, ऐसे पुरुषका नाम 'मय्यासक्तमनाः' है।


साधक भगवान् में मन कैसे लगाये, जिससे वह 'मय्यासक्तमनाः' हो जाय - इसके लिये दो उपाय बताये जाते हैं- 

(१) साधक जब सच्ची नीयतसे भगवान् के लिये ही जप-ध्यान करने बैठता है, तब भगवान् उसको अपना भजन मान लेते हैं। जैसे, कोई धनी आदमी किसी नौकरसे कह दे कि 'तुम यहाँ बैठो, कोई काम होगा तो तुम्हारेको बता देंगे।' किसी दिन उस नौकरको मालिकने कोई काम नहीं बताया। वह नौकर दिनभर खाली बैठा रहा और शामको मालिकसे कहता है- 'बाबू ! मेरेको पैसे दीजिये।' मालिक कहता है- 'तुम सारे दिन बैठे रहे, पैसे किस बातके ?' वह नौकर कहता है- 'बाबूजी ! सारे दिन बैठा रहा, इस बातके !' इस तरह जब एक मनुष्यके लिये बैठनेवालेको भी पैसे मिलते हैं, तब जो केवल भगवान् में मन लगानेके लिये सच्ची लगनसे बैठता है, उसका बैठना क्या भगवान् निरर्थक मानेंगे ? तात्पर्य यह हुआ कि जो भगवान् में मन लगानेके लिये भगवान् का आश्रय लेकर, भगवान् के ही भरोसे बैठता है, वह भगवान् की कृपासे भगवान् में मनवाला हो जाता है।"

"(२) भगवान् सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं; क्योंकि अगर यहाँ नहीं हैं तो भगवान् सब जगह हैं- यह कहना नहीं बनता। भगवान् सब समयमें हैं तो इस समय भी हैं; क्योंकि अगर इस समय नहीं हैं तो भगवान् सब समयमें हैं - यह कहना नहीं बनता। भगवान् सबमें हैं तो मेरेमें भी हैं; क्योंकि अगर मेरेमें नहीं हैं तो भगवान् सबमें हैं- यह कहना नहीं बनता। भगवान् सबके हैं तो मेरे भी हैं; क्योंकि अगर मेरे नहीं हैं तो भगवान् सबके हैं- यह कहना नहीं बनता। इसलिये भगवान् यहाँ हैं, अभी हैं, अपनेमें हैं और अपने हैं। कोई देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना और क्रिया उनसे रहित नहीं है, उनसे रहित होना सम्भव ही नहीं है। इस बातको दृढ़तासे मानते हुए, भगवन्नाममें, प्राणमें, मनमें, बुद्धिमें, शरीरमें, शरीरके कण-कणमें परमात्मा हैं- इस भावकी जागृति रखते हुए नाम-जप करे तो साधक बहुत जल्दी भगवान् में मनवाला हो सकता है।


'मदाश्रयः' - जिसको केवल मेरी ही आशा है, मेरा ही भरोसा है, मेरा ही सहारा है, मेरा ही विश्वास है और जो सर्वथा मेरे ही आश्रित रहता है, वह 'मदाश्रयः' है।


किसी-न-किसीका आश्रय लेना इस जीवका स्वभाव है। परमात्माका अंश होनेसे यह जीव अपने अंशीको ढूँढ़ता है। परन्तु जबतक इसके लक्ष्यमें, उद्देश्यमें परमात्मा नहीं होते, तबतक यह शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़े रहता है और शरीर जिसका अंश है, उस संसारकी तरफ खिंचता है। वह यह मानने लगता है कि इससे ही मेरेको कुछ मिलेगा, इसीसे मैं निहाल हो जाऊँगा, जो कुछ होगा, वह संसारसे ही होगा। परन्तु जब यह भगवान् को ही सर्वोपरि मान लेता है, तब यह भगवान् में आसक्त हो जाता है और भगवान् का ही आश्रय ले लेता है। संसारका अर्थात् धन, सम्पत्ति, वैभव, विद्या, बुद्धि, योग्यता, कुटुम्ब आदिका जो आश्रय है,"

"वह नाशवान् है, मिटनेवाला है, स्थिर रहनेवाला नहीं है। वह सदा रहनेवाला नहीं है और सदाके लिये पूर्ति और तृप्ति करानेवाला भी नहीं है। परन्तु भगवान् का आश्रय कभी किंचिन्मात्र भी कम होनेवाला नहीं है; क्योंकि भगवान् का आश्रय पहले भी था, अभी भी है और आगे भी रहेगा। अतः आश्रय केवल भगवान् का ही लेना चाहिये। केवल भगवान् का ही आश्रय, अवलम्बन, आधार, सहारा हो। इसीका वाचक यहाँ 'मदाश्रयः' पद है।


भगवान् कहते हैं कि मन भी मेरेमें आसक्त हो जाय और आश्रय भी मेरा हो। मन आसक्त होता है- प्रेमसे और प्रेम होता है- अपनेपनसे। आश्रय लिया जाता है- बड़ेका, सर्वसमर्थका। सर्वसमर्थ तो हमारे प्रभु ही हैं। इसलिये उनका ही आश्रय लेना है और उनके प्रत्येक विधानमें प्रसन्न होना है कि मेरे मनके विरुद्ध विधान भेजकर प्रभु मेरी कितनी निगरानी रखते हैं! मेरा कितना खयाल रखते हैं कि मेरी सम्मति लिये बिना ही विधान करते हैं! ऐसे मेरे दयालु प्रभुका मेरेपर कितना अपनापन है! अतः मेरेको कभी किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार भगवान् के आश्रित रहना ही 'मदाश्रयः' होना है।


'योगं युञ्जन्'- भगवान् के साथ जो स्वतःसिद्ध अखण्ड सम्बन्ध है, उस सम्बन्धको मानता हुआ तथा सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता हुआ साधक जप, ध्यान, कीर्तन करनेमें, भगवान् की लीला और स्वरूपका चिन्तन करनेमें स्वाभाविक ही अटल भावसे लगा रहता है। उसकी चेष्टा स्वाभाविक ही भगवान् के अनुकूल होती है। यही 'योगं युञ्जन्' कहनेका तात्पर्य है। जब साधक भगवान् में ही आसक्त मनवाला और भगवान् के ही आश्रयवाला होगा, तब वह अभ्यास क्या करेगा ? कौन-सा योग करेगा ? वह भगवत्सम्बन्धी अथवा संसार-सम्बन्धी जो भी कार्य करता है, वह सब योगका ही अभ्यास है। "

"तात्पर्य है कि जिससे परमात्माका सम्बन्ध हो जाय, वह (लौकिक या पारमार्थिक) काम करता है और जिससे परमात्माका वियोग हो जाय, वह काम नहीं करता है।


'असंशयं समग्रं माम्' - जिसका मन भगवान् में आसक्त हो गया है, जो सर्वथा भगवान् के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान् के सम्बन्धको स्वीकार कर लिया है-ऐसा पुरुष भगवान् के समग्ररूपको जान लेता है अर्थात् सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, अवतार- अवतारी और शिव, गणेश, सूर्य, विष्णु आदि जितने रूप हैं, उन सबको वह जान लेता है।


भगवान् अपने भक्तकी बात कहते-कहते अघाते नहीं हैं और कहते हैं कि ज्ञानमार्गसे चलनेवाला तो मेरेको जान सकता है और प्राप्त कर सकता है; परंतु भक्तिसे तो मेरा भक्त समग्ररूपको जान सकता है और इष्टका अर्थात् जिस रूपसे मेरी उपासना करता है, उस रूपका दर्शन भी कर सकता है।


'यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु'- यहाँ 'यथा"" पदसे प्रकार बताया गया है कि तू जिस प्रकार जान सके, वह प्रकार भी कहूँगा, और 'तत् पदसे बताया गया है कि जिस तत्त्वको तू जान सकता है, उसका मैं वर्णन करता हूँ, तू सुन।


१-स्थूलसे लेकर सूक्ष्मतक वर्णन करना (जैसे-भूमिसे जल सूक्ष्म है, जलसे अग्नि सूक्ष्म है, अग्निसे वायु सूक्ष्म है आदि) - यह 'यथा' कहनेका तात्पर्य है। इस 'यथा' अर्थात् प्रकारका वर्णन इसी अध्यायके चौथेसे सातवें श्लोकतक हुआ है।


२-जो कुछ कार्य (संसार) दीखता है, उसमें कारणरूपसे भगवान् ही हैं- यह 'तत्' कहनेका तात्पर्य है। इसका वर्णन इसी अध्यायके आठवेंसे बारहवें श्लोकतक हुआ है। छठे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें 'श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः' पदोंमें प्रथम पुरुष (वह) का प्रयोग करके सामान्य बात कही थी"

"और यहाँ सातवाँ अध्याय आरम्भ करते हुए 'यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु' पदोंमें मध्यम पुरुष (तू) का प्रयोग करके अर्जुनके लिये विशेषतासे कहते हैं कि तू जिस प्रकार मेरे समग्ररूपको जानेगा, वह मेरेसे सुन।

इससे पहलेके छः अध्यायोंमें भगवान् के लिये 'समग्र' शब्द नहीं आया है। चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' पदोंमें कर्मके विशेषणके रूपमें 'समग्र' शब्द आया है और यहाँ 'समग्र' शब्द भगवान् के विशेषणके रूपमें आया है। 'समग्र' शब्दमें भगवान् का तात्त्विक स्वरूप सब-का-सब आ जाता है, बाकी कुछ नहीं बचता।


विशेष बात


(१) इस श्लोकमें 'आसक्ति केवल मेरेमें ही हो, आश्रय भी केवल मेरा ही हो, फिर योगका अभ्यास किया जाय तो मेरे समग्ररूपको जान लेगा' - ऐसा कहनेमें भगवान् का तात्पर्य है कि अगर मनुष्यकी आसक्ति भोगोंमें है और आश्रय रुपये-पैसे, कुटुम्ब आदिका है तो कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि किसी योगका अभ्यास करता हुआ भी मेरेको नहीं जान सकता। मेरे समग्ररूपको जाननेके लिये तो मेरेमें ही प्रेम हो, मेरा ही आश्रय हो। मेरेसे किसी भी कार्यपूर्तिकी इच्छा न हो। ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये-इस कामनाको छोड़कर, भगवान् जो करते हैं, वही होना चाहिये और भगवान् जो नहीं करना चाहते वह नहीं होना चाहिये-इस भावसे केवल मेरा आश्रय लेता है, वह मेरे समग्र रूपको जान लेता है। इसलिये भगवान् अर्जुनको कहते हैं कि तू 'मय्यासक्तमनाः' और 'मदाश्रयः' हो जा। 

(२) परमात्माके साथ वास्तविक सम्बन्धका नाम 'योगम्' है और उस सम्बन्धको अखण्डभावसे माननेका नाम 'युञ्जन्' है। "

"तात्पर्य यह है कि मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिके साथ सम्बन्ध मानकर अपनेमें 'मैं' रूपसे जो एक व्यक्तित्व मान रखा है, उसको न मानते हुए परमात्माके साथ जो अपनी वास्तविक अभिन्नता है, उसका अनुभव करता रहे। वास्तवमें 'योगं युञ्जन्' की इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता संसारकी आसक्ति और आश्रय छोड़नेकी है। संसारकी आसक्ति और आश्रय छोड़नेसे परमात्माका चिन्तन स्वतः स्वाभाविक होगा और सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्कामभावपूर्वक होने लगेंगी। फिर भगवान् को जाननेके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ेगा। इसका तात्पर्य यह है कि जिसका संसारकी तरफ खिंचाव है और जिसके अन्तःकरणमें उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व बैठा हुआ है, वह परमात्माके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता। कारण कि उसकी आसक्ति, कामना, महत्ता संसारमें है, जिससे संसारमें परमात्माके परिपूर्ण रहते हुए भी वह उनको नहीं जान सकता।


मनुष्यका जब समाजके किसी बड़े व्यक्तिसे अपनापन हो जाता है, तब उसको एक प्रसन्नता होती है। ऐसे ही जब हमारे सदाके हितैषी और हमारे खास अंशी भगवान् में आत्मीयता जाग्रत् हो जाती है, तब हरदम प्रसन्नता रहते हुए एक अलौकिक, विलक्षण प्रेम प्रकट हो जाता है। फिर साधक स्वाभाविक ही भगवान् में मनवाला और भगवान् के आश्रित हो जाता है।


शरणागतिके पर्याय


आश्रय, अवलम्बन, अधीनता, प्रपत्ति और सहारा- ये सभी शब्द 'शरणागति' के पर्यायवाचक होते हुए भी अपना अलग अर्थ रखते हैं; जैसे- 

(१) आश्रय - जैसे हम पृथ्वीके आधारके बिना जी ही नहीं सकते और उठना-बैठना आदि कुछ कर ही नहीं सकते, ऐसे ही प्रभुके आधारके बिना हम जी नहीं सकते और कुछ भी कर नहीं सकते। जीना और कुछ भी करना प्रभुके आधारसे ही होता है। इसीको 'आश्रय' कहते हैं।"

"(२) अवलम्बन - जैसे किसीके हाथकी हड्डी टूटनेपर डॉक्टरलोग उसपर पट्टी बाँधकर उसको गलेके सहारे लटका देते हैं तो वह हाथ गलेके अवलम्बित हो जाता है, ऐसे ही संसारसे निराश और अनाश्रित होकर भगवान् के गले पड़ने अर्थात् भगवान् को पकड़ लेनेका नाम 'अवलम्बन' है।


(३) अधीनता - अधीनता दो तरहसे होती है-१-कोई हमें जबर्दस्तीसे अधीन कर ले या पकड़ ले और २-हम अपनी तरफसे किसीके अधीन हो जायँ या उसके दास बन जायें। ऐसे ही अपना कुछ भी प्रयोजन न रखकर अर्थात् केवल भगवान् को लेकर ही अनन्यभावसे सर्वथा भगवान् का दास बन जाना और केवल भगवान् को ही अपना स्वामी मान लेना 'अधीनता' है।


(४) प्रपत्ति - जैसे कोई किसी समर्थके चरणोंमें लम्बा पड़ जाता है, ऐसे ही संसारकी तरफसे सर्वथा निराश होकर भगवान् के चरणोंमें गिर जाना 'प्रपत्ति' (प्रपन्नता) है।


(५) सहारा - जैसे जलमें डूबनेवालेको किसी वृक्ष, लता, रस्से आदिका आधार मिल जाय, ऐसे ही संसारमें बार-बार जन्म-मरणमें डूबनेके भयसे भगवान् का आधार ले लेना 'सहारा' है।


इस प्रकार उपर्युक्त सभी शब्दोंमें केवल शरणागतिका भाव प्रकट होता है। शरणागति तब होती है, जब भगवान् में ही आसक्ति हो और भगवान् का ही आश्रय हो अर्थात् भगवान् में ही मन लगे और भगवान् में ही बुद्धि लगे। 


अगर मनुष्य मन-बुद्धिसहित स्वयं भगवान् के आश्रित (समर्पित) हो जाय, तो शरणागतिके उपर्युक्त सब-के-सब भाव उसमें आ जाते हैं।


मन और बुद्धिको अपने न मानकर 'ये भगवान् के ही हैं' ऐसा दृढ़तासे मान लेनेसे साधक 'मय्यासक्तमनाः' और 'मदाश्रयः' हो जाता है। सांसारिक वस्तुमात्र प्रतिक्षण प्रलयकी तरफ जा रही है और किसी भी वस्तुसे अपना नित्य सम्बन्ध है ही नहीं - यह सबका अनुभव है। "

"अगर इस अनुभवको महत्त्व दिया जाय अर्थात् मिटनेवाले सम्बन्धको अपना न माना जाय तो अपने कल्याणका उद्देश्य होनेसे भगवान् की शरणागति स्वतः आ जायगी। कारण कि यह स्वतः ही भगवान् का है। संसारके साथ सम्बन्ध केवल माना हुआ है (वास्तवमें सम्बन्ध है नहीं) और भगवान् से केवल विमुखता हुई है (वास्तवमें विमुखता है नहीं)। इसलिये माना हुआ सम्बन्ध छोड़नेपर भगवान् के साथ जो स्वतः सिद्ध सम्बन्ध है, वह प्रकट हो जाता है।


परिशिष्ट भाव - जिसका मन स्वाभाविक ही भगवान् की तरफ खिंच गया है, जो सर्वथा भगवान् के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान् के साथ अपने स्वतःसिद्ध नित्ययोग- (आत्मीय सम्बन्ध) को स्वीकार कर लिया है, वह भक्त भगवान् के समग्ररूपको जान लेता है। सब कुछ भगवान् ही हैं- यह भगवान् का समग्ररूप है।


'मय्यासक्तमनाः' में प्रेमकी और 'मदाश्रयः' में श्रद्धाकी मुख्यता है।


'समग्रं माम्' - इसमें 'समग्रम्' (समग्ररूप) विशेषण है और 'माम्' (भगवान्) विशेष्य हैं। भक्तका सम्बन्ध विशेषणके साथ न होकर विशेष्यके साथ होता है।


छठे अध्यायके अन्तमें 'श्रद्धावान्भजते यो माम्' पदोंमें आये 'माम्' का क्या स्वरूप है- इसको भगवान् यहाँ बताते हैं कि वह 'माम्' मेरा समग्ररूप है।


'यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु'- उस समग्ररूपका वर्णन मैं इस प्रकार, ढंग, युक्ति, शैलीसे करूँगा, जिससे तू मेरेको सुगमतापूर्वक यथार्थरूपसे जान लेगा।


अर्जुनने पिछले अध्यायमें अपना संशय प्रकट किया था - 'एतन्मे संशयं कृष्ण०' (६। ३९), इसलिये भगवान् कहते हैं कि अब मैं वही बात कहूँगा, जिससे कोई संशय बाकी न रहे।


सम्बन्ध-पहले श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे कहा था कि तू मेरे समग्र रूपको जैसा जानेगा, वह सुन। अब भगवान् आगेके श्लोकमें उसे सुनानेकी प्रतिज्ञा करते हैं।"

"कल के वीडियो में हम चर्चा करेंगे अध्याय 7, श्लोक 2 पर। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान और विज्ञान के अद्भुत रहस्यों को उजागर करेंगे। इसे मिस न करें!


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