गीता का सार अध्याय 10 श्लोक 6 - 🕉️ सृष्टि की शुरुआत कैसे हुई?✨ #jagatkas...



॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 6 - 🕉️ सृष्टि की शुरुआत कैसे हुई?


🕉️ 🙏 जय श्रीकृष्ण!

स्वागत है आपका “गीता का सार – जगत का सार” में।

रुकिए! एक सवाल है आपसे — क्या वाकई आप इस दिव्य ज्ञान को अधूरा छोड़ना चाहेंगे?

सोचिए ज़रा… जब किसी को प्रभु की वाणी सुनने का सौभाग्य मिलता है, तो क्या वह यूँ ही जाने दिया जाता है?

अगर आप अब तक सुन रहे हैं, तो समझ लीजिए — ये कोई संयोग नहीं, ये प्रभु की विशेष कृपा है।

आपके कानों तक जो शब्द पहुँच रहे हैं, वो सिर्फ आवाज़ नहीं… वो उस परम शक्ति का संदेश है, जो आपको कुछ कहना चाहती है।

हम तो बस एक ज़रिया हैं — असली संदेशवाहक तो वही हैं।

तो बताइए… क्या आप इस अनमोल अवसर को अधूरा छोड़ना चाहेंगे या अंत तक साथ चलेंगे?


पिछले श्लोक (अध्याय 10, श्लोक 5) में हमने जाना कि कैसे भगवान ने अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा था कि बुद्धि, ज्ञान, मोह, क्षमा, और भय – सभी उनमें से ही उत्पन्न होते हैं।




“महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोके इमा: प्रजा:॥”

हे अर्जुन! सप्तऋषि, चार सनकादि और चौदह मनु — ये सब मेरे संकल्प से, मुझमें ही भाववाले होकर उत्पन्न हुए। इन्हीं से यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई है।


श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥


भगवान्‌के संकल्पसे सप्तर्षि और सनकादिकोंकी उत्पत्तिका कथन । (श्लोक-६)

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥

उच्चारण की विधि - महर्षयः, सप्त, पूर्वे, चत्वारः, मनवः, तथा, मद्भावाः, मानसाः, जाताः, येषाम्, लोके, इमाः, प्रजाः ॥ ६ ॥

शब्दार्थ - सप्त अर्थात् सात, महर्षयः अर्थात् महर्षिजन, चत्वारः अर्थात् चार (उनसे भी), पूर्वे अर्थात् पूर्व होनेवाले (सनकादि), तथा अर्थात् तथा, मनवः अर्थात् स्वायम्भुव आदि चौदह मनु-ये, मद्भावाः अर्थात् मुझमें भाववाले (सब-के-सब), मानसाः अर्थात् मेरे संकल्पसे, जाताः अर्थात् उत्पन्न हुए हैं, येषाम् अर्थात् जिनकी, लोके अर्थात् संसारमें, इमाः अर्थात् यह, प्रजाः अर्थात् सम्पूर्ण प्रजा है।

अर्थ - सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्वमें होनेवाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु-ये मुझमें भाववाले सब-के-सब मेरे संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है॥ ६॥


व्याख्या [पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान् ने प्राणियोंके भाव-रूपसे बीस विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्ति-रूपसे पचीस विभूतियाँ बता रहे हैं, जो कि प्राणियोंमें विशेष प्रभावशाली और जगत् की कारण हैं।]

'महर्षयः सप्त' - जो दीर्घ आयुवाले; मन्त्रोंको प्रकट करनेवाले; ऐश्वर्यवान्; दिव्य दृष्टिवाले; गुण, विद्या आदिसे वृद्ध; धर्मका साक्षात् करनेवाले और गोत्रोंके प्रवर्तक हैं- ऐसे सातों गुणोंसे युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते है।

१-सप्तैते सप्तभिश्चैव गुणैः सप्तर्षयः स्मृताः ॥ दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरो दिव्यचक्षुषः । वृद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये । (वायुपुराण ६१।९३-९४)

मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ - ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणोंसे युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं, वेदोंके आचार्य माने गये हैं, प्रवृत्ति-धर्मका संचालन करनेवाले हैं और प्रजापतिके कार्यमें नियुक्त किये गये हैं।


२-मरीचिरंगिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते ॥ एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः । प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये च कल्पिताः ॥

(महा०, शान्तिपर्व० ३४७।६९-७०)

इन्हीं सात ऋषियोंको यहाँ 'महर्षि' कहा गया है।

'पूर्वे चत्वारः' - सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार-ये चारों ही ब्रह्माजीके तप करनेपर सबसे पहले प्रकट हुए हैं। ये चारों भगवत्स्वरूप हैं। सबसे पहले प्रकट होनेपर भी ये चारों सदा पाँच वर्षकी अवस्थावाले बालकरूपमें ही रहते हैं। ये तीनों लोकोंमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रचार करते हुए घूमते रहते हैं। इनकी वाणीसे सदा 'हरिः शरणम्' का उच्चारण होता रहता है।


३-हरिः शरणमेवं हि नित्यं येषां मुखे वचः ।

(पद्मपुराणोक्त श्रीमद्भागवत-माहात्म्य २।४८)

ये भगवत्कथाके बहुत प्रेमी हैं। अतः इन चारोंमेंसे एक वक्ता और तीन श्रोता बनकर भगवत्कथा करते और सुनते रहते हैं।

'मनवस्तथा'- ब्रह्माजीके एक दिन (कल्प) में चौदह मनु होते हैं। ब्रह्माजीके वर्तमान कल्पके स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि नामवाले चौदह मनु हैं *।

  • (श्रीमद्भागवतके आठवें स्कन्धके पहले, पाँचवें और तेरहवें अध्यायमें इनका विस्तारसे वर्णन आया है।)

ब्रह्माजीका एक दिन एक हजार चतुर्युगीका होता है। उसमें एक मनुका राज्य इकहत्तर चतुर्युगीसे कुछ ज्यादा समयका माना गया है। इस समय ब्रह्माजीकी आयुका इक्यावनवाँ वर्ष चल रहा है और इसमें सातवें मनु 'वैवस्वत' का राज्य चल रहा है।

ये सभी ब्रह्माजीकी आज्ञासे सृष्टिके उत्पादक और प्रवर्तक हैं।

'मानसा जाताः'- मात्र सृष्टि भगवान् के संकल्पसे पैदा होती है। परन्तु यहाँ सप्तर्षि आदिको भगवान् के मनसे पैदा हुआ कहा है। इसका कारण यह है कि सृष्टिका विस्तार करनेवाले होनेसे सृष्टिमें इनकी प्रधानता है। दूसरा कारण यह है कि ये सभी ब्रह्माजीके मनसे अर्थात् संकल्पसे पैदा हुए हैं। स्वयं भगवान् ही सृष्टि- रचनाके लिये ब्रह्मारूपसे प्रकट हुए हैं। अतः सात महर्षि, चार सनकादि और चौदह मनु-इन पचीसोंको ब्रह्माजीके मानसपुत्र कहें अथवा भगवान् के मानसपुत्र कहें, एक ही बात है।

'मद्भावाः'- ये सभी मेरेमें ही भाव अर्थात् श्रद्धा-प्रेम रखनेवाले हैं।


'येषां लोकमिमाः प्रजाः' - संसारमें दो तरहकी प्रजा है-स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पन्न होनेवाली और शब्दसे (दीक्षा, मन्त्र, उपदेश आदिसे) उत्पन्न होनेवाली। संयोगसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा 'बिन्दुज' कहलाती है और शब्दसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा 'नादज' कहलाती है। बिन्दुज प्रजा पुत्र-परम्परासे और नादज प्रजा शिष्य-परम्परासे चलती है।

सप्तर्षियों और चौदह मनुओंने तो विवाह किया था; अतः उनसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा 'बिन्दुज' है। परन्तु सनकादिकोंने विवाह किया ही नहीं; अतः उनसे उपदेश प्राप्त करके पारमार्थिक मार्गमें लगनेवाली प्रजा 'नादज' है। निवृत्तिपरायण होनेवाले जितने सन्त-महापुरुष पहले हुए हैं, अभी हैं और आगे होंगे, वे सब उपलक्षणसे उनकी ही नादज प्रजा हैं।

परिशिष्ट भाव - सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु-ये सब भगवान् के मनसे पैदा होनेके कारण भगवान् से अभिन्न हैं।

सम्बन्ध-चौथेसे छठे श्लोकतक प्राणियोंके भावों तथा व्यक्तियोंके रूपमें अपनी विभूतियोंका और अपने योग (प्रभाव) का वर्णन करके अब भगवान् आगेके श्लोकमें उनको तत्त्वसे जाननेका फल बताते हैं।"


समस्या: हम अकसर सोचते हैं — "हमारी उत्पत्ति क्यों हुई? हमारी ज़िंदगी का क्या उद्देश्य है?"

समाधान: भगवान बताते हैं कि इस संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति उनके ही संकल्प से हुई है। तो जब हमारा मूल ही दिव्य है, तो हमारा जीवन भी सार्थक और उच्च उद्देश्य के लिए है। आपका अस्तित्व कोई संयोग नहीं, यह प्रभु की योजना का हिस्सा है। अपने भीतर उस दिव्यता को पहचानिए।


प्रश्न: श्रीकृष्ण ने किनके द्वारा इस सृष्टि की उत्पत्ति बताई है?

A. ब्रह्मा जी

B. सप्त ऋषि, सनकादि और मनु

C. इंद्र

D. कोई नहीं


सही उत्तर: B. सप्त ऋषि, सनकादि और मनु

विवरण: भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि सप्त महर्षि, चार सनकादि और चौदह मनु — ये सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, और इन्हीं से सारी सृष्टि की प्रजा उत्पन्न हुई है।


कल हम जानेंगे श्लोक 7 में — भगवान श्रीकृष्ण ये बताएंगे कि जो उनकी विभूतियों को तत्त्व से जानता है, वह कैसी भक्ति करता है? क्या आप तैयार हैं उस गूढ़ ज्ञान के लिए?


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