गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 4 से 5 - 🕉️ कौन देता है बुद्धि, ज्ञान और शक्ति?✨



॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 4 से 5 - 🕉️ कौन देता है बुद्धि, ज्ञान और शक्ति?


🕉️ 🙏 जय श्रीकृष्ण!

स्वागत है आपका “गीता का सार – जगत का सार” में।

रुकिए! एक सवाल है आपसे — क्या वाकई आप इस दिव्य ज्ञान को अधूरा छोड़ना चाहेंगे?

सोचिए ज़रा… जब किसी को प्रभु की वाणी सुनने का सौभाग्य मिलता है, तो क्या वह यूँ ही जाने दिया जाता है?

अगर आप अब तक सुन रहे हैं, तो समझ लीजिए — ये कोई संयोग नहीं, ये प्रभु की विशेष कृपा है।

आपके कानों तक जो शब्द पहुँच रहे हैं, वो सिर्फ आवाज़ नहीं… वो उस परम शक्ति का संदेश है, जो आपको कुछ कहना चाहती है।

हम तो बस एक ज़रिया हैं — असली संदेशवाहक तो वही हैं।

तो बताइए… क्या आप इस अनमोल अवसर को अधूरा छोड़ना चाहेंगे या अंत तक साथ चलेंगे?


पिछले श्लोक में भगवान ने बताया था कि जो उन्हें जन्म रहित, अनादि और सर्वेश्वर मानता है, वही वास्तविक रूप से ज्ञानवान है। वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।


आज का श्लोक (Chapter 10 - Shlok 4-5) श्लोक:



"बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यम् दमः शमः। सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।। अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।


श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवान्से बुद्धि आदि भावोंकी उत्पत्तिका कथन।

(श्लोक-४)

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥

उच्चारण की विधि - बुद्धिः, ज्ञानम्, असम्मोहः, क्षमा, सत्यम्, दमः, शमः, सुखम्, दुःखम्, भवः, अभावः, भयम्, च, अभयम्, एव, च॥४॥

शब्दार्थ - बुद्धिः अर्थात् निश्चय करनेकी शक्ति, ज्ञानम् अर्थात् यथार्थ ज्ञान, असम्मोहः अर्थात् असंमूढता, क्षमा अर्थात् क्षमा, सत्यम् अर्थात् सत्य, दमः अर्थात् इन्द्रियोंका वशमें करना, शमः अर्थात् मनका निग्रह, एव अर्थात् तथा, सुखम् दुःखम् अर्थात् सुख-दुःख, भवः अभावः अर्थात् उत्पत्ति प्रलय, च अर्थात् और, भयम्, अभयम् अर्थात् भय-अभय, च अर्थात् तथा।

अर्थ - निश्चय करनेकी शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियोंका वशमें करना, मनका निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा ॥ ४ ॥


व्याख्या-'बुद्धिः '- उद्देश्यको लेकर निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम 'बुद्धि' है।

'ज्ञानम्'- सार-असार, ग्राह्य-अग्राह्य, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य-ऐसा जो विवेक अर्थात् अलग-अलग जानकारी है, उसका नाम 'ज्ञान' है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्रको भगवान् से मिला है।

'असम्मोहः' - शरीर और संसारको उत्पत्ति- विनाशशील जानते हुए भी उनमें 'मैं' और 'मेरा'-पन करनेका नाम सम्मोह है और इसके न होनेका नाम 'असम्मोह' है।

'क्षमा'- कोई हमारे प्रति कितना ही बड़ा अपराध करे, अपनी सामर्थ्य रहते हुए भी उसे सह लेना और उस अपराधीको अपनी तथा ईश्वरकी तरफसे यहाँ और परलोकमें कहीं भी दण्ड न मिले - ऐसा विचार करनेका नाम 'क्षमा' है।

'सत्यम्' - सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये सत्यभाषण करना अर्थात् जैसा सुना, देखा और समझा है, उसीके अनुसार अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये न ज्यादा, न कम-वैसा-का-वैसा कह देनेका नाम 'सत्य' है।

'दमः शमः'- परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखते हुए इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयोंसे हटाकर अपने वशमें करनेका नाम 'दम' है, और मनको सांसारिक भोगोंके चिन्तनसे हटानेका नाम 'शम' है।


'सुखं दुःखम्' - शरीर, मन, इन्द्रियोंके अनुकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयमें जो प्रसन्नता होती है, उसका नाम 'सुख' है और प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयमें जो अप्रसन्नता होती है, उसका नाम 'दुःख' है।

'भवोऽभावः' - सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदिके उत्पन्न होनेका नाम 'भव' है और इन सबके लीन होनेका नाम 'अभाव' है।

'भयं चाभयमेव च' - अपने आचरण, भाव आदि शास्त्र और लोक-मर्यादाके विरुद्ध होनेसे अन्तःकरणमें अपना अनिष्ट होनेकी जो एक आशंका होती है, उसको 'भय' कहते हैं। मनुष्यके आचरण, भाव आदि अच्छे हैं, वह किसीको कष्ट नहीं पहुँचाता, शास्त्र और सन्तोंके सिद्धान्तसे विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता, तो उसके हृदयमें अपना अनिष्ट होनेकी आशंका नहीं रहती अर्थात् उसको किसीसे भय नहीं होता। इसीको 'अभय' कहते हैं।"


(श्लोक-५)

अहिंसा समता तुष्टिस्-तपो दानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥

उच्चारण की विधि - अहिंसा, समता, तुष्टिः, तपः, दानम्, यशः, अयशः, भवन्ति, भावाः, भूतानाम्, मत्तः, एव, पृथग्विधाः ॥ ५ ॥

शब्दार्थ - अहिंसा अर्थात् अहिंसा, समता अर्थात् समता, तुष्टिः अर्थात् संतोष, तपः दानम् अर्थात् दान, यशः अर्थात् कीर्ति (और), अयशः अर्थात् अपकीर्ति, एवम् अर्थात् ऐसे ये, भूतानाम् अर्थात् प्राणियोंके, पृथग्विधाः अर्थात् नाना प्रकारके, भावाः अर्थात् भाव, मत्तः अर्थात् मुझसे, एवअर्थात् ही, भवन्ति अर्थात् होते हैं।

अर्थ - अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति-ऐसे ये प्राणियोंके नाना प्रकारके भाव मुझसे ही होते हैं ॥ ५ ॥


अहिंसा'- अपने तन, मन और वचनसे किसी भी देश, काल, परिस्थिति आदिमें किसी भी प्राणीको किंचिन्मात्र भी दुःख न देनेका नाम 'अहिंसा' है।

'समता'- तरह-तरहकी अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिके प्राप्त होनेपर भी अपने अन्तःकरणमें कोई विषमता न आनेका नाम 'समता' है।

'तुष्टिः ' - आवश्यकता ज्यादा रहनेपर भी कम मिले तो उसमें सन्तोष करना तथा और मिले- ऐसी इच्छाका न रहना 'तुष्टि' है। तात्पर्य है कि मिले अथवा न मिले, कम मिले अथवा ज्यादा मिले आदि हर हालतमें प्रसन्न रहना 'तुष्टि' है।

'तपः'- अपने कर्तव्यका पालन करते हुए जो कुछ कष्ट आ जाय, प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय, उन सबको प्रसन्नतापूर्वक सहनेका नाम 'तप' है। एकादशी-व्रत आदि करनेका नाम भी तप है।

'दानम्' - प्रत्युपकार और फलकी किंचिन्मात्र भी इच्छा न रखकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाईका हिस्सा सत्पात्रको देनेका नाम 'दान' है (गीता-सत्रहवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक)।


'यशोऽयशः ' - मनुष्यके अच्छे आचरणों, भावों और गुणोंको लेकर संसारमें जो नामकी प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि होते हैं, उनका नाम 'यश' है। मनुष्यके बुरे आचरणों, भावों और गुणोंको लेकर संसारमें जो नामकी निन्दा होती है, उसको 'अयश' (अपयश) कहते हैं।

'भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः '-प्राणियोंके ये पृथक् पृथक् और अनेक तरहके भाव मेरेसे ही होते हैं अर्थात् उन सबको सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश मुझ लोकमहेश्वरसे ही मिलता है। तात्पर्य है कि तत्त्वसे सबके मूलमें मैं ही हूँ। यहाँ 'मत्तः' पदसे भगवान् का योग, सामर्थ्य, प्रभाव और 'पृथग्विधाः' पदसे अनेक प्रकारकी अलग-अलग विभूतियाँ जाननी चाहिये।


संसारमें जो कुछ विहित तथा निषिद्ध हो रहा है; शुभतथा अशुभ हो रहा है और संसारमें जितने सद्भाव तथा दुर्भाव हैं, वह सब-की-सब भगवान् की लीला है-इस प्रकार भक्त भगवान् को तत्त्वसे समझ लेता है तो उसका भगवान् में अविकम्प (अविचल) योग हो जाता है (गीता - दसवें अध्यायका सातवाँ श्लोक)।

यहाँ प्राणियोंके जो बीस भाव बताये गये हैं, उनमें बारह भाव तो एक-एक (अकेले) हैं और वे सभी अन्तःकरणमें उत्पन्न होनेवाले हैं और भयके साथ आया हुआ अभय भी अन्तःकरणमें पैदा होनेवाला भाव है तथा बचे हुए सात भाव परस्परविरोधी हैं। उनमेंसे भव (उत्पत्ति), अभाव, यश और अयश-ये चार तो प्राणियोंके पूर्वकृत कर्मोंके फल हैं और सुख, दुःख तथा भय-ये तीन मूर्खताके फल हैं। इस मूर्खताको मनुष्य मिटा सकता है।

यहाँ प्राणियोंके बीस भावोंको अपनेसे पैदा हुए और अपनी विभूति बतानेमें भगवान् का तात्पर्य है कि ये बीस भाव तो पृथक् पृथक् हैं, पर इन सब भावोंका आधार मैं एक ही हूँ। इन सबके मूलमें मैं ही हूँ, ये सभी मेरेसे ही होते हैं एवं मेरेसे ही सत्ता स्फूर्ति पाते हैं। सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भी भगवान् ने 'मत्त एव' पदोंसे बताया है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं अर्थात् उनके मूलमें मैं ही हूँ, वे मेरेसे ही होते हैं और मेरेसे ही सत्ता स्फूर्ति पाते हैं। अतः यहाँ भी भगवान् का आशय विभूतियोंके मूल तत्त्वकी तरफ साधककी दृष्टि करानेमें ही है।


विशेष बात

साधक संसारको कैसे देखे ? ऐसे देखे कि संसारमें जो कुछ क्रिया, पदार्थ, घटना आदि है, वह सब भगवान् का रूप है। चाहे उत्पत्ति हो, चाहे प्रलय हो; चाहे अनुकूलता हो, चाहे प्रतिकूलता हो; चाहे अमृत हो, चाहे मृत्यु हो; चाहे स्वर्ग हो, चाहे नरक हो; यह सब भगवान् की लीला है। भगवान् की लीलामें बालकाण्ड भी है, अयोध्याकाण्ड भी है, अरण्यकाण्ड भी है और लंकाकाण्ड भी है। पुरियोंमें देखा जाय तो अयोध्यापुरीमें भगवान् का प्राकट्य है; राजा, रानी और प्रजाका वात्सल्यभाव है। जनकपुरीमें रामजीके प्रति राजा जनक, महारानी सुनयना और प्रजाके विलक्षण-विलक्षण भाव हैं। वे रामजीको दामादरूपसे खिलाते हैं, खेलाते हैं, विनोद करते हैं। वनमें (अरण्यकाण्डमें) भक्तोंका मिलना भी है और राक्षसोंका मिलना भी। लंकापुरीमें युद्ध होता है, मार-काट होती है, खूनकी नदियाँ बहती हैं। इस तरह अलग-अलग पुरियोंमें, अलग-अलग काण्डोंमें भगवान् की तरह-तरहकी लीलाएँ होती हैं। परन्तु तरह-तरहकी लीलाएँ होते हुए भी रामायण एक है और ये सभी लीलाएँ एक ही रामायणके अंग हैं तथा इन अंगोंसे रामायण सांगोपांग होती है। ऐसे ही संसारमें प्राणियोंके तरह-तरहके भाव हैं, क्रियाएँ हैं। कहींपर कोई हँस रहा है तो कहींपर कोई रो रहा है, कहींपर विद्वगोष्ठी हो रही है तो कहींपर आपसमें लड़ाई हो रही है, कोई जन्म ले रहा है तो कोई मर रहा है, आदि-आदि जो विविध भाँतिकी चेष्टाएँ हो रही हैं, वे सब भगवान् की लीलाएँ हैं। लीलाएँ करनेवाले ये सब भगवान् के रूप हैं। इस प्रकार भक्तकी दृष्टि हरदम भगवान् पर ही रहनी चाहिये; क्योंकि इन सबके मूलमें एक परमात्मतत्त्व ही है।


परिशिष्ट भाव - ज्ञानकी दृष्टिसे तो सभी भाव प्रकृतिसे होते हैं, पर भक्तिकी दृष्टिसे सभी भाव भगवान् से होते हैं। अगर इन भावोंको जीवका मानें तो जीव भी भगवान् की ही परा प्रकृति होनेसे भगवान् से अभिन्न है; अतः ये भाव भगवान् के ही हुए। भगवान् में तो ये भाव निरन्तर रहते हैं, पर जीवमें अपराके संगसे आते-जाते रहते हैं। भगवान् से उत्पन्न होनेके कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं।

'पृथग्विधाः' कहनेका तात्पर्य है कि जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ अलग-अलग होती हैं, ऐसे ही भगवान् एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होनेवाले भाव अलग-अलग हैं। एक ही भगवान् में अनेक प्रकारके परस्परविरुद्ध भाव एक साथ रहते हैं!"


Today's Learning (आज का सार)

भगवान कहते हैं — "बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह (निर्णय की स्पष्टता), क्षमा, सत्य, इंद्रिय-निग्रह, मन-नियंत्रण, सुख-दुख, जन्म-मरण, भय-अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश — ये सब भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ मेरे ही द्वारा उत्पन्न होती हैं।"

सीख: हमारे जीवन के हर भाव — चाहे वो सुख हो या दुःख, डर हो या साहस, संतोष हो या असंतोष — सबका मूल एक ही है: भगवान। जब हम इस सत्य को जान लेते हैं, तो हमारे भीतर विनम्रता और आत्मसमर्पण जन्म लेता है।


प्रश्न: भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार "अहिंसा, समता, तुष्टि, यश-अपयश" जैसे भाव कहाँ से आते हैं?

A. समाज से

B. अपने संस्कारों से

C. स्वयं भगवान से

D. शिक्षा से


सही उत्तर: C. स्वयं भगवान से

विवरण: जैसा कि श्लोक में बताया गया है, ये सभी भावनात्मक और मानसिक गुण भगवान द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। इसका अर्थ है कि हमारे भीतर जो कुछ भी हो रहा है, वह उनके द्वारा ही संचालित है। इस ज्ञान से अहंकार समाप्त होता है।

Precap (कल की झलक - Chapter 10 Shlok 6) कल हम जानेंगे — कौन हैं सप्तर्षि और मनु? और कैसे भगवान को ही उनके जन्म का कारण बताया गया है?


हर दिन हम गीता के एक नए श्लोक की गहराई से व्याख्या करते हैं, जिससे आपको आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन में मार्गदर्शन मिले।

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कहते हैं कि अगर आप किसी समस्या से गुजर रहे हैं, तो श्रीमद्भगवद्गीता का चमत्कारिक प्रभाव यही है कि आप प्रभुजी का नाम लेकर कोई भी पृष्ठ खोलें, और उसके दाहिने पृष्ठ पर जो पहली पंक्ति होगी, वही आपकी समस्या का समाधान होगी।

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