गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 25 - हर यज्ञ का सच्चा भोक्ता कौन?
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 25 - हर यज्ञ का सच्चा भोक्ता कौन?
गीता का ज्ञान एक ऐसा दिव्य प्रकाश है जो हमारे जीवन के हर पहलू को आलोकित करता है। कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह ज्ञान दिया था, और उस दिव्य संवाद को सुनने का सौभाग्य केवल कुछ ही आत्माओं को प्राप्त हुआ — अर्जुन, ध्वजा पर विराजमान हनुमान जी, दिव्य दृष्टि से युक्त संजय, और हस्तिनापुर में बैठे धृतराष्ट्र।
यह आश्चर्य की बात है कि एक ही ज्ञान को सुनकर भी सबकी समझ अलग-अलग थी — 👉 अर्जुन ने इसे अपने कर्तव्य को समझने और निभाने की प्रेरणा के रूप में लिया, 👉 जबकि धृतराष्ट्र मोहवश उस दिव्य ज्ञान को समझ ही नहीं पाए।
आज अगर हम इस श्लोक को सुन पा रहे हैं, तो यह एक दुर्लभ सौभाग्य है। तो चलिए मिलकर आज के श्लोक का गूढ़ अर्थ समझते हैं — और जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण हमें पूजा, यज्ञ और उसके फल के बारे में क्या गहराई से बताते हैं।
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"पिछले श्लोक में भगवान ने कहा था कि जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी मेरी ही पूजा करते हैं – पर अज्ञानवश। यानि मार्ग भटक जाने से भक्ति का लक्ष्य छूट सकता है।"
श्लोक: 👉 अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
भावार्थ: "मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ, परंतु लोग मुझे तत्त्व से नहीं जानते – इसलिए वे च्युत हो जाते हैं।"
संवादात्मक ढंग से प्रस्तुति: "सोचिए – जब आप पूजा करते हैं, आरती करते हैं, यज्ञ करते हैं – क्या आपको लगता है कि उसका फल सीधे भगवान तक पहुँचता है?
श्रीकृष्ण आज स्पष्ट करते हैं कि — 'मैं ही सभी यज्ञों का अंतिम भोक्ता हूँ' लेकिन जो लोग यह समझे बिना पूजा करते हैं, वे भटक जाते हैं।
अब सवाल उठता है — क्या आज हम सही तरीके से पूजा कर रहे हैं?"
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"श्लोक ॥ २५॥
यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन्यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥
उच्चारण की विधि - यान्ति, देवव्रताः, देवान्, पितॄन्, यान्ति, पितृव्रताः, भूतानि, यान्ति, भूतेज्याः, यान्ति, मद्याजिनः, अपि, माम्॥ २५॥
शब्दार्थ - देवव्रताः = देवताओंको पूजनेवाले, देवान् = देवताओंको, यान्ति = = प्राप्त होते हैं, पितृव्रताः = पितरोंको पूजनेवाले, पितॄन् पितरोंको, यान्ति = प्राप्त होते हैं, भूतेज्याः = भूतोंको पूजनेवाले, भूतानि = भूतोंको, यान्ति = प्राप्त होते हैं (और), मद्याजिनः = मेरा पूजन करनेवाले भक्त, माम् = मुझको, अपि = ही, यान्ति = प्राप्त होते हैं (इसीलिये मेरे भक्तोंका पुनर्जन्म नहीं होता *)
अर्थ - देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं, भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करनेवाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसलिये मेरे भक्तोंका पुनर्जन्म नहीं होता * ॥ २५ ॥"
"व्याख्या [पूर्वश्लोकमें भगवान् ने यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और सम्पूर्ण संसारका मालिक हूँ, परन्तु जो मनुष्य मेरेको भोक्ता और मालिक न मानकर स्वयं भोक्ता और मालिक बन जाते हैं, उनका पतन हो जाता है। अब इस श्लोकमें उनके पतनका विवेचन करते हैं।]
'यान्ति देवव्रता देवान्' - भगवान् को ठीक तरहसे न जाननेके कारण भोग और ऐश्वर्यको चाहनेवाले पुरुष वेदों और शास्त्रोंमें वर्णित नियमों, व्रतों, मन्त्रों, पूजन-विधियों आदिके अनुसार अपने-अपने उपास्य देवताओंका विधि-विधानसे सांगोपांग पूजन करते हैं, अनुष्ठान करते हैं और सर्वथा उन देवताओंके परायण हो जाते हैं (गीता - सातवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक) । वे उपास्य देवता अपने उन भक्तोंको अधिक-से-अधिक और ऊँचा-से-ऊँचा फल यही देंगे कि उनको अपने-अपने लोकोंमें ले जायँगे, जिन लोकोंको भगवान् ने पुनरावर्ती कहा है (आठवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)।"
तेईसवें श्लोकमें भगवान् ने बताया कि देवताओंका पूजन भी मेरा ही पूजन है; परन्तु वह पूजन अविधिपूर्वक है। उस पूजनमें विधिरहितपना यह है कि 'सब कुछ भगवान् ही हैं' इस बातको वे जानते नहीं, मानते नहीं तथा देवता आदिका पूजन करके भोग और ऐश्वर्यको चाहते हैं। इसलिये उनका पतन होता है। अगर वे देवता आदिके रूपमें मेरेको ही मानते और उन भगवत्स्वरूप देवताओंसे कुछ भी नहीं चाहते, तो वे देवता अथवा स्वयं मैं भी उनको कुछ देना चाहता, तो भी वे ऐसा ही कहते कि 'हे प्रभो! आप हमारे हैं और हम आपके हैं- आपके साथ इस अपनेपनसे भी बढ़कर कुछ और (भोग तथा ऐश्वर्य) होता, तो हम आपसे चाहते भी और माँगते भी। अब आप ही बताइये, इससे बढ़कर क्या है ?' इस तरहके भाववाले वे मेरेको ही आनन्द देनेवाले बन जाते, तो फिर वे तुच्छ और क्षणभंगुर देवलोकोंको प्राप्त नहीं होते।
"पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ' - जो सकामभावसे पितरोंका पूजन करते हैं, उनको पितरोंसे कई तरहकी सहायता मिलती है। इसलिये लौकिक सिद्धि चाहनेवाले मनुष्य पितरोंके व्रतोंका, नियमोंका, पूजन विधियोंका सांगोपांग पालन करते हैं और पितरोंको अपना इष्ट मानते हैं। उनको अधिक-से-अधिक और ऊँचा-से-ऊँचा फल यह मिलेगा कि पितर उनको अपने लोकमें ले जायेंगे। इसलिये यहाँ कहा गया कि पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं।
'भूतानि यान्ति भूतेज्याः ' - तामस स्वभाववाले मनुष्य सकामभावपूर्वक भूत-प्रेतोंका पूजन करते हैं और उनके नियमोंको धारण करते हैं। जैसे, मन्त्र जपके लिये गधेकी पूँछके बालोंका धागा बनाकर उसमें ऊँटके दाँतोंकी मणियाँ पिरोना, रात्रिमें श्मशानमें जाकर और मुर्देपर बैठकर भूत-प्रेतोंके मन्त्रोंको जपना, मांस-मदिरा आदि महान् अपवित्र चीजोंसे भूत-प्रेतोंका पूजन करना आदि-आदि। इससे अधिक-से-अधिक उनकी सांसारिक कामनाएँ सिद्ध हो सकती हैं। मरनेके बाद तो उनकी दुर्गति ही होगी अर्थात् उनको भूत-प्रेतकी योनि प्राप्त होगी। इसलिये यहाँ कहा गया कि भूतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं।"
"यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्' - जो अनन्यभावसे किसी भी तरह मेरे भजन, पूजन और चिन्तनमें लग जाते हैं, वे निश्चितरूपसे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।
विशेष बात
सांसारिक भोग और ऐश्वर्यकी कामनावाले मनुष्य अपने-अपने इष्टके पूजन आदिमें तत्परतासे लगे रहते हैं और इष्टकी प्रसन्नताके लिये सब काम करते हैं; परन्तु भगवान् के भजन-ध्यानमें लगनेवाले जिस तत्त्वको प्राप्त होते हैं, उसको प्राप्त न होकर वे बार-बार सांसारिक तुच्छ भोगोंको और नरकों तथा चौरासी लाख योनियोंको प्राप्त होते रहते हैं। इस तरह जो मनुष्यजन्म पाकर भगवान् के साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़कर उनको भी आनन्द देनेवाले हो सकते थे, वे सांसारिक तुच्छ कामनाओंमें फँसकर और तुच्छ देवता, पितर आदिके फेरेमें पड़कर कितनी अनर्थ परम्पराको प्राप्त होते हैं! इसलिये मनुष्यको बड़ी सावधानीसे केवल भगवान् में ही लग जाना चाहिये।
देवता, पितर, ऋषि, मुनि, मनुष्य आदिमें भगवद्बुद्धि हो और निष्कामभावपूर्वक केवल उनकी पुष्टिके लिये, उनके हितके लिये ही उनकी सेवा-पूजा की जाय, तो भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। इन देवता आदिको भगवान् से अलग मानना और अपना सकामभाव रखना ही पतनका कारण है।"
"भूत, प्रेत, पिशाच आदि योनि ही अशुद्ध है और उनकी पूजा-विधि, सामग्री, आराधना आदि भी अत्यन्त अपवित्र है। इनका पूजन करनेवाले इनमें न तो भगवद्बुद्धि कर सकते हैं* और न निष्कामभाव ही रख सकते हैं।
- अगर भक्तका किसी भूत-प्रेतमें भगवद्भाव हो भी जाय तो उस भूत-प्रेतका उद्धार हो जाता है और भक्तको भगवान् के दर्शन हो जाते हैं। जैसे, भक्त नामदेवजीको एक बार लम्बे कदका एक भयंकर प्रेत दिखायी दिया तो वे उसे भगवत्स्वरूप ही समझकर प्रसन्नतापूर्वक कह उठे-
भले पधारे लम्बकनाथ ! धरनी पाँव, स्वर्ग लों माथा, जोजन भरके लाँबे हाथ ॥
सिव सनकादिक पार न पावें, अनगिन साज सजाये साथ।
नामदेवके तुम ही स्वामी, कीजै मोकों आज सनाथ ।।
इससे उस प्रेतका उद्धार हो गया और उसकी जगह भगवान् प्रकट हो गये !
इसलिये उनका तो सर्वथा पतन ही होता है। इस विषयमें थोड़े वर्ष पहलेकी एक सच्ची घटना है। कोई 'कर्णपिशाचिनी' की उपासना करनेवाला था। उसके पास कोई भी कुछ पूछने आता, तो वह उसके बिना पूछे ही बता देता कि यह तुम्हारा प्रश्न है और यह उसका उत्तर है। इससे उसने बहुत रुपये कमाये।"
"अब उस विद्याके चमत्कारको देखकर एक सज्जन उसके पीछे पड़ गये कि 'मेरेको भी यह विद्या सिखाओ, मैं भी इसको सीखना चाहता हूँ।' तो उसने सरलतासे कहा कि 'यह विद्या चमत्कारी तो बहुत है, पर वास्तविक हित, कल्याण करनेवाली नहीं है।' उससे यह पूछा गया कि 'आप दूसरेके बिना कहे ही उसके प्रश्नको और
उत्तरको कैसे जान जाते हो ?' तो उसने कहा कि 'मैं अपने कानमें विष्ठा लगाये रखता हूँ। जब कोई पूछने आता है, तो उस समय कर्णपिशाचिनी आकर मेरे कानमें उसका प्रश्न और प्रश्नका उत्तर सुना देती है और मैं वैसा ही कह देता हूँ।' फिर उससे पूछा गया कि 'आपका मरना कैसे होगा-इस विषयमें आपने कुछ पूछा है कि नहीं?' इसपर उसने कहा कि 'मेरा मरना तो नर्मदाके किनारे होगा'। उसका शरीर शान्त होनेके बाद पता लगा कि जब वह (अपना अन्त-समय जानकर) नर्मदामें जाने लगा, तब कर्णपिशाचिनी सूकरी बनकर उसके सामने आ गयी। उसको देखकर वह नर्मदाकी तरफ भागा, तो कर्णपिशाचिनीने उसको नर्मदामें जानेसे पहले ही किनारेपर मार दिया। कारण यह था कि अगर वह नर्मदामें मरता तो उसकी सद्गति हो जाती। परन्तु कर्णपिशाचिनीने उसकी सद्गति नहीं होने दी और उसको नर्मदाके किनारेपर ही मारकर अपने साथ ले गयी।"
"इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवता, पितर आदिकी उपासना स्वरूपसे त्याज्य नहीं है; परन्तु भूत, प्रेत, पिशाच आदिकी उपासना स्वरूपसे ही त्याज्य है। कारण कि देवताओंमें भगवद्भाव और निष्कामभाव हो, तो उनकी उपासना भी कल्याण करनेवाली है। परन्तु भूत, प्रेत आदिकी उपासना करनेवालोंकी कभी सद्गति होती ही नहीं, दुर्गति ही होती है।
हाँ, पारमार्थिक साधक भूत-प्रेतोंके उद्धारके लिये उनका श्राद्ध-तर्पण कर सकते हैं। कारण कि उन भूत-प्रेतोंको अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करना ही पतनका कारण है। उनके उद्धारके लिये श्राद्ध-तर्पण करना अर्थात् उनको पिण्ड-जल देना कोई दोषकी बात नहीं है। सन्त-महात्माओंके द्वारा भी अनेक भूत-प्रेतोंका उद्धार हुआ है।"
"परिशिष्ट भाव - 'व्रत' का अर्थ है- नियम। अतः 'देवव्रत' शब्दका अर्थ हुआ-देवताओंकी उपासनाके नियमोंको धारण करना (गीता - सातवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक)। भगवान् के शरण होकर उन्हींके लिये कर्म करना भगवान् का पूजन है- 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः' (गीता १८ । ४६)।
मात्र क्रियाओंको भगवान् के अर्पण करनेसे सब भगवान् का पूजन हो जाता है (गीता- नवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। निष्कामभाव और भगवद्बुद्धि होनेसे कोई निषिद्ध क्रिया हो ही नहीं सकती; क्योंकि कामनाके कारण ही निषिद्ध क्रिया होती है (गीता- तीसरे अध्यायका छत्तीसवाँ-सैंतीसवाँ श्लोक) ।
वास्तवमें सब कुछ भगवान् का ही रूप है। परन्तु जो भगवान् के सिवाय दूसरी कोई भी स्वतन्त्र सत्ता मानता है, उसका उद्धार नहीं होता। वह ऊँचे-से-ऊँचे लोकोंमें भी चला जाय तो भी उसको लौटकर संसारमें आना ही पड़ता है (गीता-आठवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)।
सम्बन्ध-देवताओंके पूजनमें तो बहुत-सी सामग्री, नियमों और विधियोंकी आवश्यकता होती है, फिर आपके पूजनमें तो और भी ज्यादा कठिनता होती होगी? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।"
❓ आज का प्रश्न (MCQ – उत्तर कल)
प्रश्न: श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार समस्त यज्ञों का सच्चा भोक्ता कौन है?
A. ब्रह्मा जी B. इंद्र देव C. श्रीकृष्ण D. सूर्य देव
📝 अपना उत्तर कमेंट में ज़रूर लिखें 📌 सही उत्तर मिलेगा कल के एपिसोड में!
🧩 आज की समस्या और समाधान (Life Application)
समस्या: "मैं रोज़ पूजा करता हूँ, लेकिन शांति और फल की अनुभूति नहीं होती। लगता है जैसे मेरी भक्ति व्यर्थ जा रही है।"
समाधान (श्लोक आधारित): श्रीकृष्ण कहते हैं — अगर पूजा की भावना में सही ज्ञान नहीं है कि ‘भोक्ता भगवान ही हैं’, तो वह पूजा लक्ष्य तक नहीं पहुँचती।
✅ तो क्या करें? जब भी पूजा करें, मन में एक भावना रखें – 👉 "हे श्रीकृष्ण! यह सब आपके ही चरणों में समर्पित है। आप ही इसके भोक्ता हैं।" ऐसी भावना से पूजा का प्रभाव और फल दोनों निश्चित होता है।
"कल जानेंगे — आप जिस देवता को पूजते हैं, उसी लोक में जाते हैं! यह श्लोक बहुत रहस्यमय और मार्गदर्शक है, जो बताता है कि आपकी भक्ति आपकी गति तय करती है। कल जरूर आइए!"
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