गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 14 - क्या सच्चे भक्त हमेशा भगवान का भजन करते हैं?

 



॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 14 - क्या सच्चे भक्त हमेशा भगवान का भजन करते हैं?
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""क्या आप जानते हैं कि सच्चे भक्त भगवान की भक्ति में हमेशा लीन रहते हैं?""
आज हम श्रीमद्भगवद गीता के अध्याय 9, श्लोक 14 की व्याख्या करेंगे, जिसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि भक्तजन हमेशा प्रेमपूर्वक उनकी भक्ति में मग्न रहते हैं और बिना किसी रुकावट के भगवान का भजन करते हैं।

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पिछले श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 13) में हमने जाना कि सच्चे भक्त दैवी स्वभाव वाले होते हैं, अहंकार और मोह से मुक्त रहते हैं और पूर्ण श्रद्धा के साथ भगवान की भक्ति करते हैं।
"💡 ""क्या सच्चे भक्तों की भक्ति कभी रुकती है?""
श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि जो भक्त निरंतर भगवान की आराधना करते हैं, वे हमेशा उनके नाम का जप करते हैं, पूर्ण श्रद्धा से कीर्तन करते हैं और प्रेमपूर्वक भक्ति करते हैं।

✅ सच्चे भक्त की 3 विशेषताएँ:
1️⃣ वे भगवान के नाम का नित्य जप करते हैं।
2️⃣ वे बिना किसी स्वार्थ के कीर्तन करते हैं।
3️⃣ वे निरंतर भक्ति करते हुए भगवान की आराधना में मग्न रहते हैं।"
"श्री हरि 

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""





"(श्लोक-१४)

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥

उच्चारण की विधि - सततम्, कीर्तयन्तः, माम्, यतन्तः, च, दृढव्रताः, नमस्यन्तः, च, माम्, भक्त्या, नित्ययुक्ताः, उपासते ॥ १४ ॥

शब्दार्थ - दृढव्रताः अर्थात् दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन, सततम् अर्थात् निरन्तर, कीर्तयन्तः अर्थात् मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए, च अर्थात् तथा (मेरी प्राप्तिके लिये), यतन्तः अर्थात् यत्न करते हुए, च और, माम् अर्थात् मुझको (बार-बार), नमस्यन्तः अर्थात् प्रणाम करते हुए, नित्ययुक्ताः अर्थात् सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर, भक्त्या अर्थात् अनन्य प्रेमसे, माम् अर्थात् मेरी, उपासते अर्थात् उपासना करते हैं। 

अर्थ - वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं ॥ १४ ॥"
"व्याख्या 'नित्ययुक्ताः' - मात्र मनुष्य भगवान् में ही नित्ययुक्त रह सकते हैं, हरदम लगे रह सकते हैं, सांसारिक भोगों और संग्रहमें नहीं। कारण कि समय-समयपर भोगोंसे भी ग्लानि होती है और संग्रहसे भी उपरति होती है। परन्तु भगवान् की प्राप्तिका, भगवान् की तरफ चलनेका जो एक उद्देश्य बनता है, एक दृढ़ विचार होता है, उसमें कभी भी फरक नहीं पड़ता।

भगवान् का अंश होनेसे जीवका भगवान् के साथ अखण्ड सम्बन्ध है। मनुष्य जबतक उस सम्बन्धको नहीं पहचानता, तभीतक वह भगवान् से विमुख रहता है, अपनेको भगवान् से अलग मानता है। परन्तु जब वह भगवान् के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचान लेता है, तो फिर वह भगवान् के सम्मुख हो जाता है, भगवान् से अलग नहीं रह सकता और उसको भगवान् के सम्बन्धकी विस्मृति भी नहीं होती - यही उसका 'नित्ययुक्त' रहना है।"
मनुष्यका भगवान् के साथ 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं'- ऐसा जो स्वयंका सम्बन्ध है, वह जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति- इन अवस्थाओंमें, एकान्तमें भजन-ध्यान करते हुए अथवा सेवारूपसे संसारके सब काम करते हुए भी कभी खण्डित नहीं होता, अटलरूपसे सदा ही बना रहता है। जैसे मनुष्य अपनेको जिस माँ-बापका मान लेता है, सब काम करते हुए भी उसका 'मैं अमुकका लड़का हूँ' यह भाव सदा बना रहता है। उसको याद रहे चाहे न रहे, वह याद करे चाहे न करे, पर यह भाव हरदम रहता है; क्योंकि 'मैं अमुकका लड़का हूँ'-यह भाव उसके 'मैं' पनमें बैठ गया है ऐसे ही जो 'अनादि, अविनाशी, सर्वोपरि भगवान् ही मेरे हैं और मैं उनका ही हूँ' - इस वास्तविकताको जान लेता है, मान लेता है, तो यह भाव हरदम बना रहता है। इस प्रकार भगवान् के साथ अपना वास्तविक सम्बन्ध मान लेना ही 'नित्ययुक्त' होना है।
दृढव्रताः'- जो सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं, वे जो पारमार्थिक निश्चय करते हैं, वह निश्चय दृढ़ नहीं होता (गीता- दूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक)। परन्तु जिन्होंने भीतरसे ही अपने मैं-पनको बदल दिया है कि 'हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं', उनका यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि 'हम संसारके नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है'; अतः हमें सांसारिक भोग और संग्रहकी तरफ कभी जाना ही नहीं है, प्रत्युत भगवान् के नाते केवल सेवा कर देनी है। इस प्रकार उनका निश्चय बहुत दृढ़ होता है। अपने निश्चयसे वे कभी विचलित नहीं होते। कारण कि उनका उद्देश्य भगवान् का है और वे स्वयं भी भगवान् के अंश हैं। उनके निश्चयमें अदृढ़ता आनेका प्रश्न ही नहीं है। अदृढ़ता तो सांसारिक निश्चयमें आती है, जो कि टिकनेवाला नहीं है।
"यतन्तश्च' जैसे सांसारिक मनुष्य कुटुम्बका पालन करते हैं तो ममतापूर्वक करते हैं, रुपये कमाते हैं तो लोभपूर्वक कमाते हैं, ऐसे ही भगवान् के भक्त भगवत्प्राप्तिके लिये यत्न (साधन) करते हैं तो लगनपूर्वक ही करते हैं। उनके प्रयत्न सांसारिक दीखते हुए भी वास्तवमें सांसारिक नहीं होते; क्योंकि उनके प्रयत्नमात्रका उद्देश्य भगवान् ही होते हैं।

'भक्त्या कीर्तयन्तो माम्' - वे भक्त प्रेमपूर्वक कभी भगवान् के नामका कीर्तन करते हैं, कभी नाम-जप करते हैं, कभी पाठ करते हैं, कभी नित्यकर्म करते हैं, कभी भगवत्-सम्बन्धी बातें सुनाते हैं; आदि-आदि। वे जो कुछ वाणी-सम्बन्धी क्रियाएँ करते हैं, वह सब भगवान् का स्तोत्र ही होता है- 'स्तोत्राणि सर्वा गिरः ।'"
"नमस्यन्तश्च' - वे भक्तिपूर्वक भगवान् को नमस्कार करते हैं। उनमें सद्गुण-सदाचार आते हैं, उनके द्वारा भगवान् के अनुकूल कोई चेष्टा होती है, तो वे इस भावसे भगवान् को नमस्कार करते हैं कि 'हे नाथ! यह सब आपकी कृपासे ही हो रहा है। आपकी तरफ इतनी अभिरुचि और तत्परता मेरे उद्योगसे नहीं हुई है। अतः इन सद्गुण-सदाचारोंको, इस साधनको आपकी कृपासे हुआ समझकर मैं तो आपको केवल नमस्कार ही कर सकता हूँ।

'सततं मां उपासते' - इस प्रकार मेरे अनन्यभक्त निरन्तर मेरी उपासना करते हैं। निरन्तर उपासना करनेका तात्पर्य है कि वे कीर्तन नमस्कार आदिके सिवाय जो भी खाना-पीना, सोना-जगना तथा व्यापार करना, खेती करना आदि साधारण क्रियाएँ करते हैं, उन सबको भी मेरे लिये ही करते हैं। उनकी सम्पूर्ण लौकिक, पारमार्थिक क्रियाएँ केवल मेरे उद्देश्यसे, मेरी प्रसन्नताके लिये ही होती हैं।"
"परिशिष्ट भाव - भक्त जो कुछ कहता है, वह सब भगवान् का ही कीर्तन है। वह जो कुछ क्रिया करता है, वह सब भगवान् की ही सेवा है * (गीता-नवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। अनित्य संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके कारण भक्त नित्ययुक्त होते हैं।

* कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्याऽऽत्मना वानुसृतस्वभावात् । करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत् ।।

(श्रीमद्भा०११।२।३६)

'शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहंकारसे अथवा अनुगत स्वभावसे मनुष्य जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान् नारायणके लिये ही है, इस भावसे उन्हें समर्पित कर दे।'"
"संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥

(शिवमानसपूजा)

'हे शम्भो ! मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं। मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है।'

सम्बन्ध-अनित्य संसारसे सम्बन्ध विच्छेद करके नित्य-तत्त्वकी तरफ चलनेवाले साधक कई प्रकारके होते हैं। उनमेंसे भक्तिके साधकोंका वर्णन पीछेके दो श्लोकोंमें कर दिया, अब दूसरे साधकोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।"

"📌 कल हम चर्चा करेंगे कि विभिन्न प्रकार के भक्त भगवान की आराधना किस-किस रूप में करते हैं।

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