भगवान को जानना संभव है? | श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 श्लोक 14 | #JagatKaSaar 🌟

 


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

🕉️ गीता का सार अध्याय 10 श्लोक 14 - भगवान के अद्भुत स्वरूप को जानना असंभव क्यों है🌺


रुकिए! एक सवाल है आपसे — क्या वाकई आप इस दिव्य ज्ञान को अधूरा छोड़ना चाहेंगे? सोचिए ज़रा… जब किसी को प्रभु की वाणी सुनने का सौभाग्य मिलता है, तो क्या वह यूँ ही जाने दिया जाता है? अगर आप अब तक सुन रहे हैं, तो समझ लीजिए — ये कोई संयोग नहीं, ये प्रभु की विशेष कृपा है। आपके कानों तक जो शब्द पहुँच रहे हैं, वो सिर्फ आवाज़ नहीं… वो उस परम शक्ति का संदेश है, जो आपको कुछ कहना चाहती है। हम तो बस एक ज़रिया हैं — असली संदेशवाहक तो वही हैं। तो बताइए… क्या आप इस अनमोल अवसर को अधूरा छोड़ना चाहेंगे या अंत तक साथ चलेंगे?


🔄 पिछले श्लोक 10.12-13 में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की महानता का वर्णन किया। उन्होंने भगवान को परम पुरुष, परम पवित्र, सनातन, दिव्य आदि नामों से पुकारा। आज हम इस भाव को और गहराई से समझेंगे।


📖 सर्वमेवेदमृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥



भावार्थ: हे केशव! आप जो कुछ भी कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवान! न तो देवता और न ही दानव आपकी दिव्य महिमा को पूर्णतया जान सकते हैं।

🌟 Today's Introduction:

आज अर्जुन अपनी श्रद्धा को व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि हे प्रभु! आप जो कह रहे हैं, वही सत्य है। इस संसार में कोई भी आपके स्वरूप, आपकी महिमा को पूर्णतः नहीं जान सकता — ना देवता और ना ही दानव। यह श्लोक हमें विश्वास (श्रद्धा) और विनम्रता (विनय) का सुंदर संदेश देता है।


"श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥


अर्जुनद्वारा भगवान्‌के प्रभावका वर्णन । (श्लोक-१४)

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥

उच्चारण की विधि - सर्वम्, एतत्, ऋतम्, मन्ये, यत्, माम्, वदसि, केशव, न, हि, ते, भगवन्, व्यक्तिम्, विदुः, देवाः, न, दानवाः ॥ १४ ॥

शब्दार्थ - केशव अर्थात् हे केशव !, यत् अर्थात् जो (कुछ भी), माम् अर्थात् मेरे प्रति, वदसि अर्थात् आप कहते हैं, एतत् अर्थात् इस, सर्वम् अर्थात् सबको (मैं), ऋतम् अर्थात् सत्य, मन्ये अर्थात् मानता हूँ, भगवन् अर्थात् हे भगवन्!, ते अर्थात् आपके, व्यक्तिम् अर्थात् लीलामय*, स्वरूपको, न अर्थात् न (तो), दानवाः अर्थात् दानव, विदुः अर्थात् जानते हैं (और), न अर्थात् न, देवाः अर्थात् देवता, हि अर्थात् ही।

अर्थ - हे केशव ! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके लीलामय * स्वरूपको न तो दानव जानते हैं और न देवता ही ॥ १४ ॥


व्याख्या 'सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव'-'क' नाम ब्रह्माका है, 'अ' नाम विष्णुका है, 'ईश' नाम शंकरका है और 'व' नाम वपु अर्थात् स्वरूपका है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जिसके स्वरूप हैं, उसको 'केशव' कहते हैं। अर्जुनका यहाँ 'केशव' सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप ही संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं।

सातवेंसे नवें अध्यायतक मेरे प्रति आप 'यत्'- जो कुछ कहते आये हैं, वह सब मैं सत्य मानता हूँ; और 'एतत्' - अभी दसवें अध्यायमें आपने जो विभूति तथा योगका वर्णन किया है, वह सब भी मैं सत्य मानता हूँ। तात्पर्य है कि आप ही सबके उत्पादक और संचालक हैं। आपसे भिन्न कोई भी ऐसा नहीं हो सकता। आप ही सर्वोपरि हैं। इस प्रकार सबके मूलमें आप ही हैं- इसमें मेरेको कोई सन्देह नहीं है।


भक्तिमार्गमें विश्वासकी मुख्यता है। भगवान् ने पहले श्लोकमें अर्जुनको परम वचन सुननेके लिये आज्ञा दी थी, उसी परम वचनको अर्जुन यहाँ 'ऋतम्' अर्थात् सत्य कहकर उसपर विश्वास प्रकट करते हैं।

'न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः'-आपने (गीता-चौथे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें) कहा है कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। इसी प्रकार आपने (दसवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें) कहा है कि मेरे प्रकट होनेको देवता और महर्षि भी नहीं जानते। अपने प्रकट होनेके विषयमें आपने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। कारण कि मनुष्योंकी अपेक्षा देवताओंमें जो दिव्यता है, वह दिव्यता भगवत्तत्त्वको जाननेमें कुछ भी काम नहीं आती। वह दिव्यता प्राकृत - उत्पन्न और नष्ट होनेवाली है। इसलिये वे आपके प्रकट होनेके तत्त्वको, हेतुको पूरा-पूरा नहीं जान सकते। जब देवता भी नहीं जान सकते, तो दानव जान ही कैसे सकते हैं? फिर भी यहाँ 'दानवाः' पद देनेका तात्पर्य यह है कि दानवोंके पास बहुत विलक्षण-विलक्षण माया है, जिससे वे विचित्र प्रभाव दिखा सकते हैं। परन्तु उस माया-शक्तिसे वे भगवान् को नहीं जान सकते। भगवान् के सामने दानवोंकी माया कुण्ठित हो जाती है। कारण कि प्रकृति और प्रकृतिकी जितनी शक्तियाँ हैं, उन सबसे भगवान् अतीत हैं। भगवान् अनन्त हैं, असीम हैं और दानवोंकी माया-शक्ति कितनी ही विलक्षण होनेपर भी प्राकृत, सीमित और उत्पत्ति-विनाशशील है। सीमित और नाशवान् वस्तुके द्वारा असीम और अविनाशी तत्त्वको कैसे जाना जा सकता है।


तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य, देवता, दानव आदि कोई भी अपनी शक्तिसे, सामर्थ्यसे, योग्यतासे, बुद्धिसे भगवान् को नहीं जान सकते। कारण कि मनुष्य आदिमें जितनी जाननेकी योग्यता, सामर्थ्य, विशेषता है, वह सब प्राकृत है और भगवान् प्रकृतिसे अतीत हैं। त्याग, वैराग्य, तप, स्वाध्याय आदि अन्तःकरणको निर्मल करनेवाले हैं, पर इनके बलसे भी भगवान् को नहीं जान सकते। भगवान् को तो अनन्यभावसे उनके शरण होकर उनकी कृपासे ही जान सकते हैं (गीता - दसवें अध्यायका ग्यारहवाँ और ग्यारहवें अध्यायका चौवनवाँ श्लोक)।

परिशिष्ट भाव - भगवान् को अपनी शक्तिसे कोई जान नहीं सकता, प्रत्युत भगवान् की कृपासे ही जान सकता है

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥ तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन ॥ (मानस २। १२७।२)

भगवान् के यहाँ बुद्धिके चमत्कार, सिद्धियाँ नहीं चल सकतीं। बड़े-बड़े भौतिक आविष्कारोंसे कोई भगवान् को नहीं जान सकता।"


📅 कल हम चर्चा करेंगे अध्याय 10 श्लोक 15 पर, जहाँ अर्जुन और भी गहराई से भगवान के ज्ञान और स्वरूप के बारे में बात करेंगे।


🔥 आज की सीख से:

समस्या:

कई बार हम सोचते हैं कि हमें सब कुछ जानना चाहिए — चाहे भगवान हों या जीवन के रहस्य। परंतु यह अहंकार हमें सही मार्ग से भटका देता है।

समाधान:

आज के श्लोक से सीखें कि सबसे पहले "स्वीकार" करना है कि ईश्वर को पूर्णतः जान पाना मनुष्य की सीमा से परे है। बस श्रद्धा से स्वीकार करें और आगे बढ़ें।


प्रश्न: भगवान के किस स्वरूप को देवता और दानव भी पूरी तरह नहीं जान पाते?

Option A: केवल शरीर का स्वरूप

Option B: भगवान की संपूर्ण सत्ता

Option C: भगवान का नाम

Option D: भगवान का धाम (आवास)


सही उत्तर है — Option B: भगवान की संपूर्ण सत्ता।

जैसा अर्जुन ने कहा, देवता और दानव भी भगवान के सम्पूर्ण रहस्य को नहीं जानते। भगवान अनंत हैं, अपरिमेय हैं, और उन्हें केवल भक्ति से ही जाना जा सकता है।

[Small Moral Tip:] इसलिए, हमें भी भगवान को समझने के लिए भक्ति, विनम्रता और समर्पण का मार्ग अपनाना चाहिए।


📖 Book Paid Promotion (आज का प्रमोशन):

📚 Speaking Bhagavad Gita in 16 Languages क्यों खास?

  • 16 भाषाओं में सरल गीता वाचन
  • हर भाषा में भावार्थ और व्याख्या
  • आध्यात्मिक साधकों और विद्यार्थियों के लिए अद्भुत गाइड

👉 यहाँ से खरीदें


🧘"हर दिन हम गीता के एक नए श्लोक की गहराई से व्याख्या करते हैं, जिससे आपको आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन में मार्गदर्शन मिले।

🌟 कमेंट करें और अपने अनुभव साझा करें!

क्या आपने कभी गीता से किसी समस्या का समाधान पाया है?

कहते हैं कि अगर आप किसी समस्या से गुजर रहे हैं, तो श्रीमद्भगवद्गीता का चमत्कारिक प्रभाव यही है कि आप प्रभुजी का नाम लेकर कोई भी पृष्ठ खोलें, और उसके दाहिने पृष्ठ पर जो पहली पंक्ति होगी, वही आपकी समस्या का समाधान होगी।

क्या आपने कभी इसे आजमाया है?

🤔 अगर हाँ, तो हमें बताएं कि आज आपने कौन सा श्लोक पढ़ा और उससे क्या सीखा?

📢 कमेंट करें और अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें! हो सकता है कि आपका अनुभव किसी और के लिए मार्गदर्शन बन जाए! 🙏

Comments

Popular posts from this blog

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 34 - 🧠 मन, बुद्धि और भक्ति से पाओ भगवान को!