ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 43 से 45 #BhagavadGit...
ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 43 से 45 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 43 से 45
"(श्लोक-४३)
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥
एतैः = इन, वर्णसङ्करकारकैः वर्णसंकर पैदा करनेवाले, दोषैः दोषोंसे, कुलघ्नानाम् = कुलघातियोंके, शाश्वताः सदासे चलते आये, कुलधर्माः = कुलधर्म, च = और, जातिधर्माः जातिधर्म, उत्साद्यन्ते नष्ट हो जाते हैं।
व्याख्या 'दोषैरेतैः कुलघ्नानाम्..... कुलधर्माश्च शाश्वताः'- युद्धमें कुलका क्षय होनेसे कुलके साथ चलते आये कुलधर्मोंका भी नाश हो जाता है। कुलधर्मोंके नाशसे कुलमें अधर्मकी वृद्धि हो जाती है। अधर्मकी वृद्धिसे स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियोंके दूषित होनेसे वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं। इस तरह इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलका नाश करनेवालोंके जातिधर्म (वर्णधर्म) नष्ट हो जाते हैं।
कुलधर्म और जातिधर्म क्या हैं? एक ही जातिमें एक कुलकी जो अपनी अलग-अलग परम्पराएँ हैं, अलग-अलग मर्यादाएँ हैं, अलग-अलग आचरण हैं, वे सभी उस कुलके 'कुलधर्म' कहलाते हैं। एक ही जातिके सम्पूर्ण कुलोंके समुदायको लेकर जो धर्म कहे जाते हैं, वे सभी 'जातिधर्म' अर्थात् 'वर्णधर्म' कहलाते हैं, जो कि सामान्य धर्म हैं और शास्त्रविधिसे नियत हैं। इन कुलधर्मोंका और जातिधर्मोंका आचरण न होनेसे ये धर्म नष्ट हो जाते हैं।"
"(श्लोक-४४)
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥
जनार्दन = हे जनार्दन!, उत्सन्नकुलधर्माणाम् = जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, मनुष्याणाम् = (उन) मनुष्योंका, अनियतम् = बहुत कालतक, नरके = नरकोंमें, वासः = वास, भवति होता है, इति ऐसा (हम), अनुशुश्रुम = सुनते आये हैं।
व्याख्या 'उत्सन्नकुलधर्माणाम्.... अनुशुश्रुम *'- भगवान् ने मनुष्यको विवेक दिया है, नया कर्म करनेका अधिकार दिया है।
* शोकाविष्ट होनेके कारण ही अर्जुनने यहाँ 'अनुशुश्रुम' परोक्ष लिट्की क्रियाका प्रयोग किया है।
अतः यह कर्म करनेमें अथवा न करनेमें, अच्छा करनेमें अथवा मन्दा करनेमें स्वतन्त्र है। इसलिये इसको सदा विवेक-विचारपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने चाहिये। परन्तु मनुष्य सुखभोग आदिके लोभमें आकर अपने विवेकका निरादर कर देते हैं और राग-द्वेषके वशीभूत हो जाते हैं, जिससे उनके आचरण शास्त्र और कुलमर्यादाके विरुद्ध होने लगते हैं। परिणामस्वरूप इस लोकमें उनकी निन्दा, अपमान, तिरस्कार होता है और परलोकमें दुर्गति, नरकोंकी प्राप्ति होती है। अपने पापोंके कारण उनको बहुत समयतक नरकोंका कष्ट भोगना पड़ता है। ऐसा हम परम्परासे बड़े-बूढ़े गुरुजनोंसे सुनते आये हैं।
'मनुष्याणाम्'- पदमें कुलघाती और उनके कुलके सभी मनुष्योंका समावेश किया गया है अर्थात् कुलघातियोंके पहले जो हो चुके हैं- उन (पितरों) का, अपना और आगे होनेवाले (वंश) का समावेश किया गया है।
सम्बन्ध - युद्धसे होनेवाली अनर्थ परम्पराके वर्णनका खुद अर्जुनपर क्या असर पड़ा ? इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"(श्लोक-४५)
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥
अहो - यह बड़े आश्चर्य (और), बत खेदकी बात है कि, वयम् = हमलोग, महत्पापम् = बड़ा भारी पाप, कर्तुम् = करनेका, व्यवसिताः = निश्चय कर बैठे हैं, यत् जो कि, राज्यसुखलोभेन राज्य और सुखके लोभसे, स्वजनम् = अपने स्वजनोंको, हन्तुम् मारनेके लिये, उद्यताः = तैयार हो गये हैं।
व्याख्या 'अहो बत.... स्वजनमुद्यताः '- ये दुर्योधन आदि दुष्ट हैं। इनकी धर्मपर दृष्टि नहीं है। इनपर लोभ सवार हो गया है। इसलिये ये युद्धके लिये तैयार हो जायँ तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। परन्तु हमलोग तो धर्म- अधर्मको, कर्तव्य-अकर्तव्यको, पुण्य-पापको जाननेवाले हैं। ऐसे जानकार होते हुए भी अनजान मनुष्योंकी तरह हमलोगोंने बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय-विचार कर लिया है। इतना ही नहीं, युद्धमें अपने स्वजनोंको मारनेके लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं! यह हमलोगोंके लिये बड़े भारी आश्चर्यकी और खेद (दुःख) की बात है अर्थात् सर्वथा अनुचित बात है।
हमारी जो जानकारी है, हमने जो शास्त्रोंसे सुना है, गुरुजनोंसे शिक्षा पायी है, अपने जीवनको सुधारनेका विचार किया है, उन सबका अनादर करके आज हमने युद्धरूपी पाप करनेके लिये विचार कर लिया है- यह बड़ा भारी
पाप है- 'महत्पापम्'।
इस श्लोकमें 'अहो' और 'बत'- ये दो पद आये हैं। इनमेंसे 'अहो' पद आश्चर्यका वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्धसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको जानते हुए भी हमलोगोंने युद्धरूपी बड़ा भारी पाप करनेका पक्का निश्चय कर लिया है! दूसरा 'बत' पद खेदका, दुःखका वाचक है। दुःख यही है कि थोड़े दिन रहनेवाले राज्य और सुखके लोभमें आकर हम अपने कुटुम्बियोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं!
पाप करनेका निश्चय करनेमें और स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार होनेमें केवल राज्यका और सुखका लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्धमें हमारी विजय हो जायगी तो हमें राज्य, वैभव मिल जायगा, हमारा आदर- सत्कार होगा, हमारी महत्ता बढ़ जायगी, पूरे राज्यपर हमारा प्रभाव रहेगा, सब जगह हमारा हुक्म चलेगा, हमारे पास धन होनेसे हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे, फिर खूब आराम करेंगे, सुख भोगेंगे- इस तरह हमारेपर राज्य और सुखका लोभ छा गया है, जो हमारे-जैसे मनुष्योंके लिये सर्वथा अनुचित है।
इस श्लोकमें अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्विचारोंका, अपनी जानकारीका आदर करनेसे ही शास्त्र, गुरुजन आदिकी आज्ञा मानी जा सकती है। परन्तु जो मनुष्य अपने सद्विचारोंका निरादर करता है, वह शास्त्रोंकी, गुरुजनोंकी और सिद्धान्तोंकी अच्छी-अच्छी बातोंको सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारोंका बार-बार निरादर, तिरस्कार करनेसे सद्विचारोंकी सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्यको दुर्गुण-दुराचारसे रोकनेवाला है ही कौन ? ऐसे ही हम भी अपनी जानकारीका आदर नहीं करेंगे, तो फिर हमें अनर्थ-परम्परासे कौन रोक सकता है? अर्थात् कोई नहीं रोक सकता।
यहाँ अर्जुनकी दृष्टि युद्धरूपी क्रियाकी तरफ है। वे युद्धरूपी क्रियाको दोषी मानकर उससे हटना चाहते हैं; परन्तु वास्तवमें दोष क्या है- इस तरफ अर्जुनकी दृष्टि नहीं है। युद्धमें कौटुम्बिक मोह, स्वार्थभाव, कामना ही दोष है, पर इधर दृष्टि न जानेके कारण अर्जुन यहाँ आश्चर्य और खेद प्रकट कर रहे हैं, जो कि वास्तवमें किसी भी विचारशील, धर्मात्मा, शूरवीर क्षत्रियके लिये उचित नहीं है।
[अर्जुनने पहले अड़तीसवें श्लोकमें दुर्योधनादिके युद्धमें प्रवृत्त होनेमें, कुलक्षयके दोषमें और मित्रद्रोहके पापमें लोभको कारण बताया; और यहाँ भी अपनेको राज्य और सुखके लोभके कारण महान् पाप करनेको उद्यत बता रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन पापके होनेमें 'लोभ' को हेतु मानते हैं। फिर भी आगे तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनने 'मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों कर बैठता है'- ऐसा प्रश्न क्यों किया ? इसका समाधान है कि यहाँ तो कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मान रहे हैं अर्थात् उनकी शरीर आदिको लेकर केवल लौकिक दृष्टि है, इसलिये वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें लोभको हेतु मान रहे हैं। परन्तु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने श्रेय- कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी (गीता-तीसरे अध्यायका दूसरा श्लोक)। इसलिये वे कर्तव्यको छोड़कर न करनेयोग्य काममें प्रवृत्त होनेमें कौन कारण है-ऐसा पूछते हैं अर्थात् वहाँ (तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें) अर्जुन कर्तव्यकी दृष्टिसे, साधककी दृष्टिसे पूछते हैं।]
सम्बन्ध-आश्चर्य और खेदमें निमग्न हुए अर्जुन आगेके श्लोकमें अपनी दलीलोंका अन्तिम निर्णय बताते हैं।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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